विचारों में कितनी भी गिरावट हो, गद्य में तरावट होनी चाहिए
सफल कहानी वही है जो पाठकों को याद रह जाए। कहानियों में कथ्य महत्त्वपूर्ण है―भाषा नहीं। मैं जो कहना चाह रहा हूँ, वह आपको ऐसे समझ नहीं आएगा। कहानी कहने के सलीक़े को समझाने के लिए मैं आपको दो नौसिखिया कहानीकारों की कहानी सुनाता हूँ। दोनों एक साथ बैठकर एक दफ़्तर में कहानी तलाशने का काम करते थे।
तो पहले कहानीकार थे सालिम मियाँ। उनका मानना था कि मुल्क बहुत आगे बढ़ गया है। अब इसे रुक जाना चाहिए। …और पीछे जाना चाहिए। उस काल में लौटना चाहिए, जब स्त्रियाँ नौकरी नहीं करती थीं। लोगों का ख़ुदा पर ख़ूब ऐतबार था। आस-पास ग़ैरमज़हबी लोग नहीं थे। मर्दों का बहुत सम्मान था। उनके साथी कहानीकार और इस कहानी के दूसरे किरदार आलिम मियाँ को ऐसे विचार खटकते थे। वह उन्हें टोकते नहीं थे, मन ही मन गरियाते थे। इसका असर यह हुआ कि उनके मन में ढेर सारी गालियाँ इकट्ठा हो गईं।
सालिम मियाँ देसी आदमी थे। रायता हाथ से खाते थे। ख़ाली वक़्त में गुटखा चबाते हुए नाभि से रुई निकालते थे। हमेशा सतर्क और सावधान दिखते थे। ख़ूब सलाम करते थे।
इसके ठीक उलट आलिम मियाँ दब्बू मिज़ाज के थे। कहीं भेद न खुल जाए इसलिए छिप-छिपाकर रहते थे। सपने देखते थे। बड़े कहानीकारों की सूरत पर फ़िदा रहते थे। दब्बू मिज़ाज के आलिम मियाँ को ज़बान फिसलने का मर्ज़ भी था। पीकर बहक जाते थे। किया-धरा याद नहीं रहता था, इसलिए शराब से तौबा कर लिया था। जहाँ सालिम मियाँ में शिकारियों-सा धैर्य था वहीं आलिम मियाँ में हद-दर्जे की अधीरता थी। सिर्फ़ नाम के ही ‘आलिम’ थे आलिम मियाँ।
कहानी में किरदारों का संक्षिप्त परिचय देना ज़रूरी नियम है। इससे कहानी अबूझ पहेली नहीं लगती। पात्रों की अवधारणा का भी भान हो जाता है।
दफ़्तर अपनी पूरी रवानी पर था। कहानी-विशेषांक धड़ाधड़ बिक रहे थे। सालाना-बिक्री के आँकड़े देखकर मालिक ने जश्न का आह्वान किया। जश्न के दस्तर-ख़्वान में भुना हुआ गोश्त था। नृत्य था। …और तो और शराब भी थी।
मुफ़्त की दारू देखकर नौसिखियों से रहा नहीं गया। दोनों के मुँह में लार तैर गई। एक पेग गटका तो गटकते ही चले गए। …और आदतन बहक गए। गालियों की गठरी खुल गई। एक दूसरे की माँ-बहन को याद करने लगे। संगी-साथियों ने दोनों को धकेलकर महफ़िल से रुख़्सत किया तो अगली भिड़ंत चौराहे पर हो गई। दुर्भाग्य से वहाँ आलिम मियाँ के हमदर्द भी मौजूद थे। उनसे यह सब देखा नहीं गया। उन्होंने आलिम मियाँ की मोहब्बत में आलिम मियाँ से बिना पूछे सालिम मियाँ के गाल पर चाँटे जड़ने शुरू कर दिए। यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि सालिम मियाँ ने जवाब में एक भी चाँटा नहीं मारा। सिर्फ़ खाए। नशे में भी होशियारी से काम लिया।
अगर सालिम मियाँ भी हाथ उठा देते तो कहानी का शिल्प ख़राब हो जाता। कहानी के बजाय उनको मात्र एक गड़बड़ गद्य से संतोष करना पड़ता। मामला बेवड़ेबाज़ी का हो जाता, इसलिए चतुराई इसी में थी मार खाई जाए। सुबूत मुक्कमल हो इसके लिए मारने वाले को और उकसाया जाए। हमदर्द जोशीना, चाँटें जड़ते रहे। आलिम मियाँ देखते रहे।
दोस्तो, एक अच्छी कहानी के लिए दो-चार चाँटें फ़ालतू खा लेना कोई बड़ी बात नहीं है।
