कभी-कभी लगता है कि गोविंदा भी कवि है
यहाँ प्रस्तुत कथ्य का शीर्षक बहुत बड़ा हो रहा था, इसलिए इसे किंचित संपादित करना पड़ा, दरअस्ल पूरा शीर्षक यों था : कभी-कभी लगता है कि गोविंदा भी कवि है, लेकिन बहुत ख़राब
गए रोज़ यूँ ही फ़ेसबुक स्क्रॉल करते हुए एक वीडियो पर नज़र गई। यह 1987 के गोविंदा का इंटरव्यू था। गोविंदा यहाँ एक ख़राब कवि की मानिंद इसलिए लगा, क्योंकि उसमें स्वीकार पर्याप्त था। श्रेष्ठ कवियों में स्वीकार कम होता है।
एक ऐसे दौर में जब ख़राब कवियों के दो ही स्थान थे, गोविंदा पहले स्थान पर क़ाबिज़ रहा। दूसरा स्थान गुमनामी है और पहला स्थान आप समझ ही गए होंगे। यहाँ लोकप्रियता या स्टारडम की बात हो रही है। इस प्रकार कवियों की मुख्यधारा में वह कहीं नहीं था।
गोविंदा के दौर में ख़राब कवि या तो लोकप्रिय हो जाते थे, या अपनी ख़राब कविताओं के साथ कहीं नष्ट हो जाते थे। उन्हें अपने ख़राब होने का इल्म होता था। उनमें इसकी भरपूर शर्म होती थी। जैसे : एक बार एक ख़राब लेखक गुलशन नंदा ने कहा था, ‘‘मैं चाहे कितना भी बिक जाऊँ, धर्मवीर भारती थोड़े ही हो जाऊँगा।’’
लेकिन हर दौर कभी तो ख़त्म हुआ ही करता है (संदर्भ : वीरेन डंगवाल), इसलिए आया सबके हाथ में और जेब में इंटरनेट और सारी निकृष्टताओं को पता चला कि वे अकेली नहीं हैं। वे अजीब नहीं हैं। वे अल्पसंख्यक नहीं हैं। दरअस्ल, वे ही मुख्यधारा हैं।
निकृष्टताएँ अगर बेशर्म हो जाएँ, तब सारी स्थायी महत्त्व की रचनाशीलता और प्रासंगिकता को बेदख़ल करने का स्वप्न देख सकती हैं। निकृष्टता का आर्थिक पक्ष सदैव मज़बूत होता है। यह मज़बूती उसे और बेशर्म होने में मदद देती है। उसे अपने संपर्क, समूह और अनुयायी बढ़ाने के लिए बेचैन रखती है।
लेकिन गोविंदा ऐसा नहीं था, क्योंकि उसका दौर ऐसा नहीं था। आप अपने दौर के असर से बच नहीं सकते। उसकी अच्छाइयाँ आपको गढ़ती हैं और बुराइयाँ भी। यह इस प्रकार होता है कि बहुत सजगताएँ भी इसे बेहद देर से जान पाती हैं। इस परिचय तक आते-आते एक दौर बीत चुका होता है। अब आप उसके बीच नहीं हैं। अब आप उसे देख सकते हैं—ज़्यादा बेहतर ढंग से। वह दूर होता है। लेकिन उस तक जाने की राह बहुत साफ़ नज़र आती है। उसके भीतर ले जाने वाले दरवाज़े भी और दरवाज़ों के भीतर झरते हुए पलिस्तर वाली दीवारें और उन्हें घेरे हुए घनघोर जाले भी बहुत साफ़ नज़र आते हैं। यहाँ अब रहा नहीं जा सकता—गर्द हटाकर भी नहीं।
गोविंदा बंबई के लास्ट स्टेशन विरार का रहने वाला था। उसके मम्मी-डैडी दोनों ही फ़िल्म-लाइन में थे। डैडी तो चालीस के दशक में महबूब ख़ान के हीरो थे। मम्मी पहले नायिका, बाद में शास्त्रीय गायिका हुईं। यहाँ तक कि उसका भाई भी एक फ़िल्म इंस्टीट्यूट में पढ़ाता था। इस पृष्ठभूमि में गोविंदा बहुत सुंदर था और उसके दाँत उससे ज़्यादा सुंदर थे, जो उसके चेहरे को हँसते वक़्त और ज़्यादा सुंदर बना देते थे। हँसने में उसकी असामान्य रुचि थी। उसकी हँसी उसके समकालीनों में सिर्फ़ माधुरी दीक्षित से तुलनीय है। उसकी लज्जा कवियों सरीखी थी और निर्लज्जता भी। (संदर्भ : मंगलेश डबराल)
