चोट
बुधवार की बात है, अनिरुद्ध जांच समिति के समक्ष उपस्थित होने का इंतजार कर रहा था। चौथी मंजिल पर जहां वह बैठा था, उसके ठीक सामने पारदर्शी शीशे की दीवार थी। दफ्तर की यह दीवार इतनी साफ-शफ़्फ़ाक थी कि मई महीने की जलती लू भी भीतर आ जाना चाहती थी। शीशे की दीवार ने दोपहर की तपिश के रंग को जरा हल्का कर दिया था।
जांच समिति के सामने उपस्थित होने की बेचैनी परेशान किए हुये थी। शायद इसलिए अनिरुद्ध दीवार के बाहर और भीतर की जानी पहचानी दुनिया के किसी भी बिन्दु पर ध्यान केन्द्रित नहीं कर पा रहा था। तभी उसने देखा कि दूर से एक कबूतर बदहवास, तेज रफ्तार उड़ता आ रहा है। वह कबूतर के पास आने को महसूस कर रहा था कि अगले ही पल, बिजली की गति से जैसे, पटाक की आवाज के साथ वह पक्षी शीशे की दीवार से टकरा कर नीचे कहीं गिर गया। यह सोचते हुये कि कबूतर ने पारदर्शिता को भाँपने में गलती कर दी थी, वह दीवार तक इस उम्मीद में आया कि देख सके, कबूतर कहाँ गिरा पड़ा है?
उसे चित्र बनाने के आरोप में तलब किया गया था।
जिस बोर्ड रूम में जांच समिति बैठी थी वहाँ से राजेन्द्र नगर मेट्रो स्टेशन साफ दिखता था। कमरे में प्रवेश करते ही मेट्रो स्टेशन पर लगी उन दो होर्डिंग्स पर ध्यान गया था जिनमें पहली होर्डिंग, जो बड़े आकार की थी, उस पत्रिका का विज्ञापन कर रही थी जिसमें अनिरुद्ध नौकरी करता था। यह साप्ताहिक बदलने वाली होर्डिंग थी और अनेक मर्तबा इस पर प्रकाशित चित्र खुद अनिरुद्ध के हुआ करते थे। इस होर्डिंग का बैनर हर बुधवार को बदला जाता था। दूसरी होर्डिंग पर जूतों के एक कंपनी का विज्ञापन था।
जांच समिति में कुल तीन सदस्य थे। पत्रिका के संपादक शिव शुक्ल, जिन्हें अल्शीशियन कुत्तों की तरह, बोलते हुये पीछे हटते जाने की आदत थी। तारकेश मिश्र, जो एच आर विभाग के सर्वेसर्वा थे और स्वादानुसार खुद को कभी ब्राहमण और कभी भूमिहार बताया करते थे। तीसरी थीं, शुभ्रा महनसारिया। ये कंपनी की चीफ फ़ाईनेन्स ऑफिसर थीं और इनकी ख्याति के कारण प्रबंधन ने इन्हें मोटी तनख़्वाह पर दूसरी इंडस्ट्री, जिसका मीडिया से कोई इत्तफाक नहीं था, से बुलाया था। इनकी ख्याति ‘कॉस्ट कटिंग’ के नाम पर नौकरियाँ छीनने में इनके अव्वल होने की थी।
अनिरुद्ध को जब जूते का चित्र बनाने के आरोप में आचरण समिति का पहला ईमेल आया था, तभी उसे अपनी नौकरी पर लटकती तलवार दीख गई थी।
नौकरी के बंधुआ जीवन में उसका मन रमता हो, यह भी हकीकत से दूर की बात थी। नौकरी अगर कोई नदी थी तो अनिरुद्ध उसमें उतराता एक जीव था जो बाहर आ जाना चाहता था। ऐसा भी नहीं था कि इस नौकरी से उसका जीवन पहिये पर चल रहा हो।
ना।
तनख्वाह इतनी कम थी कि उसका जीवन अभावों की रस्सी पर गुजर रहा था। कभी कभी बेचैन होकर वह पत्नी, भैरवी, से अबोले की स्थिति की धन्यवाद देने लगता था, वरना इतने कम पैसों की वजह से छीजते जीवन और जरूरतों के अंबार में उनका जीना मुहाल हो जाता।
अपनी बेटी पर न्यौछावर रहने वाला अनिरुद्ध जब उसकी मामूली इच्छाओं की पूर्ति नहीं कर पाता था उस दिन वह अपनी कॉपी में ऐसे चित्र बनाता जिसमें एक मनुष्य और चाकू हुआ करते थे। गुत्थम-गुत्था। कुछ समय पहले एक ऐसा ही चित्र जब इसने सुमित्रा को दिखाया था, उसकी सहकर्मी, उसकी दोस्त, इकलौता ऐसा मनुष्य जिससे मिलना अनिरुद्ध को अच्छा लगता था, तब सुमित्रा ने कहा था कि चाकू इतना मुर्दाया हुआ क्यों है? अगले एक भिन्न चित्र में अनिरुद्ध ने चाकू का भोथरापन तो कम नहीं किया था, अलबत्ता उसकी बेंट पर ‘नौकरी’ लिख दिया था। अनिरुद्ध अक्सर अपने मन में लिखता था कि जिंदगी और नौकरी दोनों ही उसे मार देना चाहती हैं।
जांच समिति के लोगों ने उसे यों देखा जैसे वह कोई अपरिचित हो। इसने इशारों से नमस्कार किया था जिसके जवाब में तारकेश मुस्कुरा सके थे। नमस्कार के जवाब में शुभ्रा तू-तड़ाक पर उतरते हुये आदेशात्मक प्रश्न पूछा था, ‘तुम अगर स्वीकार कर लेते हो कि जूतों के चित्र तुम वरिष्ठ सहकर्मियों का अपमान करने के इरादे से बनाया करते थे तब कंपनी तुम्हारी स्थिति को देखते हुये इस बात पर विचार कर सकती है कि सजा में रियायत बरती जाये।‘
अनिरुद्ध ने इस मुलाक़ात की जितनी भी संभावनाएं अपने मन में रची थी, उनमें से एक भी इस अकस्मात हमले से मेल नहीं खाती थी। वह चालीस की उम्र को छू रहा था। सामने वाले के मन में इस उम्र के लिए सम्मान न हो, सामने वाले के मन में इस वय के मनुष्य के मुश्किलों का भान न हो लेकिन वह खुद तो अपना सम्मान कर सकता था, इसलिए उसने जवाब दिया, ‘कौन से चित्र’?
यह जवाब सुनते ही जांच समिति के सदस्यों ने एक साथ सीत्कारी ली थी। संपादक शिव शुक्ल ने पसीजती हुई अङ्ग्रेज़ी में कहा, ‘हरामजादा, तैयार होकर आया है।‘ अनिरुद्ध ने अपनी डायरी में यह वाक्य लिखा और आग्रहपूर्वक लेकिन अपनी गरिमा बनाए रखते हुये अंदाज में कहा, ‘आपको मुझे ‘बास्टर्ड’ नहीं कहना चाहिए।‘
जवाब में उस संपादक ने तमकते हुये कहा, ‘और आपको जूतों के चित्र बनाना चाहिए? और आपको जूतों के चित्र इस अंदाज में बनाना चाहिए कि लगे जैसे जिसके लिए चित्र बनाया गया है वह अपने आपको वह जूता मार रहा है? आपको यह सब करना चाहिए?’
अनिरुद्ध को अपनी नौकरी, अपना परिवार और सबसे बड़ी बात अपना सम्मान दिख रहा था इसलिए उसने फिर कहा, ‘कौन से चित्र?’
