कोरोना समय में हिंदी कविता

साल 2019 के आख़िरी महीने में दृश्य में आई कोरोना महामारी ने गत वर्ष सारे संसार को प्रभावित और विचलित किया। साहित्य का संसार भी इस आपदा से अछूता नहीं रहा। संसार की कई भाषाओं में इस दरमियान कोरोना-केंद्रित साहित्य रचा गया। हिंदी में भी इसकी प्रचुरता रही। हिंदी कविता के लगभग सभी प्रमुख कवियों ने कोरोना और उससे उपजे असर को अपनी कविता का विषय बनाया।

इस आपदा ने हमारी सभ्यता, हमारे साँस लेने और सोचने-समझने के तरीक़े को कैसे बदला; इसे जानने का एक बेहद या कहें सबसे संवेदनशील दस्तावेज़ हिंदी कविता के पास है। इसमें गर्व या हर्ष करने जैसा कुछ नहीं है, लेकिन यह घटना हमारी भाषा के मूल सरोकारों और प्राथमिक एजेंडे को एक बार फिर स्पष्ट करती है।

इस प्रकार देखें तो कोरोना-काल का हिंदी कविता में फ़िलहाल एक प्रामाणिक डॉक्यूमेंट तैयार हो चुका है। इस फ़िलहाल और तत्काल से अलग भी इस ओर काम हो ही रहा होगा, हमारी नज़र उस पर भी है।

कोरोना-काल की यहाँ प्रस्तुत कविताओं का संग्रह इस महामारी के लगभग सारे आयामों को समेट लेने वाला है। यह वायवीय, पुराना और कामचलाऊ नहीं है। यह धड़कता हुआ और बेतरह बेचैन कर देने वाला संकलन है। इसका महत्त्व अभी या कभी भी समझा जा सकता है, क्योंकि यह मुहावरा अब बहुत मूलगामी मुहावरा है कि जो अभी की कविता नहीं है, वह कभी की कविता नहीं है। इसलिए यह संग्रह साल 2020 के भारतीय समय का सर्वाधिक प्रामाणिक, मर्ममय और कारुणिक दस्तावेज़ है। …और ध्यान दीजिए/रखिए, इसे हिंदी कविता ने संभव किया है।

‘हिन्दवी’ ने इस दस्तावेज़ को एक जगह ले आने का आयोजन किया है—इस इच्छाशक्ति के साथ कि इस सिलसिले में छूट गई या बाद में संभव हुई कविताओं को भी इसमें आगे दर्ज किया जा सकेगा।

कोरोना-काल में कोरोना के साथ-साथ कोविड-19, मास्क, सैनिटाइजर, सोशल डिस्टेंसिंग, लॉकडाउन, क्वारंटीन, कंटेनमेंट ज़ोन, इन्फ़ोडेमिक, कोरोना-वैक्सीन जैसे की-वर्ड सामने आए। इन की-वर्ड्स में हिंदी कविता ने अपने की-वर्ड्स जोड़े हैं :

समय, जीवन, रोग, दुःख, दर्द, मृत्यु, डर, आँसू, भूख, ग़रीबी, बेरोज़गारी, यातना, यात्रा, पलायन, विस्थापन, लौटना, मज़दूर, देश, शहर, गाँव, घर, दरवाज़ा, खिड़की, संबंध, परिवार, एकांत, ऊब, सन्नाटा, अवसाद, राजनीति, प्रतिरोध, संघर्ष, साहस, सांप्रदायिकता, ईश्वर, प्रकृति, प्रार्थना, अकेलापन, शिकायत, आत्मनिर्भरता, प्रेम, करुणा, प्रतीक्षा, उम्मीद, स्पर्श, स्वप्न

ये की-वर्ड्स गूगल या कोई दूसरा सर्च-इंजन कोरोना-सर्च में शायद ही दिखाएगा। यहीं कविता का काम समझने की ज़रूरत है।

इस प्रस्तुति के प्रसंग में इस बात का खेद भी है कि फ़िलहाल यहाँ किसी स्त्री-कवि की कोई कविता नहीं है। इस प्रकार इस दृश्य में बतौर संपादक मेरे लिए ये सबसे मुश्किल क्षण रहे। एक भी स्तरीय कवयित्री की कोई भी स्तरीय कविता इस सिलसिले में जुड़ नहीं सकी, जबकि इस आपदा के आतंक और भयावहता को स्त्रियों ने संभवतः पुरुषों से ज़्यादा न भी कहें, बराबर तो झेला ही है। यहाँ देवी प्रसाद मिश्र की इन पंक्तियों का उल्लेख प्रासंगिक हो सकता है :

यह तो होता ही है कि
जो अनुभवों के बहुत बीच होते हैं
और घटनाओं का तटस्थ नहीं होते
वे अनुभवों को कहने
किसी सभा तक नहीं पहुँच पाते।

इस तरह देखें तो हिंदी कविता में अभी कोरोना का स्त्री-पक्ष ही नहीं, कोरोना की वजह से कई मोर्चों पर सीधे संघर्षरत रहे पीड़ितों, योद्धाओं और समाजसेवियों का पक्ष आना भी बाक़ी है। यहाँ यह उम्मीद की जानी चाहिए कि कोरोना के उत्तर-पक्ष में यह पक्ष आकार ले और मज़बूती से अभिव्यक्त हो।

बहरहाल, इस सिलसिले की शुरुआत हम 40 से अधिक कवियों की 125 से अधिक कविताओं के साथ कर रहे हैं, इसमें इन पंक्तियों के लेखक के साथ-साथ इन कवियों की कविताएँ पढ़ी जा सकती हैं :

अशोक वाजपेयी, विष्णु नागर, विजय कुमार, विनोद दास, देवी प्रसाद मिश्र, कृष्ण कल्पित, लीलाधर मंडलोई, बोधिसत्व, ध्रुव शुक्ल, रुस्तम, अमिताभ, नवल शुक्ल, संजय कुंदन, स्वप्निल श्रीवास्तव, मदन कश्यप, श्रीप्रकाश शुक्ल, हरि मृदुल, निरंजन श्रोत्रिय, धीरेंद्र नाथ तिवारी, पंकज चतुर्वेदी, विनोद पदरज, सुभाष राय, सिद्धेश्वर सिंह, विनोद विट्ठल, फ़रीद ख़ाँ, नीलोत्पल, परमेश्वर फुंकवाल, मनोज कुमार झा, राजेश कमल, शंकरानंद, पंकज चौधरी, रमाशंकर सिंह, विमल चंद्र पांडेय, संजय रॉय, रवि प्रकाश, सौरभ अनंत, शायक आलोक, सुधांशु फ़िरदौस, कुलदीप मिश्र, देवेश पथ सारिया, विहाग वैभव, अनुराग अनंत, अखिलेश सिंह

हिन्दवी पर संकलित कोरोना-कविताएँ पढ़ने के लिए यहाँ देखें : कोरोना