वक़्त की विडम्बना में कविता की तरह

कवि आत्मकथा कम ही लिखते हैं। उनकी जीवनियाँ भी कम ही लिखी जाती हैं। मंगलेश डबराल (1948-2020) ने भी आत्मकथा नहीं लिखी। लेकिन उनके गद्य के आत्मपरक अंश और उनके साक्षात्कारों को एक तरफ़ करके, अगर हम उनकी पूरी ज़िंदगी और जीवन-मूल्यों को जानते-समझते हुए उनके कविता-संसार में प्रवेश करें; तब हम पाएँगे कि मंगलेश डबराल ने आत्मकथा लिखी है। यह आत्मकथा महज़ इक्कीस शब्दों की है और उनकी कविताओं की पहली किताब ‘पहाड़ पर लालटेन’ (1981) के पृष्ठ-43 पर 23वीं कविता के रूप में दर्ज है :

मैंने शहर को देखा और मैं मुस्कुराया

वहाँ कोई कैसे रह सकता है
यह जानने मैं गया
और वापस न आया

‘शहर-1’, (1974)

इसके बाद उनकी इस आत्मकथा में धीरे-धीरे शब्द बढ़ते गए, लेकिन यह विस्तार इतना नहीं था कि कविता से बाहर चला जाए। उनकी कविताओं की आख़िरी किताब ‘स्मृति एक दूसरा समय है’ (2020) में दर्ज कविता ‘ताक़तवर आदमी’ को देख-पढ़कर यह समझा जा सकता है कि क्यों मंगलेश डबराल की आत्मकथा कविता में ही संभव है। इस कविता में ताक़त के सामने खड़ा और उससे टकराता एक कवि दीखता है। ताक़त और ताक़त चाहती हुई कभी थकती नहीं, थकते हैं कवि-मनुष्य। वह ग़रीब माँ के बेटे बनकर जन्म लेते हैं और उनकी पूरी उम्र माँ के योग्य बनने में निकल जाती है। वे देखते हैं कि कई चेहरे उनसे रूठे हुए हैं। ये चेहरे किसी ग़लती की तरफ़ इशारा कर रहे हैं। कवि-मनुष्य अपनी पत्नी और घर को छोड़ते नहीं हैं। रात में लौटने के लिए एक जगह और भली-सी पत्नी—जो अपने प्रेम के एवज़ में कुछ नहीं चाहती—को वे अपनी ख़ुशनसीबी मानते हैं। वे इस गहरी चिंता में घुलते रहते हैं कि कहीं उनके भीतर मनुष्य के प्रति प्रेम घटने न लग जाए। वे अपने मामूली-से अस्तित्व के बारे में सोचते हैं जिसे सँवारने में कितने ही हाथों ने मदद की थी। …और एक रात जब ताक़तवर आदमी यह संदेश प्रसारित करता है कि वह अभी कई साल ताक़तवर बने रहना चाहता है, तब वे सुबह उठकर किसी अज्ञात से यह प्रार्थना करते हैं :

बस आज के दिन बचा रहे मेरा यह धुँधला-सा जीवन

‘ताक़तवर आदमी’, (2018)

साल 2013 में आए मंगलेश डबराल के पाँचवें कविता-संग्रह ‘नए युग में शत्रु’ का शीर्षक—नए युग में जीवन, नए युग में स्मृति, नए युग में स्वप्न, नए युग में नींद, नए युग में प्रेम, नए युग में स्पर्श, नए युग में सत्ता, नए युग में ताक़त, नए युग में बाज़ार, नए युग में ग़ुलामी, नए युग में आवाज़, नए युग में नगर, नए युग में शोक, नए युग में अंधकार, नए युग में रोशनी, नए युग में कविता, नए युग में हिंसा या नए युग में तस्वीरें… इनमें से कुछ भी हो सकता था। यहाँ यह कहने की ज़रूरत इसलिए है, क्योंकि इस संग्रह की कविताएँ केवल इस नए युग में शत्रु की ही शनाख़्त नहीं करतीं, बल्कि वे यह भी ज़ाहिर करती हैं कि उसकी पहुँच अब कहाँ-कहाँ तक हो चुकी है। मर्म नहीं, एक ख़ुलासे की तरह ये कविताएँ उसके हमारी कल्पनाओं से कहीं आगे बहुत ताक़तवर हो जाने का दृश्य रचती हैं और उसके रूप-रंग के रेशे-रेशे को उधेड़कर हमें बताती हैं कि वह अब हमारे कितना नज़दीक आ चुका है। वह भयावह रूप से अब हर उस चीज़ में घुस चुका है जिसे छूने की इच्छा जागती है, और यह इच्छा इस स्थिति से बहुत पूर्व ही वह हमारी सोच में बो चुका है :

