पुकार, जो अनंत कामनाओं का अक्षत जंगल है

कविता शब्द-संभवा है। कविता शब्दों के ज़रिए ही संभव होती है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भी ‘कविता क्या है’ में लिखा है कि कविता शब्दों का व्यापार है। इसलिए शब्द कवि के सबसे महत्त्वपूर्ण औज़ार होते हैं। चूँकि, बेहतर कारीगरी के लिए औज़ारों का धारदार, पैना , प्रभावी और उत्कृष्ट होना आवश्यक होता है। अतः कवि के लिए भी यह ज़रूरी है कि उसके पास जो शब्द मौजूद हों, वे शब्द भी धारदार, पैने, प्रभावी और व्यापक सृजनात्मक संभावनाओं से युक्त हों।

कविता के संदर्भ में औज़ार के रूप में शब्दों के धारदार, पैने और प्रभावी होने का तात्पर्य है कि शब्दों के भीतर अर्थ की अनंत संभावनाएँ मौजूद हों। शब्दों के अर्थ-वृत्त व्यापक और विस्तृत हों। शब्दों में अर्थ की कई छवियों और गतियों को, अर्थ की कई-कई छायाओं को वहन करने की सामर्थ्य हो।

लेकिन, यह सब कैसे संभव होता है?

शब्द मनुष्य की सामूहिक उपलब्धि हैं। शब्दों के अर्थ-वृत्त समाज के सामूहिक उपक्रम का प्रतिफल होता है। शब्दों के अर्थ की लंबी विकास-यात्रा होती है। इस विकास-यात्रा में इंसान की नई अनुभूतियों, नए संघर्षों, नए प्रयोगों , सृजनात्मक उपक्रमों , आदि के फलस्वरूप शब्दों के अर्थ का विस्तार होता रहा है। इस प्रक्रिया में शब्दों के अर्थ में नानाविध रूप, रंग, छवियाँ, अर्थ-ध्वनियाँ, अर्थ-छायाएँ आदि जुड़ती चली जाती हैं। इसे हम भाषा को नया संस्कार और नई समृद्धि देना भी कह सकते हैं।

इस प्रकार कवि जब रचना करने बैठता है तो उसके पास पहले से मौजूद भाषा होती है, उस भाषा के शब्द होते हैं और उन शब्दों का अर्थ-विस्तार और अर्थ-परंपरा होती है। अब ऐसे में कवि को दो दायित्वों का निर्वाह करना पड़ता है। एक : पहले से मौजूद भाषा, उसके शब्दों और उनके अर्थ-वृत्त का संरक्षण करना। दो : भाषा, शब्दों और उनके अर्थ-वृत्त को नया संस्कार और विस्तार देना।

हर सच्चे कवि को इन दो दायित्वों का निर्वाह करना ही पड़ता है।

हालाँकि, यहाँ पर ध्यातव्य है कि शब्दों को नया संस्कार देना और नए ढंग से बरतना कवि की रचनात्मक विवशता भी होती है। सामान्य शब्दों में इसे यों समझा जा सकता है कि कवि की अनुभूतियों में एक नयापन, एक अपूर्वता होती है। इसलिए, उन्हें अभिव्यक्त करने हेतु कवि के पास पहले से मौजूद शब्द अपर्याप्त साबित होंगे, क्योंकि, पहले से मौजूद शब्दों के भीतर अनुभूतियों के पुराने रूप पहले से ही ग्रंथित होंगे और पुरानी स्मृतियाँ मौजूद होंगी। साथ ही, पाठक या श्रोता के मन-मष्तिष्क में भी शब्दों में निहित ये पुराने अर्थ-वृत्त, पूर्व-ग्रंथित अनुभूतियों की स्मृति विद्यमान होगी। अतः ऐसे में जब कवि अपनी अपूर्व , ताज़ी और टटकी अनुभूतियों को उन्हीं शब्दों में अभिव्यक्त करना चाहेगा तो थोड़ी समस्या पैदा हो जाएगी। समस्या यह होगी कि जब कवि शब्दों में नए अर्थ और अनुभूतियों को अभिव्यक्त करना चाहेगा तो उनमें पहले से मौजूद अर्थ और अनुभूतियों के कारण संप्रेषण में एक तरह की बाधा उत्पन्न होगी। पढ़ते या सुनते समय यही बात पाठक या श्रोता के साथ भी घटित होगी। शब्दों के नए अर्थ और उनमें पिरोई नई अनुभूतियों को ग्रहण करने में शब्दों के पुराने अर्थ और अनुभूतियाँ बाधक बनेंगी।

