दूसरी लहर के साये में
18 अप्रैल 2021
पंद्रह महीने बाद घर। पैर रखते ही एक अपराधबोध जन्म लेता है, लेकिन सब कुछ को देखकर तुरंत ही ग़ायब।
घर की दीवालों पर प्रधान, बीडीसी और ज़िला पंचायत पद के प्रत्याशियों के फ़ोटो लगे हैं। मैं उनके चेहरे पहचानता हूँ। सभी परिचित। यह मुझे अच्छा लगता है।
19 अप्रैल 2021
सुबह सात बजे ही ग्रामसभा सिसई के प्राइमरी स्कूल पर। लगा था कि इतनी सुबह भीड़ नहीं होगी, लेकिन 30-30 लोगों की दो पंक्तियाँ लगी हैं। कई प्रत्याशी और उनके समर्थक मिलते हैं। सबसे जयराम जी की। मतदान स्थल पर मतदाता और प्रत्याशी शांत दिखने की कोशिश करते हैं। मैं भी यही करता हूँ। पहले यह स्कूल खपरैल और लकड़ी के एक भवन में चलता था। स्कूल एक चहारदीवारी से घिरा था, लेकिन कक्षाएँ बाहर चलतीं। किसी सार्वजनिक भवन की यह पहली छवि मेरे मन के एक कोने में टँकी-सी है। मुझे अपने सभी अध्यापक याद आते हैं, उनकी द्वारा की गई पिटाई भी। वे प्राय: इमली की पतली छपकियों से पिटाई करते थे। इमली का पेड़ स्कूल से सटकर ही लगा था।
28 अप्रैल 2021
45 वर्ष से ऊपर के सब लोग टीका लगवाने के लिए बेलसर ब्लॉक गए हैं। पंचायत चुनाव के लिए मतगणना में शामिल होने वाले एजेंटों और प्रत्याशियों का कोविड-आरटीपीसीआर टेस्ट हो रहा है। मुझसे ठीक बड़े भाई दयाशंकर मतगणना एजेंट के रुप में बेलसर जाना चाहते थे। वह इसके लिए बहुत ललकते हैं। घर के ही बग़ल के भतीजे लगने वाले रोहित की पत्नी अंकिता प्रधान पद के लिए प्रत्याशी हैं। उनके जीतने की उम्मीद है।
29 अप्रैल 2021
आज सुबह पत्नी के चाचा का फ़ोन आया। उनके मामा के लड़के का देहांत हो गया—हृदयाघात से। उन्हें कई दिन से बुख़ार आ रहा था। उनका कोरोना का टेस्ट नहीं हुआ था। तबीयत बिगड़ी तो मुग़लसराय लेकर गए। अस्पताल में बेड नहीं मिला। घर लौट रहे थे कि रास्ते में ही उनका देहांत हो गया।
हर तरफ़ मृत्यु की ख़बरें हैं।
30 अप्रैल 2021
सुबह ठंड लगती है। नया घर बना है। ग्रिल लगी है, कोई दरवाज़ा नहीं। पूरब से सुबह ठंडी हवा। दिन में 11 बजे से तेज़ धूप। देबंजना नाग ने प्रोफ़ेसर सतीश देशपांडे के इंटरव्यू की ट्रांसक्रिप्ट भेजी है। उसे एडिट करके प्रोफ़ेसर बद्री नारायण, डॉ. अर्चना सिंह और डॉ. सतेंद्र कुमार को वापस भेजना है।
2 मई 2021
