शब्द प्रतीक्षा कर सकते हैं
अक्सर दूसरी भाषा की कृतियों को पढ़ते हुए हम अपनी भाषा में उनकी अनुरचना भी करते हैं। पहले अनुवाद के सहारे और फिर विश्लेषण के माध्यम से उन्हें पढ़ते हैं। अनुवाद हमारे लिए प्राथमिक स्रोत होता है और आलोचना द्वितीयक। हिंदी में जर्मन कवि रैनर मारिया रिल्के (1875-1926) का अनुवाद ऐसी ही रचना-स्थिति है। उनकी कविताओं और गद्य के कतिपय अनुवाद तो हैं, किंतु एकाध अपवाद को छोड़कर आलोचना अच्छी नहीं है। चूँकि अध्ययन के बाद अनुरचना संभव होती है और अनुवाद से गुज़रने के बाद ही आलोचना; इसलिए इस पर लिखना भी एक दोहरी ज़िम्मेदारी है। इसमें, अनुवाद चूँकि ‘मध्यस्थ’ का काम करता है, इसलिए स्वयं अनुवाद का विश्लेषण भी आनुषांगिक प्रक्रिया है। रिल्के की बीहड़ किंतु आत्मीय रचना-यात्रा में काव्य और गद्य मिलकर एक बिम्बित-प्रतिबिम्बित अनुभव-संसार बनाते हैं : अक्षांश और देशांतर रेखाओं की तरह वे कभी एक दूसरे को संदर्भित करते हैं तो कभी पूर्वापर स्थितियाँ बनाते हैं। उनकी कविताओं में अंतर्जगत की ब्रह्मांड व्यापी नाभिकीय ध्वनियों की गूँज है तो गद्य में उन ध्वनियों के उद्गम-स्थल तक पहुँचने के सूक्ष्म रश्मि-संकेत बिखरे हैं। उसके दुर्गम किंतु जादुई आवर्त में प्रवेश करते ही सहसा हम भूल जाते हैं कि हमें उसका विश्लेषण करना है। वहाँ कोई भी अध्येता, अनुवादक या आलोचक अपनी सत्ता से ‘एलियनेट’ हो जाता है और एक विशुद्ध आस्वादक के रूप में अपने को रिल्के-गद्य के सम्मुख पाता है।
उन्नीसवीं सदी के अंतिम वर्षों में वे एक कवि के रूप में यूरोपीय साहित्य में छा गए। बीसवीं सदी की पहली चौथाई में जीनियस कवि के साथ एक मँजे हुए पत्र-लेखक के रूप में भी दुनिया उन्हें जानने लगी। ‘दुइनो शोकगीत’ के रचयिता के ये पत्र एक रचनाकार के महान अनुभव के अंतराल से ही नहीं उपजे हैं, बल्कि 19वीं और 20वीं सदी के रचनात्मक और वैचारिक अंतराल को पाटते हुए इनकी रचना की गई। जिस तरह कविताओं का, वैसे ही इन पत्रों का भी रिल्के ने ‘सृजन’ किया है जो अपनी कलात्मक उपलब्धि में विश्व साहित्य की श्रेष्ठ कृतियों से होड़ लेते हैं। विख्यात अँग्रेज़ी रोमांटिक कवि जॉन कीट्स के पत्रों के साथ-साथ रिल्के के ये पत्र भी मानवीय सृजन की उस धरोहर की तरह हैं जिनके लिए ‘एक्स्ट्राऑर्डिनरी’ और ‘आउटस्टैंडिंग’ जैसे शब्दों का प्रयोग किया जाता है।
