मैं अब हर घर को उल्टा देखना चाहती हूँ

थाइलैंड और कम्बोडिया : घासतेल की बूँदों के साथ तैरता हुआ जीवन

सब कुछ तैर रहा था वहाँ, बैंकॉक की तैरती सब्ज़ी-मंडी में। केले के पत्ते, प्याज़ के छिलके, आस-पास के पेड़ों के साए, और नहर के दोनों तरफ़ बसे स्थानिकों के घर भी। नाव में बैठे, सैर करते प्रवासियों की आँखें प्रवेश कर लेती हैं, इन घरों में और घरों के शो-केस में सजाए हुए छोटे-छोटे हाथियों के साथ-साथ इनकी आँखें भी बहने लगती हैं।

मेरे पास से गुज़रती एक नाव में बैठी हुई एक औरत पूछती है, पैड थाई खाएँगे? मैं हाँ बोलती हूँ और वह बनाने लगती है नूडल्स अपनी नाव में रखे प्रायमस पर, एक छोटी कढ़ाई में। मैं देखती हूँ, उस एक पल में बही जा रही उस वृद्ध थाई स्त्री को और उसने माथे पर जो पहनी हुई है उस घास के तिनकों से बनी बड़ी टोपी को। उसकी नाव में रखे प्रायमस से टपकती हैं—कुछ बूँदें घासतेल की और वे बूँदें भी बहने लगती हैं, कनाल के पानी पर मोती-सी चमकती हुई। बह रहा था घास के तिनकों से बना उसका जीवन या बह रही थी नाव या पूरी नहर या फिर घासतेल की बूँदे… मैं तय नहीं कर पाई।

बस, बहता रहता है यहाँ सब कुछ—नावों में भरे खट्टे-मीठ़े फल, नींबू के पत्ते, लेमनग्रास की टोकरी, नारियल का तेल, अदरक का रस… फिर रात, बहा ले जाती है, पूरी नहर को ही अपने साथ और सुबह में नहर की दोनों तरफ़ से अपने-अपने घरों के अंदर से प्रवासियों को झाँकते हुए फिर से बहने लगते हैं स्थानिक लोग, नहर में फिर बहने लगती है सब्ज़ी-मंडी।

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बैंकॉक से कार में सुबह-सुबह लगभग डेढ़ घंटे की दूरी पर देमनोइन सादुक (Damnoen Saduak) फ़्लॉटिंग वेजिटेबल मार्केट पहुँचे तब वहाँ का अत्यंत जीवंत बाज़ार देखकर मुझे कश्मीर की वह सुबह याद आ गई, जब कुछ नौजवान कश्मीरी लड़के डल झील में अपनी नावों में भरी बंद-गोभी (कोल्हाबी) बेचने जा रहे थे। कश्मीर की झील में जब सुबह होती है तो ऐसी ही चहल-पहल होती है। वहाँ हाउस बोट के कमरे की खिड़की से मैंने देखे थे नावों में बिकते हुए सेब, अखरोट और कमल के फूल। एक कश्मीरी बूढ़ा गर्म कहवा बनाकर सबको बेचता हुआ तेज़ी से नाव चलाता जा रहा था। नक़ाब पहनी हुई कुछ मुसलमान लड़कियाँ कॉलेज जा रही थीं और कुछ छोटे बच्चे मुर्ग़े के पीछे भाग रहे थे। उन सबकी सुबह कितनी अपनी और कितनी अलग अलग थी।

थाई, कश्मीरी और दुनिया के ऐसे दूसरे तैरते बाज़ारों का वजूद असल में बाज़ार के अपने वजूद की तरह ही तरल है।

जीवन में बाज़ार का जो स्थान है, वह स्थान यहाँ बाज़ार में पानी का है। पानी पर बसे इन लोगों का जीवन भी पानी जैसा ही प्रवाही है। हम प्रवासी तो सिर्फ़ इस प्रवाही जीवन को दूर से देख ही सकते हैं। यहाँ बसने के लिए तैरना नहीं, बहना आना चाहिए।

