लिखने के बारे में
धूमिल ने एक कविता में लिखा कि वसंत उनके लिए बिलों के भुगतान का मौसम है। यह पंक्ति मुझे तब याद आई जब ‘दूसरा सप्तक’ के शेष दो (हरिनारायण व्यास, शकुंत माथुर) में से मैं श्री व्यास की ‘शिशिरांत’ शीर्षक कविता पढ़ रहा था—हो चुका हेमंत अब शिशिरांत भी नज़दीक है। मैं तब शिशिर पर निबंध लिखना चाहता था। अकारण सोचने लगा कि पूर्व-तुरंत के शिशिर और हेमंत के लिए धूमिल क्या कहते! क्या हेमंत की गुलाबी ठंड का आलस्य शिशिर के साँवले (प्रिय मुक्तिबोध!) ठंड के इंतज़ाम के अतिरिक्त-आग में व्यक्त हुआ होगा और यह बिल भी वसंत के बिल में जुड़ गया होगा।
मध्यमवर्गीय आदमी की कविता और मासिक बिल में हमेशा एक अतिरिक्त उभर आता है या छूट जाता है। कवि का एक संसार होता है, आदमी का दूसरा। आदमी कवि की कविता अपने संसार से जोड़ कर पढ़ता है, कवि आदमी को अपने संसार में ढाल कर देखता है। कल्पना को लगाम देता हूँ—पाठक सावधान न हो तो संदर्भ की अच्छी-भली लिखित कविता-पंक्ति को पढ़ने में नष्ट कर सकता है।
लिखने की जद्दोजहद में कई बातें निकल आती हैं, जबकि स्कॉट फ़ित्ज़गेरल्ड ने एक काम की बात लगभग यह लिखी थी कि इसलिए नहीं लिखते कि लिखना है, इसलिए लिखते हैं कि लिखने के लिए तुम्हारे पास कुछ है। ‘निजिंस्की की डायरी’ के लिए एक विद्वान ने शिकायत की कि वह ‘बैले’ के बारे में कुछ नहीं लिखते यहाँ, दूसरे विद्वान ने लिखा कि इसे इस तरह से पढ़ो कि यह भी कुछ है जो लिखा गया है और इसके इस तरह से लिखे जाने का एक मूल्य है, एक मूल्य इसके पढ़े जाने में जन्म लेगा।
मैंने एक कविता में सरसों की कल्पना एक ग्राम्यबाला के रूप में की और वसंत की कल्पना उसके पति के रूप में जो प्रवासी मज़दूर है। सरसों जानती है कि वसंत हर बरस लौटने वाला चिरई है / जो आएगा तो खिल जाएगी गंध / फूलेगी सरसों और बरस पड़ेगा पीला/ लाल-धानी-सुआपंखी-मिट्टई-नीला।
हेमंत और शिशिर में आँचल-धूप-उठाई-सरसों की मेरे पास कोई कविता-कल्पना नहीं थी—सरसों वसंत का प्यार है। यह प्यार ‘भैया एक्सप्रेस’ के आर-पार दो सिरों से जुड़ा होता है। यह प्यार मेरी आँखों में घटित होता है—मेरे हिस्से के पूरब में। जबकि मैंने हेमंत-शिशिर की संक्रमण सीमावधि के इन्हीं दिनों अरावली के साये तले लहराती सरसों देखी है—यह पूरब और पश्चिम में बँटे देश के इस हिस्से की सरसों है। इनके वसंतों के नाम-पते मेरे लिए लापता हैं। इनके मालिक होते हैं। हरित क्रांति ने देश के एक हिस्से में सरसों के मालिकों को जन्म दिया, दूसरे हिस्से में सरसों के प्रवासी वसंतों को। पिछले वर्ष वसंत-ग्रीष्म की संक्रमण सीमावधि के उन दिनों हज़ारों वसंत महानगरों से भाग अपने गाँवों को लौटे थे। वे फिर लौटे होंगे। उनका लौटना किस द्वित्व की कैसी अभाग्यजनक प्रतीति है कि उनके आने उनके जाने—दोनों के लिए ‘लौटना’ लिख देता हूँ। उनमें से कुछ अफ़सोस की उस लौट में लौटे होंगे जब उनके मालिक दिल्ली जा रहे थे।
लिखने का एक कुछ एक तस्वीर में घटित हुआ एक दिन। फ्रिज में अकेले पड़े अंडे को देख मुझे काफ़्का की याद आई। यह याद रुडोल्फ़ स्टेनर के बारे में काफ़्का की डायरी में दर्ज बात से जुड़ी थी—Herr Kafka, essen Sie keine Eier. श्रीमान काफ़्का, अंडे न खाएँ। किसी विद्वान ने लिखा कि स्टेनर को अनुमान था कि काफ़्का अधिक जीवित नहीं रहेंगे और आशय यह कि काफ़्का अपना सारा समय साहित्य पर ख़र्च करें।