इन पत्रों को हिंदी में पहली बार लेकर आईं विख्यात उपन्यास ‘तत-सम’ की लेखिका और वरिष्ठ कथाकार राजी सेठ। उन्होंने महज़ ‘बाई-प्रोडक्ट’ के रूप में इनका अनुवाद नहीं किया, बल्कि अपने सृजन-क्षणों के अंतराल में इनका पुनःसृजन किया है। ये अनुवाद, अनुवाद की सीमा को लाँघकर सृजन के आँगन में प्रवेश कर जाते हैं—इसलिए यहाँ कोई फाँक नहीं है। हिंदी जितनी हमें बिल्कुल अपनी लगती है, उतना ही राजी सेठ का यह अनुवाद और उतने ही अपने लगते हैं रिल्के के ये पत्र। यह अनुवाद से उभरती हुई आत्मीयता ही है जो मूल रचनाओं से एकतान हो गई है और हिंदी में रिल्के को पढ़ते हुए पहली बार यह भ्रम होता है कि संभवतः उन्होंने ये पत्र इसी भाषा में लिखे हैं।
राजी सेठ रिल्के पर लंबे समय से अध्ययन करती रही हैं। उन्होंने युवा कवि फ्रांज़ ज़ेवियर काप्पुस के नाम दस पत्रों के संग्रह ‘लेटर्स टू ए यंग पोएट’ का अनुवाद ‘पत्र : युवा कवि के नाम’ से किया जो भारत में, रिल्के का पहला प्रकाशित पत्र-संग्रह है। इस पुस्तिका की लोकप्रियता और दीर्घकालिक महत्त्व को देखते हुए पुनः भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान के निमित्त रिल्के के कुछ और चुनिंदा पत्रों का व्यवस्थित अनुवाद किया जो ‘रिल्के के प्रतिनिधि पत्र’ नाम से साहित्य अकादेमी से 1999 में पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ। प्रस्तुत लेख के सभी उद्धरण इसी पुस्तक से हैं।
जिन लोगों ने रिल्के की कविताएँ पढ़ी हैं, उन्हें उनके ‘अकेलेपन का वैभव’ इन पत्रों की खिड़कियों से झाँकता हुआ दिखाई देगा। ये आजकल के पत्रों (ई-मेल या वर्चुअल संदेश) की तरह नहीं हैं जो ‘पत्रता’ और ‘पात्रता’ से शून्य महज़ सूचनाएँ होती हैं, जिनमें ‘फ़ॉर्म’ और ‘कंटेंट’ सिरे से ग़ायब होता है। रिल्के के लिखे पत्रों में प्रेषित करने वाले का ‘धैर्य’ और पाने वाले की ‘प्रतीक्षा’ का शिल्प एकाकार हो गया है। ये पत्र उन्होंने अपने मित्रों—पाठकों, प्रकाशकों, समीक्षकों, लेखकों, कलाकारों, मनोविश्लेषकों, कैथोलिकों, कवियशःप्रार्थी युवकों और विविध क्षेत्र के प्रतिष्ठित लोगों के अलावा प्रथम विश्व युद्ध के अफ़सरों और उसमें मारे गए कवियों को भी लिखे हैं। कुछ पत्र अपनी पत्नी और बेहद क़रीबी स्त्रियों को लिखे गए हैं। इन्हें पढ़ते हुए हम उनके एकांत के रहस्यमय आवरण को दरकते-टूटते हुए देखते हैं। ये लिखे किसी को गए हों, उसे एकांत में प्रेम करने की तरह लिखे गए हैं : इसलिए उनके प्रेम के घनत्व को विस्तृत करते हैं और ख़ूबसूरत शैली में जटिल और अमूर्त कथ्यों का बयान करते हैं। आज हमें ऐसी कोई शैली शायद ही मिल सकती है, क्योंकि सब कुछ हवा में है; लेकिन सौ साल पहले लिखे गए इन पत्रों से गुज़रते हुए लगता है कि अभी भी कुछ चीज़ें हैं जिनकी जड़ें ज़मीन में गहरे पैवस्त हैं। इसी ज़मीन पर खड़े होकर रिल्के कला, सृजन, सौंदर्य, प्रेम, उदात्त, मनुष्यता और अंतस की ईमानदारी की बुनियाद रचते हैं।