गोविंदा कहानियों के बीच नहीं था। वह कहानियों-सी लगती कहानियों के बीच भी नहीं था। वह तय था। वह एक तय सुखांत था। सुखांत जिसे सबके लिए बहुत संघर्ष से पाया नहीं गया, महान कैसे हो सकता है? संघर्ष हो, अगर बहुत संघर्ष हो—भीतरी औ’ बाहरी तो दुखांत भी महान हो उठता है। (संदर्भ : गजानन माधव मुक्तिबोध) इस क़दर महान कि जब तक यह ब्रह्मांड है, उसकी महानता पर कोई आँच नहीं। लेकिन हो-हल्ले प्राय: अस्थायी रूप से ही सही, प्रभावी होते हैं—वे बहुत संघर्ष की क़द्र नहीं करते। वे ह-हा-हि-ही-हु-हू-हे-है से शुरू होकर—संक्षिप्त बाधाओं, विचलनों और हास्य उपजाती हिंसा के बाद—तत्काल सुखांत को प्राप्त होते हैं।
गोविंदा बचपन से ही हल्का मदहोश था। वह पीक पर भी इस तौर लगता रहा, क्योंकि बचपन से ही उसके घर में ‘आर्टिस्टिक’ माहौल था और उसे भी आर्ट का शौक़ था। पर डांस का शौक़ किधर से आया? पूछने वाली ने पूछा और उसने बताया :
‘‘एक्चुअली, मुझे शौक़ सब चीज़ का बहुत है। मुझे डांस से ज़्यादा एक्टिंग का शौक़ है और एक्टिंग से ज़्यादा फ़ाइट का है और फ़ाइट का इन सबसे ज़्यादा बिजनेस का है… लेकिन डांस मैं सबसे बेटर कर लेता हूँ।’’
बक़ौल गोविंदा : नाचना उसके हाथ में नहीं था। वह बस कर लेता था। उसने कभी इस पर बहुत ध्यान और ज़ोर नहीं दिया था। लेकिन उसकी डांस-मूवमेंट बहुत अलग थीं। वह मेहनत बहुत करता था। एक बार यह अफ़वाह उड़ी थी कि उसने 50-60 फ़िल्में एक साथ साइन कर ली हैं। इस अफ़वाह को उसने यह कहकर ग़लत साबित किया कि उसके पास 70 फ़िल्में हैं। यह 1987 का समय है और आप दे रहे हैं—‘मरते दम तक’। उसने आगे कहा कि 70 में से 8-10 क्लोज़ हो गईं और 4-5 उसे डेट्स की वजह से छोड़नी पड़ीं। उसने यह भी बताया कि वह एक दिन में 4-5 फ़िल्मों की शूटिंग करता है।
इस तरह देखें तो सब कुछ अपने-अपने स्टेमिना पर निर्भर है। वह बातचीत के दरमियान बार-बार अपने हाथ झटकता रहा था। ज़ाहिर है कि वह जल्दी में था। इस तरह वह पहुँच गया—वहाँ—जहाँ उसे पहुँचना था। वह अपनी नींद में भी स्थिर नहीं था। वह बहुत काम करते हुए, बहुत नाकाम हुआ :
• इल्ज़ाम (इमोशनल, डांस, फ़ाइट)
• लव-86 (रोमांस, कॉमेडी, डांस)
• प्यार करके देखो (लाउड कॉमेडी, फ़ैमिली ड्रामा)
• घर में राम, गली में श्याम ( फ़ैमिली ड्रामा, फ़ाइट)
• सिंदूर (सोशल ड्रामा)
• दरिया दिल (रोमांस, डांस, कॉमेडी)
• घर घर की कहानी (फ़ैमिली ड्रामा, कॉमेडी)
• ख़ुदग़र्ज़ (रोमांस, डांस, कॉमेडी)
• हत्या (एक्शन, क्राइम, सोशल ड्रामा)
