‘रचना का प्रयोजन निर्माण है, नाश नहीं’

श्रीनरेश मेहता │ स्रोत : किताबघर प्रकाशन

मैंने साहित्य की किसी भी विधा में जब भी लिखा तब यह सोचकर नहीं लिखा कि मैं उक्त विधा की शर्तों को पूरा करने के लिए लिख रहा हूँ।

…मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि मैं कभी गद्य भी लिखना चाहूँगा और आज ऐसा लगता भी है कि मैंने गद्य को भी पद्य के रूप में ही लिखा है। ‘गद्यात्मकता’ का कैसा ही प्रकार मैं सहन नहीं कर पाता, इसीलिए मेरी भाषा में आद्यंत एक पद्यगंध है।

…लोग, चाहे वे रचनाकार हों या पाठक, रचना नहीं पढ़ते, विधाएँ पढ़ते हैं; इसीलिए उनके निकट गद्य और पद्य में भेद है। यदि मैं कहूँ कि कहानी या उपन्यास मेरे निकट घटनात्मक काव्य है, और कविता काव्यात्मक घटना है तो पता नहीं इस कथन का क्या अर्थ लिया जाएगा।

सच तो यह है कि दूसरों की दृष्टि में ही नहीं स्वयं अपनी दृष्टि में भी अपने को ऐसा कहानीकार नहीं मानता कि लोग मुझे भी एक कहानीकार के रूप में मान्यता दें। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि कहानी या कहानीकार के स्थान एवं महत्त्व को मैं कविता से कम आँकता हूँ। विधाओं में छोटे-बड़े श्रेष्ठ-निम्न का पंक्ति-भेद करने वाला वास्तविक रचनाकार नहीं हो सकता। वस्तुतः मैंने कहानीकार बनने के लिए कहानियाँ कभी लिखी ही नहीं, इसीलिए कहानी के प्रचलित स्वरूप और फ़ैशन उनमें नहीं हैं। सच तो यह है कि मैं अपनी लेखकीय अपात्रता से सर्वथा अवगत हूँ। अपनी सीमाओं एवं संभावनाओं को जानने के कारण दूसरों से उतना ही ग्रहण किया जितना मेरी पात्रता ग्रहण कर सकती थी।

…लेखक अपने को संपूर्ण बनाने के लिए ही रचता है। जो रचना संपूर्ण नहीं बनाती वह रचना नहीं, तब भला ऐसे रचनात्मक-स्वत्त्व को किन्ही साँचों; स्वरूपों और फ़ैशनों में बाँधा जा सकता है? साहित्य के प्रति यह शिशु-दृष्टि ही होगी। तब यह प्रश्न किया जाएगा कि अपने को संपूर्ण बनाने के लिए जो कहानियाँ मैंने लिखीं, वे कहाँ तक मुझे और दूसरों को संपूर्ण बनाती हैं? अच्छा मान लो, कोई भी कहानी मुझे संपूर्ण नहीं बनाती और मैं इसे स्वीकार भी लूँ तो इसका क्या प्रमाण कि कोई ऐसा दूसरा कहीं नहीं है जिसे ये संपूर्ण नहीं बनाती हैं? और हम क्यों अपने लेखन के सारे हानि-लाभ को अपनी ही आँखों देख जाने के लिए इतने आतुर हैं? कल जब हम नहीं होंगे तब इन रचनाओं की वकालत कौन करेगा? अपनी रचनाओं को हम इतना अधिक प्रतिष्ठित न कर जाएँ कि उनके भीतर की जीवंतता ही नष्ट हो जाए। इतना आत्म-विश्वास तो लेखक में होना ही चाहिए कि रचना उपेक्षित कर दी जा सकती है, परंतु काल भी उसे विस्मृत नहीं कर सकता है, पर शर्त यही है कि वह रचना होनी चाहिए।