वह जानता था कि सहकर्मियों के बीच इन चित्रों की बात करते हुये उसने इतना कुछ कहा है कि उसका दशांश भी प्रबंधन और जांच समिति के पास पहुंचा हो तब वह निर्णायक हो सकता है। वह इस बात से परिचित था कि प्रबंधन में मौजूद कई लोग यह बात जानते थे। लेकिन कभी किसी ने कुछ नहीं कहा। उल्टे कई दफा लोग मज़ाक में पूछते थे कि उनके नाम का जूता कब बना रहे हो? आज लेकिन अनिरुद्ध यह नहीं जानता था कि दो वर्षों का यह पुराना सिलसिला अब नासूर क्यों बन रहा है? ऐसी मुश्किल परिस्थिति में होकर भी अनिरुद्ध ने अपनी कंपनी को यह सोच कर माफ कर देना चाहा कि लगातार घाटों से आर्थिक मोर्चे पर डावांडोल होना भी कोई वजह तो नहीं?
एच आर हेड तारकेश ने अलबत्ता अपना सुर वही रखा जिस तरह वह आम दिनों में बात करता था। उसका कहना था, ‘अनिरुद्ध आप कलाकार हैं। अगर किसी के उकसावे में आकर यह चित्र बनाए हों तब उनका नाम बता दीजिये। आप तो कंपनी के धरोहर हैं, आपके साथ कुछ गलत नहीं होगा।‘
इससे पहले कि अनिरुद्ध कुछ जवाब देता, शिव शुक्ल ने फिर अपनी अङ्ग्रेज़ी चाभी चढ़ाई और कहा, ‘तो तुम हमलोगों से खेलना चाहते हो?’ यह कहते हुये उस संपादक ने अपनी फ़ाईलें निकालनी शुरू कर दी थी। उन्हें मेज पर जमाते हुये उनमें से एक एक कर बीसियों चित्र, जो कि पत्रिका के पुराने अंकों की कतरन थे, मेज पर पसारना शुरू कर दिया था।
अनिरुद्ध ने चुप रहना मुनासिब समझा लेकिन उसे तारकेश की बात समझ आ रही थी। अनिरुद्ध समझ रहा था कि प्रतिरोध के जिस भाव को इसने चित्रों में रखा था, साथी संवाददाताओं और उपसंपादकों की भावनाओं, उनके क्रोध को जो भरसक सूरत देने की कोशिश की थी, वही बात प्रबंधन सुनना चाहता है। जांच समिति शिकार पर निकल चुकी थी और उसे नाम चाहिए थे। अनिरुद्ध इस बात पर यकीन नहीं कर पा रहा था कि रोजाना उसके साथ काम करने वाले लोग, उससे मिलने जुलने वाले लोग उसके लिए जीवन-मरण की स्थिति खड़ी कर देंगे।
उसके तपते हुये मन में आया कि इन तीनों से आज्ञा लेकर इनके मुंह पर थूके लेकिन उसका भी ध्यान उन चित्रों पर चला गया था जो मेज पर किसी बिसात की तरह बिछाए गए थे। जब शिव ने पहला चित्र उठाकर किसी सबूत की तरह दिखाया, मानो अदालत में दिखा रहा हो, तब अनिरुद्ध को इनकी तैयारी का अनुमान लगना शुरू हुआ।
शिव मिश्र ही मोर्चा संभाले हुये थे। प्रश्नों की बौछार थी। चित्र दिखाते हुये पूछ रहा था, ‘कह दो कि इसे तुमने नहीं बनाया है? जबकि तुम्हारे हस्ताक्षर की चिड़िया यहाँ किनारे में बैठी हुई है।‘
उसने वह पृष्ठ पहचानने का अभिनय किया जबकि उसे देखते ही अनिरुद्ध को सबकुछ याद आ गया था। अपने इस नामुराद जीवन के उस बेशकीमती और सुनहरे दौर को वह इस घुटन भरे माहौल में याद नहीं करना चाहता था। वह जानता था कि सुमित्रा के संग-साथ की स्मृति उसे कमजोर कर सकती है। शिव मिश्र को लग रहा होगा कि उनके उल-जुलूल बोलने से अनिरुद्ध अपमानित होकर अपना अपराध कबूल कर लेगा। मामला लेकिन उल्टा था। शिव मिश्र के लगातार बोलने से अनिरुद्ध को मोहलत और राहत मिल रही थी।
शिव बाबू की शाब्दिक जुगाली जारी थी, ‘कह दो कि तुमने जिसके कहने पर यह चित्र बनाया होगा, वह और तुम इस कल्पना पर नहीं हँसे होगे कि जब वह संपादक, जिससे नाराज होकर यह चित्र बनाया होगा, इसे देखेगा तब यह जूता उसके मुंह पर पड़ने जैसा होगा… कह दो। यह भी कह दो कि तुम चित्रकारी और साहित्यिक पत्रकारिता की आड़ में बेहयाई नहीं कर रहे थे। कह दो कि तुम दोनों ने इसकी कल्पना नहीं की थी कि यह जूता स्वत: ही उसके मुंह पर उछल कर लग जाएगा जिसे ध्यान में रख कर तुमने इसे बनाया था … कह दो ना, कहते क्यों नहीं। बोलो, बोलो।‘
अनिरुद्ध ने इस पूरे भाषण में से एक शब्द फिर अपनी डायरी में टांका: बेहयाई। वापस उनसे पूछा, ‘मैं नहीं समझ पा रहा हूँ कि मेरा अपराध क्या है और मुझे जांच समति ने किसकी शिकायत पर बुलाया है। मैं आपकी पत्रिका में बतौर इलुस्ट्रेटर ही कार्यरत हूँ। चित्र बनाना ही मेरा काम है। मैं नहीं जानता कि क्यों आप मेरे कुछ चित्रों को तूल दे रहे हैं।‘
शुभ्रा : ‘यहाँ, इस समिति की कार्रवाई के दौरान, कुछ भी जानने का अधिकार हमारा है, तुम्हारा नहीं।’
तारकेश: ‘शिकायतकर्ताओं के नाम गोपनीय रखे जाते हैं। आप पर आरोप है कि जूते का चित्र बनाकर उसे संबन्धित अधिकारियों के सामने रखने के बाद आप कर्मचारियों के बीच यह बात फैलाते थे कि आज आपने अमुक संपादक या तमुक अधिकारी के मुंह पर जूता मार दिया। कईयों ने इस बात की तसदीक की है। इनमें से कई ऐसे रहे होंगे जिनके कहने पर आपने यह चित्र बनाए होंगे लेकिन आज आपको उन सबने अकेला छोड़ दिया है। मैं अब भी कहता हूँ, आप उन सबके नाम बता दें, हम आपकी नौकरी पर आंच भी नहीं आने देंगे।‘
शिव: ‘तुम तो पहले इस चित्र के बारे में बताओ। यह बगल की कविता मेरी लिखी हुई है। इसका इलुस्ट्रेशन बनाते हुये तुम्हें यह क्यों लगा कि जूते और हारमोनियम का चित्र बनाया जाना चाहिए। अब तो वो तुम्हारी तथाकथित दोस्त भी कंपनी में नहीं है, जिसके कहने पर तुमने मुझे मारने के लिए जूते का यह चित्र रचा होगा, इसलिए तुम्हें ही इसके तर्क समझाने होंगे।‘
अनिरुद्ध ने इन सबको एक भावुक वाक्य से चुप कराना चाहा कि जूते से चोट की बात दीगर है लेकिन जूते के चित्र से कैसे किसी को चोट लग सकती है। उसने यह भी कहा कि उसे नाहक परेशान किया जा रहा है।
शिव अपने प्रश्न पर टिका रहा था।
सामने जो चित्र था वह दरअसल स्मृतियों का समुद्र था, जिसे देखते ही अनिरुद्ध को उसमें डूब जाना था।
सुमित्रा। वार्षिकांक की तैयारी में जुटी सुमित्रा से उन दिनों उसकी दोस्ती नई नई थी। बिल्कुल नई-नई। जैसे कोई नया अंकुरण होता है जिसे देखकर पुराने अंकुरित बीज याद नहीं आते बल्कि एकदम नयेपन का, कोमल कुछ घटित होने का एहसास होता है। सबकुछ इतना नया था कि उनके सम्बोधन में भी एक दूरी का एहसास बना रहता था।