इन घड़ियालों को फूलों के नाम दे दो

कोकोनट और क्रोकोडाइल कम्बोडिया के जीवन में पानी की तरह घुलमिल गए हैं। सीयम रीप के बाहरी हिस्सों में बहुत सारे कोकोनट फ़ॉर्म और क्रोकोडाइल फ़ार्म देखने मिले। ये घड़ियाल जिन फ़ार्म में पैदा होकर पल रहे थे, वहाँ मुलाक़ातियों से इन्हें देखने का टिकट लिया जा रहा था जो स्थानिक परिवारों के लिये आमदनी का बड़ा साधन था और उसी फ़ार्म के पास वैभवी दुकान में क्रोकोडाइल के चमड़े से बने बेल्ट, हैंडबैग्स वग़ैरह बहुत ही महँगे दाम में बिक रहे थे। दूसरी और सीयम रीप की पब स्ट्रीट में कई रेस्तराँ घड़ियाल के अंडे के विविध व्यजंन, क्रोकोडाइल सूप-पित्ज़ा वग़ैरह परोस रहे थे। जन्म से लेकर मृत्यु तक और मृत्युपर्यंत भी घड़ियाल यहाँ के जीवन में कितने प्रासंगिक थे! मनुष्य और मगरमच्छ का यह कैसा रिश्ता? यह कैसी जीवन-व्यवस्था? इसे क्रूर बेहूदगी कह सकते हैं, लेकिन इस व्यवस्था में एक तरह की निर्दंभ सच्चाई भी है और मानवीय अस्तित्व में अगर कोई सुंदरता है तो वह शायद यही है। नैतिक-अनैतिक से परे अस्तित्व का अपना एक इतिहास है जिसे हम नकार नहीं सकते। नारियल और मगरमच्छ में वैसे तो बहुत बड़ा फ़र्क़ है, पर एक अलग स्तर पर यह फ़र्क़ शायद बहुत छोटा है।

गाब्रिएल गार्सिया मार्केज की एक कहानी है—‘क्रॉनिकल्स ऑफ़ ए डेथ फ़ोरटोल्ड’ जिसमें सेंटियागो नसार नामक एक आदमी की हत्या और हत्या करनेवाले विकारियो ब्रदर्स की कहानी है। विकारियो ब्रदर्स पिग्स फ़ॉर्म के मालिक हैं जिसमें सुअरों का पालन-पोषण करने के बाद उनकी क़त्ल करके गोश्त बेचा जाता है। विकारियो ब्रदर्स इन सुअरों को अपने बच्चों की तरह नाम देते थे, लेकिन इन्हें कभी लोगों के नाम नहीं दिए। वे इन सुअरों को फूलों के नाम देते थे। कितनी असामान्य सुंदरता है इस रिश्ते में!

अमेरिका जैसे देशों में जहाँ बीफ़-बर्गर काफ़ी प्रिय है, वहाँ गायों के चारा चरने के लिए बहुत सुंदर ग्रेजिंग लैंड होती है, पर फिर इसी सुंदर ज़मीन के नज़दीक ही इन गायों के क़त्ल के लिए स्लॉटर हाउस भी दिखते हैं! सुंदरता सुख नहीं दे सकती है, क्यूँकि सुंदरता का अंत भी बहुत क़रीब ही होता है।

अमेरिका में थैंक्सगिविंग के वक़्त टर्की पार्डनिंग की जो प्रथा है, वह भी मुझे बहुत रसप्रद लगती है। थैंक्सगिविंग के दौरान अमेरिकन परिवार टर्की में मसाला भरकर, उसे पकाकर दावत करते हैं और इसके साथ एक परंपरा यह भी है कि व्हाइट हाउस में अमेरिकन राष्ट्रपति एक टर्की को पसंद करके उसे पार्डन करते हैं, यानी पूरे देश में लाखों-पक्षियों की मेज़बानी होगी, पर इस एक पक्षी को माफ़ी मिल गई!

अपना दोष-भाव कम करने के लिए हम कैसे-कैसे रास्ते निकाल लेते हैं! जबकि हक़ीक़त यह है कि हिंसा का सौंदर्य हम सहन नहीं कर पाते।

आजकल कुछ विकसित और धनिक देशों में अपना खाना ख़ुद उत्पन्न करने की या खाने के मूल तक जाने की मुहिम शुरू हुई है। इसके अंतर्गत कुछ लोग सुअर का गोश्त खाने से पहले ख़ुद सूअर को काटने का साहस कर रहे हैं। आधुनिकता के एक स्तर पर पहुँचकर हम फिर से आदिम की तरफ़ आकर्षित हो रहे हैं, क्यूँकि अंतत: हम आदिम ही हैं।

ज़रूरी नहीं है ज़मीन का होना जीवन के लिए

कम्बोडिया में सीयम रीप के बाहरी विस्तार में चोंग नीस (Chong Khneas), काम्पोंग फलुक (Kampong Phluk) जैसे कुछ तैरते हुए गाँव हैं। हम टुक-टुक (कम्बोडिया का ऑटो रिक्शा) लेकर सीयम रीप से क़रीब चौदह किलोमीटर की दूरी पर एक फ़्लॉटिंग विलेज देखने गए। बहुत सारे पर्यटक फेरी बोट से यह गाँव और लोटस फ़ॉर्म देखने आते हैं। पानी के बीच लकड़ियों की ऊँचाई पर टिके हुए छोटे-छोटे घास के बने घरों का गाँव सुंदर था। चारों ओर कमल के सुंदर फूलों के बीच बसे हुए छोटे घर किसी ड्रीम हाउस से कम नहीं थे। यहाँ बसते परिवार कमल के फूलों की खेती पर जी रहे थे। कमल से बने क्रीम, तेल जैसे सौंदर्य-प्रसाधन, बास्केट, कमल की चिप्स जैसी खाने की चीज़ें वग़ैरह बहुत कुछ यहाँ बिक रहा था। मैं इस पूरे परिसर के बारे में सोचने लगी। यहाँ घर, स्कूल, पुलिस स्टेशन, चर्च, मार्केट, गैस स्टेशन, बास्केट बॉल खेल के मैदान वग़ैरह सब कुछ तैर रहा था। गाँव का मतलब है अपनी ज़मीन से जुड़ना, पर यहाँ तो ज़मीन का लगभग निषेध ही था। बिना ज़मीन का जीवन, ज़मीन से जुड़े हुए जीवन का पर्याय हो सकता है या विकल्प?

