उदास शहर की बातें

एक

इन दिनों अजीब-सी बेरुख़ी है, मार्च की हवा चुभ रही है। ख़ुद से लड़ाई बढ़ती चली जा रही है। जब लड़ाई ख़ुद से हो तो जीतने में कोई रस नहीं रहता, क्योंकि जो हार रहा होता है; उसमें भी हमारा होना बचा होता है।

लिखना जैसे छूट रहा है, अब सब कुछ लिखना जैसे एक खानापूर्ति हो, जैसे बंद पड़ी मशीन में कोई कारीगर आदतानुसार हर रोज़ साफ़-सफ़ाई कर के उसमें तेल डाल रहा हो। हर बार की तरह मैंने अपना एक कोना पकड़ लिया है, चारों तरफ़ से क़िलेबंदी कर दी है—पहरेदार भी मैं ही हूँ।

मुझे कई बार लगता है—बहुत ज़्यादा दिखना एक क़िस्म का भौंडापन है।

मैं अपने जीवन को सब कुछ कह देने और बहुत कुछ छिपा लेने के मध्य रखना चाहता था। ठीक रस्सी पर चलते उस कलाकार की तरह जो ज़मीन से ऊपर ख़ुद को मध्य में टिकाए हुए है। वह किसी एक तरफ़ भी झुकता है तो वह धड़धड़ाकर गिर जाता है, और ख़ुद को फिर से समेटने लगता है।

अब मैं धीरे-धीरे आश्वस्त हो रहा हूँ कि मैंने जिनको भी खो दिया है, वे अब नहीं लौटेंगे; कभी नहीं लौटेंगे। मैंने अपने हर भ्रम को दूर धकेल दिया है।

मुझे अब अपनी सारी सफलताएँ खोखली मालूम पड़ रही हैं, जैसे मैं इतने सालों से कोई झूठ ढो रहा था। मैं अपने हर झूठ को नदी में बहा देना चाहता हूँ, जैसे मृत्यु-पश्चात अस्थियाँ बहा दी जाती हैं—मुक्ति की आशा में।

मैं अब ख़ुद को सबसे किसी लुका-छिपी के खेल की तरह नहीं छिपा लेना चाहता हूँ।

मैं अब किसी संगीन अपराधी की तरह छिपे रहना चाहता हूँ, जिसे आसानी से खोजा न जा सके।

मैंने अपने दरवाज़े पर एक नोट चिपका दिया है—I Don’t Live Here Anymore.

दो

मैं बिल्कुल ख़ाली हो चुका हूँ। उचककर आसमान में टिमटिमाते शब्दों को देखता हूँ। कोई शब्द टूटकर गिरे तो मैं माँग लूँ कविताओं के अधूरे वाक्य को पूरा करने की दुआ, जैसे मैं बचपन में माँग लिया करता था। मैं जानता हूँ कि यह तर्कसंगत नहीं है, पर जीवन तर्कों पर कहाँ चलता है, और कविताएँ भी तो नहीं…

मुझे फ़रवरी का बीतना बिल्कुल पसंद नहीं है। मार्च की दुपहर के सूनेपन से मन डर जाता है। दिल्ली की सड़कों पर हवाओं की बेरुख़ी चेहरे को छूती है, टूटकर बिखरे पत्ते मेरे पाँव से टकराते हैं। मैं आख़िरकर किससे-किससे बचूँ… टूटे हुए पत्ते, टूटे हुए लोग… कल ही तो चुभ गया था उँगलियों में काँच टूटकर… वह होती तो कहती, ‘‘तुम दुःख को अपने पास बुलाने में कोई कसर नहीं छोड़ते…’’

मैं कल सौमित्र चटर्जी की फ़िल्म ‘अपूर संसार’ देख रहा था, जिसमें वह कहते हैं :

‘‘I am well but my heart is sick. It will heal when you come.’’

