‘हिंदी के लेखक अलग-अलग क्षेत्रों के ड्रॉपआउट्स हैं’

उदय प्रकाश से दिनेश श्रीनेत की बातचीत

उदय प्रकाश से संवाद एक मुश्किल काम है। उनकी शख़्सियत में ‘अनिश्चितता’ का अंडरटोन है। वह खुलते हैं तो बहुत सहज दिखते हैं, मगर कभी-कभी एक कठिन चुप्पी उन पर हावी हो जाती है। उस वक़्त बातचीत भले ही जारी रहे, मगर उसमें एक ख़ास क़िस्म का ‘साइलेंस’ अंतर्निहित होता है। वह कभी अचानक आपके बहुत क़रीब और मित्रवत हो सकते हैं और कभी बिल्कुल अजनबी। गुज़रे आठ सालों की तमाम मुलाक़ातों में उदय कई मायनों में मेरे लिए हमेशा एक रहस्य बने रहे। उनकी दिलचस्पियों का विस्तृत संसार है। वह दुनिया भर में लिखे जा रहे साहित्य, नई विचारधाराओं, नई टेक्नोलॉजी, कंप्यूटर-इंटरनेट, भौतिकी, विश्व-सिनेमा, पुरातत्त्व, गाँवों-क़स्बों के बदलते परिदृश्य या बदलती दिल्ली पर घंटों बातें कर सकते हैं। इस बातचीत के दौरान वह बड़ी सहजता से इन बिल्कुल अलग से दिखने वाले विषयों में आवाजाही कर लेते हैं। बातचीत में उनके केंद्रीय सरोकार और ग़ुस्सा भी साफ़ झलकने लगता है।

उदय प्रकाश से लंबी बातचीत में कई बार ऐसा भी लगता है कि वह कुछ अदृश्य शत्रुओं के साथ चल रहे लंबे मुक़दमे में अपने बचाव के सारे पक्ष बड़ी मज़बूती के साथ इकट्ठा कर रहे हैं। बातचीत एक लंबी, कभी ख़त्म न होने वाली जिरह का हिस्सा बन जाती है। उनकी ज़ाती ज़िंदगी को प्रभावित करने वाली तल्ख़ियाँ भी उभरने लगती हैं। उनका ग़ुस्सा और उनकी ज़िद भी दिखने लगती है। उस वक़्त वह आत्ममुग्ध कहलाने का ख़तरा मोल लेने की हद तक ख़ुद के बचाव में खड़े दिखते हैं। शायद ऐसे बहुत कम रचनाकार होंगे जो उदय प्रकाश की तरह अपने लिखे के पक्ष में एक वकील की तरह जिरह करें, अपनी रचनाओं के साथ यह निजी क़िस्म का ‘एसोसिएशन’ हिंदी रचनाकारों में दुर्लभ है।

मेरी इच्छा थी कि उनकी ‘चमत्कार’-सा रचती कहानियों पर कुछ निजी क़िस्म की बातचीत हो। इस लंबी बातचीत में कई बार उनका ग़ुस्सा (जो अब चिरपरिचित हो चुका है) मुखर भी हुआ, मगर इसमें ही कई बार उन्होंने अपनी स्मृतियों में ग़ोता लगाया, अपने रचनात्मक आग्रहों को दुहराया और उन तमाम विषयों, स्मृतियों और घटनाओं पर चर्चा की जो शायद उनकी शख़्सियत का ‘अजनबीपन’ खोलने में कारगर साबित हों। बातचीत ख़त्म होते-होते यह लगा कि यह इंटरव्यू से अधिक उदय प्रकाश का एक लंबा ‘मोनोलॉग’ था और मेरी हैसियत मंच के एक अदृश्य पात्र जैसी थी, जिसके बहाने नाटक का पात्र लगातार जिरह करता है—उस किरदार से, ख़ुद से और बाक़ी दुनिया से। वह अपने आस-पास एक संसार भी बसाकर चलते हैं। इसके भीतर रहना शायद उन्हें भाता है। यह संसार भी उनकी दिलचस्पियों की तरह विविधता से भरा हुआ है। उनके फ़्लैट का इंटीरियर, उनका कंप्यूटर, उनकी डॉक्यूमेंट्री फ़िल्मों की सीडी, दीवारों पर उनके स्वर्गीय पॉमेरियन लाइका की तस्वीरें और छत पर रौशनी और फ़व्वारे से सजा उनका टैरेस गार्डन। यहाँ प्रस्तुत सारी बातचीत उसी टैरेस गार्डन में मई की एक सुबह हुई—जब पार्श्व में दिल्ली और ग़ाज़ियाबाद का ट्रैफ़िक समुद्र की तरह गरज रहा था।

— दिनेश श्रीनेत

उदय प्रकाश │ स्रोत : फ़ेसबुक

जिस दौर में आप अपने कहानी-संग्रह ‘दरियाई घोड़ा’ की कहानियाँ लिख रहे थे—तब से लेकर अब तक समय के फैलाव में आप क्या बदलाव देखते हैं? क्या आपको लगता है कि बतौर रचनाकार आपके लिए चुनौती उत्तरोत्तर कठिन हुई है? क्या बदलते हुए परिवेश ने आपकी रचनात्मकता पर भी कोई दबाव डाला है?

कोई भी रचनाकार-कथाकार समय, इतिहास और स्मृति इन स्तरों पर, ख़ास तौर पर टाइम एंड मेमोरी के लेबल पर लिखता है। ‘दरियाई घोड़ा’ की कहानियाँ भी उसके प्रकाशन से बहुत पहले की लिखी गईं, अगर आप इन कहानियों को देखें तो समय उनमें किसी ‘इको’ की तरह है, लेकिन ‘दरियाई घोड़ा’ एक बहुत निजी स्मृति की कहानी है। वह पिता की मृत्यु पर लिखी गई कहानी है। इंदौर के एक अस्पताल में मेरे पिता की मृत्यु हुई थी—कैंसर से—तो वह उस घटना के आघात से उसकी स्मृति से लिखी गई कहानी है। 1984 में छपा था यह संग्रह। तब से अब तक का समय बहुत बदलाव का रहा है। पहले माना जाता था कि एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी के बीच समय का अंतर लगभग दो दशक का होता है। पिता और पुत्र के बीच संवाद भी इन्हीं बीस सालों के गैप को भरता है। लेकिन 1980 के बाद से इतने तेज़ और बड़े परिवर्तन हुए, ख़ास तौर से जिसको हम थर्ड टेक्नोलॉजिकल रिवोल्यूशन कहते हैं—तीसरी प्राविधिक क्रांति। इसके बाद का अंतर समय का क्रमिक अंतर नहीं, जिसे हम देखते आए थे। यह अंतर वैसा था, जैसा कई बार 1789 में हुआ या औद्योगीकरण से आया फ़र्क़ था। इसे हम सिविलाइज़ेशनल चेंज कहते हैं—सभ्यतामूलक परिवर्तन।

‘दरियाई घोड़ा’ के लगभग नौ साल के बाद 1993 में दुनिया से एक बहुत बड़ा सुपर-पावर सोवियत-संघ समाप्त हुआ। उसका झंडा तक नहीं रह गया—उसकी स्मृतियाँ नहीं रह गईं, जिन शहरों का उसने नामकरण किया था—लेनिनग्राद आज कहाँ है? बहुत से इतिहास के नायक और पात्र थे, मूर्तियाँ लगी हुई थीं, पाठ्य-पुस्तकों में जिनकी गौरवगाथाएँ थीं—वे सब ग़ायब हो गए, मूर्तियाँ ढह गईं, किताबों से उल्लेख मिट गया और बड़ी मुश्किल से लेनिन का शव बचाया जा सका। उस दौर में हम लोग इन बदलाओं को देखते रहे। लेकिन एक चीज़ है आप गाब्रिएल गार्सिया मार्केज का उपन्यास ‘वन हन्ड्रेड इयर्स ऑफ़ सॉलिटूड’ पढ़ें या उनकी आत्मकथा ‘लिविंग टू टेल द टेल’ को आप पढेंगे तो एक निरंतरता मिलेगी।

किसी भी रचनाकार का जो जीवन होता है और जो उसकी स्मृतियाँ होती हैं—कहीं न कहीं इतिहास से अलग एक नैरेटिव कंटीन्यूटी—एक आख्यानात्मक निरंतरता होती है। इसीलिए मेरा मानना है कि जो कवि है, लेखक है, कहानीकार है—यह बात उस पर लागू होती है। उसे अपने संवेदन-तंत्र को लगातार बचाए रहना चाहिए। अपने आस-पास के परिवर्तन के प्रति उसकी ग्रहणशीलता लगातार बनी रहनी चाहिए। जिस मोमेंट में आप उनको खो देते हैं, आपकी संवेदनशीलता ख़त्म हो जाती है—समय को पढ़ पाने में, फिर आपके पास सिर्फ़ नॉस्टेल्जिया या स्मृतियाँ बचती हैं; और आपको मैं बताऊँ कि सिर्फ़ स्मृतियों के सहारे—अगर सारा समय का संदर्भ ग़ायब हो—तो आप किसी को चिट्ठी या पर्सनल डायरी तो लिख सकते हैं, कोई रचना—कहानी या कविता—नहीं लिख सकते। जब मैंने ‘तिरिछ’ (1985-86) लिखी तो यह वो दौर था जब दुनिया एकध्रुवीय नहीं थी और इन दो ध्रुवों के चलते कहीं न कहीं एक विकल्प का एहसास मन में रहता था। लेकिन लगातार संदेह हो रहा था।

लेकिन क्या यह सच नहीं है कि उस समय के रचनाकार के पास आस्था के कुछ केंद्र तो बचे ही थे। भले ही वे अपनी प्रासंगिकता खोते जा रहे थे, मगर आज लेखक एक अराजक क़िस्म की अनास्था के बीच सृजन कर रहा है?