गाब्रिएल गार्सिया मार्केज के मैजिकल रियलिज़्म के लिए प्रतिष्ठित उपन्यास ‘वन हन्ड्रेड इयर्स ऑफ़ सॉलिटूड’ में मकांदो नाम के एक गाँव की बात है और वहाँ के परावास्तविक वातावरण का ब्योरा है। मकांदो गाँव में घटनाएँ चाहे जादुई घटती हैं, लेकिन मकांदो एक ठोस गाँव है जो ज़मीन से जुड़ा हुआ है! यहाँ पर तो पूरा गाँव ही तैरता हुआ! ज़मीन के वास्तव से ही दूर! मुझे लगा कि यह सिर्फ़ अतिवास्तव नहीं लेकिन अति-अतिवास्तव है, मानो सुपर सररियलिज़्म। मार्केज जैसे लेखक को मैजिकल रियलिज़्म की प्रेरणा जहाँ से मिली वे कोलम्बिया के कुछ ऐसे ही गाँव रहे होंगे। अगर कभी मौक़ा मिला तो मैं चाहूँगी कि कोलम्बिया की ऐसी जगहों से मुलाक़ात करूँ जहाँ से मैजिकल रियलिज़्म का जन्म हुआ।

मिस्टर लॉट के जीवन में एक दिन

मिस्टर लॉट के बारे में ज़्यादा कुछ नहीं जानती हूँ, मैं लेकिन फिर भी जानती हूँ मिस्टर लॉट के जीवन का वह एक दिन जो जुड़ा हुआ है मेरे जीवन के एक दिन से भी। उस दिन बहुत गर्मी थी और मिस्टर लॉट का टुक-टुक जब आंगकोर वाट के रास्तों पर दौड़ रहा था, तब दोनों तरफ़ के जंगल से हवा की शीतलहर मुझे छूने आ रही थी। मिस्टर लॉट हमको आंगकोर वाट के एक से दूसरे मंदिर ले जा रहे थे। प्रवेश-द्वार पर हमको छोड़ देते और पूरा मंदिर परिसर देखकर हम दूसरी दिशा से बाहर निकलते तब मिस्टर लॉट वहाँ सामने ही खड़े हुए दिखते। फिर तो जैसे यक़ीन ही होने लगा था कि जब हम मंदिर से निकलेंगे तब मिस्टर लॉट बाहर इंतज़ार कर रहे होंगे। उनका उस एक दिन का अपनापन मुझे जन्मांतरों के वादों से ज़्यादा भरोसेमंद लगने लगा था। दिन ख़त्म होने पर हमने मिस्टर लॉट को पैसे दिए तो उन्होंने कहा कि कल मैं आपको एयरपोर्ट पर भी छोड़ सकता हूँ। एयरपोर्ट पर विदा लेते वक़्त कहा कि अगर हमारे दोस्त कभी सीयम रीप आएँ तो सत्रह नंबर के टुक-टुक के लिए उनसे संपर्क ज़रूर करें। मैं जानती हूँ कि मिस्टर लॉट अब भी ऐसे ही मंदिर के बाहर किसी दूसरे प्रवासियों का इंतज़ार कर रहे होंगे। मैं अब जानती हूँ, कई दिनों के पुनरावर्तन से बना हुआ, मिस्टर लॉट के जीवन का वह एक पूर्ण दिन। उस एक दिन के बाद उनके किसी भी दूसरे दिन का कोई मतलब नहीं रहा मेरे लिए।

आख़िर कितना जानना ज़रूरी होता है किसी को जानने के लिए?