अपने भीतर जाओ और एक नमी को छुओ
देखो वह बची हुई है या नहीं इस निर्मम समय में…

मंगलेश डबराल उन कवियों में से नहीं रहे जिनके नए कविता-संग्रह या नई कविताएँ केवल शीर्षक बदल जाने भर से नए युग में नव्यता प्राप्त कर लेते हैं। ‘काव्य में नव्यता’ के निशान केवल काव्य-व्यवहार में ही देखे जा सकते हैं। यह एक ऐसा मूल्य है जिसका पुस्तक-संस्करण से कोई वास्ता नहीं होता। वह प्रासंगिकता से तय और उससे ही दीर्घजीवी होता है। इस अर्थ में देखें तो संग्रह-दर-संग्रह मंगलेश डबराल के काव्य-व्यवहार में ‘प्रासंगिक नव्यता’ कथ्य के आधार पर बराबर बदलती और विस्तृत होती रही, लेकिन इस बदलाव के लिए इसने कभी अपना आंतरिक विन्यास और स्वभाव नहीं त्यागा। यह ‘प्रासंगिक नव्यता’ ख़ुद को बहुत सलीक़े से दुहराती भी रही, जैसे घर से घर लौट रही हो—अधिक परिपक्व और अधिक अनुभवसंपन्न :

इतने समय से तुम क्या खोजते हो इस शहर में
जहाँ एक धुँधली युवावस्था में
तुम पत्थर की तरह लुढ़कते हुए आए थे
तुम्हें मिली एक ख़ाली जगह एक रात और रात के लिए बिस्तर
यहीं तुम्हें दिखी अपनी स्पष्ट ग़रीबी यहीं मिला अपना अहंकार
यह कौन-सी सभ्यता थी कौन-सा समय
वे किसकी रोशनियाँ थीं जो तुम्हारे आगे-पीछे चमकती रहती थीं
तुम शहर के भीतर प्रवेश करना चाहते थे उसके रक्त में
उसकी रातों में जिसकी सड़कें कई-कई हाथों से तुम्हें छूती थीं

‘शहर फिर से’, (2003)

इस काव्य-व्यवहार के स्वभाव को थोड़ा और समझने के लिए ‘नए युग में शत्रु’ में दर्ज एक और कविता ‘टॉर्च’ को पढ़ा जाना चाहिए। इसमें पहाड़ के ऊबड़-खाबड़ रास्ते हैं तो रात को दो हिस्सों में बाँटती रोशनी भी और यह वक्तव्य भी कि अगर इस ‘उजाले में थोड़ा आग भी होती तो कितना अच्छा था।’

करुणा—मंगलेश डबराल की कविताओं का वस्त्र नहीं, उनकी आत्मा है। वह सख़्त होते समय की परतों को बहुत धीरे-धीरे अलग कर उसके वास्तविक सूक्ष्म को मार्मिकता से उद्घाटित करते हैं। इसे ही शायद ‘मंगलेशियत’ कहना चाहिए, जिसका ज़िक्र असद ज़ैदी करते हैं :

‘‘मंगलेश असाधारण संतुलन के कवि हैं—उनकी कविता ने न यथार्थबोध को खोया है, न अपने निजी संगीत को। वह अपने समय में कविता की ऐतिहासिक ज़िम्मेदारियों को अच्छे से सँभाले हुए हैं और इस कार्यभार से दबे नहीं हैं। मंगलेश के लहजे की नर्म-रवी और आहिस्तगी शुरू से उनके अक़ीदे की पुख़्तगी और आत्मविश्वास की निशानी रही है। हमेशा की तरह जानी-पहचानी मंगलेशियत इसमें नुमायाँ है।’’