इसलिए कवि को शब्दों का इस प्रकार सर्जनात्मक प्रयोग करना पड़ता है कि उनके भीतर मौजूद अर्थ-परंपरा बची रहने के साथ-साथ, उनमें नए अर्थ और नई अनुभूतियों का संप्रेषण भी हो सके। इसी को शब्दों का नया संस्कार देना कहा जाएगा। कवि यह काम शब्दों के सृजनात्मक प्रयोगों, नई उपमाओं, नए बिंबों आदि का प्रयोग करके करता है।

उदाहरण के लिए ‘पुकार’ शब्द को लीजिए। ‘पुकार’ शब्द के सामान्य अर्थ से हम सभी परिचित हैं। इसी अर्थ से मिलते-जुलते दो शब्द और हैं—‘बुलाना’ और ‘आह्वान’। लेकिन तीनों शब्दों के अर्थ एक ही नहीं हैं, बल्कि इन तीनों के अर्थ की दिशाएँ एक हैं; जबकि अर्थ की सूक्ष्म-भिन्नता है। ‘बुलाना’ में रोज़मर्रापन का संस्पर्श अधिक है। वहीं ‘आह्वान’ में बहुत अधिक गंभीरता और भार है। इसे पढ़ते/सुनते ही ऐसा लगता है, मानो छंदों के द्रष्टा ऋषियों या देवताओं का आह्वान करने जैसा गंभीर मामला हो। ‘पुकार’ शब्द के अर्थ का shade इन दोनों के बीच में है—अर्थात्, अधिक रोज़मर्रापन और अत्यधिक गंभीरता के बीच कहीं।

इस ‘पुकार’ शब्द के सामान्य अभिधात्मक अर्थ को सभी जानते हैं। सामान्य अभिधात्मक अर्थ इकहरा और एकस्तरीय है। पर जब कवि इस शब्द से काम लेना चाहता है , तो इसमें अर्थ की नई छवियाँ, नए shades पैदा करता है। इसके लिए पहला उदाहरण मुक्तिबोध की कविता ‘मुझे पुकारती हुई पुकार’ को देखिए। कविता का शीर्षक पढ़ते ही सावधान पाठक या श्रोता ठिठक जाता है। सामान्य अर्थ में हम यही समझते हैं कि पुकारना एक क्रिया है, जो पुकार के पीछे स्थित किसी चेतन मनुष्य द्वारा संपन्न होती है। पर इस शीर्षक में तो मुक्तिबोध कुछ नई बात कहते प्रतीत होते हैं। यहाँ तो पुकार ही किसी चेतन मनुष्य को पुकार रही है! मानो, पुकार भी चैतन्य से युक्त हो गई हो। अब यह पुकार शब्द के बरतने का एक नया ही ढंग लगता है। एक बार जब ‘पुकार’ चेतना से युक्त हो जाती है, तब फिर वह चेतन मनुष्य की तरह ही कार्य करने लगती है। और, जो-जो कार्य वह करने का प्रयास करती है, उनसे ‘पुकार’ के अर्थ का विस्तार होता जाता है। देखिए :

मुझे पुकारती हुई पुकार खो गई कहीं…
प्रलंबिता अंगार रेख-सा खिंचा
अपार चर्म
वक्ष प्राण का
पुकार खो गई कहीं बिखेर अस्थि के समूह
जीवनानुभूति की गंभीर भूमि में।

और आगे लिखते हैं :

पुकार ने समस्त खोल दी छिपी प्रवंचना
कहा कि शुष्क है अथाह यह कुआँ
कि अंधकार-अंतराल में लगे
महीन श्याम जाल
घृण्य कीट जो कि जोड़ते दिवाल को दिवाल से
व अंतराल का तला
अमानवी कठोर ईंट-पत्थरों से भरा हुआ
न नीर है, न पीर है, मलीन है
सदा विशून्य शुष्क ही कुआँ रहा।

इस कविता में हम देखते हैं कि एक पुकार भी चैतन्य युक्त होकर कैसे मनुष्य के मन-मष्तिष्क-हृदय-आत्मा का मूल्यांकन या सम्यक समीक्षा कर सकती है। एक पुकार चेतनायुक्त मनुष्य के साथ क्या-क्या कर सकती है, उसके भीतर कैसी क्रिया-प्रतिक्रियाओं को जन्म दे सकती है, इसे मुक्तिबोध इस कविता में बख़ूबी उकेरते हैं। इस प्रक्रिया में ‘पुकार’ शब्द के अर्थ के वृत्त का व्यापक विस्तार होता है, उसके अर्थ की सत्ता का अपूर्व प्रसार होता है। उसमें अनेकानेक नई-नई अर्थ-छवियाँ जुड़ती हैं। इस तरह से हम देखते हैं कि ‘पुकार’ शब्द को नए संस्कार और नई समृद्धियाँ मिलीं।