कुछ साल पहले भारत में गोवा में वेकेशन पर थे, तब एक रेस्तराँ में लंच के लिए गए थे। बाहर निकले तब हमारा टैक्सी ड्राइवर कहीं नज़र नहीं आया। थोड़ी देर में वह हाथ में एक थैली लेकर आया और बताया कि पास में एक दूसरा छोटा रेस्तराँ है, जहाँ से वह अपनी बीवी के लिए तंदूरी मछली लाने गया था। उसके चेहरे पर बहुत उत्साह था, बहुत प्यार था। वैसे तो मैं कुछ नहीं जानती—गोवा के उस टैक्सी ड्राइवर के बारे में, लेकिन मैं जानती हूँ कि उस दिन वह अपनी पत्नी के लिए बहुत प्यार से मछली लेकर घर गया था। शायद उसको जानने के लिए सिर्फ़ इतना ही जानना ज़रूरी है।

मैं, मेरे समेत, किसी को भी पूरा जानना नहीं चाहती। मैं सिर्फ़ देखना चाहती हूँ—किसी अजनबी के जीवन में गुमशुदा—मेरा एक दिन।

फुकेत के ‘बान तिलान्का’ घर के बाहर उल्टा पड़ा हुआ टेलीफ़ोन │ स्रोत : मनीषा जोषी

मैं अब हर घर को उल्टा देखना चाहती हूँ

फुकेत से एयरपोर्ट जाने के रास्ते पर ‘बान तिलान्का’ नामक एक घर है, जहाँ सब कुछ उल्टा है। पूरे घर का आकार ही उल्टा। रसोई में फ़्रिज उल्टा, लेकिन अंडे गिरकर टूटते नहीं हैं। बच्चों के कमरे में खेलने की छोटी साइकिल छत पर उल्टी टँगी थी, कम्प्यूटर कमरे के बीच में उल्टा लटक रहा था। डाइनिंग टेबल और टेबल पर रखे वाइन के गिलास छत पर उल्टे रखे थे, लेकिन उसमें से वाइन टपक नहीं रही थी। बान तिलान्का वैसे तो बच्चों के लिए एक अजूबा है और यहाँ ट्री हाउस, ‘चेम्बर ऑफ़ सीक्रेट’ तथा गार्डन की भूलभुलैया जैसे खेल भी हैं, लेकिन पता नहीं क्यूँ मुझे यह घर देखने का कुछ अलग ही आकर्षण था। घर की परिचित विभावना कैसे टूटती है, यह मैं अपनी आँखों से देखना चाहती थी। देश की तरह घर का भी अपना एक संविधान होता है, एक बँधारण होता है… लेकिन मैं एक छोटे, निर्दोष स्तर पर इस बँधारण से मुक्ति पाना चाहती थी। मैं ‘ऑर्डर’ नहीं ‘केऑस’ देखना चाहती थी और इस घर ने मुझे निराश नहीं किया।

वाशिंग मशीन और कपड़े इस्त्री करने का बोर्ड भी उल्टा छत पर लटक रहा था। हालाँकि खुली बालकनी में उल्टे लटके, हवा में लहराते हुए रोज़ पहनने के कपड़े प्रसन्न लग रहे थे और कपड़े इस्त्री करने जैसा रोज़ का काम भी अचानक से बहुत रोमांचक और आनंदित करनेवाला लग रहा था।

शयनकक्ष में पलंग छत पर और छत का पंखा नीचे फ़र्श पर लगाया हुआ था। पलंग के पास रहने वाले चप्पल छत पर चिपके हुए देखकर मुझे सवाल होने लगा कि घर आख़िर क्या है, एक आदत के सिवा? जहाँ सब कुछ परिचित हो, रात को नींद में भी चलते कोई चीज़ मिल जाए, यही अपेक्षा होती है घर से; लेकिन यहाँ पर यह परिचय ही तोड़ दिया गया है।

फ़र्श पर फैली हुई चीज़ें अलग लगती हैं छत पर फैली हुई चीज़ों से, फिर चाहे वे चीज़ें वही क्यूँ न हों। यह फ़र्क़ चीज़ों का है या फ़र्श और छत का? चीज़ों की क्या अपनी कोई भाषा नहीं है? और अगर अपनी कोई भाषा है तो वह क्या है?

इस घर में जगह जगह पर उल्टी और बिखरी पड़ी हुई चीज़ों को समझने के लिए फ़्रेंच दार्शनिक फ़्रांसिस पोंग के विचार रसप्रद हैं। पोंग के विचार ‘नेचर ऑफ़ थिंग्स’ और ‘द पावर ऑफ़ लैंग्वेज’ जैसी पुस्तकों में संकलित हैं। पोंग मानते हैं कि चीज़ों से हमारा रिश्ता सिर्फ़ उपयोग या मालिकी का नहीं है। ‘The relationship is accusative’ यानी यह रिश्ता कर्मकारक, अभियोगात्मक और इल्ज़ाम लगाता हुआ रिश्ता है। यह इल्ज़ाम वाली बात काफ़ी दिलचस्प है।

“Things do not speak among themselves, but men among themselves speak about things, and thus it is impossible to get away from man.”

पदार्थ के तौर पर चीज़ें हमें उनके बारे में सोचने की अनुमति देती हैं, लेकिन चीज़ें भी हमे देखती हैं। हमारे लिए यह ख़ुद एक वस्तु में रूपांतरित होने जैसा है।

“The world is peopled with objects. It only needs to be proper weight. Then, rather than our looking at it, it is up to our hands—let them spin out the line.”

विश्व में असली अस्तित्व पदार्थों का ही है और इन्हें देखने के बजाय हाथों के स्पर्श से समझना चाहिए। चीज़ों की घनता अलग-अलग होती हैं और इस घनत्व का अनुमान स्पर्श से ही हो पाएगा।

“Therefore, the best solution is to consider all things as unknown, and to walk or rest in the woods or on the grass and to start everything over from the very beginning.”

मैं अब हर चीज को नए सिरे से समझना चाहती हूँ, मैं अब हर घर को उल्टा देखना चाहती हूँ।

मध्य ही है प्रत्यायन

बचपन में कच्छ (गुजरात) में पिता हमको भुज के एक बाग़ के बालघर में घुमाने लेकर जाते थे। वहाँ एक पूरा कमरा अलग-अलग शीशों का बना हुआ था। हर शीशे में अपना एक अलग प्रतिबिंब देखने मिलता था। ख़ुद के लंबे-चौड़े, छोटे-नाटे प्रतिबिंब देखकर उस वक़्त बहुत हैरत होती थी। मैं उस कमरे के बीच खड़ी रहती थी और छत के शीशे में अपने सारे प्रतिबिंब एक साथ देखती थी। बान तिलान्का घर में भी मैंने यही किया। उल्टे घर के मध्य खड़े रहकर आस-पास की सारी चीज़ें उल्टी हुई देखीं। जब चारों ओर अराजकता हो तब मध्य का होना, एक केंद्र का होना, कितना आवश्यक बन जाता है।

विलियम बटलर येट्स की एक कविता है—‘द सेकंड कमिंग’ :

“Turning and turning in the widening gyre
The falcon cannot hear the falconer;
Things fall apart; the centre cannot hold;
Mere anarchy is loosed upon the world,
The blood-dimmed tide is loosed, and everywhere
The ceremony of innocence is drowned;
The best lack all conviction, while the worst
Are full of passionate intensity.”

इस कविता का मूल भाव कुछ यह है कि पूरी दुनिया में अराजकता फैल गई है, बाज़ पक्षी अपने मालिक की बात सुन नहीं सकता, दुनिया में एक मध्यवर्ती केंद्र के न रहने से सारी चीज़ें बिखर गई हैं।

केंद्र का न रहना, संवाद का न होना, कितना डरावना होता है—यह मैंने इस उल्टे घर में महसूस किया।

इस घर के बाहर प्रवेश पर ही लंदन में होता है—वैसा लाल रंग का केबिन जैसा बड़ा टेलीफ़ोन बूथ उल्टा पड़ा हुआ था। उसके अंदर उल्टा रखा हुआ फ़ोन और फ़ोन का रिसीवर ख़ाली तार से नीचे लटक रहा था। ज़ाहिर था कि इस फ़ोन से संवाद की कोई शक्यता ही नहीं थी।

गाब्रिएल गार्सिया मार्केज की एक कहानी ‘I Only Came to Use the Phone’ (मैं सिर्फ़ फ़ोन करने आई थी) मुझे यहाँ बहुत बुरी तरह से याद आ गई। इस कहानी में मारिया नामक एक युवा औरत की बात है जिसकी कार रास्ते में ख़राब हो जाती है और वह अपने पति को फ़ोन पर यह बताना चाहती है कि आज वह घर देर से लौटेगी। उसको आस-पास कहीं टेलीफ़ोन नहीं मिलता और फिर एक ऐसी बस में लिफ़्ट मिलती है जो मानसिक रोगियों को लेकर अस्पताल जा रही होती है। क्यूँकि मारिया बार-बार यही बात दुहराती रहती है कि उसको सिर्फ़ एक फ़ोन करना है, उसे भी पागल समझकर अस्पताल में भर्ती कर दिया जाता है। मारिया के पति को पहले तो लगता है कि शायद वह अपने प्रेमी के साथ भाग गई और फिर जब पता चलने पर वह अस्पताल आता है तो मेडिकल स्टाफ़ की बात सही मानकर वापस चला जाता है और मारिया अस्पताल में ही रह जाती है। इस कहानी में फ़ोन के प्रतीक के ज़रिए पति-पत्नी के बीच संवाद के अभाव को बहुत ख़ूबसूरती से दर्शाया है और आजकल के समय में यह कहानी एक बडे़ स्तर पर मानवीय प्रत्यायन की निष्फलता की गवाही भी है।

आंगकोर वाट, कम्बोडिया │ स्रोत : मनीषा जोषी

मैंने देखा है बुद्ध के स्वप्न में स्मित

बुद्ध को याद करते वक़्त मन में सबसे पहला चित्र क्या उभरता है? शायद बुद्ध की पूरी ध्यानस्थ प्रतिमा ही मन में आएगी, लेकिन थाइलैंड और कम्बोडिया के मंदिरों में बुद्ध की इतनी अलग-अलग मुद्राएँ और उनके शरीर के इतने अलग-अलग खंडित अवयवों की प्रतिमाएँ देखने को मिलती हैं कि मुझे लगता है कि मैं अब जानती हूँ—बिना शरीर के बुद्ध को। शरीर से अलग उनका चेहरा, चेहरे से अलग उनका शरीर, मंदिरों के अलग-अलग कक्ष में रखे हुए कहीं पर सिर्फ़ उनके हाथ, कहीं सिर्फ़ पाँव…

