हिंसा और बर्बरता के आवरण में प्रेम और सौंदर्य की कल्पना

जापान से आधिपत्य ख़त्म होने के बाद 50 के दशक में उत्तर और दक्षिण कोरिया के गठन और अलग-अलग सिनेमा उद्योग बनने के बाद आज दक्षिण कोरियाई सिनेमा उद्योग को सिनेमा के जानकार ‘हैल्युवुड’ के नाम से पुकारते हैं। हालाँकि 1945 के पहले भी सिनेमा लगातार यहाँ बन रहा था और इसका अस्तित्व 1900 के आस-पास ही पनपता है। फिर बाद में सिनेमा की दो धाराएँ नॉर्थ और साउथ कोरिया के रूप में बन गईं और अब नॉर्थ कोरिया के एक देश के रूप में भी अलग-थलग रहने के कारण भी वहाँ फ़िल्में कम ही बनती हैं या उनकी जानकारी कम ही मिलती है। कुछ सर्वेक्षण साल भर में वहाँ 60 से 80 फिल्मों के निर्माण की ही बात करते हैं। परंतु दक्षिण कोरिया का सिनेमा लगातार समृद्ध और विश्व सिनेमा पर अपनी छाप छोड़ता जा रहा है।

बीती सदी के अंतिम दशक में कोरियन सिनेमा में ‘न्यू वेव’ के निर्देशकों और फ़िल्मकारों की दृष्टि, कथानकों में नए प्रयोगों के साथ ही सामयिक मुद्दों पर फ़िल्में बनाने की रही। पार्क चान वुक, बॉन्ग जून हो, किम जी वून, ली चांग दोंग जैसे फ़िल्मकार लगातार विश्व सिनेमा पर ‘ओल्ड बॉय’, ‘वेंजन्स ट्राइलॉजी’ की फ़िल्में, ‘स्नोपियरसर’, ‘आई सॉ द डेविल’, ‘पोएट्री’, ‘पेंटेड फायर’, ‘माय सेसी गर्ल’ जैसी फ़िल्मों के ज़रिए अपनी उपस्थिति दर्शाते रहे हैं। विश्व सिनेमा पर यूरोपियन फ़िल्मों के प्रभाव जिनमें फ़्रेंच, इटैलियन, जर्मन आदि भाषाओं की फ़िल्मों के घटते-बढ़ते प्रभाव और हॉलीवुड के दबदबे के बाद/बावजूद कोरियन भाषा की फिल्मों के अपने दर्शक रहे हैं।

आज विश्व सिनेमा में कोरियन सिनेमा को नज़रअंदाज़ करना बहुत मुश्किल है। ‘डार्क’, ‘ब्लैक ह्यूमर’ और ‘नुआर’ (फिल्म विधा की तकनीक जहाँ गहरे/अँधेरे रंगों के प्रकाश, लो-की लाइटिंग, अवसाद, साउंड इफ़ेक्स् आदि के द्वारा रहस्य का प्रभाव पैदा होता है। अनुराग कश्यप, रामगोपाल वर्मा की कई फ़िल्में इस तकनीक पर आधारित रही हैं) और प्रेम संबंधों के साथ बदलते वैश्विक परिदृश्य में इंसानी जज़्बात और रहन-सहन जैसे विषय इन फ़िल्मों के केंद्र में रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ऑस्कर और कान जैसे समारोहों में पुरस्कृत ‘पैरासाइट’ और ‘बर्निंग’ जैसी फ़िल्मों ने अब कोरियन सिनेमा को पहचान के शिखर पर पहुँचा दिया है।

इसी बीच साउथ कोरिया के एक और फ़िल्मकार किम की डुक का ज़िक्र बेहद ज़रूरी है। साउथ कोरिया को विश्व स्तर की पहचान दिलाने वाले किम की डुक की फ़िल्में न केवल वहाँ की बल्कि विश्व सिनेमा की नायाब फ़िल्में हैं। हालाँकि किम के हिस्से हमेशा ‘आउटसाइडर’ का तमग़ा ही आया और कोरियन सिनेमा के फ़िल्मकारों के समूह में उनका नाम नहीं लिया जाता। वहीं किम की डुक भी अपने समवर्ती फ़िल्मकारों के समूह में ख़ुद को नहीं देखते थे।