रिल्के ने जीवन, जगत और कला के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों के अनेक लोगों को पत्र लिखे हैं जिनकी चर्चा और विवेचना इस लेख के अगले हिस्से में होगी। फिलहाल यहाँ क्लैरा रिल्के को लिखे गए और उनसे संबंधित पत्रों का ज़िक्र होगा। चूँकि पत्नी को लिखे गए पत्र हैं, इसलिए इन्हें प्रेम-पत्र समझने की जल्दबाजी न की जाए। इनका मूल विषय तथाकथित ‘प्रेम’ न होकर ‘सृजनकर्म से प्रेम’ है। प्रेम के प्रति इस कलात्मक दृष्टिकोण से, इनमें सहज रूप से स्त्री और पुरुष की सर्जनात्मकता के कुछ उत्स-बिंदुओं के सूक्ष्म संकेत आ गए हैं, इसलिए महत्त्वपूर्ण हैं। दो भौगोलिक दूरियों पर रहते हुए भी पति-पत्नी के बीच ये पत्र-संवाद कला के प्रति उनकी निष्ठा और समर्पण के दुर्लभ दस्तावेज़ हैं, इसलिए प्रेम-पत्र के सामान्य अर्थों से पार चले जाते हैं। रिल्के अपनी गृहस्थी को लेकर, कहीं एक जगह ठहर कर स्थायी होने की आकांक्षा को लेकर अपने हितचिंतकों से लगातार सलाह-मशविरा और जीवनयापन के लिए अनुकूल सहयोग की संभावनाओं पर विचार करते हैं। विवाहोत्तर या स्वकीया प्रेम से संदर्भित इन पत्रों में शिल्पकार पत्नी से कला के मर्म और सृजन-प्रक्रिया पर बातें करते हुए, वे अपने जीवन के वर्तमान और भविष्य के रास्ते भी साझा करते हैं।
1902 में एक आत्मीय परिचिता जूली वायमन को लिखते हुए रिल्के अपनी गृहस्थी के बारे में बताते हैं कि वे दोनों “कम साधनों में गुज़र करते हुए अविवाहितों की तरह जिएँगे। दोनों अपने-अपने काम की ख़ातिर अलग-अलग रहेंगे। वस्तुतः हमारा काम ही हम लोगों के लिए प्रमुख है, इसलिए ज़रूरत पड़ने पर हम उस भौगोलिक दूरी के लिए भी तैयार हैं।” उपन्यासकार फ्रेडरिक हुख़ को बताते हैं कि क्लैरा पर रुथ (बेटी) की देखभाल की अतिरिक्त ज़िम्मेदारी है क्योंकि “रुथ हमारे विवाह में सहवर्ती होने के कारण ग़रीबी की इस यातना को क्यों झेले।” पत्नी के लिए किसी फ़ैलोशिप की आशा करते हैं क्योंकि उसकी कला की ख़ूब प्रशंसा हो रही है और उसकी बनाई कांस्य मूर्तियाँ कई बार ख़रीदी जा चुकी हैं। लिखते हैं कि “इस संसार में यदि मेरा सबसे निकटतम व्यक्ति, अपने जीवन और कर्म में व्यवस्थित हो जाता है तो मैं भी अपने बारे में गंभीरता से सोच सकूँगा और परिस्थितियों से समझौता करने का एक बार फिर यत्न करूँगा।”
रिल्के को अपने सामने दो समांनातर भविष्य दिखाई देते हैं जो बुनियादी रूप से एक ही मूल की दो शाखाएँ हैं। उनके लिए ‘काम’ का अर्थ महज आजीविका न होकर, गहरे अर्थों में सृजन-कर्म है—अपने लिए और पत्नी के लिए भी। इसलिए वे सृजन की सामानांतर दुनिया के भोक्ता और द्रष्टा दोनों हैं जिनके लिए जैविक भेद के बावजूद स्त्री और पुरुष को अलग से कोई छूट या बचाव नहीं है। वह क्लैरा को बार-बार याद दिलाते हैं कि “कलाकृतियाँ सदा से ही जोखिम की संतानें हैं, अंतिम कगार तक पहुँचे हुए ऐसे अनुभव की जहाँ से आगे कोई नहीं जा सकता” इसलिए उन दोनों को ही कम-से-कम उस अंतिम कगार तक तो पहुँचना ही होगा। जोखिम भरी इस ज़िम्मेदारी का विस्तार दोनों में है—बिना किसी शर्त, नियम या बंधन के। इस विस्तार में केवल स्त्री या केवल पुरुष ‘धर्म’ से आगे जाकर ‘सृजन धर्म’ ही है जो दोनों को एक साथ जोड़े रखता है और समानधर्मा बनाता है। दोनों में समरसता की मूल भूमि भी यही है।
युवा कवि काप्पुस के नाम एक महत्त्वपूर्ण पत्र में उन्होंने लिखा है कि जिस तरह एक वयप्राप्त स्त्री में मातृत्व होता है, उसी तरह पुरुष में भी सृजन की भावना होती है और वास्तव में “लोग जितना समझते मानते हैं, स्त्री-पुरुष आपस में उससे ज़्यादा समरस हैं। इस संसार का पुनर्संस्कार एक ही बात में निहित है कि स्त्री और पुरुष सब विमुखताओं और दुर्भावनाओं से मुक्त हों और एक-दूसरे को अपने विपरीत न मानें। भाई-बहन की तरह, पड़ोसी की तरह और मनुष्य की तरह आपस में जुड़ें ताकि अपने पर लदे भारी-भरकम यौन-भाव से आगे बढ़कर उनमें साझी सहजता पनप सके।” सृजन-कर्म को वह भीषण कहते हैं और इसकी भीषणता इसमें है कि जितना ही कोई इससे संलग्न होता है, उतना ही यह उच्चतम, लगभग असंभव के लिए व्यक्ति को प्रतिबद्ध करता चलता है। एक तरह की आध्यात्मिकता में प्रवेश कराता है। इस आध्यात्मिकता को वह बॉदलेयर की कविता ‘कन्फ़ेशंस’ की उस स्त्री के कथन से परिभाषित करते हैं जो पूर्णिमा की चाँद रात की निस्तब्धता में अचानक बोल उठती है—“एक सुंदर स्त्री होना कितना दुष्कर काम है।”
चरम सृजनात्मकता की स्थिति में कोई स्त्री अपनी देह की सुंदरता से होते हुए ही, उसे साथ लेकर ही आध्यात्मिक हो सकती है और यह पुरुष की आध्यात्मिकता के बिल्कुल विपरीत है, प्रतिलोमी स्थिति है। वह मुश्किल से किसी ऐसी स्त्री की कल्पना कर पाते हैं “जो अपनी प्रकृति का उल्लंघन किए बिना कला का अनुसरण कर सकती हो। हम पुरुष लोग तो पहले से ही प्रकृति से कुछ ज़्यादा दूर, ज़्यादा विमुख हैं। हमारा जीवन क्रम भी ज़्यादा अनुमानित है, अतः कैसे भी चल जाता है।” एक ओर सृजन के लक्ष्य में बिना किसी छूट के दोनों का समानधर्मा होना और दूसरी ओर देह के हेतु से दोनों के अलग-अलग रास्ते जिसे वह ‘प्रकृति’ कहते हैं—यह पुनः जैविक स्थितियों का स्वीकार है। वह सृजनात्मकता में दोनों को बराबर मानते हैं, किंतु देह की वजह से भेद भी करते हैं। सृजन दोनों को एक धरातल पर लाता है, जबकि प्रकृति अलग करती है। यह विरोधाभास है—सृजनात्मकता की समस्या में और स्वयं रिल्के के कथन में भी।