मैंने बुद्ध देखे हैं… बैंकॉक के वाट फ़ो मंदिर में सोए हुए बुद्ध, सुखोन्थाइ में बैठे हुए बुद्ध, वाट फ़्रा के बर्मीज़ बुद्ध, फ़ाइव बुद्ध, वाट महाथाट में प्राचीन पेड़ की जड़ों में रहते बुद्ध और अयुथया के खंडहर में पीले वस्त्राभूषण से सज्ज क़तार में बैठे हुए बहुत सारे बुद्ध…

मैंने बुद्ध देखे हैं—द निर्वाण बुद्धा, द ग्रेट बुद्धा, द बिग बुद्धा, द रिक्लाइनिंग बुद्धा, द स्टैंडिंग बुद्धा, द स्लीपिंग बुद्धा, द लॉफ़िंग बुद्धा…

मैंने बुद्ध देखे हैं—सुवर्ण के बुद्ध, लकड़ी के बुद्ध, शीशे के बुद्ध, घास के बुद्ध, मिट्टी के बुद्ध…

मैंने बुद्ध देखे हैं—बहुत सारे, पर क्या बुद्ध को वह मिला जो वह चाहते थे? केवल दुख की अनुपस्थिति तो सुख नहीं हो सकती। फिर बुद्ध के लिए सुख क्या था? शायद इसीलिए बुद्ध को सुख की शक्यता पर ही संदेह था। स्मृति उपहार है या स्मृति ही दुख का मूल है? क्या विस्मृति ही निर्वाण है? क्या अशरीर होना ही सुख है? दुनिया भर के शास्त्र जो नश्वर है उसे कम मूल्यवान मानते हैं तो क्या सिर्फ़ जो शाश्वत है वही सुख है? सिर्फ़ मृत्यु ही सुंदर है? बुद्ध जान गए थे कि मनुष्य सिर्फ़ एक भारी जहाज़ है या एक वज़नदार पक्षी है जो किसी खाई के अंतिम छोर पर अटका हुआ है। बुद्ध की खोज निर्वाण नहीं, शायद निर्वाण के वैकल्पिक रास्तों पर केंद्रित थी।

भारत के खजुराहो और मैक्सिको के चीचेन इत्जा की तरह कम्बोडिया के आंगकोर वाट के मंदिर भी एक समयांतर के बाद इतिहास से बाहर खोज निकाले हुए मंदिर हैं। ऐसे मंदिरों का एक अलग ही ग्लैमर होता है और ऐसा लगता है जैसे कोई ईश्वर नहीं पर एक समय खंड ही उभरकर बाहर आया है। आंगकोर वाट के प्राचीन मंदिरों में अब बुद्ध की प्रतिष्ठा है, लेकिन ये मंदिर मूलत: विष्णु के मंदिर थे। भगवान विष्णु से जुड़े इतिहास की वजह से कम्बोडिया में भारतीय प्रवासी और ख़ास करके दक्षिण भारतीय प्रवासी ज़्यादा आते हैं। सीयम रीप में तांजोर, वणक्कम जैसे कई परंपरागत साउथ इंडियन रेस्तराँ की भरमार है। कम्बोडिया की खमैर संस्कृति दक्षिण भारत से बहुत साम्य रखती है। यहाँ के जीवन में मंदिर, नृत्य, मसाज, मार्शल आर्ट, हाथी पर अवलंबन, खाने में नारियल और मिर्च की पसंद, पहनने में आधी साड़ी जैसी स्कर्ट वग़ैरह कई बातें दक्षिण भारत से बहुत मिलती-जुलती हैं।

पुराने फुकेत शहर में घरों के कलात्मक दरवाज़े │ स्रोत : मनीषा जोषी

सीनो-पोर्चुगीज दरवाज़ों पर दस्तक

फुकेत ओल्ड टाउन का सीनो-पोर्चुगीज स्थापत्य बहुत दिलचस्प है। इस पुराने शहर की वॉकिंग स्ट्रीट पर चलते वक़्त कई सुंदर और रंगीन घरों से गुज़रना हुआ। इन घरों के दरवाज़े भी इतने आकर्षक थे कि मैं दरवाज़ों की तस्वीरें लेने में व्यस्त हो गई। आजकल कुछ लोग इन्स्टाग्राम पर दरवाज़ों की कलात्मक तस्वीरों की सीरीज़ चलाते हैं तो उनके लिए तो फुकेत ओल्ड टाउन जैसे रेडीमेड फ़िल्म सेट है। ‘ऑन ऑन मेमोरी’ यहाँ का सबसे पुराना होटल है और सीनो-पोर्चुगीज स्थापत्य का सुंदर उदाहरण है।

