आया कहाँ से ये लफ़्ज…
यह एक बहुत बड़ा भ्रम है कि हिन्दी संस्कृत से निकली और उर्दू का जन्म फ़ारसी भाषा से हुआ। सच तो यह है कि ये दोनों ही ज़बानें बोलचाल की मक़ामी ज़बान से निकलीं और विकसित होती चली गईं। हिन्दी वहाँ से शुरू हुई जहाँ से संस्कृत ख़त्म होती है।
तुर्की हमलावरों के हमले 10वीं सदी में शुरू हो गए थे, लेकिन हूकूमत करने के लिहाज़ से इस्लाम 12वीं सदी के अंत में भारत आया और 13वीं सदी तक तुर्क साम्राज्य की सारे उत्तर भारत पर हुकूमत हो गई। इस दौर में भारत के हर प्रांत में वहाँ की मक़ामी ज़बान बोली जाती थी, जैसे : बंगाल में बंगाली, गुजरात में गुजराती, पंजाब में पंजाबी, कश्मीर में कश्मीरी; इसके अलावा कुछ मक़ामी बोलियाँ थीं, जैसे : अवधी, ब्रजभाषा, कन्नौजी, बुंदेली, बघेली, हड़ौती, भोजपुरी, हरयाणवी, राजस्थानी, छत्तीसगढ़ी, मालवी, नागपुरी, खोरठा, पंचपरगनिया, कुमाऊँनी, मगही वग़ैरह।
जब मुसलमान यहाँ बसने के लिए आए उनके सामने बड़ी दिक़्क़त थी कि वे यहाँ के मूल निवासियों से राब्ता कैसे क़ायम करें। यह दिक़्क़त सिर्फ़ अवध में नहीं, गुजरात से लेकर बंगाल तक थी। जो हिंदू से मुसलमान बन गए उनके लिए भाषा कोई मुश्किल नहीं थी, क्योंकि उनका मज़हब बदला था, भाषा नहीं। लेकिन बाहर से आने वाले मुसलमानों की मादरे-ज़बान तुर्की, अरबी या फ़ारसी थी। उन्हें एक ऐसी ज़बान चाहिए थी जिसे हिंदू समझ सकें और उनमें आपस में वैचारिक आदान-प्रदान हो। जो एक बादशाह और रियाया में ज़रूरी है। तब जाकर कम से कम दो सदी में एक टूटी-फूटी मिली-जुली ज़बान तैयार हुई, जिसे शुरू में ‘हिन्दी’ या ‘हिन्दवी’ कहा गया।
दिलचस्प है कि संस्कृत और पुराने भारतीय साहित्य में ‘हिन्दी’ शब्द कहीं नहीं मिलता। ये शब्द सबसे पहले सिर्फ़ फ़ारसी डिक्शनरी में मिलता था।
यहाँ यह ज़िक्र करना मौज़ू होगा कि ‘हिन्दू’ या ‘हिन्द’ शब्द पहली बार पैग़ंबर ईसा मसीह के जन्म से कोई 400-500 साल पहले फ़ारसी लोगों ने इस्तिमाल किया, क्योंकि वे ‘सिन्धू’ इलाक़े को ‘हिन्दू’ कहते थे। तब दूर-दूर तक इस्लाम का कोई नाम-ओ-निशान नहीं था। ‘हिन्दू’ शब्द के जन्म के कोई एक हज़ार साल बाद अरब में पैग़ंबर मोहम्मद साहब ने इस्लाम की बुनियाद रखी। सिन्ध प्रदेश या सिन्धू नदी के आस-पास रहने वालों को फ़ारसियों ने ग़लतफ़हमी में ‘हिन्दू’ नाम दिया। क्योंकि फ़ारसी में ‘स’ हर्फ़ का उच्चारण ‘ह’ से होता है। फिर अरब बहुत बाद में फ़ारस के राब्ते में आया और अरबों ने इस लफ़्ज़ को अपना लिया। वे भारत को ‘अल हिन्द’ कहते और यहाँ रहने वालों को ‘हिन्दी’ फिर चाहे वह भारत के किसी भी संप्रदाय या मज़हब का क्यों न हो।