आपको याद होगा कि जिस वक़्त मैंने ‘तिरिछ’ लिखी थी—उसी दौरान इंदिरा गांधी की हत्या और राजीव गांधी का राज्यारोहण हुआ था। उसी समय से इंडियन पॉलिटिक्स में एक शिफ़्ट आया था। उस समय राजीव ‘नया’ के बड़े समर्थक थे। जैसे हिंदी कहानी में ‘नई कहानी’ और ‘नवलेखन’ जैसे फ़ैशन आते-जाते रहे। राजीव नई शिक्षा नीति, नई अर्थनीति, कांग्रेस का नया चेहरा के अगुआ थे।

उन्हीं दिनों विश्वबैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के प्रभुत्व और हस्तक्षेप की पृष्ठभूमि भी बनने लगी थी। तब मैं 10 दरियागंज, दिनमान के दफ़्तर में काम करता था और मेरे पास एक मोटरसाइकिल होती थी जिससे मैं अशोक विहार से दरियागंज जाता था। दूरी लगभग 14-15 किलोमीटर थी। उस दूरी में चीज़ें बदलती हुई दिखाई देती थीं। यह एक प्रत्यक्ष भौतिक परिवर्तन था। फ़ाइव स्टार होटल बनने का ट्रेंडसेटर टाइम था, संजय गांधी का सपना—मारुति 800—बड़ी संख्या में उतर आई और वह एक हलचल-सी पैदा करती दिल्ली की सड़कों पर दौड़ रही थी। इमारतें बड़ी होनी शुरू हो गईं, सड़कें चौड़ी होने लगीं। नई शिक्षा नीति लागू हुई और पब्लिक स्कूल बेतहाशा खुलने लगे। निजीकरण, प्राइवेट शॉप्स की शुरुआत हुई। इसी के समानांतर जब मैं गुज़रता था तो पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन और आई.एस.बी.टी. मेरे रास्ते में पड़ते थे। मैं देखता था कि वहाँ की दीवारों पर पोस्टर चिपकने लगे थे—सावधान, वांटेड, किसी अजनबी का दिया न खाएँ, अपने सामान की हिफ़ाज़त करें, साथ में चलने वाले पर भरोसा न करें धोखाधड़ी और ठगी से वॉर्न करने वाले पोस्टरों की संख्या बढ़ गई। यह भी महसूस किया कि जिसे सिविलियंस के भीतर डिसेंसेटाइज़ेशन कहते हैं—वह बढ़ता चला जा रहा था। जो पानवाला बहुत हँसकर बोलता था, वह अब बहुत कैजुअल और फ़ॉर्मल हो गया। जो चपरासी अपनी पत्नी, बच्चे और बेटे का दुखड़ा रोता था, अब उसकी जगह पर जो चपरासी आया वह बहुत फ़ॉर्मल, काम की बातें करता था। लोगों ने एक-दूसरे से निजी बातें करनी लगभग बंद कर दीं। तब मैंने लिखी—‘तिरिछ’।

‘तिरिछ’ जब आई तो आप हिंदी के बारे में जानते हैं कि मेरी बहुत स्पष्ट राय है कि यह मीडियॉकर समाज है, यहाँ पाठकों का समाज तो बहुत संवेदनशील है, मगर हिंदी के लेखक दरअस्ल अलग-अलग क्षेत्रों के ड्रॉपआउट्स हैं। यहाँ कोई असफल पुलिसवाला, असफल पटवारी या असफल सेल्स टैक्स ऑफ़िसर है तो वह सफल लेखक बन जाता है। शुरू में ‘तिरिछ’ का बहुत विरोध हुआ। यह अफ़वाह फैलाई गई कि यह मार्केज की ‘क्रॉनिकल्स ऑफ़ ए डेथ फ़ोरटोल्ड’ की नक़ल है। उन्हीं दिनों एक कथाकार और कथा-आलोचक सज्जन ने मुझे लगभग डराते हुए कहा कि ‘हंस’ अपने अगले अंक में एक पन्ने पर ‘ओरिजिनल’ कहानी और एक पर आपकी ‘तिरिछ’ साथ-साथ प्रकाशित करने जा रहा है। विश्वास कीजिए—मैं चुप रहा, मुझे हँसी भी आई और उनकी मूर्खताओं पर मैं आज भी हँसा करता हूँ। मुझे हिंदी समाज से कुछ मिला नहीं है। उन्होंने मुझे गाली और अपमान के सिवा कुछ और नहीं दिया है। बहुत ईमानदारी से कहूँ तो मैं घृणा करता हूँ इस समाज से, ठीक उतना ही जितना कि वे मुझसे करते हैं… और ऐसे में मुझे नीत्शे का एक वाक्य याद आता है। नीत्शे फ़ाशिस्ट था, मैं जानता हूँ, लेकिन नीत्शे का कहना था—‘‘आई नो एबाउट द कंटेट, यू हैव इन योर हार्ट, टुवर्डस मी, एंड यू आर नॉट ग्रेट इनफ़ नांट टू नो इट, सो ट्राई टु ग्रेट एनफ़, टु एक्सेप्ट इट शेमलेसली।’’ यानी तुम इतने महान नहीं हो कि तुम्हें यह न पता हो कि तुम मुझसे कितनी घृणा करते हो, मगर तुम इसे स्वीकार करने लायक़ महान तो अवश्य बन जाओ। अगर हिंदी समाज मान लीजिए राहुल सांकृत्यायन, मुक्तिबोध और शैलेश मटियानी से घृणा करता था और उन्हें ख़त्म कर दिया या उन तमाम रचनाकारों से घृणा करता था जो अपने कठिन संघर्ष में ईमानदारी के साथ लिख रहे थे, तो इस समाज को अपनी घृणा को पूरी बेशर्मी के साथ स्वीकार कर लेना चाहिए तो कम से कम हम इतना मान लेंगे कि चलो इसमें इतनी ईमानदारी तो है कि यह हत्या कर रहा है और हत्या को स्वीकार भी कर रहा है। इसलिए नक़ल और चोरी के आरोप पर भी मैंने कुछ नहीं कहा।

मगर ‘तिरिछ’ का स्वीकार बहुत बड़ा रहा और इतना बड़ा रहा कि ‘पिग आयरन’ जो अमेरिका से निकलने वाला बहुत सम्मानित एंथोलॉजी है, जिसमें नादीन गॉर्डिमर भी शामिल थीं, उस समय तक उनको नोबेल सम्मान भी नहीं मिला था, यह तब की बात है। उसमें और भी बहुत सारे लेखक थे। उसमें पहली कहानी ‘तिरिछ’ थी—एडिटोरियल नोट्स के साथ। पहली बार उसने आत्मविश्वास दिया, साहस दिया कि हिंदी का जो समाज है, कुछ भी करे—इसके प्रति थोड़ी तटस्थता, निस्संगता और चुप्पी बरतते हुए अपने समय के अंतर्विरोध को व्यक्त करते रहने की साधना और अध्यवसाय होना चाहिए।

‘तिरिछ’ आज भी मेरी सबसे ज़्यादा पढ़ी जाने वाली कहानी है। यह एक मार्मिक कथा बन पड़ी, मगर सिर्फ़ इसलिए नहीं कि उसमें पिता की मृत्यु हो जाती है। दरअस्ल, यह अगर आप कहें तो जो सिविलाइज़ेशनल ट्रांज़िशन था—जिसकी ओर मैं इशारा कर रहा था, जो दो सभ्यतामूलक परिवर्तनों के दशक गुज़रे, यह उसकी शायद एपेक्स कहानी थी, जो यह बताने जा रही थी कि अब जो सिटीज़ बनेंगी, जो अरबनाइज़ेशन होगा, जो मेट्रोपॉलिटनिज़्म आएगा और जो एक पूरी दुनिया बनेगी, उसमें मनुष्य की और एक ऐसे मनुष्य की जो बूढ़ा है, कमज़ोर है, जिसके सेंसेज बहुत काम नहीं कर रहे हैं, जो किसी न किसी तरह की सहानुभूति, सहकारिता और शरण चाहता है… उसकी नियति मृत्यु होगी। वह बचेगा नहीं। वह अनजाने ही मार दिया जाएगा।

और बाद के दौर में लगभग यही संवेदनहीनता हम सबके सामने आई और यह भयावह भी होता गया।

बिल्कुल, अगर आप ‘मोहनदास’ को देखें तो आप पाएँगे कि वह जो ग्राफ़ है, उत्तरोत्तर बढ़ता गया है। मैं यह कहना चाहूँगा कि मैंने अपने समय के मनुष्य से कभी अपनी आँखें हटाई नहीं हैं। मेरे पास कोई पावर नहीं, कोई सत्ता नहीं, कोई पत्रिका नहीं निकालता मैं, कहीं का अफ़सर नहीं हूँ। मैंने देखा कि सामान्य जनता के प्रति ब्यूरोक्रेसी का जो व्यवहार होता है, वही साहित्य के अंदर ब्यूरोक्रेट्स मेरे प्रति करते हैं। राजनीति में साधारण जनता से जो छल-कपट किया आता है, साहित्य के भीतर राजनीतिक दलों से जुड़े लोग मेरे जैसे लेखकों के साथ भी वही करते हैं। मैं एक सिविल सोसाइटी का हिस्सा हूँ। मैं सत्ता, समाज का हिस्सा नहीं हूँ तो स्वाभाविक रूप से मेरी कहानियों में भी यह आएगा। मैं भले इसके लिए बहुत प्रयास भी नहीं करता, लेकिन आप उतना ही अपमान झेल रहे हैं, जितना कि गुड़गाँव की पुलिस के डंडे खाने वाली जनता झेल रही है, आप वही यातना झेल रहे हैं जो कस्टडी में मर जाने वाला एक निर्दोष नागरिक झेलता है, आप पर उतने ही गंभीर आरोप लग रहे हैं, जितना पोटा या टाडा में फँसे किसी निर्दोष पर। तो कहीं न कहीं वह अभिव्यक्त होगा।

