उत्साह में व्यवस्था की परवाह नहीं होती

समस्त कल्पना-कलाप का आधार मनुष्य का मन है, उसकी स्मृति है और उसकी रचना क्षमता है।

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कविता के पूरे तंत्र का बदल जाना निश्चित रूप से काल के भीतर घटित होने वाले किसी हादसे की सूचना देता है।

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जब कोई समकालीन कवि कहता है कि वह चिड़ियों का व्याकरण सीख रहा है, तब भाषा को लेकर पाठक को ऐय्यारी करनी पड़ती है।

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जब कोई लेखक लिखता है कि ‘वह गली को पड़ोसी नहीं कह सकता’ तब स्पष्ट लगता है कि वह कविता का मुहावरा चुराकर बोल रहा है। जासूस आलोचक के लिए यहाँ काफ़ी मसाला है, वह कहानी के ऐसे मुहावरों की जासूसी करता हुआ असली अपराधी की खोज कर सकता है।

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आक्रोश की भाषा जब भाषा के आक्रोश का फ़ैशन बन जाती है, तब एक नई परिस्थिति पैदा हो जाती है, ऐसी स्थिति में न केवल भाषा की अभिधात्मक क्षमता का ह्रास होता है, बल्कि एक साथ ही संवादी स्वरों का जमावड़ा तैयार हो जाता है। वास्तविक तल्ख़ी की जगह सिर्फ़ तल्ख़ मुहावरे बोले जाते हैं और इस तरह भाषा के मामले में एक मुकम्मल बदहवासी का आलम पैदा हो जाता है। केवल शब्दों की आततायी भूमिका भाषा में प्राण फूँक सकती है, इसमें मुझे पूरा संदेह है। यथार्थ की खोज में सबसे बड़ी बाधा यह भाषा है। बिका हुआ ऐय्यार आलोचक भी इस भाषा की ऐय्यारी से पीछे छूट जाता है। अतियथार्थवादी उपचारों से लिखा जाने वाला ऐसा गद्य अधिकांशतः घटिया गद्य है।

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संस्कृति के उच्च और निम्न-स्तरों की कल्पना शंकर ने की थी जिसका विरोध संतों-भक्तों ने किया था। …आत्मा मृत्योपरांत अपना अस्तित्व क़ायम रखती है या परम तत्त्व में विलीन हो जाती है, यह चिंता सामान्य-जन की रही होगी, यह कल्पना भावुकतापूर्ण होगी। विवर्त्तवाद से विशिष्टाद्वैत का भेद मात्र विचारधारा के क्षेत्र का अंतर्विरोध नहीं है, वह जन-संस्कृति और अभिजात संस्कृति का भी भेद है।

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क़ौमियतों से स्वतंत्र राष्ट्रवाद की उदग्र परिकल्पना ठीक उसी तरह होगी जिस तरह वर्णों से स्वतंत्र हिंदू समाज की परिकल्पना। दोनों में एक ही ख़तरे निहित हैं। ऐसे राष्ट्र में भी वर्ण विरोध बढ़ेंगे ही।

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परंपरा संवर्धन है। परिपाटी अलग चीज़ है। वह कुछ तोड़ती नहीं, इसलिए कुछ नया जोड़ती भी नहीं। एक यांत्रिक और निर्धारित मार्ग का अनुगमन भर करती है। परंपरा नवीनता को लयबद्ध गति की स्वच्छंदता के रूप में आत्मसात् करती है। वह केवल लयहीन गति का विरोध करती है। दूसरी परंपरा की खोज करने के बदले यदि हम इस लयबद्ध गति की स्वच्छंदता की खोज करें तो परंपरा के नवीनीकरण के लिए वह उपयोगी होगा।

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गाथा को कथा में बदलकर कहानी का मार्ग निकाला गया है।

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मेरे लिए आलोचना एक प्रकार का रचनात्मक विवेक है। संवेदना उसकी बुनियादी शर्त है।

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आलोचक की अविश्वसनीयता एक ख़तरनाक स्थिति है।

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आलोचना की एक अच्छी पुस्तक पढ़ने का अवसर वर्षों बाद आता है।

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समीक्षाएँ, रचनात्मक पहचान नहीं बना पातीं।

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उत्साह में व्यवस्था की परवाह नहीं होती।

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अपने लिए व्यक्तिगत विश्वासों की एक दुनिया गढ़ लेना और उसमें रहते हुए वास्तविकता को पूरे आत्मवेग के साथ नकारते चलना जितना आसान है, मृत्यु के संदर्भ में उसका दबाव झेलना उतना ही मुश्किल।

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इतिहास और वर्तमान में एक साथ निबद्ध हमारी कथा का यथार्थ वस्तुत: आधुनिकता के लिए चुनौती है।

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हमारी रचनाशीलता और रचना के लिए अनुकूल परिस्थिति पर बाज़ार का और बाज़ारू माध्यमों का प्रभाव बड़ा भयानक सिद्ध होगा।

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क़र्ज़ की व्यवस्था हमेशा-हमेशा उपभोक्ता समाज को जन्म देती है। क़र्ज़ की पीने और फ़ाक़ामस्ती करने की कला हर समाज को नहीं आती!

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इतिहास, साहित्य और संस्कृति के प्रश्न हमारे वर्तमान के लिए सबसे प्रासंगिक हैं।

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राष्ट्रवाद का जो भी स्वरूप निर्धारित हो, राष्ट्रीयता हमारी वही रहेगी जो इतिहास द्वारा प्रदत्त है।

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सुरेन्द्र चौधरी (1933–2001) समादृत आलोचक और विचारक हैं। उनके यहाँ प्रस्तुत उद्धरण उदय शंकर द्वारा तीन जिल्दों में संपादित उनके रचना-संचयन से चुने गए हैं। यह काम अंतिका प्रकाशन, ग़ाज़ियाबाद से वर्ष 2009 प्रकाशित हुआ है।