देर शाम को चुनाव परिणाम। अंकिता चुनाव जीत गई हैं। गाँव-जँवार में हल्ला है कि रोहित चुनाव जीत गए हैं। उधर पवन की पत्नी क्षमा भी चुनाव जीत गई हैं। चुनाव पत्नियाँ जीत रही हैं, नाम उनके पतियों का हो रहा है। उनके नाम पर ही वोट माँगे जाते हैं। पंचायतीराज की यह अजीब विडंबना है। इसके पहले गाँव की प्रधानी एक दलित के पास थी, प्रधानी एक ठाकुर युवक ने की। इलाक़े में ऐसे कई लोग हैं जो दूसरों के नाम पर ठसक के साथ प्रधानी करते हैं। अवधी में उनके लिए एक कहावत है : आन के धन पर लक्ष्मीनारायन–दूसरे के धन पर धन्नासेठ बनना।
बात सुधरते-सुधरते सुधरेगी।
17 मई 2021
सुबह के छह बजे हैं। फ़ेसबुक खोलते ही अंशु मालवीय की पोस्ट से पता चलता है कि वर्मा जी नहीं रहे। हम सबके प्यारे इतिहासकार प्रोफ़ेसर लालबहादुर वर्मा। आँसू निकल आए। अंतिम बार 24 मार्च को वर्मा जी को फ़ोन किया था। उधर से वही स्नेहासिक्त आवाज़ : ‘‘क्या कर रहे हो?’’ मैंने कहा : ‘‘निकट भविष्य में निकलने वाली एक पत्रिका में छोटा-सा काम मिल गया है, थोड़ा-सा पैसा भी मिलेगा।’’ वह बहुत ख़ुश हुए। कई लोगों की तरह मैं भी उनसे अपनी छोटी-छोटी सफलताएँ, दुःख, यहाँ तक कि अवसाद भी बाँट लेता था। उनके जाने के बाद वह सिरा ख़त्म हो गया है। यह जानते हुए कि उधर कोई जादू की छड़ी नहीं है, लेकिन आदमी करे तो क्या करे? आदमी ज़िंदा रहता है तो बात करता है। इससे दु:ख कम हो जाता है। वर्मा जी शायद यही कहते कि दुनिया के सारे दुखियारों को आपस में बात करनी चाहिए।
दुपहर में कुछ मैसेज आए हैं कि गोंडा में 18 वर्ष से ऊपर वालों के लिए वैक्सीन मिल रही है। मैंने स्लॉट बुक कराया है। 19 मई को ज़िला अस्पताल में 10 बजे से 11 बजे तक। मैं झिनई से कहता हूँ कि बेलसर ब्लॉक पर 45 वर्ष से ऊपर वाले लोगों को वैक्सीन लग रही है। वह कहते हैं कि मुर्ग़ा-अंडा खाओ, कोरोना भगाओ। यह भी एक तरीक़ा है—गाँव में। मई का महीना आधा बीत गया है। गर्मी नहीं पड़ रही है। रात में एक-दो बार आँधी आई है। पानी भी बरसा है। बेल पक रहे हैं। बचपन में, मतलब आज से तीस वर्ष पहले महुए और आम के पत्तों को जलाकर बेल भूजने की स्मृतियाँ हैं। बेल तोड़ने के बाद उसे हल्के हाथ से चिटका देते थे। अगर ऐसा न करें तो बेल गर्म होने पर बहुत तेज़ से दग जाता है और आप उसके गर्म गूदे से जल सकते हैं।
19 मई 2021
आज घर आए एक महीना हो गया। बी.ए. के बाद पहली बार इतने समय के लिए रुका हूँ। सुबह-सुबह माँ की याद आती है। उनका देहांत हुए ढाई साल हो गए। सुबह 10 बजे गोंडा ज़िला चिकित्सालय पर वैक्सीन लगवाई। कोई दिक़्क़त नहीं हुई। आराम से। लौटते वक़्त रगड़गंज बाज़ार में बेटे के लिए कपड़े की ख़रीददारी—पहली बार। यह हमारे इलाके़ की बाज़ार है—सुख-दुख की बाज़ार। अपने गाँव के बाद इसी बाज़ार की स्मृतियाँ हैं। यहाँ आते ही मुझे अपने पिता की याद आती है।