• पाप को जला कर राख कर दूँगा (एक्शन, क्राइम, सोशल ड्रामा)
गोविंदा ने अपने काम की शुरुआत के दो बरस के भीतर-भीतर ही अपने समय और अपनी भाषा की सब अभिनेत्रियों के साथ काम किया। यह अलग बात है कि सब बार वह नायक नहीं था। वह अतिरेक पर था और अतिशयोक्तियों में बस रहा था। लेकिन उसने ख़ुद को ठीक करते हुए कहा कि शायद एक-दो नायिकाएँ रह गई हों तो रह गई हों। वह बोला : यह सब कुछ करने से नहीं हुआ। यह बस हो गया :
‘‘श्रेय नहीं कुछ मेरा :
मैं तो डूब गया था स्वयं शून्य में—
वीणा के माध्यम से अपने को मैंने
सब कुछ को सौंप दिया था—
सुना आपने जो वह मेरा नहीं,
न वीणा का था :
वह तो सब कुछ की तथता थी
महाशून्य
वह महामौन—
अविभाज्य, अनाप्त, अद्रवित, अप्रमेय
जो शब्दहीन
सबमें गाता है।’’
यह बुनियादी ईमानदारी थी—गोविंदा और उसके दौर की, जिसके लिए अज्ञेय की ‘असाध्य वीणा’ की याद आती है। आजकल के लोकप्रिय, बेशर्म, बेईमान, बदगुमान और झूठे चैरकुट्य के लिए गोविंदा की नम्बर वन फ़िल्मों की श्रेणी की फ़िल्म ‘अनाड़ी नम्बर वन’ का एक गाना भर याद आता है : ‘‘मैं लैला लैला चिल्लाऊँगा कुर्ता फाड़ के…’’
गोविंदा को उसकी फ़ैन फ़ॉलोइंग ने कभी उत्तेजित नहीं किया, ख़ुश ज़रूर किया। उसकी फ़ैन फ़ॉलोइंग उसे उसके सबसे चमकदार पलों में झूठ से कैसे बचा ले गई, यह इस दौर में समझने की चीज़ है। दरअस्ल, यह इसलिए हुआ : क्योंकि वह इस सचाई को भूला नहीं था कि जो आज है, कल नहीं रहेगा; वैसे ही जैसे जो कल था, आज नहीं है। उसने अपने पिता का जीवन देखा था। संपन्नता से विपन्नता और विपन्नता से फिर संपन्नता से गुज़रते हुए उसने पाया कि भविष्य को प्लान नहीं करना चाहिए। वह ईश्वर से डरता हुआ आस्तिक था और उसके खानदान में शुरू से ही धार्मिक माहौल था। वह इस पल को यानी अभी बिल्कुल अभी को बेहतर करने में यक़ीन रखता था। (संदर्भ : केदारनाथ सिंह)
गोविंदा बेइंतिहा कमाई और इन्वेस्मेंट के बावजूद असुरक्षा और भय को बहुत समीप से जानता था। आख़िर वह जैसा भी था, एक सफल नायक था। उसे अच्छे कपड़ों, अच्छे घरों और महँगी गाड़ियों का शौक़ था। वह मानता था कि एक आदमी के पास कम से कम 8-10 गाड़ियाँ तो होनी ही चाहिए। वह अपनी प्रेमिका का नाम सार्वजनिक नहीं करता था, क्योंकि वह बाक़ियों का दिल नहीं तोड़ना चाहता था। उसे शादी की कोई जल्दी नहीं थी। वह अभी अपने काम से ही निभाना चाहता था। वह जानता था कि एक सफलता के पीछे कई हाथ होते हैं और ज़रूरी नहीं कि वे स्त्री के ही हों। वह स्त्री-मन जानता था!
यहाँ तक आकर स्पष्ट है कि गोविंदा कुछ चीज़ों में बहुत तय था और कुछ चीज़ों में बिल्कुल भी तय नहीं था। या कहें कि वह तय था कि वह कुछ चीज़ों में बिल्कुल भी तय नहीं रहेगा। वह इस इंटरव्यू से पहले भी शूट कर रहा था और इस इंटरव्यू के बाद भी शूट करने लगेगा।