यदि रविभूषण कहते हैं कि इसने ‘पीली छतरी वाली लड़की’ में बोर्हेस की नक़ल की है तो… दरअस्ल उस समय मैं बीमार था और शायद यह पहला समय था जब मैंने थोड़ा-सा अपना संयम खोया। वह भी मेरे मित्रों ने कहा कि जब भी तुम लिखते हो तो एक पूरी जमात यह कहती हुई टूट पड़ती है कि यहाँ की नक़ल, वहाँ की चोरी है, तो पहली बार मैंने अदालत की शरण में जाने की पहल की। मैंने उनको नोटिस दिया कि क्यों न मैं आपको अदालत में ले चलूँ और उस पर लगभग सबने एकजुट होकर यह कहना शुरू कर दिया कि उदय मुक़दमेबाज़ हैं। तो स्थिति ऐसी हो गई कि या तो आप स्वीकार करें कि हाँ नकल करते हैं या मुक़दमेबाज़ बनें। ‘पीली छतरी वाली लड़की’ के अनुवाद को प्रख्यात पेन अवार्ड मिला, जिसकी ज्यूरी में सलमान रुश्दी और एस्थर हेलन जैसे लोग थे। इस ज्यूरी की यहाँ की ‘ज्यूरी’ से, मैं मानता हूँ कि कोई तुलना ही नहीं है। ‘न्यू लेफ़्ट रिव्यू’ और ‘क्रिटिकल इंक्वायरी’ में लिखने वाले अमिताभ कुमार, जो संसार के सबसे विश्वसनीय मार्क्सवादी आलोचकों में से एक हैं, यदि ‘पाल गोमरा का स्कूटर’, ‘तिरिछ’ और ‘मोहनदास’ की प्रशंसा करते हैं तो विश्वास कीजिए कि मुझे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि यह ‘हिंदीवालों’ का गैंग क्या करता है। मैं भी इस देश का नागरिक हूँ तो मैं भी कुछ अधिकार, कुछ हक़ चाहता हूँ। मैं टैक्स देता हूँ। मेरे माता-पिता और रिश्तेदारों ने भी टैक्स दिया। तो ऐसा तो है नहीं कि आप ही ग़ैरक़ानूनी तरीक़ों से सब हड़पें। मैं यह कहता हूँ कि मेरे पास शिक्षा, डिग्री और योग्यता है तो मुझे नौकरी आप क्यों नहीं दे रहे हैं। मेरी जगह एक निहायत नाकारा को क्यों नियुक्त कर रहे हैं? तो आप जीवन में भी और रचनाओं में भी मेरे साथ अन्याय कर रहे हैं।

एक तरह से यह कहें कि बदलती हुई चीज़ों और बदलते हुए वक़्त के साथ आपके लिए यह दौर दुहरे संघर्ष का था। एक संघर्ष बतौर रचनाकार था और ख़ुद अपनी ज़िंदगी जीने का भी।

शायद इसी ने मुझे विश्वनीयता दी। आप मेरी पत्नी और बच्चों से पूछें, इतना संघर्ष हमने किया है। पिछले कई सालों से मेरे पास कोई नौकरी नहीं है और जितनी कठिन मेहनत की हम सबने, बच्चों को पढ़ाना, उनकी फ़ीस का इंतज़ाम, मकान का किराया देना, आप जानते हैं कि बिना नौकरी के ये चीज़ें आसान नहीं होती हैं; उसके लिए भागना-दौड़ना पड़ता है। मेरे पास कोई ऐसे कॉन्टेक्ट भी नहीं थे कि मैं किसी बड़े अख़बार या पत्रिका का संपादक बन जाऊँ। मैंने जो भी किया, अपने स्तर पर किया। सौभाग्य से मेरे दोस्त बहुत हैं—बहुत अच्छे। सभी भाषाओं और अलग-अलग क्षेत्रों से हैं और मेरा दावा है कि हिंदी के किसी भी लेखक की जो दुनिया है, उससे बहुत बड़ी दुनिया है मेरी। उसमें अच्छे सिनेमॉटोग्राफ़र, राइटर, इंजीनियर और अच्छे डॉक्टर भी शामिल हैं। मेरे पास सामान्य पाठकों के जैसे पत्र आते हैं, वह मुझे शक्ति देता है।

आज की तारीख़ में या पहले भी आप रचनात्मक स्तर पर कब इतना ज़्यादा दबाव महसूस करते हैं कि यह लगने लगे कि अब कुछ लिख ही देना चाहिए?

मैं तो शायद यह कहूँ कि जो लेखक होता है, वह 24 घंटे लेखक होता है, अगर कोई ऐसी व्यवस्था हो… जैसे लुई बुनुएल की बहुत अच्छी आत्मकथा है—‘माई लास्ट ब्रेथ’ में लुई ने कहा था कि 24 घंटे में आदमी को 20 घंटे सोना चाहिए और स्वप्न देखना चाहिए और बाक़ी चार घंटे उसे काम करना चाहिए। यह तो सच है कि सृजन एक स्वप्न है कि रचना एक ड्रीमिंग है। मैं नहीं मानता जो रचनाकार बहुत दौड़ते-भागते हैं, वे सचमुच लेखक हैं। वे एक दौड़ते-भागते शरीर हैं। येहूदा आमिखाई ने लेखक के बारे में लिखा है कि वह बहुत सक्रिय सिर निष्क्रिय धड़ पर रखा है। जैसे ऋषि-मुनि स्थावर होते थे, सिर सक्रिय होता था। पर यहाँ तो सिर ही निष्क्रिय है। वे बेहूदी बातें करते हैं, नारे उछालते हैं, प्रोजेक्ट करते हैं; लेकिन स्थिर नहीं रहते हैं। एक आदमी जो भोपाल, कोलकाता और दिल्ली के जलसों के बीच चक्कर काट रहा है तो सोचता कब होगा? कल्पना कब करता होगा और स्वप्न कब देखता होगा? तो इसके लिए चैटर है ये।

देखिए, एक परिवर्तन यह भी हुआ है बहुत बड़ा जिसकी ओर रोलाँ बार्थ और सभी इशारा करते थे, कि थर्ड टेक्नोलॉजिकल रिवोल्यूशन यानी संचार-क्रांति है। इसका एक सबसे बड़ा जो पहलू है, वह यह है कि पोस्ट मॉडर्न रियलिटी की लैंग्वेज का और नॉलेज इन्फ़ॉरमेशन इससे पहले कभी नहीं हुआ। इस समय भाषा का उत्पादन, पुनरुत्पादन, री-रीप्रोडक्शन, इतना बढ़ता चला जा रहा है कि पोस्ट मॉडर्निस्ट कहते हैं कि पूरा ब्रह्मांड शोर से भर गया है जब भाषा अधिक हो जाए तो वह चैटर में बदल जाती है। यह शब्द रोलाँ बार्थ का है। रोलाँ बार्थ का कहना था कि जिसका हिंदी में आशय शायद अनर्गलता है। हर कोई बोल रहा है, बड़बड़ा रहा है। यह अचानक साहित्य में भी शिफ़्ट हुआ। जो बोलने वाले, अनर्गल करने वाले लोग हैं, वह उसी तरह से ऊपर आ गए हैं जैसे क्रिकेट कंमेंटेटर्स हैं, जैसे पॉलिटिकल कमेंटेटर्स हैं, जैसे ‘बिग फ़ाइट’ के एंकर हैं। बोलने वाले, बड़बड़ाने वाले, चैटर करने वालों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है।

जब बार्थ ने लिखा था, तो कभी शायद फ़्रांस-जर्मनी में हो रहा था। उसने एक बात और कही थी। उसने कहा था कि किसी भी कार्य-क्षेत्र का जो समाज में स्पेस को मापने का पैरामीटर यह है कि उस पर कितनी भाषा ख़र्च हो रही है, उससे यह पता लगता है कि उसका समाज में कितना स्थान है। अगर आप देखें क्रिकेट पर जितनी भाषा ख़र्च हो रही है, आप चैनल देखें, पत्रिकाएँ देखें… प्रभाष जोशी जैसे लोग भी चैटर करते रहे। वहाँ सारे विशेषण, शब्द और अनुप्रास खप जाते हैं। महान, महानतम, दिग्गज सब कुछ चल जाता है। वह अनर्गल है। आप घंटों-महीनों सुनते रहिए। क्रिकेट, पॉलिटिक्स, सिनेमा और मनोरंजन में भाषा सबसे ज़्यादा ख़र्च हुई है। लेकिन गंभीर डिस्कोर्स जिसमें से साहित्य भी एक है, वहाँ पर भाषा अब ख़र्च नहीं हो रही है। इसका मतलब समाज में इनका महत्त्व सिकुड़ता चला जा रहा है।

यह हमारे समय की बहुत हास्यास्पद विडंबना—ह्यूमरस आइरनी—है कि हम इसको समझ नहीं पा रहे हैं कि साहित्य हमेशा से साइलेंस और बहुत किफ़ायत की भाषा का क्षेत्र रहा है। इसको बिना समझे साहित्य के लोग कंपीट करना चाहते हैं—एक पॉलिटिकल या क्रिकेट कमेंटेटर से और वे उतना ही बोलते हुए दिखना चाहते हैं कि शायद हम इससे समाज में साहित्य का स्पेस बढ़ा लें, और ऐसा करने वालों में बहुतेरे हैं, मैं नाम नहीं लेना चाहूँगा, ये बेसिकली ह्यूमरस कैरेक्टर हैं। ये हँसी के पात्र हैं, जो धीरे-धीरे अपने समय से ग़ायब हो रहे हैं। हमारे समय का सबसे बड़ा चैटर कौन है? बताइए आप? वह है—नवजोत सिंह सिद्धू। क्या हमारा कोई आलोचक जिसने आलोचना लिखनी बंद कर दी है और बोलना शुरू किया है, क्या उसका मुक़ाबला कर पाएगा? अगर मान लीजिए मैं उकताकर या परेशान होकर यही मान लूँ कि मुझे चैटर करना है, यक़ीन मानिए मेरे जैसा चैटर ये नहीं कर सकता। चैटरिंग क्रिटिसिज़्म नहीं है, अनर्गलता आलोचना नहीं है।