उसे चित्रकारी पसंद थी और यही उनकी दोस्ती का कारण बना था लेकिन वे दोनों मिजाज से इतने मिलते-जुलते थे कि उसे अगर चित्रकारी के बजाय कविता पसंद होती तब भी वे मिलते। तब भी वे दोस्ती करते। अगर अनिरुद्ध ने उससे एक झूठ न बोला होता तब भी वे दोस्ती की राह पर टिके रहते।
वह झूठ उसके शादीशुदा होने का था।
वे दोनों एक दूसरे को देख चुके थे और हर निगाह में उन्हें यह एहसास होता था कि उनके सितारे एक दूसरे को छूकर गुजरने वाले हैं। अनिरुद्ध अपनी धुन जानता था कि बेरोजगारी और अर्धरोजगारी ने उसके जीवन से प्रेम जैसे तत्वों को ध्वस्त कर दिया था। उसे अपना जीवन किसी बहुत बड़ी इमारत की परछाई लगता था जो परछाई अपने वजूद में ध्वस्त इमारत सरीखी लगती थी। वह कल्पना करना चाहता था कि उसका जीवन अगर सम्पन्न होता तब उनका दांपत्य कैसा और कितना चमकदार होता। कुछ हद तक स्वप्न उसका साथ देते, एक सुखमय जीवन उसके सामने तैरता और फिर वे स्वप्न उसे अकेला छोड़ जाते थे।
अबोले को उस दंपत्ति ने टाट की तरह सजा रखा था। लाचारियों के खिलाफ। एक दूसरे की लगातार आलोचनाओं से चलकर वे दोनों इस अबोले के द्वार तक आए थे। आलोचना अब हरकतों से होती थी। अपने जीवन से वह इस कदर पराजित था कि जब सुमित्रा का भाव इसपर गहराने लगा था तब बाज मर्तबा अनिरुद्ध को लगता था कि कोई मज़ाक है, जो इसके साथ होने वाला है। बिल्कुल पहली मर्तबा इनकी बातचीत तब हुई थी जब अनिरुद्ध की डेस्क के पास से रोने की आवाज आई थी। स्त्री की रुलाई। सिसकी।
सुमित्रा थी।
अनिरुद्ध के पहले उस तक दो साथी पहुंचे थे और दोनों ने बॉस को भला बुरा कहना शुरू किया था। अनिरुद्ध ने पानी की अपनी जूठी बोतल आगे बढ़ाते हुये कहा था, ‘बड़ी उम्र के लोगों को रोना नहीं चाहिए।‘ सांत्वना का एक शब्द नहीं। इस वाक्य के बाद भी वह कुछ देर तक रोती रही थी। उस दिन वह बात वहीं बीत गई थी लेकिन अगले दिन कैंटीन में जब वे लोग अपनी अपनी टिफिन का ठंढा खाना अकेले अकेले खा रहे थे तब सुमित्रा अपनी कुर्सी से उठकर अनिरुद्ध तक चली आई थी। बैठते हुये कहा था, ‘बड़ी उम्र के लोगों को नियमित रोना चाहिए। इससे वर्तमान का प्रभाव का कम होता है।‘
इस वाक्य से ठीक पहले उनदोनों ने मुस्कुराकर एक दूसरे के दिल में जगह बनाई थी।
इस याददिहानी पर दोनों हँसे थे और प्रथम संवाद के गलियारे से गुजरते हुए बात रोने की वजह तक पहुँच गई थी। वजह यही संपादक था। उसने अपनी कविता पर राय मांगी थी। सुमित्रा ने बताया था कि इसने सब अच्छा-अच्छा ही कहा था लेकिन शिव शुक्ल ज़ोर देकर कमियों की बाबत पूछता रहा। इस ज़ोरदारी के फेर में आकर सुमित्रा ने कह दिया था कि नरेंद्र मोहन की कविताओं सरीखी है, बेवजह की स्फीति लिए हुए। यह सुनने के बाद शिव शुक्ल ने अपनी मीठी आवाज में सुमित्रा का भरपूर अपमान किया था। वाक्य-दर-वाक्य जहर बिंधे थे। जैसे उसकी कॉपी बेहद खराब लिखी हुई होती है, जैसे उसके काम में अनेक गलतियाँ होती है, जैसे उसकी नौकरी भी किसी भांति उसे मिली थी, उसका साक्षत्कार बेहद खराब हुआ था। अनेक बातें।
अनिरुद्ध जब सुमित्रा की ये बातें सुन रहा था तब उसे अपना जीवन भी याद आ रहा था। दफ्तर के लोगों ने मान लिया था कि शिव शुक्ल के साथ रहना है तब अपमान सहने की आदत डालनी होगी। वह आदत इस कदर गहरी हो गई थी कि किसी के अपमानित किए जाने की कभी कोई चर्चा नहीं होती थी। क्या ताज्जुब है कि चर्चा भर न होने से अपमान की घटनाओं को गुजरा हुआ मान लिया जाता था। जैसे उन गालियों का, अपमानसूचक शब्दों का अपना कोई निर्दिष्ट प्रभाव ही न हो! उस दिन जब सुमित्रा अपनी बीती बयान कर रही थी तब उसे लगा था कि दफ्तर में कितना कुछ बुरा घट रहा है, तब उसे लगा था कि अगर हर कोई अपने अपने बॉस द्वारा किए गए अपमान की बाबत सुनाने लगे तब असंतोष किसी काले बादल की तरह सब पर पसर जाएगा।
अनिरुद्ध ने बेसाख्ता कहा था और उसे अपना कहा ही हैरान कर गया था क्योंकि खुद के निरंतर अपमानित जीवन का जो सौदा उसने बाईस हजार की तनख़्वाह से कर रखा था उसमें अपने लिए कभी यह विचार उसे नहीं आया था। वह अपने पर गुजरी गलाजत को दूसरों से तो क्या खुद से भी नहीं कहता था। जीवन से लड़ने का एक तरीका यह भी था कि वर्तमान को जल्द से भी जल्द तारीख के खांचे में डालते चलो।
उसने कहा था, ‘जूते मारती साले को।‘
सुमित्रा उस दिन धूसर रंग की सेंडल पहने थी, उसे देखते हुये कहा था, ‘यह कहाँ संभव है।‘ और दोनों हंसने लगे थे।
लेकिन संभव हुआ। सुमित्रा का साथ उसे इतना प्यारा किन्तु इतना अकस्मात लग रहा था कि वह इसे बीतने नहीं देना चाहता था। उस लम्हें को थामे रखने के लिए जरूरत थी कि एक समूह की तरह रहा जाये। कुछ यों किया जाये कि आपसदारी का भाव मन के गहराई तक पैठे।
खाने की उसे मेज पर यह योजना बनी कि ऐसे नीच संपादक और प्रबन्धकों को जूते की तस्वीर पेश की जाये। खासकर जूते का तल्ला। कि अगर वे चाहें तब सोच सकें कि किसी को मारने के लिए यह जूता बनाया गया है। अगर काबिल हुये तब यह भी सोचें कि यह जूता उनकी तरफ चला है। ऐसा सोचते ही वे अधिकारी चित्रित जूते के वार से बचने के लिए एक बार किनारे झुकेंगे, संभव है कि प्रतीकात्मक चोट से उबरने के लिए अपने चेहरे को भी सहलाएँ। जूते की तस्वीर पर उनका ठिठक जाना, झुक जाना और उसे देखते हुये अपने माथे या गाल तक हाथ ले जाना ही हमारी सफलता होगी।
इस योजना पर सुमित्रा ने कहा था, ‘बकवास।‘
उसके बकवास कहने पर अनिरुद्ध ने कहा था, ‘तंगनजरी।‘
उसके तंगनजरी कहने पर सुमित्रा ने कहा था, ‘कैसे? सिर्फ चित्र भर बना देने से जूता मारना हो गया?’