किम की डुक का सिनेमा सही मायनों में और मुख्यत: वीभत्स रस का सिनेमा है। इस निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए दर्शक को किसी ख़ास सिनेमाई समझ की ज़रूरत नहीं। फ़िल्म शुरू होने के 15 से 20 मिनट में ही दर्शक अजीबोगरीब परिस्थितियों से गुज़रते हुए अपने आपको उन जगहों और दृश्यों में पाता है जिसकी शायद उसने कल्पना भी न की हो। या अपनी किसी भयावह मानसिक अवस्था में सोच-विचार को जिस विद्रूपता के पास लाकर छोड़ दिया हो, किम की डुक का सिनेमा वहाँ से शुरू होता है। पल भर में हतप्रभ हुआ दर्शक एक पल को वहीं जड़ या सुन्न हो सकता है कि आख़िरकार कला में ईमानदारी या नैतिकता का पाठ भी कोई चीज़ होती है या नहीं? लेकिन किम की डुक की यही ख़ासियत है और इसलिए अगर नक़ली या बनावटी नैतिकता में आपकी दिलचस्पी है तो उनकी फ़िल्में आपके लिए नहीं हैं।

मेरे ख़याल से किम की डुक लगभग शुरुआती 15-20 में हर फ़िल्म में एक डिस्क्लेमर की तरह दर्शकों से संवाद कर लेते हैं। क्योंकि यहाँ से आगे दर्शक के लिए एक भयावह दुनिया में जाने के सारे रास्ते खुल चुके होते हैं और वापसी का कोई रास्ता नहीं बचता। और भारतीय अर्थों में किम की डुक का सिनेमा धर्मराज युधिष्ठिर के नर्क देखने वाली कथा से गुज़रने की तरह है। यहाँ कोई ओढ़ी हुई नैतिकता नहीं। ‘सेक्स’, ‘वायलेंस’ और ‘मनी (मुद्रा)’ का भयावह मेल किम की डुक की फ़िल्मों में हर जगह मौजूद है। एक नज़र डालकर देखने पर मुझे तो विश्व सिनेमा में इस ‘कॉम्बिनेशन’ का दूसरा निर्देशक नज़र नहीं आता जिसका लगभग पूरा सिनेमा इस थीम के ही आस-पास हो। लेकिन अगर इस कथन तक किम की डुक के सिनेमा को कोई ‘पॉर्न’ मान ले तो उसे ठहरना होगा। क्योंकि यह तो केवल सतह है और किम की डुक के भीतर का विलक्षण फ़िल्मकार यहाँ से शुरू होता है और उस दुनिया की यात्रा पर ले जाता है जिसके ख़त्म होने के बाद आप भीतर से पूरी तरह हिल चुके होते हैं और जैसे अपने आप को किसी आईने में देख लेने के बाद शांत रस के ‘निर्वेद’ जैसे एहसास को महसूस कर रहे होते हैं। भयानक वीभत्सता को देख लेने के बाद भीतरी शांति की कल्पना भी बेमानी लगती है, लेकिन यही किम की डुक का सिनेमा है। दो बिल्कुल ही भिन्न ध्रुवों की यात्रा पर जिस तरह से किम की डुक का सिनेमा सफ़र करता है, वह ज़िंदगी को समझने के लिए बेहद ज़रूरी लगता है।

किम की डुक की लगभग हर फ़िल्म में सेक्स और हिंसा का अतिरेक है। लेकिन आश्चर्यजनक रूप से वह अपने सच के साथ मौजूद है। इंसानी मन में कितनी भयानक ग्रंथियाँ और विचार चल सकते हैं और किसी कला में, ख़ास तौर से सिनेमा में किस हद तक दिखाए जा सकते हैं; किम की डुक इसकी परवाह नहीं करते। उन्हें सिनेमा में भी पूरी सच्चाई के साथ हर बर्बरता, क्रूरता को दिखाना ही है। उनकी लगभग हर फ़िल्म का नायक मनुष्यता के क्रूरतम और घिनौने रूप में मौजूद है। लेकिन हद तो यह कि फ़िल्म की समाप्ति के ठीक पहले दर्शक इसी भयावह, जानवर से भी बदतर मनुष्य के प्रति करुणा के भाव से भर जाता है। वह चाहे उनकी पहली फ़िल्म ‘क्रोकोडाइल’ का मुख्य पात्र ‘क्रोकोडाइल’ हो, ‘बैड गाय’ का सनकी दलाल हान-गी, ‘द आइल’ की स्त्री पात्र बोट-मालकिन ही-जिन, ‘पिएता’ का वसूली करने वाला ली कांग-दो, ‘मोबियस’ की मुख्य स्त्री पात्र माँ… ये सारे किरदार अपने आप में ऐसी दुनिया का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिन्हें देखकर मनुष्य प्रजाति से ही घृणा हो जाए।