इसके बाद अरुण देव की ‘पुकार’ शब्द से जुड़ी दो काव्य-पंक्तियों को देखिए :

पुकार, जो अनंत कामनाओं का अक्षत जंगल है।

और

उजाड़ बस्तियों में दरवेश बनकर भटकती रही एक पुकार।

इन दोनों पंक्तियों में कवि ने ‘पुकार’ शब्द को जिस ढंग से बरता है, उसे पढ़कर या सुनकर हम फिर से थोड़ा ठिठक-से जाते हैं। इन दो काव्य-पंक्तियों के ज़रिए ‘पुकार’ शब्द के अर्थ-वृत्त का पुनः विस्तार हुआ है। इन प्रयोगों की विशिष्टता देखें।

पुकार को अनंत कामनाओं का अक्षत जंगल कहने के क्या मायने निकलते हैं? इस क्रम में पहले यह समझना होगा कि ‘अक्षत जंगल’ पद को पढ़ते या सुनते ही हमारे मन-मष्तिष्क में कौन से अर्थ या आशय या मनोभाव या चित्र आते हैं—ये मनोभाव, अर्थ या आशय हैं :

1. रहस्यमयता
2. विविधता
3. बेतरतीबी
4. आदिम-तत्त्व की उपस्थिति
5. हिंसात्मकता, भय, आशंका, अनिश्चितता
6. पशुता
7. अनछुआपन/कौमार्य/कुँवारापन

अब, यदि इन बिंदुओं या मनोभावों को हम कामना की व्याख्या के लिए प्रयोग करें, तो हमें कामनाओं के बारे में कई बातें समझ में आती हैं।

अगर, कामनाओं के मनोविज्ञान को देखें तो हम समझ सकते हैं कि विभिन्न कामनाओं में ये तत्त्व भिन्न-भिन्न ढंग से मौजूद होते हैं/हो सकते हैं। इस तरह से कामनाओं के कई रूप, रंग और वैविध्य से हमारा साक्षात् होता है। और, कामनाओं के इन सारे रूपों, रंगों, छवियों, विविधताओं आदि को हम एक शब्द—‘पुकार’—के ज़रिए ही ग्रहण कर लेते हैं। अतः कहा जा सकता है कि कवि ने ‘पुकार’ शब्द के भीतर के अर्थ और अनुभूतियों के कई-कई आयाम भर दिए हैं।

लेकिन यहाँ पर काव्य-व्यापार की विशिष्ट प्रकृति को समझा जा सकता है। मसलन, इस पंक्ति के जो अर्थ मैंने किए, जो-जो अर्थ-छवियाँ मुझे दिखीं, वहाँ तक मैं एक पाठक के रूप में कैसे पहुँचा? इस काव्य-पंक्ति का, वस्तुतः, कोई एक सुनिश्चित अर्थ नहीं है। न ही कोई एक सुनिश्चित अर्थ देना कविता का उद्देश्य होता है। इसके बरअक्स, कविता पाठक या श्रोता को उस स्रोत तक ले जाती है जहाँ से अर्थ/अर्थों का सृजन होता है। उस बिंदु तक पहुँचने और उसके पश्चात अपने लिए अर्थ पाने तक की यात्रा पाठक या श्रोता ‘ग्राहक कल्पना’ रूपी यान पर सवार होकर तय करता है। और यह पूरी यात्रा ही सौंदर्य के अन्वेषण की यात्रा होती है।

इस प्रकिया की विशिष्टता क्या है और इसकी ज़रूरत क्यों है?

विशिष्टता यह है कि इस प्रक्रिया में अर्थ-ग्रहण से काम नहीं चलता। बल्कि, बिंब-ग्रहण की आवश्यकता होती है। क्यों? इसलिए, क्योंकि बिंब-ग्रहण के माध्यम से मार्मिक प्रभाव अत्यंत तीव्र ढंग से उत्पन्न किया जा सकता है। इस संबंध में आचार्य शुक्ल ने अपने निबंध ‘कविता क्या है’ में लिखा है : ‘‘कविता में अर्थग्रहण मात्र से काम नहीं चलता, बिंबग्रहण अपेक्षित होता है। यह बिंबग्रहण निर्दिष्ट, गोचर और मूर्त विषय का ही हो सकता है।”

इस पंक्ति में कामनाओं जैसे अमूर्त और अगोचर विषय को कविता का विषय बनाने के लिए अरुण देव ने अक्षत जंगल जैसे मूर्त और गोचर रूप के साथ उसका सामंजस्य बिठाया है। इसकी ज़रूरत क्यों है? आचार्य शुक्ल इसका उत्तर देते हुए आगे लिखते हैं :

