सृजनात्मकता के क्षितिज
रचनात्मक व बौद्धिक हस्तक्षेप के सहकारी उपक्रम ‘संगमन’ का 24वाँ संस्करण गत 12-13 नवंबर को चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) में आयोजित हुआ। इस बार का विषय रहा—‘सृजनात्मकता के क्षितिज’। दो दिनों में तीन सत्रों में संपन्न हुए इस आयोजन में 30 से अधिक लेखकों-कलाकारों की भागीदारी रही, जिन्हें रचनात्मक और बौद्धिक व्याकुलताओं से भरे श्रोताओं की भरपूर उपस्थिति ने बहुत ध्यान से सुना-समझा। संवाद के शिल्प में घटित ‘संगमन’ ने इस बार विषय, तकनीक से तालमेल और गरिमा के स्तर पर मौलिक, नए और अभूतपूर्व आयाम स्पर्श किए। इसका श्रेय ‘संगमन’ के सूत्रधार प्रियंवद ने आयोजन के अंत में बोलते हुए बहुत विनम्रतापूर्वक स्थानीय संयोजकों को दिया।
पहले सत्र की शुरुआत में नई पीढ़ी के लेखक और संगमन-24 के स्थानीय संयोजकों में से एक विष्णु कुमार शर्मा ने अत्यंत कुशलता से ‘संगमन’ का परिचय दिया।
इस सत्र का संचालन सुपरिचित आलोचक और कार्यकर्ता हिमांशु पंड्या ने किया। उन्होंने क्षितिज को छायावादी कवियों का प्रिय शब्द बताते हुए कहा कि इसका विस्तार ज़रूरी है। इसके बाद उन्होंने संगमन-24 के विषय-प्रवर्तन के लिए समादृत साहित्यकार-चिंतक नंदकिशोर आचार्य को आमंत्रित किया।
नंदकिशोर आचार्य ने सृजनात्मकता को जीवन की मूल प्रवृत्ति मानते हुए कहा कि संस्कृति को हमने एक जड़ वस्तु बना दिया है, जबकि संस्कृति निरंतर अपने को मानव-चेतना के नए आयामों में खोजती है। वह बराबर अपना संस्कार करती चलती है। उन्होंने सृजनात्मकता के क्षितिज को वास्तविक क्षितिज-सा ही माना और कहा कि आप इसकी तरफ़ जितने क़दम चलेंगे, यह उतना ही खुलता और विस्तृत होता जाएगा।
सुपरिचित कवि विनोद पदरज ने इस क्रम में शमशेर बहादुर सिंह के हवाले से कहा कि स्वयं की मनुष्यता का परिष्कार करना ही सृजनात्मकता के क्षितिज का विस्तार करना है। उन्होंने आगे कहा कि वह एक ऐसी भाषा में रचना संभव करना चाहते हैं जिससे ज़्यादा से ज़्यादा लोग आइडेंटिफ़ाई कर सकें।
संगमन-24 में सबसे दूर से आए वक्ता के रूप में कवि-लेखक-अनुवादक और पत्रकार दिनकर कुमार ने तीन भागों में विभक्त अपना पर्चा पढ़ा। उन्होंने असम और पूर्वोत्तर भारत के हालात, विस्थापन और बतौर हिंदी लेखक पूर्वोत्तर में रहकर सार्थक काम करने की संभावना पर बात की। उन्होंने महात्मा गांधी की असम-यात्रा और अनिल यादव की किताब ‘वह भी कोई देस है महराज’ के बहाने उस भ्रामक समझ को प्रश्नांकित किया जो पूरे भारत में पूर्वोत्तर को लेकर दशकों से बनी हुई है। उन्होंने कहा, ‘‘कुछ साल पहले अनिल यादव की पुस्तक ‘वह भी कोई देश है महराज’ आई। इस यात्रा-वृत्तांत की काफ़ी चर्चा हुई और हिंदी के मठाधीशों ने इसके प्रकाशन को अभूतपूर्व घटना तक कह दिया। बचपन से असम में रहने के कारण मैं विनम्रतापूर्वक कहना चाहता हूँ कि यह पूर्वोत्तर को ग़लत