हम जब फुकेत पुराने शहर पहुँचे तब बहुत तेज़ बारिश हो रही थी। आश्रय के लिए जिस कैफ़े में बैठे वहाँ थाइलैंड के राजवी परिवार की बहुत अच्छी पुरानी तस्वीरें थी। दुनिया के क़रीब चवालीस देशों में अब भी राजवादी व्यवस्था है, लेकिन बहुत कम देशों में राजवी परिवार का महत्व या आकर्षण बचा है जिसमें इंग्लैंड और थाइलैंड शामिल हैं। थाइलैंड में तो मुख्य रास्तों पर राजा के विशाल पोस्टर लगाए रहते हैं और रेस्तराँओं से लेकर दर्ज़ी की दुकान तक हर जगह राजवी परिवार की तस्वीरें दिखती हैं। फुकेत की सब्ज़ी मंडी में सब्ज़ियों की छोटी हाट पर बुद्ध की तस्वीर के साथ-साथ राजा की तस्वीर भी लगाई हुई होती है।

कम्बोडिया और थाइलैंड का रहन-सहन भारतीयों की तरह ही है। लोग परिवार-प्रेमी हैं और भारत के घरों की तरह यहाँ भी आँगन में छोटे मंदिर बने हुए दिखते हैं। बैंकॉक के बाज़ार बिल्कुल भारत जैसे हैं, जहाँ शॉपिंग के साथ-साथ रास्ते पर खाने-पीने का मज़ा लिया जा सकता है। बैंकॉक की काउबॉय स्ट्रीट में कुछ भारतीय पुरुष नक़ली घड़ियाँ बेच रहे थे। उनसे बातें करना अच्छा लगा, पर पीछा छुड़ाना बहुत मुश्किल हो गया था। पश्चिमी देशों के प्रवासियों को इन एशियन देशों की यह स्ट्रीट लाइफ़ बहुत पसंद आती है, क्यूँकि अमीर और विकसित देशों में अब सब कुछ बहुत ज़्यादा ऑर्गेनाइज्ड और नियंत्रित हो गया है और जीवन में चहल-पहल कम हो गई है।

अमेरिका और यूरोप से काफ़ी लोग अब निवृत्ति के बाद ऐसे एशियन देशों में रहने लगे हैं, जहाँ वे अपनी पेंशन की मर्यादित आवक में भी शान से जी सकते हैं और देखभाल के लिए भी अच्छी व्यवस्था कर सकते हैं। थाइलैंड में ख़ास करके पटाया में कई विदेशी वृद्ध पुरुष ऐसे देखें जो अब पटाया में ही रहते थे और अपनी युवा थाई कम्पेनियन के साथ बार में बीयर पी रहे थे। हालाँकि यह स्थिति मुझे कुछ जुगुप्साजनक लगी, लेकिन ग़रीब थाई लड़कियों के लिए यह शायद आराम से पैसा कमाने वाली नौकरी थी। थाइलैंड की अर्थव्यवस्था में देह-व्यवसाय का बहुत बड़ा प्रदान है। शराब के बार, केरिओके गाने के बार और मसाज पार्लर की आड़ में वेश्या-व्यवसाय यहाँ काफ़ी घर कर चुका है और यह इंडस्ट्री क़रीब सात बिलियन अमरेकी डॉलर की होने का अंदाज़ा है। थाइलैंड में वेश्यावृत्ति की परंपरा बहुत पुरानी है। अयुथ्या राज में तेरह से सत्रहवीं सदी के दौरान यहाँ देह-व्यवसाय एक आम बात थी। 1960 में इसे ग़ैरक़ानूनी माना गया। लेकिन हक़ीक़त यह है कि अब भी यहाँ देह-व्यवसाय काफ़ी हद तक स्वीकृत है। थाई समाज की सामान्य मान्यता यह है कि देह-व्यवसाय हमेशा था और हमेशा रहेगा। वियतनाम युद्ध के बाद से तो थाइलैंड जैसे सेक्स-टूरिज़्म का हब बन गया है। एक अनधिकृत अनुमान के अनुसार थाइलैंड में तीन मिलियन से ज़्यादा सेक्स वर्कर्स हैं जिनमें पुरुष वेश्या और नाबालिग भी शामिल हैं। चीन, वियतनाम और रसिया से भी ऑर्गेनाइज्ड क्राइम और सेक्स ट्रैफ़िकिंग के तहत लाखों स्त्रियों को यहाँ लाया जाता है। थाई समाज वैसे तो भारतीय समाज की तरह परंपरावादी और पारिवारिक है तथा देह-व्यवसाय को मान्यता नहीं देना चाहता, लेकिन फिर भी इस व्यवसाय के प्रति घृणा नहीं है। शायद इसलिए की काफ़ी गरीब परिवार इसके चलते आर्थिक समृद्धि पा सके हैं। हालाँकि स्त्रियों के लिए नैतिकता के पुराने मापदंड हैं, लेकिन थाई पुरुषों को शादी से पहले वेश्या के पास जाने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है और कई थाई पुरुष ऐसे हैं जो पहले देह-व्यवसाय कर चुकी औरतों से शादी करने में संकोच नहीं करते।