मैंने इस अकेले अंडे को उठाया और उस पर यह वाक्य लिख भी दिया। मैं फिर इस अंडे की तस्वीर खेंचना चाहता था—फ़्रेम इंस्टॉल करने का ख़याल तब आया। कुल्हड़ उठाया और उसके ऊपर यह अंडा रख दिया। कुल्हड़ पर बनी चित्राकृति काफ़्का की नहीं थी। वह तो मैं एक दिन वार्ली आर्ट बनाना चाहता था और तब वह चित्र उकेरा था। कुल्हड़ पर अंडा रखते पता नहीं क्यों मुझे क़ब्र पर गड़े पत्थर की याद आई। एक कविता-पंक्ति भी याद आनी चाहिए थी। फिर फूल भी आना चाहिए था। किसी ने कहा है कि फूल ‘आर्कटाइप फ़ीमेल सिनेकडकी’ है। मैं सोचता हूँ कि फूलों में मृतकों की स्मृतियाँ भी शामिल हैं।
एक फ़्रेम एक फ़्रेम से बाहर निकल कितनी बातें याद दिलाता है और उस प्रत्येक बात के बारे में लिखा जा सकता है। ‘लव कंसर्टो’ का नायक एक दीवार घड़ी लेकर आता है और उसका समय एक घंटे पीछे कर देता है। नायिका से कहता है कि अभी कुछ देर पहले के मेरे प्रेम प्रस्ताव को भूल जाओ और मेरी मित्र बन जाओ। ‘ला कुकाराचा’ में जीटा फूल और ब्रांडी बोतल के साथ प्रणय-निवेदन करने आया है। फ़ेलिक्स ने बोतल और फूल ज़मीन पर फेंक दिया है। अगली सुबह का दृश्य है कि बोतल में फूल रखा है। प्रिय सीमोन द बोउवार, सुजान सौन्टैग (संयोग से ये दोनों औरतें क़ब्र में पड़ोसी हैं) स्मोकिंग की दीवानी रहीं। ऑस्ट्रियाई कवयित्री इंग्बर्ग बैकमेन अपनी ही सिगरेट से लगी आग में जलकर मर गईं। दीवार और परछाईं से ओल्डफ़िल्ड माइक का एक गीत याद आता है—‘‘ट्रीट मी लाइक अ क्रिमिनल, जस अ शैडो ऑन द वाल।’’
लिखने के ही बारे में मेरी एक मनोग्रस्तता यह रही है कि दुनिया की तमाम बातों में मुझे मेरी उपस्थिति भी चाहिए। मैं जब अनुवाद करता हूँ तो वह उस बात में मेरी संलग्नता का ही उपक्रम। हेमिंग्वे ने कही एक कोई बात, जब उस बात को मैं ढालता हूँ अपनी भाषा में तो प्रयोजनपूर्वक मैं उसमें शामिल भी हो गया हूँ और उसका प्रायोजक भी। ऐसा ही कुछ अपनी तस्वीरों में या कविताओं में। एक तस्वीर है : एक नायिका खड़ी है, पसार रही है कपड़े; लेकिन मैं उसमें देखता हूँ कि मैं सवार हूँ—एक दूरी से—उस नायिका की पीठ पर।
फ़्रेम में फिर आईना रख दिया मैंने। मेरी उपस्थिति। दूर से सवार नहीं, प्रत्यक्ष।
कलाएँ जैसे स्वयं घटित होती हैं। तुम जो कविता पढ़ रहे हो, संभवतः कवि वही कविता उन्हीं शब्दों में नहीं लिख रहा था। अंत-उत्पाद उस कला-वस्तु की निजी उत्क्रांतता है। मैंने फ़्रेम में जिन वस्तुओं को इंस्टॉल नहीं किया, वे स्वयं वहाँ उपस्थित थीं।
कितनी उपस्थितियाँ! किसी प्रिय का वह कॉफ़ी मग जिसमें अब दरारें हैं। पर्सनलाइज्ड चॉकलेट का डिब्बा जो किसी जन्मदिन पर किसी प्रिय ने दी। किसी प्रिय का बर्तननुमा आर्टिफ़ैक्ट, जिसमें मैंने धूप तो जलाए, सिगरेट कभी नहीं झाड़ी। किसी प्रिय के फूल जिसे कभी मैंने फूल न सौंपे। इन उपस्थितियों को नहीं लिखा जाए तो भी ‘अ-दर्ज तमाम उपस्थित’-सा कुछ लिख उन्हें अनुपस्थित या अदृश्य रह जाने से बचाना ज़रूरी।
और फिर भी लिखने से जो शेष रह जाए, उसके लिए कहना—शुक्रिया, घटित!