ख़ैर, अगले दिन मामला मालिक के पास पहुँचा। उन्होंने कहा सब छोड़ो सबसे पहले कहानी सुनाओ। सालिम भाई ने सुनाना शुरू किया। कहते-कहते वे एक बार को रो भी पड़े। जवाब में आलिम भाई ने भी कहानी सुनाई। हालाँकि उन्हें कहानी याद तो नहीं आ रही थी पर साथियों से पूछ-पाछ कर, जोड़-घटा कर कुछ डिफ़ेंसिव माल जुटा लिया था। उन्होंने जैसे ही सुनाना शुरू किया पकड़ लिए गए। उनकी कहानी में सालिम भाई जैसी धार नहीं थी। सहानुभूति नहीं थी। आश्चर्य नहीं था। बस सफ़ाई थी और वह भी दिलचस्प नहीं थी। आलिम मियाँ की कहानी में बस डायलॉग थे और उसकी भी डिलेवरी सही नहीं थी। जहाँ सालिम भाई की कहानी में पीड़ा थी, वहीं आलिम भाई की कहानी में पछतावा था। सालिम मियाँ ने चाँटों की रसीद तक पेश कर दी थी। आलिम मियाँ के हाथ ख़ाली थे।
अच्छी कहानी वही है दोस्तों जिसके किरदार कुछ अप्रत्याशित काम कर जाएँ। इस प्रसंग से यह सीख मिलती है कि नरेशन अच्छा हो तो झूठी कहानियों में भी जान फूँकी जा सकती है। यह भी कि अगर आपके पास कहानी है तो सबसे पहले कह डालिए। इंतिज़ार मत करिए। वरना आपकी कहानी पर कोई यक़ीन नहीं करेगा। जो भोगा है वही बेचिए। उधार के अनुभव न लिखिए। शृंगार-रस पर ज़्यादा भरोसा मत करिए। करुण रस से काम लीजिए। संदेह हो तो मित्रों से रफ़ पढ़वा लीजिए।
बहरहाल, मालिक रहमदिल थे। असीमित मौक़े देने में यक़ीन रखते थे। ख़राब कहानी के बावजूद उन्होंने आलिम मियाँ को माफ़ कर दिया। सालिम मियाँ भी काँइया थे―कमीने नहीं थे, उन्होंने भी जाने दिया। लेकिन हर मालिक का भी कोई मालिक होता है। इस दफ़्तर में भी एक और मालिक थे। वह माफ़ी को कहानी-निषेध की क्रिया मानते थे। वह सबक़ देने में यक़ीन रखते थे। वह बड़े कहानीकारों के उस्ताद थे और नई कहानी-आंदोलन के नायक भी। उनका मानना था कि माफ़ कर देने से कहानी की आधुनिकता मर जाती है।
इस घटना के बाद आलिम मियाँ को अवसाद ने जकड़ लिया। शराब से तौबा करने वाले आलिम मियाँ शराबी हो गए। यहाँ शराब ख़ुद में एक कहानी है―कहानी की जनक है। इस कहानी की विषय-वस्तु है।
बहुत दिनों तक उन्हें समझ नहीं आया कि दिक़्क़त उनमें थी या उनकी कहानी में। कोई अच्छा नक़्क़ाद होता आलिम मियाँ को समझा ले जाता कि अच्छी कहानी के आगे नौकरी की क्या बिसात!
आलिम मियाँ की मुलाज़मत तो चली गई पर वह कहानीकार हो गए, कहानी कहने के सारे नुस्ख़े सीख गए।
इस घटना से यह समझ आता है कि पाठक या श्रोता के मन में पात्र के प्रति सहानुभूति का प्रादुर्भाव ज़रूरी है। लेकिन आप आलिम मियाँ के प्रति सहानुभूति न रखिए। सालिम मियाँ से नफ़रत न करिए। कहानी कहना सीखिए। नहीं तो आपकी कहानी पर कोई भरोसा नहीं करेगा। बड़े कहानीकारों की पंगत में बैठने से कहानी कहने का सलीक़ा नहीं आता। अच्छे क्राफ़्ट के लिए कहानियों का निरंतर पाठ करना ही पड़ेगा।
कहानी ऐसी कहें जिसमें रस हो। सोडे जैसा झस हो। सुनने वाले को लगे कि उसने कहानी नहीं देगी-मिरच चाट ली है। अंग-अंग फड़कने लगे।
विचारों में कितनी भी गिरावट हो, गद्य में तरावट होनी चाहिए। ध्यान रखें कि आप कहानीकार हैं, उपदेशक नहीं। अच्छी कहानी के लिए सालिम मियाँ की तरह प्रचुर धैर्य की आवश्यकता है। आलिम मियाँ की तरह अधीरता की नहीं।