मैं जब उसे ख़त लिखूँगा… यह ज़रूर कहूँगा।

तीन
आत्मालाप

उसे कोई जल्दी नहीं है। एकाकीपन उसका बेहतरीन साथी है। वह चुप्पी के साथ घंटों समय बिताता है। वह कहता है कि सब रंगों को घोलकर दो रंग बना देना चाहता है—सफ़ेद और स्याह। वह स्याह दीवारों पर पीठ टिकाकर सफ़ेद रोशनी की कल्पना करता है। वह कहता है कि कमरे में अँधेरा हो तो थोड़ी रोशनी भी बहुत रोशनी मालूम पड़ती है। वह कुछ भी भूलना नहीं चाहता और सब कुछ भूल जाना चाहता है। वह लिखता है, मिटाता है और सुंदर शब्दों की तलाश में विचारों का पहाड़ चढ़ता है, वह हाँफता है। वह उदासी को सुंदर बनाना चाहता है : गहरे, शांत तलाब की तरह। एक शून्य इतना गहरा। वह आते-जाते लोगों को देखता है। वह किसी के जाने से पहले हँसकर बता देता है, तुम अब जाने की तैयारी में हो। वह रोकता नहीं, वह बस कहता है—रुकते घड़ी भर और तो अच्छा होता।

वह कहीं दूर निकल जाने की तैयारी में है। वह कहता है : सबसे सुखद यात्राएँ वही हैं, जो कहीं नहीं पहुँचतीं।

वह अभी अपनी डेस्क पर ऊँघ रहा है। सामने लैपटॉप पर कुछ अधूरा लिखा चमक रहा है—शायद कोई कहानी या उपन्यास।

चार

वह दरवेश बन भटकता है। वह लोग और जगह चुनने में कोई जल्दबाज़ी नहीं करता। अपनी पसंदीदा जगहों पर वह अनगिनत बार लौट सकता है, बिना शिकायत किए कि ये जगहें उसे अब बोर करने लगी हैं। वह उन जगहों को अकेला नहीं छोड़ता जिन जगहों ने उसके बुरे दिनों में रुकने की जगह दी हो। वह उन लोगों को याद रखता है, जिन्होंने कभी कहा हो—तुम उदास अच्छे नहीं लगते। जगह और लोग उसकी ज़िंदगी में बहुत कम हैं, जो उससे कभी नहीं छूटते, जिनसे वह कभी नहीं छूटता… वह हाथों को भले ही भूल जाए,उसके पास उन हाथों के स्पर्श की स्मृति गहरी है। वह दिन-तारीख़ भूल जाया करता है, पर वह किसी के कहे शब्दों को नींद में भी दुहरा सकता है।

वह अक्सर पूछती थी—वही डामर की सड़कें, हरी-पीली ऑटो, इंडियन कॉफ़ी हॉउस की वही कॉफ़ी, ये दिल्ली तुमसे कभी नहीं छूटती ना! दस साल हो गए यहाँ रहते, इतने दुहराव के बाद भी हर बार तुम्हें उन्हीं जगहों पर नया क्या मिलता है?

मेरी एक दोस्त कहती हैं : ‘‘दिल्ली वापस लौटा जा सकता है कहीं से भी, दिल्ली से कहीं नहीं लौटा जा सकता।’’

इसलिए इतने दुहराव के बाद भी, मैं हर बार इसे नया पाता हूँ। कहीं भी जाकर वापस लौट आता हूँ, उन्हीं जगहों पर। हर बार वे सभी जगहें बाँहें फैलाकर मुझसे मिलती हैं।

जब वह मार्च की दुपहर देखता है तो ‘निर्मल’ याद आते हैं। लगता है जैसे एक कहानी लिखी जा चुकी है, और वह उनकी उस कहानी का एक पात्र है।

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गौरव गुप्ता की कविताएँ यहाँ पढ़िए : गौरव गुप्ता