‘‘सारांश यह है कि काव्य के लिए अनेक स्थलों पर हमें भावों के विषयों के मूल और आदिम रूपों तक जाना होगा, जो मूर्त और गोचर होंगे। जब तक भावों से सीधा और पुराना लगाव रखने वाले मूर्त और गोचर रूप नहीं मिलेंगे, तब तक काव्य का वास्तविक ढाँचा खड़ा न हो सकेगा।’’

यहाँ पर आचार्य शुक्ल यह कह रहे हैं कि मनुष्य के भावों का सामंजस्य प्रकृति के नानाविध रूपों के साथ बिठाना ही कवि-कर्म का एक प्रमुख आयाम है। अरुण देव की इस पंक्ति ने मुझे ‘कामनाओं के अक्षत जंगल’ का एक बिंब दिया, जिसमें कामना के अंतर्गत आने वाले अनेक भावों का अक्षत जंगल से सामंजस्य बिठाने हेतु समुचित संकेत निहित हैं। इस आधार पर अपनी कल्पना द्वारा मैंने इस काव्य-पंक्ति की कई अर्थ-छवियाँ और अर्थ-छायाएँ प्राप्त कीं।

अब, दूसरी काव्य-पंक्ति को देखें।

उजाड़ बस्तियों में दरवेश बनकर भटकती पुकार में हमें पुकार शब्द के भीतर एक नए अर्थ-वृत्त का साक्षात् होता है। इस पंक्ति को पढ़ते ही हमारे मन में एक बिंब उभरता है, जिसमें किसी अनाम देश-काल में स्थित कई उजाड़ बस्तियाँ हैं और उन बस्तियों में एक दरवेश भटक रहा है। इस बिंब-ग्रहण के पश्चात हमारे मन में कई सवाल पैदा होते हैं :

कवि किन बस्तियों की बात कर रहा है? ये बस्तियाँ उजाड़ क्यों हो गईं? उजाड़ होने से पहले ये बस्तियाँ कैसी रही होंगी? इन उजाड़ बस्तियों में दरवेश क्यों भटक रहा है? ‘घूमने’ के बरअक्स ‘भटकना’ शब्द का प्रयोग किन बातों की ओर संकेत करता है? क्या दरवेश कुछ ढूँढ़ रहा है? शायद, उजाड़ के बीच जीवन का कोई स्पंदन? क्या दरवेश उजाड़ बस्तियों के पुनरोद्धार या नव-निर्माण करना चाहता है? उनमें जीवन के स्पंदन और मानवीय संवेदना की पुनर्प्रतिष्ठा करना चाहता है? क्या ये बस्तियाँ आज के मनुष्यों के मन-मष्तिष्क-हृदय की द्योतक तो नहीं हैं, जहाँ मानवीय संवेदना और करुणा का दायरा सिकुड़ता जा रहा है?

इस प्रकार ‘उजाड़ बस्तियों में दरवेश बनकर भटकती पुकार’ के बिंब-ग्रहण के पश्चात जब ये प्रश्न पैदा होते हैं, तब इनका कोई सुनिश्चित जवाब कविता नहीं देती; बल्कि यहाँ पर पाठक या श्रोता की ग्राहक कल्पना ही अर्थ के अन्वेषण की यात्रा पर निकलती है और इस उपक्रम में सौंदर्य का साक्षात्कार करती जाती है। इस संदर्भ में यह ध्यातव्य है कि हर पाठक या श्रोता की अपनी प्रकृति और आंतरिक संघटन (स्मृति, पूर्व-अनुभव, आदि) के अनुरूप उसकी कल्पना अर्थ की विभिन्न दिशाओं में निकल जाएगी।

हालाँकि, यहाँ पर यह सवाल ज़रूर उठता है कि तब क्या कविता में अर्थ का इतना लोच या elasticity होती है कि पाठक/श्रोता जैसा चाहे, वैसा अर्थ उससे प्राप्त कर सकता है? ज़ाहिर है कि यह एक अतिरेकवादी सवाल है। इस तरह का ‘अर्थ का अतिरेक’ या ‘अर्थ का अनंत’ की सुविधा को भी कविता के संदर्भ में स्वीकार नहीं किया जा सकता है। क्योंकि, भले ही कविता कोई सुनिश्चित अर्थ नहीं देती, पर अर्थ की एक धुरी या एक range ज़रूर देती है। उस धुरी से खिसक कर या उस range से बाहर जाकर उसके अर्थ को पाने का उद्यम कविता से अनर्थ की प्राप्ति की दिशा हो जाएगी। हालाँकि, इस सवाल पर और विचार करने की ज़रूरत है।

इस प्रकार अब तक के विवेचन से मैंने कविता की रचना-प्रक्रिया और शब्द की सत्ता के अंतर्संबंधों के कतिपय आयामों को समझने की कोशिश की।