प्रसंगतः, रिल्के की कविताओं का अनुवाद करते हुए हिंदी कवयित्री अनामिका ने याद दिलाया है कि उन्हें “औरतों की मेज़ का कवि” कहा गया है। इसी सिलसिले में वह मानती हैं कि कवि-कलाकार और संस्कृतिकर्मी मूलतः मातृमना होते हैं : “माँ के मन की सी बेचैनी होती है उनमें! ममता, करुणा, दुःखकातरता आदि ख़ासे उदात्त भाव स्त्रीमन के क़रीब करते हैं उनको—लेकिन यह मातृभाव ख़ासे आराम से शिशुभाव में परिवर्तित हो जाता है जब वे सचमुच की स्त्रियों का साथ गहते हैं, उनका ‘दाता’ भाव आराम से ‘गृहीता’ बन जाता है। आँचल की छाया में सो जाने की विह्वलता-सी घिर आती है। अभिभावकत्व तिरोहित हो जाता है, ‘भावकत्व’ में बाक़ी रह जाता है व्याकुल शिशुभाव—ख़ासा डिमांडिंग, ज़िद्दी पर भोला-सा, निर्विष-निरीह!” (‘अब भी वसंत को तुम्हारी ज़रूरत है’ की भूमिका से)
एक अत्यंत मार्मिक पत्र है ह्यूगो हैलर को, जिसकी चित्रकार पत्नी की प्रसव के दौरान मृत्यु हो गई थी। उसे लिख रहे हैं, “कलाकार का असली द्वंद्व है—संसार के वस्तुगत और व्यक्तिगत सुखों के बीच का वैपरीत्य और विरोधाभास।” इस पत्र की एक-एक पंक्ति को पढ़ने का अनुभव एक ओर काफ़्काई नियति-बोध के साक्षात्कार का अनुभव बन जाता है तो दूसरी ओर प्रेमचंद की कहानी ‘कफ़न’ के अप्रत्याशित यथार्थ-बोध को नई तरह साकार करता है। इसलिए गहरी पीड़ा के क्षणों में भी उन्हें निष्कर्ष रूप में लिखना पड़ता है कि “स्त्री का सबसे बड़ा अध्यात्म उसकी देह है, वही उसे उदात्त बनाती है। अतः उसके लिए बहुत आदिम और संकुचित क़िस्म के सुखों-दुखों में फँसना, अपने अंगों को उस रक्त से भरने के लिए प्रस्तुत करना है जो किसी दूसरे प्रकार के महत् रक्त-संचार के लिए बनाए गए हैं।”
पत्नी क्लैरा रिल्के के नाम लिखे गए सभी पत्र बिना किसी औपचारिक भूमिका के लिखे गए हैं और सीधे-सीधे किसी सूचना, समस्या या चिंतन से शुरू हो गए हैं। ये धर्मवीर भारती (पुष्पा भारती के नाम) के उन पत्रों की तरह नहीं हैं जिनमें ‘कांतासम्मित उपदेश’ की तरह पुरुषसम्मित उपदेश दिया गया है और बहुधा मुग्ध कर देने वाले रोमानी गद्य में लिखा गया है। रिल्के के पत्र रोमान से बहुत ऊपर उठकर ‘सृजनात्मक अध्यात्म’ के शिखर से लिखे गए हैं। इनमें व्यावहारिक जीवन समस्याओं के प्रत्यक्ष प्रसंग हैं और सृजन-क्षणों की अनुभूतियों को ज्यों का त्यों रख देने की दुर्लभ कला भी। एक आरंभिक पत्र में क्लैरा को लिखते हैं, “अपने से परे होकर देखने की क्रिया में एक प्रकार की शुद्धता और शुचिता है। जब दृष्टि, किसी प्रकृति प्रदत्त वस्तु पर लगी हो, उसे आत्मसात कर रही हो और अपने हाथ स्वतः ही, बहुत नीचे, डरते टटोलते आह्लादित होते चेहरे से दूर, कहीं बहुत दूर चले गए हों; तो चेहरा एक सितारे की तरह रह जाता है, जो देखता नहीं केवल ‘चमकता’ है।” वह अपने लिए और क्लैरा के लिए भी सृजन-क्षण के उस केंद्रीय समय को पकड़ने पर बल देते हैं जिसे कोई देख न रहा हो। यह कुछ वैसा ही है कि हम किसी बीज को अंकुरित होते हुए या किसी पौधे को पल्लवित ‘होते हुए’ नहीं देख पाते, सुबह उठते हैं तो उसे पहले से ही ‘अंकुरित हुआ’ या ‘विकसित हुआ’ देखते हैं।
