
वसंत की चोट सबसे मारक होती है

सुबह कद्दू का एक फूल खिला था—उजला! लेकिन उसके उजलेपन में भी एक मटमैली आभा थी। वैसी ही जैसे मनुष्य में होती है। कितना भी उजला हो, उसमें कुछ मटमैलापन कुछ दाग़ रह ही जाते हैं। शायद यह मटमैलापन ही उसे मनुष्येतर नहीं होने देता, यह सोचने पर क्षमा करना सरल हो जाता है ना! फूल को सुबह देखा था, शाम गहराने के साथ वह मुरझा गया है। वसंत का पहला दिन था और दिन भर बादल छाए रहे। ठंडी हवा तो अब भी डोल रही है। सामने शिरीष का पेड़ है। कितनी तो सूखी भूरी पत्तियाँ हैं उसकी। कुछ हरी हैं भी तो मुरझाने को आतुर दिख रही हैं।
वसंत के गर्भ में गर्मियों के बीज होते हैं। आने वाली बेदर्द लू अपने पाँव सिकोड़े सुस्ता रही होती है। उसके चेहरे पर गुज़री सर्दी की ठिठुरती खरोंचें हैं। मैं मानती हूँ कि वसंत को देखने का यह बीमार तरीक़ा है, लेकिन यहाँ कौन बीमार नहीं है। महत्त्वकांक्षाओं से लस्त-पस्त लोग मुझे कभी स्वाभाविक नहीं लगे। मैं स्मृतियों के बोझ से पीड़ित हूँ।
कभी इस छत पर कद्दू की हरी चमचमाती लताएँ फैली थीं, अब सूख चली हैं। कहीं-कहीं नन्हे कद्दू के जोड़े हैं, मुरझाई पत्तियाँ हैं, ठूँठ होती लताएँ हैं और मुरझाए फूल… लताओं का सारा वैभव लुटा-पिटा-सा है। सच कहूँ तो यह छत को कुरूप बना रहे हैं, लेकिन पता नहीं इस कुरूपता में कैसा आकर्षण है!
कौओं का एक झुंड उड़ चला है—सिर के बिल्कुल पास से। बेटी देखेगी तो कहेगी—‘तोता’। उसके लिए हर उड़ने वाली चीज तोता है। जैसे हम हर आहट को प्रेम पुकारते हैं, बाद में समझ आता है; यह तो कोई और चीज़ है। जैसे एक वक़्त बाद बेटी समझ जाएगी कि जिन्हें वह तोता पुकारती रही है, वे तो कौए थे, कभी गौरैया थी, कभी कबूतर थे। कभी सचमुच तोते भी रहे थे। पर सब इतना घुल-मिल जाएगा कि वह भूल जाएगी कि उसने तोते को ही तोता कहा था एक दिन। तब वह समझदार हो जाएगी और उड़ गया होगा छत से सचमुच का तोता! पड़ोसी छत की अलगनी पर कपड़े सूख रहे हैं। नीली शॉल हवा में हिल रही है धीरे-धीरे। वसंत… आख़िर कहाँ है वसंत? पीले कपड़े पहने, खीर पकाकर सरस्वती की आराधना भी कर ली पर वसंत बच्चा तो कहीं नहीं दिखा।
अभी अपने वसंत की आवाज़ सुनी। थकी, क्लांत आवाज़! उदासी के पीले रंग में बहती। आवाज़ से वजह पूछो तो चिढ़ जाएगी। लोग आपस में इतना उलझ जाते हैं और चाहते हैं कि एक दूसरे को सुलझा दें। पर ख़ुद को ही नहीं सुलझा पाते। ख़ुद को नहीं सुलझा पाते तो कुछ भी नहीं सुलझता।
कर्कशताएँ अपने चरम पर होती हैं, कोमलता विद्रूप होने लगती है। असहाय क्रोध अपना सिर पटकता रहता है, इन सबके बीच बसंत की उदासी घुटन से भर देती है। वसंत उदास है, पर उसकी उदासी किसी और की करुणा से भरी है। यह चोट बड़ी मारक है। आस-पास देखती हूँ तो कितना दुख है! भाँति-भाँति की पीड़ाएँ, तरह-तरह के संघर्ष, उन सबके सामने अपना दुःख नितांत तुच्छ प्रतीत होता है; पर इस प्रतीति के बाद भी इस दुःख का वज़न घटता क्यों नहीं? संपूर्णता की चाहना भीषण होती है—मृत्यु की भाँति भीषण और कठोर। हम किसी को नहीं अपने आपको खोते चले जाते हैं।
आप हमेशा अपनी ग़लतियों का बचाव करते हैं, पर ग़लतियाँ आपको कभी नहीं बचाती। वह ठेठ नुकीले दाँतों के आगे आपको फेंक देती हैं—रक्तरंजित नग्न मांसपिंड की भाँति!
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उपासना सुपरिचित और सम्मानित कथाकार हैं। बाल साहित्य भी लिखती हैं। उनकी तीन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। ‘दरिया बंदर कोट’ शीर्षक से दूसरा कहानी-संग्रह शीघ्र प्रकाश्य है।
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