…प्रत्येक युग का जिस प्रकार भाषा का एक मुहावरा होता है; उसी प्रकार कुछ प्रचलित मान्यताएँ, स्वरूप और अभिव्यक्तियाँ भी होती हैं। इन सबके प्रति समकालीनों में एक अलिखित मौन समझौता हुआ रहता है। इन्हीं साँचों में तथा प्रतिश्रुतियों के अंतर्गत उस युग के अधिकांश लेखक लिखते हैं और छोटी-बड़ी मान्यताएँ भी प्राप्त कर लेते हैं। लेखन के आरंभिक दिनों में मैं भी ऐसे ही साँचों, प्रतिश्रुतियों तथा फ़ैशनों के अंतर्गत लिखता था; लेकिन कालांतर में मेरी रचनाएँ और रचनात्मक स्वत्त्व जैसे-जैसे इन साँचों से दूर होते गए, वैसे-वैसे समकालीनता और मेरे बीच दूरी भी बढ़ती गई।

…कहानियाँ मैंने कम ही लिखी हैं, क्योंकि मुझसे सच ही कहानियाँ बनती नहीं हैं। अपने मन से लिखी जाने वाली कहानियाँ ही नहीं, कविताएँ तक मैं आज भी नहीं लिख पाता हूँ और शायद लिखना भी नहीं हो पाएगा। कुछ अपने लिए भी तो रखना चाहिए न? सच तो यह है कि छोटा कैनवास मुझे रास नहीं आता। विपुल, उदात्त आदि कुछ ऐसे महारोग हैं जो मेरे व्यक्तित्व में निबद्ध हो गए हैं। हाँ, तो कहानी से संबंधित मैं चाहे और चीज़ें न भी मानूँ तब भी यह मानने के लिए तो बाध्य ही हूँ कि वह उपन्यास से छोटी होंगी ही। और बस, यही सोचकर मुझे लगता है कि मैं कहानियाँ नहीं लिख सकता।

होता यह है कि जब मैं किसी रचना के लिए अपने मनोलोक पर दस्तक देता हूँ और उस तिलिस्म का भारी-भरकम दरवाज़ा प्राचीनता की आवाज़ करता हुआ खुलता है तो उसके भीतर न जाने कितने वैदिक, पौराणिक, ऐतिहासिक, मध्यकालीन, काल्पनिक वैयक्तिक अजीबोग़रीब विभिन्न अनुभवों, रागात्मिकाओं के अमूल्यरत्न दीप, रंगारंग क़ालीन, जड़ाऊ अलंकार, रजत सिक्कों के ढेर, भारी कवच शिरस्त्राण, रत्नजटित तलवारें, खंडित मूर्तियाँ, किसी झील के किनारे बिताई गई एक अधूरी शाम, फीके पड़ गए अक्षरों वाले असफल प्रेम-पत्र तथा दुनिया-जहान का वस्तुगत, घटनागत तथा संवेदनात्मक ऐश्वर्य मेरे चारों ओर बिखर उठता है। मैं एक खंडित मूर्ति को शिरस्त्राण पहनाकर विस्मृत झील के पास सप्रयोजन खड़ा करता हूँ ताकि मैं अपने भीतर की संचित उस भाव-संपदा को दोनों हाथों से खुले-खेतों लुटा सकूँ जो मुझे सदा को अधूरा कर गई है। अभी यह संवेदना आलाप पर ही होती है कि लोग ‘बस!!’ ‘बस!!’ करने लगते हैं। लगता है वे संगीत नहीं, तीन मिनिट का रेकार्ड सुनने के ही अभ्यासी हो चुके हैं और जब अधूरे में ही मुझे अपने इस तिलिस्म को बंद कर देने के लिए बाध्य होना पड़ता है तब अधूरापन, नितांतता कितने बढ़ जाते हैं, यह कोई स्वधर्मी ही समझ सकता है। इसीलिए मैंने कहा था कि छोटे कैनवास पर काम करना मुझे नहीं आता और लोग हैं कि रात भर बैठ कर आलाप, विलंबित, द्रुत आदि कुछ नहीं सुन सकते।