मारिया रिल्के और क्लैरा रिल्के के बीच, यानी एक स्त्री और पुरुष के बीच यदि प्रेम-संबंध हो सकता है तो सृजन संबंध भी हो सकता है : और प्रेम से कहीं अधिक गहरा हो सकता है। ये दोनों उनके गद्य-पत्रों को दो धागों की तरह बाँधे हुए, सँभाले हुए हैं। ये पत्र रिल्के के अक्षांश हैं और प्रस्तुत लेख की पंक्तियाँ उन्हीं अक्षांशों पर लिखी गई इबारतें हैं। लिख रहे हैं पत्नी को, लेकिन ये प्रेम-पत्र न होकर मर्म-पत्र हैं, कला-पत्र हैं, सृजन-पत्र हैं, जीवन-पत्र हैं। ऐसा लगता है कि रिल्के अपनी पूरी आयु सृजन की समिधा ही सुलगाते रहे और उसमें अपने स्व का होम करते रहे। यह कला की रचना-प्रक्रिया में अंगांगिभाव से मानवीय व्यक्तित्व के तिरोहित हो जाने की प्रक्रिया है, जिसे हजारीप्रसाद द्विवेदी ने “अपने आपको दलित द्राक्षा की भाँति निचोड़ कर उड़ेल देना” कहा है। चूँकि हमें रिल्के के इस गद्य-पत्र की और कोई दूसरी संज्ञा नहीं सूझती, इसलिए इसे ‘दलित द्राक्षा गद्य’ कहना ही उचित होगा जिसमें उनके स्व का सत्त्व है।
वैसे तो लगभग सभी पत्रों में : लेकिन पत्नी को लिखे गए पत्रों में सबसे अधिक : उन्होंने अपने निर्माण स्थल की धरती की गहरी खुदाई की है। किसी पत्र के साथ उसे अपनी एक ताज़ी कविता भेजना चाहते हैं तो किसी में अपने अनुभव को तत्काल नोट न कर सकने की बेचैनी ज़ाहिर करते हैं। कभी उसके पाँचवें पत्र के लिए धन्यवाद देते हैं तो कभी छोटी-छोटी चीज़ों से डिस्टर्ब न होने की सीख। कभी अपने पत्र के उसके पत्र से ‘क्रॉस’ हो जाने की बात करते हैं जिसमें उसने शामों की सैर के सुंदर वर्णन लिखे थे। कभी अपनी पत्र-शैली में उतावलेपन को जस्टिफ़ाई करते हुए कहते हैं कि लिखा भले जल्दबाजी में है, लेकिन “जिन बातों के बारे में लिखा है, उनको लेकर कोई उतावली नहीं है और न ही वे ऐसी हैं जिन्होंने मुझे तत्काल लिखने के लिए उकसाया हो।” ऐसी जगहों पर इन गद्य-पत्रों में ‘क्लासिक कंटेंट’ और ‘रोमांटिक फ़ॉर्म’ का जल-वीचि संयोग देखा जा सकता है। क्लैरा रिल्के के नाम एक अंतिम, करुणा से भीगा हुआ पत्र है जो 1917 के अंत में, उसके जन्मदिन पर, किंतु चरम विषादाकुल क्षणों में लिखा गया है। इसकी चर्चा हम लेख के अगले हिस्से में करेंगे।