आलोचना एक गंभीर पद्धति है, उसके पीछे एस्थेटिक्स है, इतिहास है। कोई गा रहा है और ग़लत सुर में गा रहा है—राग ग़लत है—तो आप उसको महान गायक नहीं बना सकते हैं। कितनी भी लफ़्फ़ाज़ी कर लीजिए। जैसे हर गायक जानता है कि दूसरा गायक कैसा है, वैसे ही हर रचनाकार जानता है कि दूसरा रचनाकार कैसा है। उस्ताद आमिर ख़ाँ के आगे शकुंतला अग्रवाल को रखकर यह साबित करने लगे कि यह स्त्री-विमर्श का समय है और वह आमिर ख़ाँ से महान गायिका हैं तो यह सिद्ध नहीं होगा। फ़ाइन आर्ट और हायर साइंसेज में इस तरह की कैटेगरी चलती ही नहीं है। मैं इसे दुहराना चाहूँगा कि मार्क्स ने कहा कि विज्ञान का विकास मैटेरियल साइंस से फ़िज़िक्स से हुआ। इसकी अंतिम परिणति है मैथमेटिक्स, वह टोटल एक्सट्रैक्शन है। यानी ठोस से शुरू होता है और अमूर्तन में जाकर ख़त्म होता है। जैसे आप मैथमेटिक्स में नहीं कह सकते कि कौन दलित है, कौन ब्राह्मण है, कौन सवर्ण है, कौन स्त्री है, वहाँ टू प्लस टू फ़ोर होगा। स्त्री-विमर्श होने पर दो और दो दस नहीं हो जाएँगे और यही संगीत में है। यदि आप गा रहे हैं तो उस ग्रामर के भीतर आप कहाँ हैं। यह जी पूरा हल्ला-गुल्ला है, इसमें बहुत बड़ा कन्फ़्यूज़न पैदा करने की कोशिश की जा रही है और यह जानबूझकर है कि साहित्य की जो गहन मानवीय संवेदना है—जैसा कि मुक्तिबोध कहते हैं, जो विदग्धता है, उससे आप उसको अलग करते हैं, और साहित्य को उस स्तर पर ले जा रहे हैं कि वहाँ पर जो औरतों के प्रॉपर्टी राइट पर लिख रहा है, वह भी साहित्यकार हो जाए और जो पुलिस महकमे की कंट्राडिक्शन पर लिख रहा है और जो एग्रीकल्चर और सिंचाई पर लिख रहा है—वह भी साहित्यकार हो जाए और ऐसा हुआ भी है। ब्रेझनेव थे, उनकी ‘वर्जनलैंड’ को रूस का सर्वोत्तम साहित्य पुरस्कार दे दिया गया। हमारे यहाँ हो यह रहा है कि कोई समाजशास्त्र पर लिख रहा है और शरद जोशी सम्मान पा रहा है, पुलिस डिपार्टमेंट पर लिख रहा है तो शमशेर पुरस्कार पा रहा है, खेती पर लिख रहा है तो उसे मुक्तिबोध पुरस्कार दिया जा रहा है।

अगर आप यह मानते हैं कि यह हमारे साहित्य का मौजूदा परिदृश्य है तो फिर कहीं न कहीं हमें उसके कारणों की तरफ़ भी तो जाना होगा, आपके मुताबिक़ आख़िर वे कौन से कारण हैं?

दरअस्ल, अब एक ऐसा परिदृश्य निर्मित किया जा रहा है कि जिस परिदृश्य में साहित्यकार नहीं, ‘फ़ेक्स’ हैं, उनको स्थापित कर दिया जाए, ऐसा इसलिए भी हुआ है। पहले भी जो अच्छे रचनाकार रहे हैं, उनको गहरे संकटों का सामना करना पड़ा। इस बार ऐसा ज़्यादा इसलिए हो रहा है कि बहुत बड़ा कैपिटल इन्वेटस्टमेंट कल्चर में हो रहा है। इसकी शुरुआत भी—माफ़ करें तो राजीव गांधी के समय में हुई। यह ‘फ़ोकस्ड शिफ़्ट’ था। आप सैमुअल हटिंग्टन को पढ़ें, सभ्यताओं की टकराहट वाली किताब, तो उसमें कहा गया है कि केंद्रीय संस्कृति, कल्चर-केंद्र में होने जा रहा है। अचानक साहित्यिक संस्थानों, कल्चरस सेंटर को भरपूर पैसा आ रहा है। पैसा आया तो उसे लपकने वाले लोगों की तादाद और बढ़ेगी और बढ़ भी गई है, टिड्डी दल की तरह ऑपरेटर्स हैं।

आइडियोलॉजी को दरकिनार कर कि वामपंथ, दक्षिणपंथ, जनवाद और प्रगतिवाद क्या है—उनका मक़सद होता है कि किसी तरह संख्या पर क़ब्ज़ा ज़माना है और उसका एनुअल फ़ंड अपने मन माफ़िक़ ख़र्च करना है। (हँसकर) कभी-कभी मैं कहानी लिखने की सोचता हूँ कि जैसे टिड्डी दल आता है—कोई किसान बड़ी मेहनत से अपने खेत को बोता-जोतता है, फ़सलें आती हैं। वहीं एक तरफ़ से आकाश धुँधला होना शुरू होता है, तो यह बादल नहीं, तूफ़ान नहीं, पूल भरी आँधी भी नहीं—यह तो टिड्डियों का दल है—जो सारी फ़सल चौपट कर जाता है। अच्छे-ख़ासे संस्थानों में हिंदी साहित्यकारों के गिरोह हैं। हालाँकि गंभीर साहित्यकार उस झुंड में शामिल नहीं हैं, उसमें मनोहर श्याम जोशी नहीं थे, मुक्तिबोध होते तो कभी न रहते। यह झुंड आपस में पुरस्कार बाँटता, मौज-मस्ती करता है। बीते 10 सालों में सवा लाख किसान आत्महत्या कर लेते हैं तो कम से कम एक लेखक को तो उत्सव नहीं मनाना चाहिए। गुजरात में जब भूकंप आया था तो आपको याद होगा कि यहाँ दिल्ली के एक होटल में कॉकटेल पार्टी में थे। उस दिन गणतंत्र दिवस था—गुजरात में हज़ारों लोगों की तबाही पर उनके मन में कोई संवेदना तक नहीं थी। अगले दिन पत्रकारों ने हल्ला मचाया तो उन्होंने यह सफ़ाई दी कि हम तो गुजरात के भूकंप-पीड़ित थे, उनकी सहायता के लिए शराब पी रहे थे और हँस रहे थे। इस पर आप कभी विश्वास कर सकते हैं क्या? तो भारत में प्रेमचंद के गाँव आज किस स्थिति में हैं, इसे समझने के लिए हज़ारों-लाखों रुपए ख़र्च करना जायज़ है? यह एज ‘एंड ऑफ़ इनोसेंस’ की है। जनता इतनी बेवक़ूफ़ नहीं है। मामूली व्यक्ति भी जानता है कि आप क्या कर रहे हैं। मेरा तो हमेशा से यह मानना है कि लेखक को लेखक ही रहना चाहिए। उसका काम है लिखना। आप सचिन तेंदुलकर नहीं बन सकते। लेखक हाशिए पर रहने वाला, काग़ज़-क़लम या अपने कंप्यूटर पर काम करते हुए एकांत में रहने वाला प्राणी होता है।

जैसा कि अभी आपने कहा कि इतनी बड़ी अनास्था का दौर है, तो क्या कभी ऐसा भी होता है कि बतौर रचनाकार भी आपको हताशा होती है या उसी हताशा में लिखने की संभावनाएँ भी सामने आती हैं?

हताशा है, यह तो हर कोई जानता है कि 1980 के बाद का समय गहरे डिप्रेशन और पराजय का दौर है। आप देख रहे हैं कि कैपिटल और पावर से निर्मित होने वाली बहुत-सी संरचनाएँ हैं, उनका प्रभुत्व-पॉवर का यह वर्चस्व इतना कभी नहीं था। हमेशा लगता है कि प्रतिरोध के पुराने तौर-तरीक़े बिखर गए हैं—दिखाई नहीं देते। ‘ग्रांटा’ ने तो पूरा अंक ही निकाला या मिडिल एज क्राइसिस पर। आप लोग तो युवा हैं, आप तो फिर भी इससे उबर सकते हैं, मगर आप हमारे बारे में कल्पना कीजिए—जिन्होंने 35 से 40 साल की उम्र तक एक सपना देखा और सोचा कि शायद परिवर्तन होगा। यह दुनिया भर में हुआ है और हिंदी साहित्य—विश्व साहित्य का एक हिस्सा है। ऐसी घटनाएँ एक जैसी होती हैं। पूरे यूरोप और एशियाई देशों में ऐसी घटनाएँ हुई हैं—आपके साथ—कि जो व्यक्ति सत्तर के दशक में एमरजेंसी के दौरान नारे लगा रहा था, और जयप्रकाश नारायण के साथ जो रैली में शामिल था, खैनी खाता हुआ—आप अचानक देखते हैं कि वह शेयर मार्केट में पैसा लगा रहा है और एक लंबी-सी गाड़ी से उतरता है। उसके हाथ में मोबाइल है। आप उससे बात करते हैं तो उसकी बात में कोई ‘सोशल कंसर्न’ नहीं बचा है। देखते-देखते आपके इतना बड़ा परिवर्तन हुआ है।

सवाल यह नहीं है कि आपके देखते-देखते आपके संबंधी, बच्चे, साथी बदल गए और आप यह स्वीकार कर लें कि आप नहीं बदल सके, इसलिए आप पिछड़ गए। मैं तो ऐसा नहीं मानता। मैं अभी भी मानता हूँ कि मेधा पाटकर और अरुंधति राय पिछड़ी हुई नहीं लगतीं। जो लोग लपककर किसी कुर्सी पर बैठ जाते हैं, एवार्ड ले लेते हैं, किसी मिनिस्टर के साथ लगकर अपने को प्रगतिशील कहते हैं। मुझे लगता है कि यह एक दौर था, जब हमें ख़ुद को टेस्ट करना था क्योंकि देखिए जैसे कि रूसो कहता था कि समाज दो ही अवस्थाओं में होता है—परिवर्तन के पहले और परिवर्तन के बाद। तो हमारा समाज परिवर्तन के पहले का समाज है। ऐसा नहीं है कि यह असमानता बढ़ती ही चली जाएगी, या ऐसे अन्याय और अतिचार होते ही रहेंगे। यदि ऐसा हो भी रहा है तो एक लेखक के नाते हम भले ही कुछ न करें तो कम से कम जो लूटा जा रहा है, पीड़ित है, उसके साथ तो खड़े हों। यह आपकी भी परीक्षा का दौर है।

थोड़ा विषयांतर करते हैं। आपके अपने निजी जीवन, आपके अतीत, आपके बचपन ने किस तरह आपके मन पर असर डाला। आपको किस वक़्त लगा कि मुझे भी लिखना चाहिए?