उसके कैसे के जवाब में अनिरुद्ध ने कहा था, ‘वो ऐसे कि सिर्फ बोल भर देने से गाली बुरी लगती है न, मोहतरमा! वे शब्द आपको छू तो नहीं जाते। दूसरी तरफ, हम दिन भर और देर राततक काम करते हैं, बचे समय में भी दफ्तर ही ख्यालों में गूँजता है फिर भी प्रबंधन को लगता है कि हमलोग निठल्ले है,निकम्मे हैं। है ना? इसे अगर उलट कर देखें तब यह कहा जा सकता है कि प्रबंधन अगर आपके बारे में सोचता है कि आप निकम्मे हैं इसका मतलब है कि तयशुदा काम आप कर रहे हैं। इस तरह अगर प्रबंधन यह सोचता है कि चित्र के जूते उसे चोट ‘नहीं’ लगी इसका मतलब है कि असर हुआ है, चोट लगी है।‘
सुमित्रा देरतक सोचती रही थी। उस मग्न अवस्था में सुमित्रा को देखना अनिरुद्ध के लिए मनुष्य को देखने का एक अलहदा अनुभव था।
अगर तारकेश ने अपना सवाल तिहराया न होता कि उन लोगों के नाम लिखित में दे दो जिसके कहने पर जूतों के चित्र बनाए तब अनिरुद्ध को इस चित्र के बजाए चित्र की स्मृतियों में ही रहना था। तंद्रा टूटी तब उसने खुद को जवाब देता हुआ पाया, ‘आपकी कविता में राग और कदमों का जिक्र है, इसलिए हारमोनियम की लय पर चलते हुये जूते का चित्र बनाया है।‘
शिव शुक्ल इस सफाई को अपने लिए कम दो साथी अधिकारियों के लिए अधिक उपयोगी मान रहे थे। गुस्से में इन चित्रों की मंशा को स्वीकार लेने के बाद से शिव शुक्ल को लग रहा था कि ज़्यादातर जूते उनके लिए ही उकेरे गए हैं, उनकी ही रचनाओं के साथ वाले चित्रों में है, इसलिए प्रबंधन को यह संदेश जा रहा होगा कि ये अपने अधीनस्थों के प्रिय नहीं हैं। उनके साथ ठीक बर्ताव नहीं करते। कहीं न कहीं ये संकेत इनके खिलाफ जा सकते थे, इसलिए अनिरुद्ध की सफाई को उन्होने दुहराया और कुछ इस अंदाज में सोचने लगे, जैसे अनिरुद्ध के तर्क से सहमत हैं। एक जरा रुककर उन्होने कहा था, ‘माफ करना अनिरुद्ध, कुछ ज्यादा ही तल्ख हो गया था।‘
शुभ्रा ने अलबत्ता मोर्चा संभाला था, ‘और यह तस्वीर? इसके बारे में कौन सा झूठ तैयारकर आए हो?’ अनिरुद्ध इस तस्वीर को भी भलीभाँति पहचानता था लेकिन उसके जीवन पर ऐसी बन आई थी कि न पहचानने का अभिनय करना पड़ा। कोट और टाई लगाए एक आदमी के की तस्वीर थी जिसमें उड़ता हुआ जूता भी दिख रहा था। यह कोट और टाई लगाए कोई भी हो सकता था लेकिन यहाँ जो ‘पहचान कौन’ का खेल जारी था, उसमें पाया गया कि तारकेश मिश्र खुद मौजूद हैं। वे हंसने लगे थे, ‘मुझे फर्क नहीं पड़ता लेकिन इन चित्रों से दफ्तर का वातावरण बिगड़ सकता है।‘
अनिरुद्ध को आया कि उन्हें याद दिलाये, वे इस तस्वीर में खुद को पहले भी पहचान चुके हैं और झूठी ही सही लेकिन रचनात्मकता के नाम पर तारीफ कर चुके हैं। उनदिनों सुमित्रा यहीं काम करती थी। आज लेकिन, तारकेश कुछ यों दिखा रहे थे जैसे इन चित्रों से उनका सामना पहली बार हो रहा हो।
यह चित्र ‘रोजगार और अनुशासन’ नामक आलेख के साथ नत्थी था। इस आलेख में तारकेश ने बताया था कि जो लोग अनुशासित जीवन व्यतीत करते हैं वे नौकरी और व्यक्तिगत जीवन को बिलगाकर रख पाते हैं। यह इत्तफाक था कि उन्हीं दिनों मानव संसाधन विभाग द्वारा दी गई रपट के आधार पर कैब की सुविधा कंपनी ने बंद कर दी थी। अनिरुद्ध की पाली शाम छ: बजे खत्म होती थी और सुमित्रा, चूंकि खबरों का काम देखती थी इसलिए, नौ बजे के आस-पास छूटती थी।
कैब की सेवा रहते हुये उन दोनों के बीच यह कोई मुद्दा कभी नहीं था कि कौन कितने बजे अपने घर पहुंचता है। लेकिन जबसे यह नया नियम आया था, अनिरुद्ध अपनी पाली समाप्त कर इंतजार करता था। उस इंतजार को वे चाय की टपरियों, आईटीओ के निर्जन मेट्रो स्टेशन के इर्द-गिर्द गुजारने लगा था। वे घंटे रिसते हुये बीतते थे लेकिन बीतते थे। जब सुमित्रा नौ बजे दफ्तर से निकलती तब उसके कदम स्वत: वहाँ आकर रुक जाते जहां अनिरुद्ध होता था। वहाँ से चुपचाप वे साथ चल देते। चुप ही चाप वे मेट्रो लेते। चुप चुप वे राजीव चौक पर मेट्रो बदलते और उतनी ही चुप्पी से साढ़े दस बजे या ग्यारह बजे अनिरुद्ध सुमित्रा को झिलमिल इलाके मीन स्थित उसके कमरे तक छोडता फिर अपने अकेलेपन से भिड़ता हुआ अपने घर की राह लेता।
उसे सुमित्रा का साथ पसंद था लेकिन रोज-रोज की एक ही स्थिति के कारण वह अपनी बेटी को जागी हुई अवस्था में कई दिनों से नहीं देख सका था। उसे इसका अफसोस भी होता था। रात गए घर लौटता था। दरवाजा खटखटाता। चूंकि यहाँ भी चुप्पियों का राज था इसलिए चुपचाप दरवाजा खुलता। थाली लगती। दूसरी आकृति सोने चली जाती। पहली आकृति भोजन खत्म कर बिस्तर के किनारे लेटती। लेटने के ठीक पहले देखती कि टेबल पंखे का मुँह बेटी की तरफ है या नहीं?