एक बार फिर लौटते हैं ‘अपनी भाषा’ पर। एक स्वीडिश चित्रकार द्वारा जर्मन भाषा में कविता लिखने के प्रयास पर वह कहते हैं कि मैं भी कभी-कभी फ़्रेंच में लिखने को बाध्य होता हूँ, लेकिन महसूस करता हूँ कि “किसी को भी इस आग्रह के इतना अधीन नहीं हो जाना चाहिए, उलटे अपनी सारी शक्तियाँ अपनी ही भाषा को जानने-समझने में लगानी चाहिए। उसी के माध्यम से सब कुछ कहने की कोशिश करनी चाहिए क्योंकि उसी के साथ हम अपने अचेतन तक गहराई से जुड़े हैं।” चूँकि “हर भाषा के महान विचारों तक हर किसी की पहुँच है” और “चिरंतन रचना के अस्तित्व के लिए सबसे पहले महान ‘चिंतन’ की ज़रूरत है” अतः “किसी भाषा को केवल इसलिए चुनने का कोई अर्थ नहीं है कि वह सर्वत्र प्रचलित है; बल्कि हमारा काम यह होना चाहिए कि जो भाषा हमारे पास है, उसे ही हम उसके चरम तक सिद्ध करें।” इस चरम उपलब्धि को पाने के लिए “कलाकृतियाँ प्रतीक्षा कर सकती हैं।”
क्या हमारी नई पीढ़ी के रचनाकारों को भी लिखते हुए उस चरम तक पहुँचने की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए? लिखे को प्रकाशित करने से पूर्व उससे एक अंतरंग साक्षात्कार नहीं करना चाहिए? क्या उनके शब्द प्रतीक्षा नहीं कर सकते : उनकी पंक्तियाँ भी दुरुस्त होने तक, अपनी संज्ञा, क्रिया और समूचे विचार-व्याकरण के अधिकतम दोहन के लिए रुक नहीं सकतीं? पुस्तकालय में धूल खाती हुईं कृतियाँ जब बरसों-बरस अपने सच्चे पाठकों की प्रतीक्षा कर सकती हैं तो हम क्यों नहीं? हम क्यों नहीं अपनी अभिव्यक्ति के नेपथ्य में कुछ समय ठहर कर अनुभव पगे शब्दों की प्रतीक्षा करें जिनमें विचार का सौंदर्य और सृजन का स्वाद हो। लाइब्रेरी की शेल्फ़ में फटती हुई किताबें यदि बाइंडिंग की बाट जोहती रह सकती हैं तो लिखे जा रहे शब्द भी सुधारे जाने की सतत प्रतीक्षा कर सकते हैं—बशर्ते हम चाहें। रिल्के कई बार दुहराते हैं कि अधूरे काम भी प्रतीक्षा करते हैं : पूर्णता की प्रतीक्षा। क्योंकि “बिना संपन्न किए कामों का उस धरती पर बड़ा बोझ होता है जिसमें से कुछ उगना है।”
पहली बार इन पत्रों को आज से दस साल पहले पढ़ा था, और अब यह लेख लिखते हुए दूसरी बार। ध्वनि यह भी है कि इन्होंने दस साल इंतज़ार किया—फिर से अपने पढ़े जाने का। यों ‘दोनों ओर प्रेम पलता है’ की तर्ज़ पर इस प्रक्रिया में भी प्रतीक्षाएँ दोनों ओर संघनित होती हैं।
यहाँ तक लिखते हुए कमरे की खिड़की से सूरज की दूधिया रोशनी छनकर ‘रिल्के के प्रतिनिधि पत्र’ के पन्नों पर पड़ने लगी है और इसकी नीली जिल्द चमक उठी है : जैसे बाइंडिंग की प्रतीक्षा में पड़ी हुई यह किताब और इसके ढीले पन्ने हमें अपने तईं शब्दों की सतत प्रतीक्षा का मर्म समझा रहे हों। अगर मेरी तरह कोई और भी इस तक पहुँचेगा तो शायद उसे एहसास होगा कि रिल्के के ये पत्र बरसों से उसकी ही प्रतीक्षा कर रहे हैं…
आगामी स्तंभ में जारी…