थाइलैंड की तुलना में कम्बोडिया ज़्यादा शांत है। किसी देश की मानसिकता का परिचय वहाँ के स्वच्छता के आग्रह से मिलता है। कम्बोडिया वैसे तो विकासशील देश ही है, लेकिन बहुत साफ़-सुथरा है। यहाँ हर जगह डेन्टल क्लीनिक इतने दिखे जितने किसी समृद्ध, विकसित देश में भी न दिखें ! ये लोग सिर्फ़ घर और रास्ते नहीं, अपने दाँत भी बहुत साफ़ रखते होंगे। कम्बोडिया आते प्रवासी ज़्यादातर आंगकोर वाट के प्राचीन मंदिरों के लिए आते हैं, लेकिन थाइलैंड में मंदिरों के साथ-साथ समुद्र और बीच वेकेशन का भी बड़ा आकर्षण रहता है। थाइलैंड में पातोंग, काटा वग़ैरह कई सुंदर द्वीप हैं, पर फीफी द्वीप सबसे ज़्यादा लोकप्रिय है। लियोनार्डो डिकैप्रियो की ‘द बीच’ नाम की हॉलीवुड फ़िल्म की शूटिंग माया बे में हुई, तबसे इस बीच पर इतने सारे पर्यटक आने लगे कि यहाँ के पर्यावरण पर असर पड़ने लगा और अक्सर इस समुद्र-तट को मुलाक़ात के लिए बंद रखा जाता है। फुकेत के नज़दीक एक मन्की बीच भी है, जहाँ बड़ी तादाद में बंदर बसते हैं। प्रवासी यहाँ बंदरों के साथ तस्वीरें लेते हैं, लेकिन इन तस्वीरों में प्रवासियों से ज़्यादा सयाने बंदर ही लगते हैं।

अजनबी फलों का स्वाद इतना परिचित क्यूँ?

मेरे लिए थाइलैंड का सबसे बड़ा आकर्षण यहाँ का तेज़-तरार्र खाना है। बैंकॉक में मैंने एक कूकिंग क्लास ली थी, तब टोम यम सूप, टोम खा सूप, पपाया सेलड, पोमेलो सेलड, पाँच तरह की थाई करी, पैड थाई नूडल्स बनाना सीखा था। तब वहाँ एक जर्मन परिवार भी क्लास में साथ था। लड़के का जन्मदिन था तो उसकी मम्मी और बहन ने उसे कूकिंग क्लास का तोहफ़ा दिया और वे तीनों एक साथ थाई खाना बनाना सीख रहे थे। जर्मन खाने में ज़्यादातर सॉसेज और आलू ही रहता है और इस तुलना में थाई खाना तो बिल्कुल ही अलग है। थाई खाना भारतीय खाने से क़रीब है, क्यूँकि इसमें नारियल, अदरक, हरा धनिया, हल्दी, मिर्च वग़ैरह कई मसाले हमारे खाने की तरह ही इस्तेमाल होते हैं। इमली यहाँ इतनी प्रिय है कि सुबह के नास्ते में भी दूसरे फलों के साथ इमली रखी जाती है। थाइलैंड में सब्ज़ियों की दुकानें बहुत सुंदर होती है। दुकानों पर लटकतीं बटर बीन्स की लंबी फलियॉं, टोकरियों में रखे काफीर लाइम के पत्ते, लेमन ग्रास, गालान्गल अदरक और कई सारी हरी सब्ज़ियाँ।

मेरे लिए यात्रा की स्मृति स्वाद की स्मृति से अलग नहीं है। बैंकॉक के फ़्लॉटिंग मार्केट में नाव में बैठकर खाए स्प्रिंग रोल्स, पटाया के नाइट मार्केट में रास्ते पर बैठकर खाये नूडल्स, फुकेत के एक रेस्तराँ का इमली के पत्ते और काजू का सूप, सीयम रीप के स्काय बार में कम्बोडिया के खमैर मसालों वाली मछली, पातोंग के बान्जान मार्केट में मैंगोस्टीन (हमारे कोकम के परिवार का एक फल) खाया उसकी याद… ये सब यादें अब भी जैसे कोई दूसरी दुनिया में ले जाती हैं। अजनबी फलों के स्वाद से यह अपनापन ऐसा होता है, जैसे दिल की गहराई में कहीं प्यार छिपा हुआ हो और वह अचानक उमड़कर ऊपर आ जाए। यात्रा में होना इस प्यार की खोज में होना है।