फिर सुबह हो जाती।
इनका दांपत्य ऐसा चल रहा था कि नर्क भी शरमा जाये।
सुमित्रा रोज दिन में समझाती थी कि वह खुद अकेले ही घर चली जाया करेगी। लेकिन शाम का इंतजार वे दोनों करते थे। साथ चलते हुये एक दूसरे की थकी उँगलियों के पोर थाम लेना उनके लिए कोई प्रदर्शनप्रियता या एक दूसरे पर अनाधिकार चेष्टा नहीं होती थी, अलबत्ता सुकून के कुछ पल होते थे। सुमित्रा नौउम्र थी, उसके लिए जीवन अभी एक असीमित विस्तार था लेकिन अनिरुद्ध पर दुनिया का राज नुमायाँ हो चुका था और वह वापसी की राह में था। इस वापसी की टेढ़ी सड़कों पर उसे कोई मिल रहा था जिस साथी की कल्पना उसने अपनी ज़िंदगी की स्नेहिल शुरुआत में की होगी, जब कभी की होगी।
उन्हीं मौसमों में एक रात ऐसी आई थी कि सुमित्रा किसी भीनी खुश्बू की तरह अनिरुद्ध को कमरे के भीतर लेती चली गई थी। उसका यह ‘वन रूम सेट’ साफ सुथरा और किसी अजनबी देश की तरह दिखा था। अनिरुद्ध के कदम बंध जाते रहे थे। इस घर में अपना हर कदम में वह यों रख रहा था जैसे पथ का कोई भूला हो। इन दोनों पर गहराती रात में एक वक्त ऐसा भी आया था जब अनिरुद्ध ने पाया कि शरीर के सितार को छूने की कला भूल चुका है। वह सारी लयकारी भूल चुका है। कितना बुरा हो कि समुद्र के भीतर उतरते हुये आपको पता पड़े कि आप तैरना भूल चुके हैं। शरीर की दुनिया उसके लिए इतनी पराई हो चुकी थी कि अनिरुद्ध प्रेम के तनाव संभालना भूल चुका था।
हुआ यह था कि सुमित्रा के शरीर में धँसकर अनिरुद्ध रोने लगा था। साथी को दूर कहीं अकेला छोड़ देना वाली रुलाई नहीं थी। उनका संबंध इतना नया और समझदार था कि अपेक्षाओं का स्वर अभी उठना बाकी था। वह अपने परिवार के लिए भी नहीं रो रहा था जिसे बिन बताए वह यहाँ अपनी नई दुनिया में पड़ा हुआ था। नहीं, उसकी रुलाई प्रेम की कला को भूलते जाने की लाचारी से उपजी थी।
‘रिद्म’ से भटक जाने की बात शायद सुमित्रा समझ रही होगी कि अगले दिनों में उसने अनिरुद्ध में एक नितांत नया पुरुष काढ़ दिया था।
और वह भलेमानुष, कलाकार बना फिरने वाला, चार लगातार दिनों तक घर से बिन बताए बाहर रहा था। वह अगर चाहता तब मोबाईल से एक संदेश भेज सकता था। लेकिन शायद अबोले की स्थिति में वह मोबाईल से भेजे गए संदेश को भी संवाद समझता हो और ऐसा कोई भी संदेश भेजते ही यह मान लिया जाएगा कि बातचीत की शुरुआत उसने की, अनिरुद्ध ने कोई संदेश या फोन किया ही नहीं। जिस बेटी के लिए वह रातदिन की यह कुत्तेगिरी वाले नौकरी कर रहा था, उसकी याद तक भी शायद उसे नहीं आई थी।
तारकेश की धीमी आवाज उसे स्मृतिलोक से खींचकर यहाँ जांच समिति के सामने लाई थी, ‘आप कुछ कहेंगे नहीं तब मान लिया जाएगा कि प्रबन्धकों और संपादकों के अपमान का यह तरीका आपका अपना था।‘
अनिरुद्ध: ‘यह दवाब मुझे परेशान कर रहा है। मैं कैसे कुछ भी कह दूँ जब मेरी कोई मंशा नहीं थी।‘
शिव शुक्ल: ‘कितना झूठा है रे तू। अभी मैं बीसियों ऐसे उपसंपादक और संवाददाता तुम्हारे सामने खड़ा कर सकता हूँ जिसके सामने तुमने और तुम्हारे साथियों ने चुस्की ले-लेकर इन चित्रों की सप्रसंग व्याख्या की होगी। बताओ, तुमने राजेश के कहने पर सीईओ के लिए जूते वाला चित्र बनाया था या नहीं? राजेश ने मुझे वजह भी बताई है कि उसके बच्चे का इलाज कराने में कंपनी ने सहयोग नहीं किया था, उन्हीं दिनों की घटना है। कंपनी की अपनी मजबूरी हो सकती है। लेकिन तुम कौन होते हो अधिकारियों को जूते मारने वाले?’
अनिरुद्ध: ‘मैंने किसी को जूता नहीं मारा है”
शिव शुक्ल: ‘यह जो जूते की तस्वीर और अधिकारियों से मिलता जुलता रेखांकन बनाते फिरे हो यह उससे कम भी नहीं है।‘
अनिरुद्ध: ‘आप मेरे खिलाफ कुछ फैसला लेना चाहते हों तो बिना किसी बहाने के भी ले सकते हैं।‘
शुभ्रा : ‘तुम्हें क्या लगा कि तुम्हें यहाँ से भगाने के आदेश पर तुम्हारा हस्ताक्षर लेंगे।‘
अनिरुद्ध ( हाथ जोड़ने की मुद्रा में ): ‘मैडम, प्लीज। ऐसे शब्द सबके पास होते हैं। आप नाहक अपमान कर रही हैं। इस कंपनी को मैंने अपने बेशकीमती आठ वर्ष दिये हैं, आपको आए महज छ: महीने हुये हैं। न सही कर्मचारी पर बतौर मनुष्य तो बेहतर शब्दों का अधिकारी हूँ ही।‘
तारकेश: ‘मैं आपके साथ हूँ अनिरुद्ध बाबू। आप बस उन लोगों के नाम बता दीजिये जिनके कहने पर आपने ये चित्र बनाए हैं। मैं प्रबंधन से दरख्वास्त करूंगा कि आपको कोई सजा न हो।‘
अनिरुद्ध: ‘सर, आपको क्यों लगता है कि मैं किसी से पूछ कर चित्र बनाऊँगा।‘
तारकेश: ‘यह तो सुमित्रा होती तब बतलाती।’
अनिरुद्ध ठिठका। चुप हो गया। जांच समिति का बाहर में जो नाम है, उससे उलट ये लोग किसी गुंडे की तरह पेश आ रहे थे, गुंडे जो ब्लैकमेलिंग और अपमानित करने का उस्ताद हो। वह नहीं चाहता था कि सुमित्रा या किसी भी साथी का नाम आए। वह अपनी नौकरी बचाना चाहता था, हरगिज बचाना चाहता था लेकिन इस कीमत पर नहीं कि किसी दूसरे पर सारा दोष थोप जाये।
अनिरुद्ध ने देखा कि उस दिन के अखबार को पूरी तरह मोड़कर शुभ्रा ने डंडे का स्वरूप दे दिया था और उससे वे सारी कतरने उसकी तरफ धकेल रही हैं। बीसियों चित्र थे जिनमें प्रतीक स्वरूप जूतों से कोई न कोई पीटा जा रहा था। इस मीडिया घराने का हर अधिकारी किसी न किसी अधीनस्थ को तंग करता था। शक्ति का खेल कुछ ऐसा था कि हो सकता है, अधिकारियों में भी कोई होड़ हो। हो सकता है, वे आपस में बातें करते हों कि कौन अपने अधीनस्थों के प्रति किस कदर कठोर हो। उस बातचीत में निर्दोष साबित हो जाना ही जैसे कोई अपराध हो। इसलिए हर नए दिन वे संपादक और प्रबन्धक अपने मातहतों को प्रताड़ित करने के नए प्रबंधकीय और व्यक्तिगत तरीके ईजाद करते हों।