मैं एक बड़े सामंत परिवार में पैदा हुआ था। आप जानते है कि 1953 में जब ज़मींदारी उन्मूलन हुआ तो अचानक मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश की बहुत-सी ज़मींदारियाँ ऐसी थीं—जो लैंडेड फ़्यूडल्स नहीं थे। बड़े ज़मींदार इसलिए थे, क्योंकि उनके पास टैक्स बहुत आता था—रेवेन्यू कलेक्शन बहुत था। तो 1953 के इस स्ट्रोक ने उनके समृद्ध होने का आधार छीन लिया। तो उनकी आर्थिक स्थिति लगभग मध्यवर्गीय किसान वाली हो गई, मगर उनकी हैबिट्स तथा ‘औरा’ काफ़ी समय तक रहा, पर उसके आधार छिन चुके थे। तो मेरा जन्म ही हुआ 1952 में। इस घटना के ठीक एक साल पहले।

मैं तो यह कह सकता हूँ कि मैं ज़मींदार परिवार का हूँ ही नहीं। मैंने तो वैभव देखा ही नहीं। दूसरे, कैंसर की कुछ ऐसी परछाईं रही मेरे घर में कि मेरे बाबा, दादा, बुआ, दादी और फिर मेरी माँ और पिता भी मेरे बचपन में कैंसर से गुज़र गए। तब से बाहर रहना पड़ा, संघर्ष करना पड़ा। तो जहाँ तक मुझे याद है में छह या सात साल का था, जब मैंने चित्र बनाने शुरू किए। घर में एक कैमरा होता था, उससे फ़ोटो खींचना, और कुछ ही साल बाद मैंने फ़ोटो धुलना-डेवलप करना सीख लिया था। अब तो हँसी आती है कि मैं ट्रैक्टर की हेडलाइट से प्रिंट बनाता था। कैमरे को खोलकर बना देता था। एनलार्जमेंट भी सीखा। मैं तब कविता भी लिखता था। पिता मेरे काफ़ी पढ़ते थे। लगभग सभी किताबें। ‘ज्ञानोदय’, ‘कल्पना’, ‘प्रतीक’, ‘धर्मयुग’, ‘पराग’, ‘चंदामामा’, ‘नवनीत’ …कई पत्रिकाएँ तो बंद हो गईं, वे भी आती थीं। पिता लिखते भी थे। वह कभी ब्रज में लिखते तो कभी अवधी या खड़ी बोली में। वह गाते बहुत अच्छा थे। उनको बच्चन की बहुत सी कविताएँ याद थीं। ‘अंधा युग’ उन्हें बहुत पसंद था। मैं शायद 15 साल का था, जब धर्मवीर भारती का पत्र आया था उनके पास। मेरे मन में शुरू से चित्रकार या लेखक बनने की इच्छा थी। मैं इसके अलावा कुछ सोचता ही नहीं था। ये मेरे सपने थे। मैं कुछ और नहीं होना चाहता था।

लिखना किस उम्र में शुरू किया और पहली बार अपने लेखन को ख़ुद गंभीरता से कब लिया?

बहुत सी कविताएँ मैंने बचपन में लिखीं और मेरी बहन जो मुझसे दो-ढाई साल छोटी है, उसे याद हैं। अब वह सुनाती है तो मुझे हँसी भी आती है। लेकिन उन कविताओं में कुछ तो था। मैं जब बहुत छोटा था तो मेरी बुआ ‘रामचरितमानस’ बहुत अच्छा पढ़ती थीं। चौपाइयों और दोहों-सोरठों को पढ़ने की उनकी लय बहुत अलग तरह की थी। मैंने वैसा कभी दुबारा नहीं सुना। वह बहुत अच्छा गाकर पढ़ती थीं। गाँवों पर आल्हा तो बरसात से शुरू हो जाता था। हमारे यहाँ एक रमैया कहार था। जहाँ पहला पानी बरसा तो ‘खट खट खट तेहगा बोले रण माँ छपक-छपक तलवार…’ वह शुरू हो जाता था।

एक तरह से देखें तो बहुत मिली-जुली चीज़ें, पत्रिकाओं की कहानियों, किताबें, आल्हा, ‘जयद्रथ वध’, ‘रामचरितमानस’, ‘महाभारत’ इन सबको मिलाकर जो संस्कार मिले तो पहली लंबी कविता ‘सती प्रसंग’ लिखी। तब मेरी उम्र 16-17 साल की थी। मैंने हरिगीतिका छंद में लिखा, जिसमें ‘जयद्रथ वध’ लिखा गया था। लोगों को यक़ीन नहीं आया कि इसे मैंने ही लिखा। मैंने तीन-चार जगह से सती की कहानी को मिलाकर उसे तैयार किया था। मेरी माँ तो तब तक मर चुकी थीं, मगर मेरी बुआ उसे सुनकर रोने लगी थीं। तब मुझे लगा कि कविता रुला सकती है। कहानी मैंने तब लिखी जब मैं कॉलेज में था फ़र्स्ट ईयर में। कहानी लिखने का कोई शौक़ या इच्छा नहीं थी। मैंने कहानी लिखी ‘बिजली का बल्ब और मौत का फ़ासला’। उस वक़्त तक माँ गुज़र गई थीं। पिता जीवित थे, लेकिन अल्कोहलिक हो गए थे, पैसे की बड़ी तंगी थी। उस कहानी का जो पात्र है—वह कॉलेज में पढ़ रहा है, उसके पास पैसे नहीं हैं, जो ईश्वरचंद्र विद्यासागर की तरह बिजली के पोल के नीचे पढ़ता है। उसकी परीक्षा से पहले की रात में बल्ब हवा से बुझ जाता है। वह उसे ठीक करने ऊपर चढ़ता है और करंट से मर जाता है। उसकी किताबों के पन्ने खुले हुए रहते हैं। जब कहानी कॉलेज की पत्रिका में छपी तो हमारे विभागाध्यक्ष गोपाल भटनागर ने उसे सराहते हुए कहानी के साथ एक पृष्ठ का लेख भी लिखा। कहानी बहुत लोकप्रिय हुई। उसने बहुत दोस्त बनाए। इससे यह विश्वास पैदा हुआ कि कहानी बहुत लोगों तक ले जाती है और बहुत लोग पढ़ते हैं। ईश्वर की ऐसी कुछ कृपा रही कि पाठक मुझे हमेशा मिले, नए-नए दोस्त मिले और बनते चले गए। उस कहानी को पढ़कर बने मेरे कुछ दोस्त आज तक भी हैं। इस तरह हर कहानी ने दोस्त भी दिए और दुश्मन भी।

उस दौर में बाक़ी जो लोग हिंदी में लिख रहे थे, तो वे कौन थे जिन्हें आप पसंद करते थे?

‘ईश्वर की आँख’ जिन्हें मैंने समर्पित की हैं, वह हैं—मोहन श्रीवास्तव! माँ की मृत्यु के बाद मेरी उम्र लगभग 12 या 13 साल की थी, मोहन श्रीवास्तव हायर सेकेंडरी में अध्यापक थे। वह लगभग संत की तरह थे। उन्हें पता नहीं कैसे मेरे प्रति गहरी सहानुभूति हो गई। उन्हें यह भी पता चल गया कि इनके पिता अल्कोहलिक हो गए हैं और लगभग यह अनाथ है। उन्होंने मुझे माता-पिता दोनों का स्नेह दिया और मैं तो लगभग उन्हीं के कारण पढ़ पाया। वह ख़ुद भी बहुत अच्छे कवि थे और अकविता के दौर के बहुत अच्छे कवि थे। उस समय पत्रिकाएँ ‘लहर’, ‘त्रिज्या’, ‘कृति’, ‘परिचय’ निकल रही थीं। कुमारेंद्र पारसनाथ सिंह, धूमिल, राजकमल चौधरी लिख रहे थे। एलेन गिन्सबर्ग उन दिनों आए हुए थे। यह जो पूरा दौर था जब अज्ञेय की नई कविता का प्रभामंडल टूट रहा था, उसका आभिजात्य टूट रहा था।

क्या उस दौर में नई कहानी के लेखक सामने आ चुके थे?