रोशनी में पेश करने वाली किताब है। जैसे अंधा हाथी का वर्णन करता है, उसी तरह नॉर्थ ईस्ट का वर्णन इस पुस्तक में किया गया है। मैं अधिक विस्तार में नहीं जाना चाहता। सिर्फ़ दो प्रसंगों का उल्लेख करना चाहूँगा। लेखक ने बताया है कि गुवाहाटी के पलटनबाज़ार के जिस जनता होटल में वह रुके थे, उसमें रात में वेटर रोशनदान से हर कमरे में झाँक रहे थे; चूँकि हर कमरे में कोई न कोई जिस्मफ़रोश महिला अपने ग्राहक के साथ थी। यह एक वर्णन है। गुवाहाटी में वेश्यावृत्ति का ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलता। एक और प्रसंग है जिसमें बताया गया है कि यादव जी का जो लेख राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित हुआ था, वही लेख दूसरे दिन गुवाहाटी के एक हिंदी अख़बार ‘पूर्वांचल प्रहरी’ में प्रकाशित हो गया और वह इसका पारिश्रमिक माँगने इसके मालिक अग्रवाल जी के पास पहुँच गए। अग्रवाल जी ने उनको पारिश्रमिक के बदले अपने जोरहाट ऑफ़िस में मुफ़्त रहने-खाने का प्रबंध कर दिया। असल में यादव जी जानते नहीं कि अग्रवाल जी के पास जो भी आगंतुक आता था, उसे वह खाना ज़रूर खिलाते थे। कुलदीप नैयर से लेकर मनमोहन सिंह तक उनके घर में खाना खा चुके हैं। उनके यहाँ संपादक की नौकरी करने वाले सज्जन ने उनको समझा दिया था कि लेखकों को पैसा देने की क्या ज़रूरत है, जबकि इंटरनेट पर मुफ़्त का माल कॉपी-पेस्ट करने के लिए मौजूद है। अग्रवाल जी के स्वभाव से परिचित मेरे जैसे लोगों के लिए यादव जी का वर्णन हास्य उत्पन्न करता है।’’
कवि-आलोचक सदाशिव श्रोत्रिय ने कहा कि कवि कविता लिखते हैं, पर अपनी कविता पर बात करने से कतराते हैं। इसके बाद उन्होंने अपनी एक कविता और उसकी पृष्ठभूमि पर विस्तार से बात की।
राजस्थानी और हिंदी दोनों के ही महत्त्वपूर्ण कवि अम्बिका दत्त ने कहा, ‘‘मैं कविता क्यों लिखता हूँ, इसका कोई जवाब मेरे पास नहीं है; क्योंकि इसका उत्तर मैंने जब भी खोजने की कोशिश की, मुझे बहुत फ़ॉरमूलाबद्ध और सरलीकृत उत्तर मिले।’’ उन्होंने माना कि कविता के संसार में उनके लिए अर्जित मुहावरा अब अपर्याप्त पड़ रहा है।
पहले सत्र में नंदकिशोर आचार्य के वक्तव्य के बाद जितने भी वक्तव्य हुए, उनमें आत्मपरकता का स्वर प्रमुख था; लेकिन इस सत्र का समापन करते हुए वरिष्ठ आलोचक जीवन सिंह ने फिर से पूरे विषय को व्यापक किया। उन्होंने कहा कि क्षितिज का अर्थ है—जो हमें उपलब्ध नहीं हो पाया है, वहाँ तक पहुँचना। यह दृष्टि है तो आप सृजन में कुछ नया जोड़ते हैं। साहित्य और सारी कलाएँ सुंदर का सृजन हैं, और सुंदर-सृजन कलावाद नहीं है। कार्ल मार्क्स ने भी जो सिद्धांत दिया, वह भी दुनिया को सुंदर बनाने के लिए ही दिया। पूँजीवाद दुनिया को कुरूप करता है।
पहले दिन और पहले सत्र का समापन प्रश्नोत्तर के साथ हुआ, जिसमें श्रोताओं और इस सत्र के वक्ताओं के बीच बेहद रोचक संवाद नज़र आया।
