‘लेकिन’, ‘शायद’, ‘अगर’ नहीं…
कोई जिया नहीं पकी हुई फ़सलों की मृत्यु
यह धूमिल की कविता-पंक्ति है, और यह भी :
मेरे लिए वसंत बिलों के भुगतान का मौसम है
धूमिल की मृत्यु वसंत के आस-पास हुई। उनकी मृत्यु एक पकी हुई फ़सल की मृत्यु है। यह मृत्यु भी स्वयं में एक जीवन है—उनकी कविता का एक लंबा जीवन।
धूमिल को भी अपने साथी-कवि राजकमल चौधरी की तरह ही ज़्यादा उम्र नहीं मिली। वर्ष 1929 में जन्मे राजकमल 1967 में गए और 1936 में जन्मे धूमिल 1975 में।
जीभ और जाँघ के चालू भूगोल से
अलग हटकर उसकी कविता
एक ऐसी भाषा है जिसमें कहीं भी
‘लेकिन’, ‘शायद’, ‘अगर’ नहीं है
उसके लिए हम इत्मीनान से कह सकते हैं कि वह
एक ऐसा आदमी था जिसका मरना
कविता से बाहर नहीं है
ऊपर उद्धृत पंक्तियाँ राजकमल चौधरी की कविता-पंक्तियाँ नहीं हैं। ये भी धूमिल की ही पंक्तियाँ हैं और ये राजकमल चौधरी के लिए लिखी गई उस कविता से हैं जो उनकी मृत्यु के बाद सामने आई।
राजकमल महज़ 36 बरस ही जी पाए और धूमिल महज़ 39 बरस। इस दौर और अवधि में ‘लेकिन’, ‘शायद’, ‘अगर’ से राजकमल की तरह ही धूमिल ने भी अपनी कविता में बहुत परहेज़ बरता। वह सीधे-सीधे अपनी बात कहना चाहते रहे :
चुटकुलों-सी घूमती लड़कियों के स्तन नकली हैं
नकली हैं युवकों के दाँत
धूमिल का दौर कविता का नहीं, कविता के बहाने ‘अकविता’ का दौर था—एंटी पोएट्री :
उम्र के सत्ताईस साल
उसने भागते हुए जिए हैं
उसके पेशाब पर चींटियाँ रेंगती हैं
उसके प्रेम-पत्रों की आँच में
उसकी प्रेमिकाएँ रोटियाँ सेंकती हैं
अपनी अधूरी इच्छाओं में झुलसता हुआ
वह एक संभावित नर्क है :
वह अपने लिए काफ़ी सतर्क है
वह दौर बहुत उथल-पुथल, उत्तेजना और उपद्रव का दौर था और वह दौर कुछ यों था कि सारे साहित्यवाले धूमिल के मुरीद थे।
इस दौर में धूमिल कवियों के कवि नहीं कवियों के आदर्श थे।
…भाषा में
भदेस हूँ;
इस क़दर कायर हूँ
कि उत्तर प्रदेश हूँ!
भदेस और प्रदेश के इस तर्क नहीं तुकपूर्ण अंतर्द्वंद्व को समझने के लिए धूमिल के उत्तर प्रदेश को भी समझना होगा। यह बयान इतना सहल नहीं है कि कोई चलताऊ टिप्पणी देकर चलते बना जाए। पर शब्दतत्पर जल्दबाज़ियाँ आजकल यही करती हैं।
उत्तर प्रदेश के महान नगर बनारस के खेवली से वास्ता रखने वाले धूमिल अपनी बुलंद आवाज़ की वजह से अलग से जाने जाते थे। मूँछ पर ताव देना और ग़लत बात पर आस्तीन चढ़ा लेना भी उनकी आदत थी। यह आदत न होती, तब उनकी कविता यह कैसे बताती कि सत्ता पीढ़ियों से छल कैसे करती है :
अपने यहाँ जनतंत्र
एक ऐसा तमाशा है
जिसकी जान
मदारी की भाषा है
धूमिल का नेचर अराजकता, अहंकार और उजड्डता का कॉकटेल था। यह धूमिल के बारे में एक आम राय थी। लेकिन उनकी मृत्यु के बाद सामने आए संस्मरण इस आम राय को संदिग्ध बना देते हैं।
इन संस्मरणों को पढ़ कर पता चलता है कि धूमिल बनावटी शालीनता और ग़ैर-ज़रूरी सभ्यता से बेहद चिढ़ते थे। वह अपनी कविताओं की तरह ही जीना चाहते थे। आख़िर उनके लिए कविता भाषा में आदमी होने की तमीज़ जो थी।
इतनी ईमानदारी ज़्यादा जीने नहीं देती और धूमिल गुज़र जाते हैं और उनकी कविता बनी रहती है :
और कविता कविता से भीगती है
तृप्त और कृतज्ञ जैसे पानी—
पानी से भीगता है समरस और शांत
~~
धूमिल के गुज़रने के एक रोज़ बाद वाले रोज़ में जाएँ तो 11 फ़रवरी 1975 को सुबह 10 बजे एक काली गाड़ी धूमिल का शव लेकर हरहुआँ बाज़ार में आती है और धूमिल की पत्नी और माँ को यह पता चलता है कि इस काली गाड़ी में धूमिल नहीं, धूमिल की लाश है।
इस रोज़ की ही शाम छह बजे मणिकर्णिका के महाश्मशान में हिंदी साहित्य का सबसे चमकता हुआ तारा जल कर राख हो जाता है।
यों कहते हैं कि धूमिल की अर्थी को काशी का एक भी साहित्यकार अपना कंधा न दे सका :
पता नहीं कितनी रिक्तता थी
जो मुझमें होकर गुज़रा—रीत गया
पता नहीं कितना अंधकार था मुझमें
मैं सारी उम्र चमकने की कोशिश में
बीत गया…
~~
वह जनवरी-1975 की 14वीं तारीख़ थी। धूमिल भीषण सिरदर्द से पीड़ित थे। उनकी नज़र एकदम कमज़ोर हो चुकी थी। वह अपने छोटे भाई लोकनाथ पांडेय से बोले, ‘‘ज़रा काग़ज़-पेंसिल लाओ, देखें—दृष्टि कमज़ोर हो गई है, चश्मा बग़ैर लिख पाता हूँ या नहीं।’’ काग़ज़-पेंसिल उनके सामने आया और उन्होंने अपनी अंतिम कविता दर्ज की :
शब्द किस तरह
कविता बनते हैं
इसे देखो
अक्षरों के बीच गिरे हुए
आदमी को पढ़ो
क्या तुमने सुना कि यह
लोहे की आवाज़ है या
मिट्टी में गिरे हुए ख़ून का रंग
लोहे का स्वाद
लोहार से मत पूछो
उस घोड़े से पूछो
जिसके मुँह में लगाम है।
इस अंतिम कविता की अंतिम चार पंक्तियाँ कविता होने के साथ-साथ एक नसीहत भी हैं, जो एक कवि एक भाषा और एक सभ्यता को दे गया है। इस परिघटना के कुछ वक़्त बाद ही हिंदी में विधिवत अस्मिता-विमर्शमूलक साहित्य का दौर शुरू हुआ और उन अस्मिताओं का साहित्य सामने आया जो सहानुभूति नहीं समानुभूति चाहता है।
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