नई कहानी की रचनाओं को मैं पढ़ रहा था। ‘चीफ़ की दावत’ मैंने पढ़ी थी। भीष्म साहनी, अमरकांत, ज्ञानरंजन, काशीनाथ सिंह की रचनाओं से मैं परिचित था। लेकिन मैं मूलतः कवि हूँ और मैं कविताओं से ही ज़्यादा जुड़ा रहता था। मुझे कुमारेंद्र पारसनाथ सिंह की रचनाएँ बहुत पसंद थीं। एक कवि जिसकी आज भी चर्चा नहीं है, बहुत कम चर्चा है। मणि मधुकर की चर्चा कोई नहीं करता। लेकिन उन्होंने विलक्षण कविताएँ लिखीं। मुझे ‘कल्पना’ में छपी उनकी कविताएँ ‘खंड-खंड पाखंड’ और ‘पुनः पशुलोक’ बहुत पसंद थीं। इनमें अकविता की अराजकता भी नहीं थी और यह नई कविता से बिल्कुल अलग थीं। यह एक ग्राउंड तैयार किया। उसके बाद धूमिल की ‘पटकथा’ और राजकमल चौधरी की ‘मुक्ति-प्रसंग’ भी आईं। उनकी कहानियाँ भी आ रही थीं। उस समय धर्मवीर भारती की रचनाएँ पढ़ीं। यही वह दौर था जब उनका लिखा सब कुछ पढ़ा—‘कनुप्रिया’, ‘अंधायुग’, ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’ पढ़ा। विमल मित्र को पढ़ा। लेकिन सबसे ज़्यादा प्रभाव दोस्तोयेवस्की का पड़ा।

क्या वह समय राजनीतिक और वैचारिक रूप से भी आपको कहीं उद्वेलित कर रहा था?

मोहन श्रीवास्तव लेफ़्ट थे। बाद में प्रगतिशील लेखक संघ, मध्य प्रदेश के उपाध्यक्ष भी रहे। उन्हीं के कारण मैं भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में भी शामिल हुआ। ए.आई.एस.एफ़. का मैं अपने ज़िले में फ़ाउंडर हूँ। मैंने उसे स्थापित किया, छात्र और अध्यापक जीवन में सक्रिय रहा। वह दौर बहुत सोचने-समझने का था। मेरी डायरी 1970-71 की है, उस डायरी का पहला पन्ना खोलें। उन दिनों मैं कॉलेज में था। उस समय चे ग्वेरा का एक मित्र एल पटागो नाम का कवि था। उसकी मृत्यु हो गई तो उसकी समाधि पर उसी की एक कविता चे ग्वेरा ने खड़े होकर लिखवाई थी। उस कविता से वह शुरू होती है डायरी। 17 साल की उम्र में मैं चे ग्वेरा और पूरे लैटिन अमेरिकी मूवमेंट को जानता था। उसकी वजह भी थी।

हमारे गाँव के पास 11 किलोमीटर दूर तक जमड़ी नाम का गाँव था, जहाँ पर विभूति कुमार आ गए थे, जो ख़ुद को गांधीवादी कहते थे, बाद में स्वीडन चले गए। उनके साथ विदेशियों का एक पूरा ग्रुप आया। उन्होंने ‘इंटरनेशनल ग्रुप ऑफ़ नॉन वायलेंस’ के नाम से गाँव में एक संस्था बनाई। उनकी सोच थी कि वे अपने परिश्रम से वहाँ सब कुछ उपजाएँगे और उससे आत्मनिर्भरता और अहिंसा को प्रयोग में लाएँगे। उनके साथ मार्क पोलिस नाम के एक अमेरिकी लड़के से मेरी दोस्ती हो गई। मैं 17 साल का था और वह 20-21 का रहा होगा। वह गिटार बहुत अच्छा बजाता था। उसके पास चे ग्वेरा की किताब ‘हम होंगे कामयाब’ थी। वह किताब मैं पूरी पढ़ गया, और उसकी बहादुरी से बहुत प्रभावित हुआ।

जब मैं सागर आया था, तो शिव कुमार मिश्र वहाँ प्रोफ़ेसर थे। उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ कि यह लड़का गाँव से आया है और चे ग्वेरा के बारे में बातें कर रहा है। वह बहुत ख़ुश हुए, उन्होंने मुझे एक पूरी फ़ाइल निकालकर दी, जिसे रमेश कुंतल मेघ ने तैयार किया था। वह शिव कुमार मिश्र के सगे भाई हैं। मुझे वह फ़ाइल पाकर बड़ी ख़ुशी हई। उसमें चे ग्वेरा से संबंधित तमाम ख़बरें और लेख थे। वह न्यूज़ भी थी, जिसमें चे ग्वेरा को मारा गया था। अभी बाद में जब मैं मुंबई में सुधीर मिश्र से मिलने गया, तब तक उनकी फ़िल्म ‘हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी’ नहीं आई थी, वह उसे बनाने वाले थे। सुधीर भी सागर में थे और वह हम लोगों के समकालीन हैं। उनके फ़्लैट में चे ग्वेरा का बहुत बड़ा पोस्टर लगा था। एक पूरी पीढ़ी थी जिसे चे ने बहुत प्रेरित किया था। प्रेरित इसलिए किया था कि देखिए एक बात मैं बताऊँ आपको, हो सकता है कि हम चे के तरीक़े से गुरिल्लावाद से सहमत न हों, लेकिन एक ऐसी चीज़ थी कि जो आदमी जब क्यूबा में क्रांति सफल हो गई और फ़िदेल कास्त्रो अध्यक्ष हो गए तो वह नंबर दो था, यानी फ़िदेल के बाद दूसरा व्यक्ति चे ग्वेरा था और वहाँ का एजुकेशन मिनिस्टर था। उस पद पर पहुँचने के बाद कोई रिज़ाइन कर दे, छोड़ दे, और फिर से बंदूक़ उठाकर जंगल में चला जाए कि ‘आई एम प्रोफ़ेशनल रिवोल्यूशनरी’ और दूसरी जगह क्रांति करने चला जाए—कोलंबिया चला जाए, निकारगुआ चला जाए। यह क्वॉलिटी शायद अपने यहाँ जेपी (जयप्रकाश नारायण) में रही है। वह लगभग डिप्टी प्राइम मिनिस्टर नेहरू के समय में बन जाते और उन्होंने कहा कि नहीं, मुझे नहीं बनना है। मुझे लगता है, यह नो कहना आज के लोगों में बहुत कम है।

माफ़ करें, आप दोस्तोयेवस्की का ज़िक्र कर रहे थे? वह बात अधूरी रह गई।

हाँ, तो मोहन श्रीवास्तव ने मुझे दो किताबें दीं। उन्होंने कहा, तुम इसे ज़रूर पढ़ो। तुम कविता तो लिखते हो—उपन्यास भी लिखने की कोशिश करो। वैसे (हँसकर) आज तक में कोई उपन्यास नहीं लिख सका। तो उन्होंने मुझे दोस्तोयेवस्की की ‘जुर्म और सज़ा’ तथा ‘महामूर्ख’ उपन्यास दिए। यह श्री और श्रीमती विजय चौहान का किया अनुवाद था। यह बहुत अच्छा अनुवाद था। मैं पढ़ गया था ‘जुर्म और सज़ा’। हमारे यहाँ तो तब बिजली भी नहीं होती थी। लालटेन थी। खलिहान में बाहर उपन्यास रात को तीन बजे तक पढ़ते रहते थे। उसके लिए डाँट भी पड़ती थी। इस तरह से किताबें पढ़ी गईं। शायद ‘जुर्म और सज़ा’ पढ़ने के बाद—मेरे बड़े भाई हैं, उनका आज भी साहित्य से कोई लेना-देना नहीं है, बिल्कुल अलग मिज़ाज वाले। मैंने कहा कि इस उपन्यास को पढ़ो। मैं उस उपन्यास को पढ़कर इतना ख़ुश हुआ था कि मुझे लगा कि इस ख़ुशी को किसी के साथ शेयर करना चाहिए। उन्होंने जो पढ़ना शुरू किया तो वह भी उसे पूरा पढ़ गए, तो उस गाँव में हम दोनों भाइयों के बीच संवाद ‘जुर्म और सज़ा’ को लेकर हुआ। तो लेखक ऐसे पहुँचता है सुदूर गाँवों में।

और इसी तरह से मैंने ‘राग दरबारी’ पढ़ी, इससे भी मैं बहुत प्रभावित हुआ। इतनी हँसी आती थी, पढ़ते हुए, लगता था हमारे आस-पास का ही सारा माहौल है। आज भी वह एक माइलस्टोन है। उस तरह का गद्य जो रेणु से बिल्कुल भिन्न और हिंदी की परंपरा से भी अलग है। रेणु की ‘मैला आँचल’ और ‘परती परिकथा’ ने बहुत प्रभावित किया। उपन्यास बहुत पढ़े—‘आधा गाँव’, ‘टोपी शुक्ला’, ‘बलचनमा’, ‘वरुण के बेटे’। फिर टैगोर और शरतचंद्र को बहुत पढ़ा। पिता जी इलाहाबाद जाते थे तो बंडल के बंडल उपन्यास लाते थे जासूसी उपन्यास पढ़ने का भी शौक़ लगा। ओमप्रकाश शर्मा, प्यारेलाल कुशवाहा, इब्ने सफ़ी, वेद प्रकाश कांबोज को भी पढ़ा। मुझे उपनिषदों ने बहुत प्रभावित किया। मैं बचपन में एक बार तपस्या करने भाग गया था। बचपन में मैं सोचता था कि कृष्ण आते हैं और एक बार एक चरवाहे को मान लिया था कि वह कृष्ण हैं और मैं छिपकर उन्हें देखता था। एक कल्पना-लोक में रहता था और यक़ीन मानिए दिनेश, मुझे अभी भी लगता है कि कोई भी लेखक यथार्थ में तो रहता ही रहता है, लेकिन उसका बहुत बड़ा जीवन-स्वप्न और कल्पना में रहता है और यथार्थ की जो अपूर्णताएँ हैं, उनको वह कहीं न कहीं अपने स्वप्न में पूरा करता है। तो ड्रीम कहीं क्रिएटिविटी के बहुत क़रीब है। स्मृति के बिना, स्वप्न के बिना, कल्पना के बिना शायद कोई सोशल साइंस पढ़ करके लिख लेगा।