दूसरे दिन के पहले सत्र का संचालन नई पीढ़ी की कथाकार तसनीम ख़ान ने किया। इस सत्र के पहले वक्ता के रूप में वरिष्ठ लेखक-संपादक ओम थानवी ने कहा कि आप जो देखते हैं, उसे भाषा में सोचते हैं। आज की पत्रकारिता के पतन को रेखांकित करते हुए उन्होंने आगे कहा कि अगर पत्रकार के पास भाषा नहीं होगी, तो वह अच्छी पत्रकारिता कभी नहीं कर सकेगा। पत्रकारिता सृजन नहीं है, पर सृजनात्मकता उसमें शामिल है। समाज के विकास में पत्रकारिता की भूमिका साहित्य और कलाओं से अधिक है।
समादृत रंगकर्मी भानु भारती ने अपनी थिएटर-यात्रा का वर्णन करते हुए कहा कि मैंने थिएटर को नहीं, थिएटर ने मुझे पाया। उन्होंने कहा कि थिएटर एक ऐसी विधा है, जिसका काम सामाजिकता के बिना बिल्कुल भी नहीं चल सकता। थिएटर अंतर्विरोधों की कला है। थिएटर में कुछ भी सच नहीं है। हम झूठे व्यक्ति के लिए कहते हैं कि नाटक कर रहा है। थिएटर में कुछ भी सच नहीं होता, लेकिन उसमें कुछ झूठ भी नहीं होता है।
नई पीढ़ी के कवि-लेखक अविनाश मिश्र ने उपन्यास-विधा पर अपने विचार रखे। उन्होंने अपना पर्चा पढ़ते हुए कहा कि एक कथाकार का काम आँखों देखा हाल लिखना नहीं है और न ही जो आप देखना-दिखाना चाहते हैं, उसे आँखों देखे हाल सरीखा बना-लिख देना।
कवि-कार्यकर्ता अनंत भटनागर ने कहा कि आज सत्ता ने साहित्यकारों को अच्छा व्यक्ति मानना बंद कर दिया है। उन्होंने अपनी कविताओं को अपने समय से मुठभेड़ बताया।
सुपरिचित कहानीकार तराना परवीन ने अपना पर्चा पढ़ते हुए अपनी कहानियों और उनके किरदारों के बहाने क्षितिज के विभिन्न अर्थ और आयाम उद्घाटित किए।
सुपरिचित कहानीकार चरणसिंह पथिक ने ‘रचनात्मक आवारगी के जयपुर-दिन’ सुनाने के बाद कहा कि जब उन्होंने कहानी लिखना शुरू किया तो पाया : हिंदी कथा-साहित्य में पूर्वी राजस्थान की कहानियाँ, गंध और मुहावरे नदारद हैं। राजस्थान की संस्कृति के नाम पर मारवाड़ का ही प्रतिनिधित्व दिखता है। पूर्वी राजस्थान के ज़िलों और उनकी संस्कृति का कहीं नाम-ओ-निशान नहीं है। ‘कहानीकार को चोर होना चाहिए…’ इस बात पर ज़ोर देते हुए उन्होंने कहा, ‘‘मैंने हिंदी कथा-साहित्य में पूर्वी राजस्थान के अभाव को अपनी कहानियों से पूरने की कोशिश की। लेकिन लोग हमें आंचलिक कहकर ख़ारिज करते हैं। कहानी रिपोर्टिंग नहीं है। मैं इसे अपनी सफलता मानता हूँ कि कहानी पर मेरा नाम न हो और पढ़ने वाला पढ़कर बता दे कि यह चरणसिंह पथिक की कहानी है।’’
दूसरे दिन के पहले सत्र के समापन वक्तव्य में वरिष्ठ साहित्यकार-संपादक हेतु भारद्वाज ने कहा कि पत्रिका निकालते-निकालते हम बूढ़े हो गए, पर हमें कभी वे लाभ नहीं मिले जो पत्रकारों को मिलते हैं। इस सत्र के सभी वक्ताओं के वक्तव्यों पर अपनी टिप्पणी देने के बाद उन्होंने कहा, ‘‘सृजनात्मकता का पहला क्षितिज है कि रचनाकार को सबसे पहले स्वयं से बात करना आना चाहिए। सृजनात्मक वातावरण में फैली रचनात्मकता को पकड़ने के लिए सजग होना ज़रूरी है।’’