एक वक्त तो ऐसा आया था कि लोग अनिरुद्ध के पास आते ही इसलिए थे कि ताकि बता सकें, किस अधिकारी या संपादक ने उससे कैसी बदसलूकी की और उसके खिलाफ कैसा जूता बनाया जाना चाहिये। सुमित्रा के जीवन में आने से पहले उसकी अपनी नजर में भी अपनी हैसियत महज एक चित्रकार की थी जो दूसरों की लिखी कहानियों, आवरण कथाओं, समसामयिक खबरों के आधार पर रेखांकन किया करता था। अब स्थिति दूसरी होती जा रही थी। दूसरे जब उसे अपना दुख, अपना अपमान सुनाते तब जूते का चित्र बनाना अपनी ज़िम्मेदारी लगती थी। सनोज को जब इसलिए परेशान किया जा रहा था कि उसने शिव शुक्ल के कहे अनुसार एक व्यवसायी को तंग करने और उसके खिलाफ लिखने से मना कर दिया था, तब अनिरुद्ध के पास वह आया था। राजेश को जब इसलिए नौकरी से निकाला जा रहा था क्योंकि बीसियों वर्ष नौकरी करते हुये हो गए थे और मामूली बढ़ोत्तरी के बाद भी उनकी तंख्वाह प्रबंधन को खटकने लगी थी तब वे अनिरुद्ध के पास आए थे। उसका हाथ पकड़ कर रोने लगे थे, कई बार कहा था, दोनों बेटे और बड़ी बेटी अभी अपनी आधी अधूरी पढ़ाई पूरी कर रहे हैं, मेरी नौकरी गई तब पूरा परिवार बेरोजगार हो जाएगा। उस बार अनिरुद्ध ने शिद्दत से चाहा था कि काश उसका बनाया जूते का चित्र जब प्रबन्धकों तक पहुंचे तब भींगे जूते में बदल जाये। ऐसी अनेक स्मृतियाँ उसके मन की सांकल बजा रही थीं लेकिन जांच समिति के सवाल के कारण सहम जा रही थीं।
शुभ्रा की आवाज उस तक आ रही थी जिसमें वह शायद एक-एक चित्र का वर्णन पूछ रही थी कि कौन सा चित्र किसके खिलाफ बनाया गया है और किसकी शह पर बनाया गया है। लेकिन वह स्मृतियों के दूसरे धारे तक जा पहुंचा था जहां इन जूतों से अलग एक तस्वीर उसके बटुए में पड़ी थी। वह उस तस्वीर को निकाल कर एक बार देखना चाहता था लेकिन उसे भी वह स्मृतियों में देखना ही मुनासिब समझा।
उनदिनों वह तीन-तीन चार-चार दिनों तक सुमित्रा के कमरे पर रुकने लगा था। एक अबोला यहाँ भी पसर रहा था लेकिन वह अतिशय प्रेम से उपजा था। सुमित्रा के पास अपना लैपटॉप था और प्रेम के विलक्षण क्षणों के बाद वह गाने सुनना पसंद करती थी। महाशय अनिरुद्ध सोना पसंद करते थे लेकिन सो न पाने की स्थिति में कुछ न कुछ पढ़ते रहते थे।
उस अभागे दिन सुमित्रा ईयरफोन पर गाना सुन रही थी। वह नींद में जा चुका था कि सुमित्रा ने एक सिरा उसके कान में लगा दिया। गाना तेज गति का था लेकिन सुरीला था। ‘तुझमें नशा है तू बिल्कुल अफीमे। धीमे-धीमे-धीमे-धीमे।‘ गाने का प्रभाव था या सुंदर प्रेम की स्वप्निल स्मृति कि करवट बदलते हुए, सुमित्रा को अँकवार में कसते हुये अनिरुद्ध बोल पड़ा था, ‘मेरी बेटी को यह गाना बहुत पसंद है।‘
अगले कुछ पलों तक गाना बजता रहा। सुमित्रा ने फिर ईयरफोन किनारे रखा और पूछा, ‘अभी क्या कहा था।‘
अनिरुद्ध भाँप चुका था। अगले कुछ पलों तक जो गाना बजता रहा था, उसमें वह यही सोचता रहा कि काश सुमित्रा ने उसे सुना ही न हो। वह अपने जीवन के बारे में सुमित्रा को बताना चाहता था लेकिन हर मौके वह किसी अनहोनी से डरता था। जवाब दिया, ‘इन बातों का कोई मतलब है क्या।‘
सुमित्रा अपने दोनों हाथों से अनिरुद्ध को दूर कर रही थी कुछ इस तरह जैसे कोई माँ दूध पिलाने के बाद अपने बच्चे को बड़े जतन से अलग करती है। उसकी उँगलियों, पंजों और मन को अब भी कोई उम्मीद रही होगी शायद इसलिए। दुबारा पूछा, ‘बताया क्यों नहीं।‘
अनिरुद्ध ने सुमित्रा को वापस अपने भीतर समेटना चाहा। ऐसे जैसे बाहों के दायरे में आते ही प्रेम अपनी शक्ति पा जाएगा। ऐसे जैसे समाज द्वारा तय दायरों के मायने बदल जाएँगे। और सबसे बड़ी बात कि घोखे का जो एहसास सुमित्रा को चींथ रहा होगा, वह उससे परे हो जाएगा। सुलझा हुआ उनका प्रेम उनके बीच के ताप को झरने नहीं देगा। उसने कहा था, ‘प्लीज।‘
इसके जवाब में सुमित्रा ने नफरत से भरे थप्पड़ से दिया। चटाक की चोट उस माहौल में उभर आई थी। अनिरुद्ध देखता रहा था। उसने अपना हाथ भी उस गाल तक ले जाना भी गवारा न समझा था। सुमित्रा, जो अमूमन बिस्तर पर रहते हुये ही कपड़े पहनती थी, ने उस दिन एक पल में बिस्तर छोड़ दिया था और जैसे संकोच भी छोड़ दिया हो कि अनिरुद्ध देखता रहा और वो कपड़े पहनती रही थी।
वह कुर्सी पर बैठी थी जब बिखरे सारे सिरे जोड़ने की कोशिश में अनिरुद्ध उस तक गया था। अनिरुद्ध के हाथ उसे छू पाते इससे पहले ही सुमित्रा ने अनिरुद्ध को बाहर का रास्ता दिखाया था और कहा था, ‘गेट आउट।‘
अनिरुद्ध रात के दो बजे अपमान के गट्ठरों और धोखे का बोझ लादे अपने उसी घर की ओर लौट आया था जहाँ न आने की सूरत में वह संदेश तक नहीं भेज पाता था।
उसे याद है, अगले कुछ दिनों तक वह दफ्तर नहीं गया था। घर पर पड़ा रहता। उसके लिए भी यह विचार अजीब था कि चालीस को छूता कोई व्यक्ति प्रेम के अवशेष से इस तरह खंडित हो जाएगा। मन आता था कि भागकर सुमित्रा तक जाए। उसके साथ रहने के लिए नहीं, वह शायद संभव न हो लेकिन यह कहने के लिए कि वह कुछ भी छिपाना नहीं चाहता था। तीसरे दिन उन उन जगहों पर अकेला गया जहाँ वे साथ जाया करते थे। कोई उम्मीद रही होगी।