और शायद वह स्वप्न भी यथार्थ का दूसरा पहलू बनकर सामने आता है।

बिल्कुल, बिना उस ड्रीम और इमेजिनेशन के वह पूरा हो ही नहीं सकता है और मेरी जो शिकायत है, देखिए एक तो हिंदी में कोई आलोचक है ही नहीं। लेनिन का जो आर्टिकल है, एबाउट स्लीपिंग प्रिंसेस—सिंड्रेला के बारे में—उसकी व्याख्या लेनिन ने क्या की है, कोई भी क्रांति बिना स्वप्न के हो नहीं सकती। आज बताइए पाश की सबसे ज़्यादा मशहूर पंक्तियाँ कौन-सी हैं—’सबसे ख़तरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना’। कौन आलोचक सपनों को समझता जानता है। देखिए साहित्य को सिर्फ़ आचार्य शुक्ल और कुछ अकादमिक आलोचकों को पढ़कर नहीं समझा जा सकता। ख़ुद आचार्य शुक्ल बहुत बड़े फ़ेल्योर थे। वह कबीर को नहीं समझ पाए, जायसी को नहीं समझ पाए तो किसको समझ पाए। आपने काव्यशास्त्र की कुछ थ्योरीज़ को रख दिया। जिसे वह वीरगाथा काल कहते हैं, हजारीप्रसाद द्विवेदी ने जिसका बाद में खंडन किया। आलोचक के बारे में चेखव का कहना सही था कि वह घोड़े की पीठ के घाव पर बैठी मक्खी होता है।

बाक़ी जो कला विधाएँ हैं, उनका आपकी रचनात्मकता में क्या दख़ल रहा है, ख़ास तौर पर सिनेमा में आपकी दिलचस्पी को यदि देखें?

सिनेमा मैंने बहुत बाद में देखना शुरू किया। शायद 62-63 में। यह भी मैंने इलाहाबाद में देखा। मेरा ननिहाल इलाहाबाद में था। हमारे आस-पास में टॉकीज़ नहीं थे। इलाहाबाद में पहली फ़िल्म देखी ‘कोहिनूर’, फिर ‘अनाड़ी’, ‘वो कौन थी’, ‘फिर वही दिल लाया हूँ’ इस तरह की फ़िल्में, असली-नक़ली। ऐसी फ़िल्में भी देखीं, जिनमें महीपाल की तलवारबाज़ी होती थी, सती-सावित्री जैसी फ़िल्में उसका बहुत गहरा असर पड़ा। मैंने ‘देवदास’ भी देखी बरुआ वाली और उसे देखकर डेढ़-दो महीने मैंने ख़ुद को ‘देवदास’ मान लिया। एक ग्राम-सेविका की बेटी पुष्पा, मैं 12-13 और वह 8-9 साल की थी। दरअस्ल, बच्चों में भी अपोज़िट सेक्स के प्रति फ़ीलिंग होती है, और प्रेम भी होता है। यह क़रीब-क़रीब वैसा ही प्रेम होता है, जैसा कि बड़ों में। ‘छतरियाँ…’ में मैंने उस अनुभव को कहानी में लाने का प्रयास किया, मगर हमारे हिंदी समाज में उसका भी बहुत विरोध हुआ। शायद यही वजह है कि बहुत कंज़रवेटिव सोसाइटी में रहकर आप बहुत अच्छी रचना नहीं दे सकते। आप ख़ुद को सेंसर करने लगते हैं।

हिंदी में क्यों नहीं कोई तोलस्तोय या जार्ज लूकाच या वॉल्टर बेंजामिन हुआ। क्यों यहाँ अफ़सरों की दलाली और जोड़-तोड़ करने वाले आलोचक ही पैदा हुए। जो पूरा समर्पण है, जिसे ‘इंटेलेक्चुअल ऑनेस्टी’ कहते हैं, एक बड़ी ईमानदारी की माँग करता है, जैसे अच्छी रचना ईमानदारी की माँग करती है, अपने अनुशासन को आप मूर्ख नहीं बना सकते। आप फ़िज़िक्स में आर्किटेक्चर के सिद्धांत नहीं ला सकते। यहाँ पर यह खेल बहुत हुआ, उसका असर भी पड़ा। वैसे मैं चाहता हूँ कि पचपन की स्मृतियों को खोलूँ। देखिए, हर लेखक के साथ हुआ कि जब वह बूढ़ा हो गया और तब कहीं उसके अंदर हिम्मत आई है बचपन की स्मृतियों पर लिखने के बारे में। मार्केज ने अब लिया है ‘लिविंग टु टेल द टेल’, या नेरूदा ने लगभग बुढ़ापे में, नज़रबंदी के दौरान में ‘मेमायर्स’ लिखा और उसका सबसे अहम हिस्सा उनके बचपन वाला है। आप चैप्लिन की बायोग्राफ़ी या लुई बुनएल की बायोग्राफ़ी पढ़िए तो सबसे अहम हिस्सा बचपन का है।

फ़िल्मों ने आपकी रचनात्मकता पर भी कोई प्रभाव डाला? बड़े होने पर किन निर्देशकों ने आपको प्रभावित किया?

फ़िल्म का असर तो है, फ़िल्में मुझे उतना देखने का अवसर नहीं मिला। देखिए, मैं ख़ुद फ़िल्ममेकर हुआ, बहुत सारी पटकथाएँ लिखनी पड़ीं आजीविका के लिए भी। कुछ फ़िल्में बनाई भीं। पहली पटकथा मैंने अपनी ही कहानी ‘हीरालाल का भूत’ पर लिखी, ‘उपरांत’ के नाम से। उस पर बड़ी मेहनत की। मैंने जे.एन.यू. में फ़िल्म एप्रीसिएशन कोर्स भी किया—एफ़.टी.आई.आई. के सतीश बहादुर के साथ। ‘पाथेर पांचाली’, ‘बाइसिकिल थीव्स’ आदि देखीं। मुझे पॉसोलिनी की डॉक्यूमेंट्रीज़ ने बहुत प्रभावित किया, फ़िक्शन में तो उनका कम काम है। मुझे तार्कोव्स्की ने बहुत प्रभावित किया। आंद्रे वाज्दा को मैं बहुत पसंद करता हूँ। गुरुदत्त अपनी भावुकता में भी पसंद है। शायद न्यू रोमांटिक्स की फ़िलिंग हर रचनाकार में होती है। कैंपबेल ने कहा है कि उत्तर आधुनिकता की जेनेसिस में नियो रोमैंटिसिज़्म है। दिलचस्प बात यह है कि हमेशा मीडियॉकर और कंज़र्वेटिव नई चीज़ को अस्वीकार करते हैं। कैमरा जब आया था, तो आप वॉल्टर बैंजामिन को पढ़िए—‘ऑन फ़ोटोग्राफ़ी’—तो कैमरे का बड़ा विरोध हुआ था, (हँसते हुए) इतना टेलीविज़न का क्या हुआ होगा जितना कैमरे का विरोध किया गया। यह सब नष्ट कर देगा, ख़त्म कर देगा, चित्रकार तो आख़िर चित्रकार है। लेकिन कैमरे का प्रमाव पड़ा, कैमरा न होता तो साहित्य और कला में नेचुरलिज़्म नहीं होता। कैमरे ने यथार्थ को हूबहू रजिस्टर करना शुरू किया तो लोगों को लगा कि साहित्य में भी यह काम हो सकता है। जो दिख रहा है, उस छवि को रजिस्टर करें। रेडियो पर ब्रेष्ट का मशहूर लेख है, उसे आज भी पढ़कर मज़ा आता है। उसने कहा कि यह रेडियो तो सबको कान बनाकर छोड़ देगा। मनुष्य कान रह जाएँगे।

फ्रेडरिक जेम्सन वग़ैरह ने कंप्यूटर पर लिखा। अब आप बताइए कि कंप्यूटर से नॉलेज की फ़ील्ड में सबसे ज़्यादा प्रभाव क्या पड़ा? इसने रट्टेबाज़ों की हवा ख़राब कर दी। वे लोग जो रट्टा मारने के बल पर विद्वान बनते थे। अब तो विपुल सामग्री एक छोटे से चिप में समा जाती है, तो यह लगा कि यह आदमी तो माइक्रोचिप से भी छोटा है। मैं आपको एक छोटी-सी कहानी सुनाता हूँ : बुद्ध को एक बार नदी पार करनी थी। वह अपने शिष्य के साथ नाव के इंतज़ार में खड़े थे। बाढ़ आई हुई थी। एक साधु नदी को छपछपाता हुआ चला गया। उनके शिष्य का मोहभंग होने लगा। उसने यह बात बुद्ध से कही। बुद्ध ने पूछा कि नाव से नदी पार करने का मोल कितना है? उसने बताया—एक टका। तो बुद्ध ने कहा कि उस साधु का जो सारा करिश्मा है, उसकी क़ीमत एक टके की है। उन विद्वानों के करिश्मे की क़ीमत भी एक टके की थी। किसी को आचार्य शुक्ल के उद्धरण याद हैं तो किसी को पृथ्वीराज रासो याद है।

क्या इंटरनेट के आने से ऐसा नहीं हुआ कि इसने ज्ञान को सुलभ और सबकी पहुँच में ला दिया, जबकि पहले यह विशेषाधिकार प्राप्त लोगों तक ही सीमित था?