दूसरे दिन के दूसरे और संगमन-24 के तीसरे यानी अंतिम सत्र की शुरुआत प्रतिष्ठित साहित्यकार चंद्र प्रकाश देवल के बीज वक्तव्य से हुई। उन्होंने कहा, ‘‘चेतना को पुनर्नवा करने का काम सृजनात्मकता ही करती है। साधारण मनुष्य में जो कुछ भी विलक्षण है, उसकी खोज सृजनात्मकता का उपहार है। साहित्य में मानवता के चेहरे आते हैं। युद्ध भी मनुष्य की रचना है, लेकिन सारा सौंदर्य सृजन की चेष्टा है।’’
सुपरिचित कलाकार हेमंत द्विवेदी ने चित्रकला के इशारे से सृजनात्मकता के विभिन्न पक्षों और जटिलताओं पर बात की। उन्होंने कहा, ‘‘बिना द्वंद्व और संघर्ष के रस-निष्पत्ति नहीं हो सकती।’’ उन्होंने बिना अवधि की एक वीडियो-आर्ट-फ़िल्म के ज़रिए समय और राजनीति के भयावह शोर को प्रस्तुत किया।
सुपरिचित कथाकार-संपादक गौरीनाथ ने कहा, ‘‘मैं अपने लिखे से असंतुष्ट रहता हूँ।’’ उन्होंने अपने मिथिला-लोक और उसके संकटों को बयान किया। उन्होंने वर्चस्ववादी शक्तियों की निंदा करते हुए, हाशिए के समाज की बात की। अपने नवीनतम उपन्यास ‘कर्बला-दर-कर्बला’ पर बात करते हुए उन्होंने कहा कि वह इसमें संतुलनवादी नहीं हुए और उन्होंने तथ्यों को बदला-छुपाया नहीं। एक ऐसे समय में जब तथ्यों को विरूपित किया जा रहा है, रचनाशीलता का काम इतिहास में दबी हुई चीख़ों को व्यक्त करना है।
गांधीवाद में आस्था रखने वाली नई पीढ़ी की लेखिका और कार्यकर्ता रेणु व्यास ने अपने वक्तव्य में समकालीन घटनाओं में प्रतिरोध के गांधीवादी तत्त्वों की पहचान की।
सुपरिचित लेखक-विचारक राजाराम भादू ने सृजनात्मकता के दो अर्थों—कलेक्टिव और इंडिविजुअल—का उल्लेख करते हुए कहा कि रचने की क्षमता अभिरुचि, कला-अनुशासन और आपकी लोकेशन क्या है; इस पर निर्भर है। उन्होंने यह भी कहा कि प्रत्येक रचनाकार को अपने प्रिय लेखक का अतिक्रमण करके आगे बढ़ना होता है।
कवि-आलोचक-भाषाविद् सत्यनारायण व्यास ने कहा कि सबसे अंत में बोलना सुविधा कम दुविधा अधिक है। उन्होंने देश-विदेश के लेखकों के पर्याप्त उद्धरण देते हुए कहा कि विचार-भिन्नता भारतीय संस्कृति का सौंदर्य है। उन्होंने अपना वक्तव्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के इन शब्दों के साथ समाप्त किया : ‘‘मनुष्य ही साहित्य का लक्ष्य है।’’
संगमन-24 का समाहार करते हुए समादृत साहित्यकार-इतिहासकार और संपादक प्रियंवद ने कहा, ‘‘मुझे साहित्य के संसार में आधिकारिक रूप से 42 और वैसे 50 वर्ष हो गए। मेरे लिए लेखन में ग्रो करने का पैमाना आज यह है कि मेरा साहित्य धीरे-धीरे जटिल होते हुए दर्शनशास्त्र में प्रवेश कर जाए। मैं पठनीयता का विरोधी नहीं हूँ; लेकिन मैं सरलता, संप्रेषणीयता और लोकप्रियता को नहीं मानता हूँ।’’
आयोजन-स्थल पर प्रदर्शित पंकज दीक्षित की पोस्टर-दीर्घा भी काफ़ी सराही गई।
धन्यवाद ज्ञापन माणिक ने किया।