यही वजह है कि 11वीं सदी के शुरू में फ़ारसी विद्वान और महमूद ग़ज़नी के साथ हिन्दुस्तान आए अलबरूनी ने भारत पर अरबी में जो ऐतिहासिक किताब लिखी उसका नाम ‘किताब-उल-हिन्द’ रखा। सदियों पहले भारत से गणित अरब गई थी। इसलिए फ़ारसी में आज भी गणित को ‘हिन्दसा’ कहा जाता है। इस तरह जिस भी चीज़ का ताल्लुक़ भारत से था, उसे ‘हिन्द’ से जोड़ दिया गया। इसीलिए शाइर अल्लामा इक़बाल ने सभी हिन्दुस्तानियों को जिसमें मुसलमान भी शामिल थे ‘हिन्दी’ कहा : ‘हिन्दी हैं हम वतन है हिन्दोस्ताँ हमारा।’
इस फ़र्क़ को इक़बाल से कोई 700 साल पहले अमीर ख़ुसरो के इस जुमले से समझा जा सकता है जिसमें उसने कहा था : ‘’बादशाह ने हिन्दुओं को तो हाथी से कुचलवा डाला, लेकिन मुसलमान जो हिन्द थे, महफ़ूज़ रहे।’’ [अमीर ख़ुसरो इन इलियट 3, पेज-539 (भोजपुरी तिवारी पेज-76)] यानी ख़ुसरो के दौर में भी भारत में रहने वाले हिन्दू और मुसलमान दोनों विदेशियों की नज़र में ‘हिन्द’ या हिन्दुस्तानी थे। फिर वे हिन्द के लोगों की लिखी और बोली जाने वाली भाषा को ‘हिन्दवी’ कहने लगे। जो बहुत बाद में हिन्दी कही जाने लगी। जैसे तुर्क से तर्की, अरब से अरबी वैसे ही हिन्दी की ज़ुबान ‘हिन्दी’ कही जाने लगी। ये नाम ज़ाहिर है कि मुसलमानों ने ही दिया। जैसे इस देश का नाम ‘हिन्द’ पारसियों ने दिया और ‘हिन्द’ का ‘इंड’ से उच्चारण लैटिन वालों ने किया और भारत का अँग्रेज़ी नाम ‘इंडिया’ पड़ गया।
भारत में ‘हिन्द’ और ‘हिन्दू’ शब्द की खोज ग़ैर-इस्लामिक फ़ारसवासियों ने की, लेकिन ‘हिन्दी’ और ‘हिन्दवी’ शब्द की खोज मुसलमानों ने यहाँ रहकर की। ‘हिन्दुई’ या ‘हिन्दवी’ लफ़्ज़ भी हमें केवल ख़ुसरो के अदब में मिलता है। लेकिन इसका चलन उनसे पहले भी रहा होगा, इसमे कोई संदेह नहीं होना चाहिए। लेकिन ये शब्द लिखे हुए केवल अमीर ख़ुसरो के अदब में मिलते हैं। आगे चलकर इसी ‘हिन्दी’ से दो अज़ीम जब़ानें निकलीं—हिन्दी और उर्दू। दोनों मूलतः एक ही जाति से निकली दो ज़बानें हैं, जिन्होंने हिन्दुस्तान में भाषाई स्तर पर बुनियादी एकता क़ायम की और पूरे मुल्क पर ये दोनों भाषाएँ छा गईं।
हैरत की बात यह है कि 8वीं से 14वीं सदी के बीच लिखे गए संस्कृत और दूसरे ग्रंथों में ‘हिन्दू’ और ‘मुसलमान’ शब्द मुश्किल से मिलता है। भारत के लोग विदेशी लोगों की पहचान उनके जन्म स्थान से करते थे। जैसे हिन्दू लोग तुर्की मुसलमान को ‘तुरुष्क’, तज़ाकिस्तान से आए लोगों को वे ‘ताजिक’ व फ़ारस से आए लोगों को ‘पारसिक’ कहते थे। इन प्रवासियों के लिए वह प्रायः ‘मलेच्छ’ शब्द का इस्तिमाल करते थे। जिसका ज़िक्र 13वीं सदी के वीरगाथा काल की कविताओं में बार-बार किया गया। वे ‘मलच्छों’ को अछूत मानते थे, क्योंकि वे संस्कृत और वर्ण-व्यवस्था को नहीं मानते थे। और ऐसी ज़बान बोलते थे जो संस्कृत से नहीं निकली थी।
जारी…