जब सन्नाटा छा गया पाश की कविता से

पाश की पहली कविता 1967 में छपी थी। यह वही समय था, जब युवा रक्त की गर्मी इंक़लाब के लिए सदियों की जमी बर्फ़ को पिघला रही थी। उस वक़्त वह भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से सीधे नहीं जुड़े हुए थे, बहुत बाद में वह इस लहर में शामिल हुए—लेकिन क्रांतिकारी के रूप में नहीं, बल्कि सिम्पेथाइज़र के रूप में। पाश की राजनीतिक गतिविधियाँ हमेशा तेज़ रहीं। वह क्रांतिकारी थे ही नहीं, इसलिए उनकी मुख्य पहचान किसी राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में नहीं बनी, बल्कि एक क्रांतिकारी और जुझारू कवि के रूप में बनी।

9 सितंबर 1950 को तलवंडी सलेम, ज़िला जालंधर में जन्मे थे अवतार सिंह संधू; मगर पाश का जन्म हुआ था : 1967 के नक्सलबाड़ी के किसान उभार से। खेतों के इस बेटे ने खेतों और कविताओं दोनों जगह अपना लहू और पसीना बहाया था। पाश पंजाब के लोर्का थे। वह लोर्का की तरह ही शहीद हुए। पंजाब में 23 मार्च 1988 को तलवंडी सलेम में अपने खेत में लगे ट्यूबवेल पर नहाते वक्त मित्र हंसराज के साथ पाश की आतंकवादियों ने गोली मारकर हत्या कर दी थी।

एक बार पाश के प्रशंसकों ने उन्हें नज़दीक से देखने के लिए घेर लिया था। किसी तरह पाश को भीड़ से बाहर लाया गया। वह फर्लांग भर दूर निकल आए। कुछ लड़के उनके पीछे-पीछे आ गए। उनकी सिर्फ़ एक ही ज़िद थी कि पाश उन्हें एक कविता और सुनाएँ। अंतत: उनके प्यार को सम्मान देते हुए पाश ने ‘घास’ शीर्षक कविता सुनाई थी।

‘सन्नाटा छा गया पाश की कविता से’ शीर्षक संस्मरण में शमशेर संधू लिखते हैं :

ख़ालसा कॉलेज, लुधियाना में साहित्यिक समागम था। हमें शाम को मॉडल टाउन की रिहाइश से संदेश मिला कि सुरजीत पातर के कमरे में पहुँचो। वहाँ पहुँचे तो माहौल शादी वाले घर की तरह का था। सेखो साब ने सबको चुप करवाया और कहा अब कोई नहीं बोलेगा, अब पाश कविता सुनाएगा। पाश ने पहले तो हल्के से मज़ाक़ के अंदाज़ में कहा, ‘‘यारो, एक कविता हुक्म कर रहा हूँ।’’ किसी बंदे ने आगे से कहा, ‘‘काका, कविता हुक्म नहीं की जाती, बल्कि कहना होता है कि कविता अर्ज़ कर रहा हूँ।’’ फिर कोई और आवाज़ उभरी, ‘‘पाश वरगे कवि कविता अर्ज़ नहीं करते, हुक्म ही करते हैं…’’ इसके बाद चारों ओर सन्नाटा छा गया, पाश ने अपनी गहरी और भरी हुई आवाज़ में कविता सुनाना शुरू किया :

मुझसे आस मत रखना कि मैं खेतों का बेटा बनकर
तुम्हारे चबाए हुए स्वादों की बात करूँगा

चारों ओर चुप्पी छाई रही, जैसे किसी ज़ोरदार धमाके के बाद कान सां… सां… करने लग जाते हैं।

पंजाब में उन दिनों एक तरफ़ वाम लहर थी, तो दूसरी ओर सत्ता का अत्याचार था। ऐसे ही दौर में 1969 में तलवंडी सलेम इलाक़े में एक बुर्जुआ ठेकेदार, ईंट भट्ठा मालिक को कुछ युवाओं ने क़त्ल कर दिया था। इस क़त्ल के झूठे केस में पाश को भी फँसाकर जेल में डाल दिया गया था। उसी दौर के लिए पाश के दोस्त संधू लिखते हैं :

जब मैं पाश से मिलने जाता था तो वह मुझे अपनी लिखी कविताओं की रफ़ ड्राफ्टिंग देता था और मैं उन्हें पत्र-पत्रिकाओं में भिजवाता था।