…वस्तुतः कोई भी अनुभव बड़ा नहीं होता, बड़ा तो व्यक्तित्व होता है जो नगण्य से अनुभव को भी ऐसी स्फटिकता अपने में दे देता है कि वह ज्वाजल्य शुक्रमणि लगने लगता है। मैंने यह प्रायः कहा है कि लेखकीय संवेदनशीलता में और पीपल-पत्र की संपन्नता में मुझे अद्भुत रूप से न केवल वानस्पतिक ही बल्कि वासुदैविक समानता भी लगती रही है। जब शेष वातावरण में कहीं कोई संवेदनशीलता नहीं होती तब अकेला पीपल, एटलस की भाँति आकाश उठाए अपने संस्पर्शी पत्रों पर घोषणा करने लगता है कि ‘हवा है!!’ और अरण्य को इसका विश्वास नहीं होता।

लेखक का यह अकेलापन तपस्वी की मनस्विता है, न कि स्वार्थी व्यक्ति का अजनबीपन। मायकोवस्की की यह पंक्ति कितनी सार्थक है कि—‘‘ह्वेयर एवर अ टीयर इज़ शेड आइ फ़ील आई एम क्रूसीफ़ाइड!’’ लेखक केवल घटनाओं का क्रास ही नहीं उठाए होता बल्कि संवदेनाओं की आसन्न त्रासदी को भोगता है। लेखकीय संस्पर्शिता, संवेदनशीलता प्रकंपन होती है, न कि भूकंप। प्रकंपन संवदेन है और भूकंप घटना। इसीलिए रचना का प्रयोजन निर्माण है, नाश नहीं। जीवन को केवल घटनाओं का क्रास मानना, जीवन को स्थूल देखना है। मानव-मन घटनाओं से पृथक भी आसन्न होता है। ऐसी आसन्नता, घटनाओं से अधिक त्रासदपूर्ण होती है। यही संवदेना है जो रचनाकार के पादप-व्यक्तित्व को जड़ तक हिला जाती है।

मैंने प्रायः मनुष्य को अधिक-से-अधिक घटनाहीन स्थितियों में ही रख-देखकर लिखने की चेष्टा की है। केवल घटनाओं के माध्यम से मानवीय त्रासदी को देखने-समझने वाला रचनाकार जीवन की स्थूलता को महत्त्व देता है। जबकि मानव-मन अधिक सूक्ष्म संवेदनात्मक होता है। मैं घटनाओं के माध्यम से व्यक्ति को देख ही नहीं पाता। सृष्टि नादमयी है, रागमयी नहीं। नाद, संगीत की प्राकृतिक तथा उदात्त अवस्था है; राग, नाद को अपने अनुसार व्यवस्था देता है। राग नाद की सीमा है जबकि नाद राग की असीम अवस्था है। घटनाओं और संवेदनाओं का भी यही आपसी संबंध है। जब भी, जहाँ भी मनुष्य घटनाहीन स्थिति में होता है, मेरे रचनाकार के अनुकूल होता है। ज्वार के बीत जाने पर बालू पर जो शंख-सीपी छूट जाते हैं, वही हमारी रत्नाकारी उपलब्धि होती है; क्योंकि समुद्र के रत्नाकरत्व से साक्षात् का एक मात्र यही ढंग है। ऐसी घटनाओं से त्रस्त मनुष्य जब संवेगों और संवेदनाओं से युक्त होता है, उस समय वह कलात्मक या देवीय करुणा का योग्य पात्र होता है। इसीलिए मैंने आरंभ में ही कहा था कि कहानियाँ मैं बहुत कम लिखता हूँ और मेरी कहानियाँ मुझे अपने समकालीनों की दृष्टि में कहानीकार नहीं ही सिद्ध कर सकती हैं। फूल, जिस प्रकार पादप की परिपक्व वानस्पतिकता होती है, उसी प्रकार मेरे निकट मेरी रचना है। सायास मैं एक पंक्ति, सादी-सी पंक्ति भी नहीं लिख सकता। वृक्ष अपने मौसम की प्रतीक्षा में पुष्पहीन, पत्रहीन स्थिति में महीनों खड़ा रहता है।

…मैं वर्षों तक कुछ भी नहीं लिख पाता क्योंकि लिखना, मेरा चाहना नहीं है। अतः जब तक लेखकीय संवदेना में ऐसी महत, अनपेक्षित उदात्त करुणा नहीं होगी; तब तक युद्ध जैसी घनघोर घटनात्मक विभीषिका भी उसे रचनात्मक स्तर पर आलोड़ित नहीं करेगी।