उस दरमियान घर पर ठिठका हुआ वह बच्ची को स्कूल जाते देखता। पत्नी को चुप रहते देखता, काम करते देखता था। दूसरे दिन उसने काम में हाथ बटाना शुरू किया था और काम पर न जाने के तीसरे दिन उसने अपनी पत्नी को नाम से पुकारा था: ‘भैरवी।‘
अगर नौकरी की जरूरत न होती तब वह दफ्तर कभी वापस नहीं लौटता लेकिन लौटना पड़ा था। अपने दुचीतेपन में वह दोनों ही सूरते नहीं चाहता था: सुमित्रा से सामना होना भी और नहीं होना भी। जब दफ्तर पहुंचा था तब वह नहीं आई थी लेकिन एक चित्र उसका इंतजार कर रहा था। वह चित्र इतना खराब बना था कि अगर बनाने वाले की मंशा उस पर जाहिर न होती तब वह कभी नहीं समझ सकता था कि जूते का चित्र है। उसने सचमुच वह चित्र उठाकर अपने चेहरे पर लगा लिया था, जैसे प्रेम की आखिरी कोई शर्त रखनी हो। उसे अपने बीच के नाजुकी के प्रतीक के बतौर अनिरुद्ध ने उस कागज को मोड़कर अपने लगभग खाली बटुए में रख लिया था।
ऐसा नहीं कि अनिरुद्ध की कोशिशों में कोई कमी थी, अपना पक्ष रखने और रूठी सुमित्रा, दुखी सुमित्रा को मनाने की उसने हज़ारहा कोशिशें की लेकिन सुमित्रा भीतर तक बिंध गई थी। एक दिन जब अनिरुद्ध उसकी मेज तक गया था तब उसने कडक इशारों में दूर चले जाने के लिए कहा था। वह चाहती तो अपने इशारे को आवाज की शक्ल पहना सकती थी लेकिन वह जो उनके बीच जो एक अटूट सा कुछ बीता, वह आवाज उस कुछ का अपमान होता।
पंद्रहियन बीता होगा कि एक दिन सुमित्रा खुद अनिरुद्ध के मेज तक आई थी। आई और मुस्कुराती रही थी। अनिरुद्ध अवाक की अपनी स्थिति को संभालना चाहता था। सुमित्रा ने कहा था, ‘दिल्ली तो छुड़ा दिया चित्रकारजी, विदा करने नहीं आएंगे?’
अनिरुद्ध को लगा था कि वह रो पड़ेगा लेकिन संभाला, इतना भर कह सका था, ‘तुम यह गलती न करो, तुम्हारे सामने भविष्य का ऊंचा मैदान है, मैं यह जगह छोड़ देता हूँ।‘
हँसते हुये सुमित्रा ने दो बाते कहीं थी, ‘मैं भी अच्छी चित्रकारी कर लेती हूँ न’ और ‘कल दोपहर काशी विश्वनाथ एक्स्प्रेस से जा रही हूँ।‘
वह अगला दिन आंसुओं का सैलाब लेकर आया था। अनिरुद्ध सुमित्रा से पहले ही स्टेशन पर पहुँच कर इंतजार कर रहा था। धूप में चलती हुई जब सुमित्रा उस तक आई तब वह यों मुसकुराई थी जैसे अनिरुद्ध के आने से वह खुश हो, ‘अनिरुद्ध आयेगा’ यह जैसे वह जानती थी।
दोपहर की धूप उनके अवश्यंभावी विछोह की भांति जलने लगी थी। गाड़ी के छूटने तक वे दोनों एक दूसरे की चुप्पी बर्दाश्त नहीं कर सकते थे इसलिए सुमित्रा ने अपने ईयरफोन का बायाँ प्लग अनिरुद्ध के कान में लगा दिया था। गाना वही था: तुझमें नशा है बिल्कुल अफीमें/ धीमे-धीमे-धीमे-धीमे….. अनिरुद्ध सिसकने लगा था। उसकी रुलाई हिचकियों का बदशक्ल रूप ले चुकी थी।
जब रेलगाड़ी ने इनके रोने की आवाज सुनी होगी तब उसने चल पड़ने की आखिरी सिटी बजा दी थी। रेलगाड़ी सरकने लगी थी और इधर सुमित्रा को गले लगाकर अनिरुद्ध लगातार रोते हुये कहे जा रहा था, ‘मुझे माफ कर देना। मुझे माफ कर देना।‘ सुमित्रा माफी की हर दरख्वास्त के जवाब में इतना भर कहती रही थी, ‘अरे!’ ‘अरे!’ ‘अरे!’
जब रेलगाड़ी सुमित्रा को अपने साथ लेकर चली गई थी तब भी अनिरुद्ध की आँखों में इतने आंसू थे कि उसे प्लेटफॉर्म नहीं सूझ रहा था, दफ्तर का रास्ता, वहाँ जाने वाली बसें नहीं दीख रही थी। ज़िंदगी का रास्ता तो उसे कभी स्पष्ट नहीं था।
उन आंसुओं की स्मृति इतनी गझिन थी कि यहाँ जांच समिति के सामने भी अनिरुद्ध की आँखें भर आई थी। यहाँ जो कुछ हुआ अगर वह तारकेश के शब्दों में हुआ होता तब शायद अनिरुद्ध के ज़िंदगी का मुहाना किसी और करवट बदलता लेकिन हुआ यह कि संपादक शिव शुक्ल ने अतिआत्मविश्वास और कमजर्फी से लबरेज होकर कहा था, ‘नौकरी छूटने का डर आँखों में उतर आया है। शुरुआत में तो लग रहा था कि बड़े साहसी हो। बता क्यों नहीं देते कि जूते का चित्र किसके कहने पर बना रहे थे और क्यों?’
अनिरुद्ध बेकाबू होकर अपने आंसुओं पर काबू पाना चाहता था। वह अपनी स्मृतियों को कोस रहा था जो बार बार उसे खींचकर जीवन के चंद उजले दिनों की तरफ लिए जा रही थी।
तारकेश, जो अब तक एच. आर. मैनेजर की अपनी पदवी के धर्म को कृत्रिमता से निभा रहा था, ने आड़े प्रश्न को सीधा किया। अच्छाई का उसका झूठा आचरण अपनी कलई से बाहर निकलना चाहता था। किसी का नाम उजागर न होता देख प्रबंधन को मिलने वाली निराशा के पुट में कहने लगा था, ‘आप खामखाँ अड़ियल रुख अपना रहे हैं मिस्टर… जो भी आप हैं। हम जानना चाहते हैं कि कौन कौन से लोग आपके साथ इस साजिश में शामिल हैं। हम नहीं चाहते कि आगे से कोई घटना इस आशय की घटे जिसमें कर्मचारी अपने अधिकारियों का अपमान, सच में या प्रतीकों के माध्यम से कर सकें।‘
अनिरुद्ध ने अपने रुँधे कंठ पर काबू पा लिया था। एकबार फिर तय किया कि मन में चाहें जो ख्याल घुमड़ रहे हों, उसे कोशिश यही करनी है कि नौकरी बच जाये। इसलिए उसने विनम्रता और अनभिज्ञता का दामन थामें रखा था। लेकिन साथ ही वह यह नहीं चाहता था कि किसी सहकर्मी का नाम लेना पड़े। टूट जो होनी थी, अनिरुद्ध नहीं चाहता था कि उसकी तरफ से हो। वह अपनी ज़िंदगी की जरूरतों को देखते हुये जान रहा था कि नौकरी सबको चाहिए थी, इसलिए लोग इस पत्रिका से जुड़े हुये थे। उसने कहा, ‘आपलोगों को गलत सूचना मिली है। जूते के चित्र मैंने वहीं बनाए हैं जहां जरूरत समझा है।‘
शुभ्रा : ‘हमें जूते मारने की जरूरत?’
