उदास दिनों की पूरी तैयारी

शब-ओ-रोज़

छत पर जूठा था अमरूद। एक मिट्टी का दिया जिसमें सुबह, सोखे हुए तेल की गंध आती थी। कंघी के दांते टूट गए। आईने पर साबुन के झाग के सूखे निशान हैं। दहलीज़ पर अख़बारों का गट्ठर। चिट्ठीदान में नहीं पढ़ी गई चिट्ठियाँ। चाय का आख़िरी घूँट फेंक दिया गया। सूरज छत की बाम पे लोट गया। रात गिरने ही वाली थी कि ठिठक गयी लैम्पपोस्ट और ट्रैफ़िक सिग्नल की गोद में।

सुकांत भट्टाचार्य के लिए

पृथ्वी अब गद्यमय है। वैसे गणित छंद का कुछ कठिन नहीं, लेकिन राजा का कोट और वोट और खोट कितना कसोगे, कितना खेल अब मिज़राब का? दुखी और टूटते रहने की सीमा, नाराज़गी की परिधि, हताशा का विन्यास अब सहनशीलता के चक्र के परे है। बचे रहना, दुबके रहना, रहना कटकर कभी ऐतिहासिक मूल्य नहीं थे; लेकिन सुकांत, तपेदिक से बचकर लंबी उम्र जीना और बादलों को ताकती हुई यात्रा में बैठकर बियोवुल्फ़ पढ़ना सठियाने की उम्र में अब एक प्रशंसनीय चरित्र है। हम गद्य में लौट रहे हैं, सुकांत! सिर्फ़ इसीलिए भी कि हमारा चाँद अब झुलसी हुई रोटी नहीं है।

ग़ालिब

कौन लिखता है ग़ज़ल, गिरते हुए साम्राज्य की भाषा में? न ही हुमा, बुलबुल और अन्क़ा थे कभी परिंदे हमारे। पेंशन की अर्ज़ी लगाने गए शहर कब उतरे दिल में तीर से करते हाय-हाय? अपनी भाषा में इतने शास्त्रीय तुम, क्योंकर जलेबी खाते हो साथ और फ़ारसी चोग़ा लिए दरवेश फिरते हो? क्या तब भी लोग आगरा से दिल्ली जाते थे, फिर लखनऊ से नाराज़ होते थे; जैसे कोई जाता है मुंबई—छोड़कर पुणे, नाराज़ होकर दिल्ली से? क्या हम सब कलकत्ता और दिल्ली से नाराज़ हैं और तीर सहते हैं कहते हाय-हाय? या बस परिंदा भर दूरी है, ग़ालिब?

आई शब-ए-हिज्राँ की तमन्ना मिरे आगे

तुम से दूर जाना तय था। दूर जाने के बाद कैसे जिऊँगा यह भी तय था। तय था कि कब-कब उठेगा दर्द और बहलाने के लिए क्या-क्या आकर्षण होंगे साथ। यह भी लिख रहा था कि देर रात खुलेगी आँख याद में तो घड़ी नहीं देखना है कि मन लेगा समय की छाप और रखेगा जगाए मुझको और सुबह तलक सिलसिला चलेगा कि तुम कितनी बेरहम थीं और ग़लत तो ख़ैर कितनी ज़्यादा थीं।

उदास दिनों की पूरी तैयारी थी। बहुत ख़ुशी के दिनों में चेतावनी का एक अलार्म था कि जुदाई के सोग में ख़ुशी सिर्फ़ बदली वाली रातों में एक नन्हे टिमटिमाते तारों से अधिक नहीं होनी चाहिए। बाम था सिर दर्द के लिए और कुछ शराब जब बात हद से बढ़ जाए। मेहदी हसन की कुछ ग़ज़लें जो उदासी का सम्मान ज़ारी रखें। मेरी तैयारी शानदार थी। मेरा विरह से उपजी उदासी का इंतज़ार कमाल था।

तुमसे प्रेम, तुम्हारे छोड़ के जाने की उम्मीद में गुज़रा।