बिल्कुल, आपने यह बहुत बड़ी बात कही। जो काम प्रिंट में किया था, जब प्रिंट आया था तो उस दौर में एक मशहूर कार्टून था, जिसकी चर्चा हिस्ट्री ऑफ़ प्रिंटिंग टेक्नोलॉजी में होती है। उस समय चर्च का राज्य था। कुछ भी वैसा लिखना जो क्रिश्चिनिएटी के निर्धारित कोर्स के बाहर जाना ब्लासफ़ेमी थी, दंड हो सकता था। प्रिंट ने क्या किया कि उस किताब और भाषा को सबको दे दिया। कार्टून में ये है कि चर्च के सामने एक आदमी हाथ में किताब लेकर खड़ा है और कह रहा है कि तुम्हारी दादागीरी नहीं चलेगी। तो उस पूरे साम्राज्य के ख़िलाफ़ यह चुनौती बनकर खड़ा हुआ। इंटरनेट और कंप्यूटर ने ठीक यही किया है। इसने नॉलेज और इंफ़ॉरमेशन को पूरी दुनिया के स्तर पर खोल दिया। इसका दूसरा जो बहुत अहम पहलू है, जिसे कमी हमें नहीं भूलना चाहिए—कि नॉलेज का वितरण दरअस्ल सत्ता का भी वितरण है जिसके पास सूचना जाती है, वह इम्पावर्ड होता है, जिसके पास ज्ञान जाता है, उसके पास सत्ता जाती है।

यही बात है कि इंटरनेट ने ज्ञान पर एकाधिकार को तोड़ा और उसे सुलभ बनाया, सुलभ इस मायने में कि यदि कोई चाहे तो उस तक पहुँच सकता है।

बिल्कुल, इससे आप ऐसी सारी जानकारियाँ ले सकते हैं जो लाइब्रेरी में महीनों लगाने पर मिलती हैं। मैं तो कई बार ऐसा सोचा करता हूँ दिनेश जी, पहले लोग कहते थे कि भाववाद और भौतिकवाद में विभाजन कर दिया। यह दरअस्ल जो कंडीशनिंग है माइंड की—गुड-बैड, रात-दिन, और सत-असत। भाववाद में हीगेल हो गए और भौतिकवाद में मार्क्स। तो पूरा थॉट सिस्टम डिवाइड कर दिया, जबकि आप ध्यान से देखें कि महर्षि अरविंद जैसे लोग कहते रहें कि जो ग्रोथ है, यह मैटेरियल टू एब्सट्रैक्शन है। मनुष्य के ज्ञान का जो विकास है, वह पदार्थ पर निर्भरता से मुक्ति के सतत प्रयास की खोज है। हमारी मैटर के प्रति जो निर्भरता है—हम उससे लगातार स्वतंत्र होते जाएँ—इसी के प्रयत्न में सारे ज्ञान का विकास हुआ है, तो उन्होंने यह प्रॉफ़ेटिक भविष्यवाणी की थी—उस समय तक टेलीप्रिंटर आ गया था। उन्होंने कहा था कि एक दिन ऐसा आएगा कि अपनी आवाज़ को यहाँ से वहाँ तक पहुँचाने के लिए हमें इतने हज़ार करोड़ टन ताँबे की ज़रूरत नहीं पड़ेगी, जो उस तार में लगता था।

देखिए, आज आवाज़ पहुँचाने के लिए ज़रूरी ताँबा ग़ायब हो गया। आज मैटर घटता जा रहा है। इस टेक्नोलॉजी ने, इलेक्ट्रॉनिक्स ने, वर्चुअल वर्ल्ड ने, कंप्यूटर ने, नेट ने यह कर दिया कि जो हज़ारों-लाखों हेक्टेयर जंगल कटता था, लुगदी, बनती थी, काग़ज़ कटता था, बड़े-बड़े प्रिटिंग प्रेस खड़े होते थे—इसकी निर्भरता को ख़त्म कर दिया। बाइंडर, कटर और प्रिंटिंग मशीन का एक पूरा इतिहास है। अभी भी आप देखें, कहते हैं कि बोइंग बनाने का जितना वज़न है, उससे पाँच सौ गुना ज़्यादा वज़न इस पर लिखित सामग्री का है। आज आप किताब बिना किसी भौतिक सामग्री के पढ़ते हैं। आप जानते हैं कि मूविंग इमेजेज़ को ‘सेव’ कर सकते हैं, कहाँ? वर्चुलिटी में। यानी कहीं नहीं। उसे कभी भी दे सकते हैं। यह कोई मैजिक नहीं है। यह रेशनल साइंस ने आपको दिया है।

प्लेखानोव को आप पढ़ें—‘ओरिजिन ऑफ़ आर्ट्स’, तो उसका कहना है कि पहली कला जादू है। कलाओं का उद्देश्य है, जादू की ओर जाना। आज आप देखें तो जो दंतकथाएँ थीं, महाकाव्यों की जो कल्पनाएँ थीं—कोई हवा में उड़ रहा है या कमंडल में समुद्र पी रहा है, कुछ बंदर पुल बना रहे हैं, आज पत्थर पानी में तैर रहे हैं या एक औरत आदमी को मक्खी या बैल बना रही है, आज वह आपके सामने हो रहा है। इट्स हैप्निंग ऑन योर स्क्रीन। ‘द लॉर्ड ऑफ़ द रिंग्स’ क्यों इतनी पॉपुलर हुई। इस फ़िल्म ने रिकॉर्ड तोड़े हैं। मुझे याद है कि एक फ़िल्म आई थी, ‘हू फ़्रैम्ड द रोज़र रैपिड’। उसमें पहली बार था कि एक वर्चुअल इमेज, एक कॉमिक ख़रगोश रोज़र रियल लोगों के साथ इंटरएक्ट करता है, उनके साथ डाइनिंग टेबल पर बैठकर खाता है। तब किसी ने नहीं सोचा था कि ‘जुरासिक पार्क’ जैसी फ़िल्में बन जाएँगी, वही तकनीकी आपके वास्तविक इतिहास और पूर्व इतिहास में जो लुप्त हो चुका समय है—उसके पशु-पक्षी को दुबारा जीवित करके सामने दिखाएगा। हमारे तीसरी दुनिया के देश ख़ास तौर पर जो बहुत प्राचीन सभ्यता वाले देश हैं, जिनमें इराक़—मेसोपोटामिया, इजिप्ट, भारत और चीन जैसे देश हैं, उनके साथ एक प्रॉब्लम रही है कि वे बहुत कंज़र्वेटिव रहे हैं। वे टेक्नोलॉजी की ग्रोथ का विरोध करते हैं। वे टेक्नोलॉजी के सभी लाभ लेंगे, लेकिन यदि बात करें तो उनका विरोध पग-पग पर ज़ाहिर होगा। आप कहें कि एनीमेशन आ गया—‘द लॉर्ड ऑफ़ द रिंग्स’ आ गया, ‘जुरासिक पार्क’ आ गया, हिंदी में बहुत लोकप्रिय हनुमान आ गया। आप कहें कि इसका असर साहित्य पर नहीं होगा, साहित्य तो गोपालराम गहमरी की परंपरा में ही चलेगा या प्रेमचंद जैसा रहेगा। वैसे प्रेमचंद इस दौर में होते तो इतने दक़ियानूस न होते, जैसा आज उन्हें बनाने की कोशिश चल रही है।

पुनः आपकी कहानियों की चर्चा पर आते हैं। आपने अपनी ख़ुद की एक शैली डेवलप की, जो आपने शैली क्रमशः बनाई, फ़ैंटेसी के तत्त्व, जादुई यथार्थवाद, मेलोड्रामा, तो यह कैसे संभव हुआ? तो क्या यह बाहर के जटिल यथार्थ को पकड़ने की कोशिश में हुआ?

मैं एक तो ख़ुद यह अस्वीकार करता हूँ कि मेरी कोई शैली कभी रही है। वैसे भी अगर आप ध्यान से पढ़ेंगे, आप मेरी छोटी कहानियाँ पढ़ें, उनका काफ़ी अनुवाद हुआ, बहुत सराही गईं, लंबी कहानियों को भी कंपेयर करें, तो शैली या स्टाइल कहें तो एक-सी नहीं है। यह जो पूरा ‘रशियन स्कूल ऑफ़ फ़ॉर्मलिज़्म’ है, तो शुरू में यह भी झगड़ा चला, साहब कंटेट ये होता है, फ़ॉर्म ये होता है। सारे मार्क्सवादी कंटेटवाले और सारे कलावादी फ़ॉर्मलिस्ट थे। दरअस्ल जो आपके वास्तविक अनुभव हों, चाहे वह आपका निजी हो या आपके ऑब्ज़र्वेशन से उपजा हो, लेकिन जिसे आपने इंटरनॉलिज कर दिया हो, आभ्यंतरीकृत कर दिया।

‘आभ्यंतरीकरण’ शब्द मुक्तिबोध का दिया हुआ है। मुक्तिबोध कला के तीन क्षण मानते हैं। पहला तीव्र अनुभव का क्षण है। दूसरा क्षण आता है—जब आप उसको व्यक्त करना चाहते हैं। तो मेरा यह कहना है कि यदि सचमुच उसमें इतनी तीव्रता और सघनता है तो अपना फ़ॉर्म वह ख़ुद पाएगा, आपको उसको ठोक-पीट करके और हथौड़ा चलाकर किसी फ़ॉर्म में भरने की ज़रूरत नहीं है। यदि आप ऐसा करेंगे तो उस अनुभव को ही क्षतिग्रस्त कर बैठेंगे। मैं सचमुच नहीं जानता कि कहानी जो मैं लिखने जा रहा हूँ, कितनी लंबी हो जाएगी, मैंने ‘और अंत में प्रार्थना’ लिखी तो कभी नहीं सोचा कि यह एक छोटे उपन्यास जितनी लंबी हो जाएगी, ‘वारेन हेस्टिंग्स का साँड़’ के साथ भी ऐसा हुआ। सबसे दिलचस्प ‘पीली छतरी वाली लड़की’ के साथ हुआ। तो जैसा बाल्ज़ाक कहता था—कोई अनुभव, स्वप्न या आइडिया आपसे कहानी शुरू करा देता है। कभी-कभी कोई एक वाक्य होता है। हो सकता है कि वह वाक्य अंत का हो या शुरू का। कई बार अंतिम वाक्य तक पहुँचने के लिए आपको सैकड़ों पन्ने लिखने पड़ते हैं, और हो सकता है कि आप उस वाक्य तक पहुँच भी न पाएँ। मुझे लगता है कि जो बहुत कैलिकुलेटिव, नापजोख कर, पेज बनाकर लिखते हैं—मैं शायद उनसे भिन्न हूँ।