‘वायर’ (हिंदी) में शुभनीत कौशिक और मैंने वर्मा जी पर एक स्मृति-लेख लिखा है। कोई छपी हुई चीज़ देखकर अच्छा लगता है, लेकिन यह इतना निकट का दुख है कि मन एक बार फिर उदास हो जाता है।
20 मई 2021
आज सुबह चार बजे ही उठ गया। बादल हैं, हल्का-हल्का उजाला हो रहा है। द्वार पर लगे बेल के पेड़ पर किसी चिड़िया ने घोंसला बनाया है। वह चहचहा रही है। उसके बच्चे भी हैं। माँ और शिशुओं की आवाज़ आपस में मिल जाती है। बाईं बाँह में वहाँ हल्का-सा दर्द हो रहा है, जहाँ कल टीका लगा था।
‘द हिंदू’ के ऑनलाइन संस्करण से पता चलता है कि उत्तर प्रदेश सरकार ने स्वीकार किया है : कोरोना प्रदेश के एक तिहाई गाँवों में फैल चुका है।
रोज़ कहीं न कहीं से शादी का कार्ड आता है। पहले यह कितना अच्छा लगता था। अब एक संशय मन को घेर लेता है कि जाएँ कि न जाएँ?
21 मई 2021
मृत्यु को बहुत नज़दीक़ से देखने को हम अभिशप्त हैं। जिन परिचितों के यहाँ मौतें हुई हैं, उन्हें फ़ोन करने की हिम्मत नहीं हो रही है।
27 मई 2021
मृत्यु कुछ लोगों को बच्चे जैसा नाज़ुक बना देती है। हम में से अधिकांश लोग ऐसे ही होते हैं—नाज़ुक, मर्त्य, वध्य। हम एक अभिनय करते हैं—इस सबसे बचने का। यह हो नहीं पाता है।
आज मन काफ़ी देर तक अशांत रहा।
इसी बीच : कोरोना का जब प्रकोप कम हुआ तो लोगों से ख़ूब मिला। थोड़ा-सा फ़ील्डवर्क किया। इस बार कोई सवाल नहीं था तो केवल खुली बातचीत की। जो उत्तरदाता परिचित थे, उनको तंग भी किया! गाँवों में एक सुविधा यह रहती है कि लोग किसी रिसर्चर से पहले ही पूछ लेते हैं : कौन बिरादर? फिर मामला शुरू हो जाता है। जाति भारतीय समाज की सच्चाई है, इसे सबसे ज़्यादा भारत की राजनीतिक पार्टियाँ जानती हैं और पढ़े-लिखे लोग इसे न मानने का स्वाँग करते रहते हैं।
इस बार ब्राह्मणों और ठाकुरों से राजनीतिक बातें कीं। कई नई बातें पता चलीं। जो देश की राजधानी दिल्ली में पक रहा है, उसकी महक गाँवों तक पहुँच रही है। गाँवों में आजकल जो घट रहा है, उसे सत्ता पक्ष और विपक्ष ताड़ रहा है। 2022 में उत्तर प्रदेश के चुनाव कई नए उलटफेर के लिए भी जाने जाएँगे, ऐसा मुझे लगता है।
7 जून 2021
कानपुर आ गया हूँ। वही ‘परिचित-सी भीड़’, मास्क लगाए लोग। दुहरा मास्क लगाकर दूध लेने बाहर निकलता हूँ। दूध देने वाले सज्जन मुझे नमस्कार करते हैं। उनकी उम्र 70 के आस-पास होगी। मुझे झेंप लगती है कि मैंने पहले क्यों नहीं कर लिया।
हम चाहते हैं कि हमारे आस-पास कोई रोए नहीं, उससे भी ज़्यादा हम यह चाहते हैं कि हमारे आस-पास रोने वाले मौजूद रहें। यह हमें सुरक्षा का एहसास देता है।