अनिरुद्ध ( विहंसते हुये ): ‘अरे मैडम, आप तो नई नई आई हैं। … ( थोड़ा रुककर, अपने जवाब को तौलते हुये कि कहीं पुराने घाघ इसे पकड़ न लें)… यहाँ माहौल इस तरह से खराब नहीं हैं।
तारकेश: ‘मारना ही था तो सच के जूते मार लेते।‘
इस प्रश्न का जवाब वह इसलिए भी दे सकता था क्योंकि अतीत में दे चुका था लेकिन यहाँ चुप रहना मुनासिब था। जब सुमित्रा के कमरे पर उसका टिकना शुरू हुआ था तब वह अक्सर जूते के चित्र से जूते मारने के एहसास पर बात करती थी। उसने ही पूछा था, ‘बेहतर होता कि हम सच का जूता मारते।‘ इसके जवाब में अनिरुद्ध ने अपनी आत्मा की तरफ करवट फेरते हुये कहा था, ‘समय बदलने के साथ हथियारों की मियाद भी बदलती थी। अब जूते मारना भी प्रचार का हिस्सा हो गया है क्योंकि जूते जिस पर उछाले जाएँगे उसकी जेब में सत्ता और पुलिस है। हो सकता है कि जूता उन तक पहुंचे भी नहीं लेकिन उसे फेंकने वाला भीड़ का, पुलिस का शिकार हो जाएगा। शक्तिशाली लोग चाहते हैं कि ऐसा हो, उन पर जूते चलें, इसलिए भी हमें सच के जूते नहीं मारने चाहिए। हाँ, जिस दिन पुलिस या उससे बड़े अपराधी तुम्हारे पक्ष में हो जाएँ उस दिन तुम बेखौफ जूते चलाना। ‘ इस जवाब के जवाब में सुमित्रा ने कहा था, ‘और हाँ, उनको मारने में जूते भी गंदे हो जाएँगे।‘ इस जवाब के जवाब पर अनिरुद्ध देर तक हँसता रहा था।
तारकेश के प्रश्न का जवाब क्योंकि वह मन ही मन दे रहा था इसलिए अनिरुद्ध की चुप्पी जांच समिति पर जाहिर नहीं हो रही थी। शुभ्रा ने कहा, ‘यह सुधरने वाला नहीं लगता।‘ शिव ने कहा, ‘नाम बता दे भाई। जब दस लोग बाहर का रास्ता दिखाये जाएँगे तब सबको समझ में आयेगा कि अपने अधिकारियों को जूते दिखाने का क्या मतलब होता है।‘
अनिरुद्ध धीरे धीरे खुद को चिकने घड़े में तब्दील कर रहा था और कोशिश कर रहा था कि किसी भी अपमान के सम्मुख वह खुद को थामे, बेरोक न हो जाये। लेकिन सर्वाधिक मानवीय दिखने वाले तारकेश ने जब अपनी बातों से आखिरी चोट मारी तब वह मन के गहरे कोने तक हिल गया था। घबरा गया था। मानवीयता की मिशाल और बुद्ध की तरह हर हमेशा मुस्कुराने वाले विनम्रता की प्रतिमूर्ति तारकेश ने कहा,’तुम शायद समझ नहीं रहे। अगर तुम नाम बता देते हो तब हम महज तुम्हारे इस्तीफे से काम चला लेंगे लेकिन अगर दस से कम एक भी नाम बताए, तब हम तुम्हें नौकरी से निकालेंगे और कागजों पर इस तरह दागदार कर निकालेंगे कि कम से कम दिल्ली में तो कोई तुम्हें नौकरी नहीं देगा। अब आई बात समझ में?’
अनिरुद्ध समझ रहा था। आगामी कल का ख्याल उसके साहस को तोड़ रहा था। अपने साथियों से धोखेबाज़ी का ख्याल उसकी आत्मा को लेकर गहरे कहीं झूल जा रहा था। उसने अस्फुट सी आवाज में कहना जारी रखा, ‘आठ वर्ष कंपनी को दिये हैं। चित्रों का गलत मतलब निकाला जा रहा है। मेरे पास एक महीने तक जीने खाने जितनी भी बचत नहीं हैं। उन चित्रों का चित्र की तरह देखा जाये।‘ धीरे धीरे उसकी आवाज काँपने लगी थी। उसके शब्द इस तरह हिल-डुल रहे थे जैसे खुद को कुछ नया अर्थ देना चाहते हों। नौकरी बचाए रखने की लकार ने उसका मनुष्य होना उससे छीन लिया था।
शुभ्रा : ‘यानी तुम नाम नहीं बताओगे।‘
अनिरुद्ध: ‘किनके?’
शिव: ‘चलो, अब तुम बाहर जाओ। वहीं इंतजार करो।‘
जांच समिति की मुश्किल यह थी कि कौन सा आरोप मढ़ा जाये? चित्रों के जरिये जूते मारने का आरोप ही वाजिब था लेकिन उसकी मुश्किल यह थी कहीं नौकरी से निकालने का आदेश पत्र किसी के हाथ लग गया तब बाहर की दुनिया में जाते ही उनकी जगहँसाई होती। बीसियों मिनट बीत जाने के बाद अपनी अक्षमता से आजिज़ आकर जांच समिति इस बात पर एकमत हुई कि जांच में असहयोग का आरोप मुफीद रहेगा।
‘जांच समिति से असहयोग’ के आरोप के बाद वे तीनों चाहते थे कि आज का काम कल पर मुल्तवी किया जाये। उन्होने तय किया कि आदेश कल जारी करेंगे। अपने कागजों को समेटने के क्रम में शिव की निगाह बाहर गई जहां उसने देखा कि होर्डिंग अपने साप्ताहिक नियमानुसार बदली जा रही है। होर्डिंग के तन जाने तक वे तीनों देखते रहे। अनिरुद्ध की किस्मत इतनी खराब थी कि उसी समय शिव की निगाह बगल के होर्डिंग पर चली गई। खुद तो देखा ही देखा लेकिन अवचेतन की न जाने किस रस्सी से खिंचकर उसने शुभ्रा और तारकेश का ध्यान भी उस होर्डिंग पर दिला दिया।
जूता बनाने वाली की कंपनी का विज्ञापन बता रहा था कि कपड़ों और रेक्सीन के जूतों के इस दौर में भी चमड़े के जूतों का अपना विशेष स्थान बरकरार है। एक बहुत बड़ा सा काला जूता चित्र में दिख रहा था। उसके मजबूत और किंचित चमकते तल्ले की दिशा अपनी तरफ देखकर शुभ्रा ने तय कर लिया था कि आदेश पत्र लिखने का काम कल पर नहीं छोडना चाहिये और अपना लैपटॉप फिर से चालू कर लिया था। शिव और तारकेश ने अलबत्ता एक साथ एक ही शब्द कहा था और दोनों चौंक गए थे कि क्या दोनों के मन में अपने कर्मचारियों के लिए एक ही ख्याल बसते हैं? और यह भी कहीं वे अपने मनबढ़पने में अपनी ही मुश्किल तो नहीं बढ़ा गए?
उन्होने कहा था, ‘हरामजादा।‘
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नोट : इस प्रस्तुति की वर्तनी कहानीकार की अपनी है, ‘हिन्दवी’ ने इसे बिना किसी सुधार के जस का तस सिर्फ़ प्रकाशित भर किया है।