यह मंगलेशियत नगर और बाज़ार से आक्रांत भी नज़र आती है। जैसे वह आक्रांत होकर ही इनसे लड़ और बच सकती है। इसे अपना शत्रु बहुत स्पष्ट है और वह उसका बदलना लगातार देख रही है। शत्रु के साथ-साथ यह देखना भी बराबर नया होता जाता है। इस शत्रु के प्रति क्रोध और इससे प्रभावितों के प्रति करुणा एक विडम्बनाबोध के साथ इसमें स्थायी बनी रहती है। यह पक्षधरता अपने साथ कुछ सरलीकरण भी ले आती है। लेकिन ये सरलीकरण वास्तविक निष्कर्षों को अविश्वसनीय और काव्य-प्रभाव को सीमित कर दें, मंगलेश डबराल इन्हें इतनी छूट नहीं लेने देते। कविता में कवि का वक्तव्य ही उसे विशिष्ट बनाता है। नगर और बाज़ार के प्रति आक्रांत-भाव के बावस्फ़ यह वक्तव्य मंगलेश डबराल के यहाँ बराबर व्यापक, सघन और सशक्त नज़र आता रहा है। हालाँकि कहीं-कहीं ऐसा भी प्रतीत होता है कि जैसे वह इसका सीधे सामना नहीं कर रहे :

क्या यह कोई डर है कि मैं पहले जैसा नहीं दिखूँगा
शायद मेरे चेहरे पर झलक उठेंगी इस दुनिया की कठोरताएँ
और चतुराइयाँ और लालच
इन दिनों हर तरफ़ इन्हीं चीज़ों की तस्वीरें ज़्यादा दिखाई देती हैं
और जिनसे लड़ने की कोशिश में
मैं कभी-कभी पुरानी तस्वीरों को ही
हथियार की तरह उठाने की सोचता हूँ

सतत शक्तिशाली, सत्तावान और रूप बदलते शत्रु के समक्ष मंगलेशियत के हथियार बहुत प्राचीन हैं। इस प्राचीनता का प्रभाव, प्रासंगिकता और विश्वसनीयता तब दृश्य होती है, जब वह तात्कालिक होती है। 2001 के भूकम्प और 2002 की साम्प्रदायिक हिंसा वाले गुजरात का रुख़ करती कविताएँ यहाँ भूलने के विरुद्ध आपदाओं और बर्बरता को दर्ज करती हैं, यह पूछते हुए :

राक्षसो, क्या तुम अब भी वैसे ही हो…
क्या तुमने नया रूप धर लिया है…
क्या दूसरों की तरह तुम्हें भी चुभते हैं
तुम्हारे सींग, नाख़ून, दाँत
क्या तुम्हें सचमुच नींद आती है…

कवियों, कलाकारों, मित्रों, रंगों और रागों की स्मृतियाँ मंगलेश डबराल के काव्य-व्यवहार और संसार को विविध, विस्तृत और संतुलित करती हैं। ‘गुजरात के मृतक का बयान’ जैसी इस सदी की क्लासिक कविता रचने वाला कवि ‘पंचम’ जैसी कविता में किराना घराने के सबसे अज़ीम गायक अब्दुल करीम ख़ाँ से जुड़े किसी किताब में पढ़े एक वाक़ये (जिसमें अपने मुरीद के इस सवाल के जवाब में कि उस्ताद अब तो आपके लिए कुछ बचा नहीं? सातों सुर साध लेने और खरज से निखाद तक तीनों परदों के आर-पार जाती मीठी आवाज़ वाले करीम ख़ाँ कहते हैं कि कहाँ बेटा सिर्फ़ पंचम को मैं थोड़ा समझ पाया हूँ और अब इस उम्र में क्या कर पाऊँगा। बाद इसके मुरीद मायूस हो जाते हैं। उन्हें उम्मीद थी कि उस्ताद कुछ और रोशनी डालेंगे—अपनी आवाज़ पर, अपने बेजोड़ रियाज़ पर…) को याद करते हुए कहता है :