एक प्रकार के अनुभव को ही यथार्थ अनुभव मानना और शेष को काल्पनिक या आदर्श या और कुछ कहकर तिरस्कृत कर देना उचित नहीं होगा। विराटता के अनेक प्रकार हुआ करते हैं। पर्वत की विराटता शिखरोन्मुखी होने में है, तो समुद्र की गहनता में। अरण्य को सामूहिक ही होना चाहिए; परंतु फूल नितांत एकाकी रूप में ही शोभा देता है। विभिन्न स्वत्वों की विभिन्न सार्थकताएँ होंगी। सबके अनुभव एक ही प्रकार की क़वायद करें का जीवन-दर्शन असंगत तो है ही, अमानवीय भी है। एक ही प्रतिमान सर्वत्र कारगर नहीं सिद्ध होगा। प्रेमचंद की धूल-धूसरित सपाटता भी सही अनुभव हो सकती है और शरत्चंद्र का घनखेतीय लालित्य भी सही अनुभव है। हम यह तो कह सकते हैं कि हमें एक विशेष प्रकार का ही अनुभव रुचिकर है, परंतु शेष को मिथ्या कहने का अधिकार नहीं है। ऐसा करने पर हमारी हानि होगी। हम एक सर्वथा नवीन भावभूमि के आस्वाद से वंचित रह जाएँगे। सार्थक रचना न व्यक्ति, न समाज किसी का दर्पण नहीं होती बल्कि ‘प्रिज़्म’ होती है। वह हमारे अनुभव संसार को कलात्मक-अनुभव का संपन्न प्रति-संसार देती है। दर्पण की प्रतिश्रुति वाली रचना द्वितीय कोटि का साहित्य होती है। सार्थक रचना, हमारे जाने हुए संसार को, अनुभवों को प्रति रचती है। यह ठीक है कि रचना पाठक के लिए होने पर भी पाठ को भी उस रचना के लिए होना पड़ता है। दर्पण से यह अपेक्षा उचित है कि वह यथावतरूप में प्रतिछवित हो, किंतु ‘प्रिज़्म’ से नहीं। यह नहीं भूलना चाहिए कि पाठक, रचना की यात्रा करता है; न कि रचना पाठक की। सार्थक रचना पढ़ने के उपरांत पाठक में परिवर्तन संभव है, न कि रचना में। अतः रचना का स्थान किन्हीं अर्थों में पाठक से श्रेष्ठ है।

लेखक होने का अर्थ लेखन को पेशा बना लेना नहीं होता। रचनाएँ पाठकों के द्वारा पढ़ी जाएँ, पाठकों का समुदाय उत्तरोत्तर बढ़े—आदि इच्छाएँ नैसर्गिक हैं, पर ये सब किन शर्तों पर? कोई भी स्वत्त्ववान लेखक ये सारी बातें अपनी शर्तों पर ही न चाहेगा? पाठक, लेखक तक पहुँचे—इस बात में पाठक की हेठी कहाँ होती है? या लेखक का इसमें अहं कहाँ है? राजनीति ने अपने स्वार्थ के कारण जिस प्रकार व्यक्ति और समाज को प्रतिस्पर्धा रूप में खड़ा किया उसी प्रकार पाठक और लेखक के बीच के सद्भाव में भी वह दरारें डालना चाहती है।

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प्रस्तुत गद्य-अंश ‘कथांतर’ कहानी पत्रिका के लिए कथाकार अमर गोस्वामी द्वारा लिए गए साक्षात्कार की किंचित संपादित प्रस्तुति है। अपने अविकल रूप में यह ‘स्वत्त्व की खोज’ शीर्षक से श्रीनरेश मेहता के कथा-संकलन ‘जलसाघर’ (लोकभारती प्रकाशन, प्रथम संस्करण : 1987) में प्रकाशित है। श्रीनरेश मेहता से परिचय और उनकी प्रसिद्ध और प्रतिनिधि कविताएँ पढ़ने के लिए यहाँ देखें : श्रीनरेश मेहता का रचना-संसार