कविता लिखने के अपराध में पाश की देह का जोड़-जोड़ तोड़ दिया गया था। पाश जब रिहा हुए तो उनका पहला कविता-संग्रह आया था—‘लौह कथा’। यह संग्रह भी एक अजीब कहानी लिए हुए है। दरअस्ल, उन्हीं दिनों बलराज साहनी को भाषा विभाग का कोई पुरस्कार मिला था, जिसकी राशि उन्होंने पंजाबी के नाटककार गुरशरण सिंह को देते हुए कहा कि इसे किसी अच्छे काम में लगाना। इस राशि से ही पाश का पहला कविता-संग्रह छपा।

क्रांति की राह पर चलते हुए पाश ने सत्ता और ख़ालिस्तानियों दोनों से लड़ाई की। वह रात को अपने खेत के पास की एक चौड़ी दीवार पर बने गड्ढे में सोते थे—ऊपर से घास-फूस डालकर और दिन में अपने खेत की गुमटी (जिसमें माओ त्से तुंग और लेनिन के चित्र लटकते रहते थे) में अपने मुक्तिकामी साथियों के साथ आगामी रणनीति बनाते थे।

पाश की कविता ‘धर्म दीक्षा लई विनयपत्र’ ख़ालिस्तानियों से मुख़ातिब कविता थी। उनकी कविताएँ उनको ख़ालिस्तानियों के निशाने पर ले आई थीं। इसकी परिणति 23 मार्च 1988 को पाश की हत्या के रूप में हुई।

ऑपरेशन ब्लू स्टार के दौर में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद पाश ने एक और प्रतिरोध की कविता लिखी—‘बेदख़ली के लिए विनयपत्र’ जिसमें उन्होंने लिखा :

मैंने तमाम उम्र जिसके विरुद्ध सोचा
और लिखा
अगर उसकी मौत के शोक में
सारा देश शामिल है
तो मेरा इस देश से
नाम काट दो

पाश कवि होने के साथ-साथ एक विचारक और चिंतक भी थे। उन्होंने क्रांति के लिए ज़मीनी काम किया। उन्होंने हस्तलिखित पत्र ‘हाँक’ निकाला और उसे आम जनता के बीच में ले जाकर बाँटा।

पाश ने 1980 में राजवंत कौर उर्फ़ राणी के साथ विवाह किया। विवाह के बाद उन्होंने तलवंडी सलेम के पास उगी में गुरुनानक नेशनल स्कूल खोल लिया। वह अध्यापकी के साथ-साथ क्रांति का काम भी करते रहे। लेकिन स्कूल ज़्यादा दिन नहीं चला। कुछ समय बाद वह अमेरिका चले गए और वहाँ ख़ालिस्तानियों के विरुद्ध ‘एंटी-47’ अख़बार शुरू किया। इस समय में पाश वैचारिक अपरिपक्वता के चलते बहुत बुरी तरह विचलन के शिकार हुए।

दो साल अमेरिका रहकर पाश 1988 में भारत वापस आए। पाश को वापस 24 मार्च 1988 को अमेरिका लौटना था, लेकिन ख़ालिस्तानियों ने 23 मार्च 1988 को पाश और उसके दोस्त हंसराज हत्या कर दी।

23 मार्च 1988 को पाश की हत्या तो हुई, लेकिन उनकी कविताओं और विचारों को हत्यारे छू तक नहीं पाए। उनकी कविताएँ समय के साथ चलती हुईं, उस दौर से आकर आज के समय में प्रतिरोध का ईंधन बन गई हैं। कविताओं में पाश आज भी जीवित मिलते हैं, क्योंकि ज़िंदा सवालों को, अन्याय के ख़िलाफ़ गढ़े गए शब्दों को क़त्ल नहीं किया जा सकता।

रूसी लेखक मैक्सिम गोर्की का उपन्यास ‘माँ’ पाश को अत्यंत प्रिय था। इस उपन्यास के ही मुख्य पात्र पॉवेल उर्फ़ पाशा से प्रभावित होकर अवतार सिंह संधू ने अपना नाम ‘पाश’ रखा। वह ख़ुद को इस पात्र की तरह ही युद्ध की दहकती आग में धकेलते रहे, झुलसते रहे, सँवरते रहे और अंत तक पाश बने रहे।

~•~

पाश की कविताएँ यहाँ पढ़ें : पाश का रचना-संसार