सहसा हाथ रुक जाता है
जब भी लिखने बैठता हूँ कोई कविता…

यह मंगलेश डबराल की कविता का बेजोड़ रियाज़ और आत्मस्वीकार ही है कि वह इस त्रासद यथार्थ के करुण संगीत को उसके बहुत सारे आयामों और रहस्यों के साथ व्यक्त कर पाते हैं और इसमें अपने स्वर को ऊँचा न उठाने की जो कोशिश है, उसे उनकी विफलता नहीं उनकी विनम्रता समझा जाना चाहिए। (मंगलेश डबराल के चौथे कविता-संग्रह ‘आवाज़ भी एक जगह है’ (2000) की एक कविता ‘संगतकार’ का संदर्भ।)

कविताओं की अपनी दूसरी किताब ‘घर का रास्ता’ (1988) की एक कविता ‘दिनचर्या’ में ‘अपने विचारों से ज़्यादा दूर नहीं गए हैं हम’ कहने वाले मंगलेश डबराल लगभग 27 वर्षों बाद दर्ज करते हैं :

ज़्यादातर चीज़ें उलट-पुलट हो गई हैं
इन दिनों दिमाग़ पर पहले क़ब्ज़ा कर लिया जाता है
ज़मीनों पर क़ब्ज़ा करने के लिए लोग बाद में उतरते हैं…

मंगलेश डबराल की कविता बहुत सजगता से अपने वक़्त के बदलावों पर नज़र रखती, उसके प्रभावों को आत्मसात करके उन्हें दर्ज करती हुई कविता है। उसमें चमत्कृत नहीं, विचलित कर देने की सामर्थ्य है। शोर और कृत्रिमता नहीं, जीवनानुभवों का प्रकाश और सत्य है :

विश्वास व्यक्त करता था बग़ैर आत्मविश्वास
लिखता और काटता जाता था यह वाक्य
कि चीज़ें अपने सबसे बुरे दौर से गुज़र रही हैं
बिखरे काग़ज़ सँभालता था, धूल पोंछता था
उलटता-पलटता था कुछ क्रियाओं को
मसलन ऐसा हुआ होता रहा
होना चाहिए था हो सकता था
होता तो क्या होता

‘हम जो देखते हैं’ (1995) में 1994 की कविता ‘बार-बार कहता था’ का एक अंश

होने-बचाने-देखने-बचने के सिलसिले से गुज़रती हुई मंगलेश डबराल की कविता आज इस मक़ाम पर है, जहाँ :

यथार्थ इन दिनों बहुत ज़्यादा यथार्थ है
उसके शरीर से ज़्यादा दिखाई दे रहा है उसका रक्त…
मैं जब भी यथार्थ का पीछा करता हूँ
देखता हूँ वह भी मेरा पीछा कर रहा है
मुझसे तेज़ भाग रहा है।

यहाँ आकर फ़्रेंच फ़िल्मकार त्रुफ़ो की एक फ़िल्म ‘दि 400 ब्लोज़’ याद आती है। मंगलेश डबराल के कविता-संसार के नायक की बेचैनी इस फ़िल्म के बहुत कमउम्र नायक से मेल खाती है। एक श्वेत-श्याम यथार्थ में व्यस्त सड़कों और चौराहों से गुज़रता वह तल्ख़ सचाइयों से रू-ब-रू होता है। पैदल स्कूल जाते और लौटते वह धोखों, उलझनों और यातनाओं के एक संसार को जीते हुए एक रोज़ घर छोड़कर गुमशुदा हो जाता है। वक़्त के थपेड़े उसे गोल-गोल घुमाते हैं। वह इस क़दर पीड़ित होता है कि दर्शनीय हो उठता है। संसार की चमक-चौंध अत्याचार के समानांतर बराबर बढ़ती रहती है—न बाज़ार थकता है, न अत्याचारी। जीवन के तमाम प्रसंग धूसर ही रहे आते हैं… और फिर वह अंतिम दृश्य—यथार्थ का पीछा और पीछे यथार्थ—एक क़ैद से आज़ाद उससे भी तेज़ भागता हुआ। ऊबड़-खाबड़ रास्ते। समतल। जंगल। बारिशें। समुद्र…—एकदम खुला हुआ…जैसे अंत नहीं, एक नई शुरुआत नई लड़ाइयों की—नए युग में शत्रु से।