आमतौर पर प्रचलित कला और साहित्य में ऐसे पात्रों का चित्रण लगभग नहीं ही हुआ है। अगर वृहद रूप से हुआ भी है तो मेरी जानकारी नहीं। मनोवैज्ञानिक रूप से शायद पूरी तरह से सनकी या पागल। लेकिन आश्चर्यजनक रूप से उनकी क्रूरता एक पल पर यूँ पिघलती है कि ‘पोएटिक जस्टिस’ की आदर्श परिकल्पना के लिए तैयार बैठा दर्शक उन पात्रों के लिए सहानुभूति और भावनात्मक संवेदना महसूस करने लगता है। हैरत यह भी किम की डुक के भीतर का साहसी फ़िल्मकार अपनी हर फ़िल्म के लिए ऐसी दुनिया की कहानी चुनता है जिसके ये पात्र कम से कम या कोई संवाद नहीं बोलते। यह भी किम की डुक के अपने जीवन अनुभव से आया सच है जब किसी गहरी पीड़ा या चोट खाया किरदार विरोध का एक शब्द भी कहना नहीं चाहता। और जिसके लिए घृणा या घिनौनेपन की हद दरअस्ल ख़ुद पर ही असर नहीं करती और उसके लिए वह सामान्य प्रतिक्रिया है।

इसलिए ही तो ‘क्रोकोडायल’ का मुख्य पात्र जो एक अनाथ बच्चे और कचरा उठाने वाले बूढ़े के साथ हान नदी के किनारे रहता है, और जिसकी जीविका का मुख्य साधन नदी में कूदकर आत्महत्या करने वालों के पास से निकल सामान है, उसके मन में किसी जीवित व्यक्ति के प्रति संवेदना का क्या स्तर होगा! यही क्रोकोडायल आत्महत्या का प्रयास कर चुकी लड़की को बचाता है और फिर उसके शरीर को अपनी मर्ज़ी के साथ इस्तेमाल करता है। पर अंत तक आते-आते इसी क्रोकोडायल के मन में छिपा प्रेम बाहर आता है। ‘द आइल’ की ही-जिन एक ऐसी सुंदर दुनिया में रहती है जिसके पास बोट्स हैं। और उन्हें किराये पर देकर अपनी आजीविका चलाती है। आश्चर्य यह कि वह मूक है। और लगभग पूरी फ़िल्म में चाहे वेश्यावृत्ति हो या अपनी सनक और ज़िद में आकर मछ्ली से लेकर इंसानों का क़त्ल तक कर देने का वहशीपन, लेकिन उसकी आवाज़ का कंपन तक सुनाई नहीं देता। लेकिन फ़िल्म के अंत में उसकी चीख इस कहानी को उधेड़कर रख देती है।

‘बैड गाय’ का सनकी दलाल केवल इसलिए एक लड़की को वेश्यावृत्ति के धंधे में धकेल देता है, क्योंकि राह चलते छेड़ देने पर उस लड़की ने हान-गी नाम के इस दलाल को पुलिस से पकड़वाकर और उसकी ग़लत हरकत के विरोध में उस पर थूक दिया था। ‘पिएता’ का ली-कांग दो उधार दिये गए पैसे की वसूली करने वाला क्रूर आदमी है। जो पैसा वापस न कर पाने वालों के हाथ, पैर तक काट डालता है। ‘मोबियस’ की स्त्री पात्र माँ अपने पति के द्वारा की गई बेवफ़ाई से इतनी अधिक नृशंस हो जाती है कि अपने बेटे का जननांग काट देती है। उसकी जघन्यतम चाहना जैसे संपूर्ण पुरुष समाज और उसके अस्तित्व से बदला ले डालना है। और इसके भी एक कदम आगे ‘ह्यूमन, स्पेस, टाइम एंड ह्यूमन’ में ज़िंदा बचे रहने के लिए और भोजन के अभाव में एक जहाज में चले जा रहे लोग एक दूसरे का मांस खाने के विकल्प तक पहुँच चुके। किम हमेशा से हिंसा और दिमाग़ को विचलित करने वाली फ़िल्में बनाते हैं। उनकी यह फ़िल्म पिछली फ़िल्मों से एक क़दम आगे है जो इंसानी रिश्तों और संवेदनाओं के परे जाकर भय और घृणा का आवरण रचती है। अपने तमाम अर्थों में कोरियन परिवेश में गूँथी यह कहानियाँ और उनके ये किरदार वैश्विक ही हैं और दुनिया का प्रतिनिधित्व करते हैं। अपनी फ़िल्मों के विषय में ख़ुद किम का भी यही मानना रहा।

दरअस्ल, किम की डुक का सिनेमा उनकी ज़िंदगी के गहरे अर्थों से आया है और उनके साक्षात्कार सुनने और लगभग ऑटो-बायोग्राफिकल डॉक्यूमेंट्री-ड्रामा फ़िल्म ‘अरीरंग’ को देखने के बाद उनके सिनेमा को समझा जा सकता है। जिसके भीतर टूटन की गहरी पीड़ा है। नैराश्य से उबरने के बाद ख़ुद की तलाश के रास्ते आध्यात्मिकता तक की यात्रा है। और साहस के साथ अपने अच्छे-बुरे को स्वीकार कर मन की परतों में दबी वीभत्सता को स्वीकार कर सच तक पहुँच पाने का साहस भी है।

‘सनकी कला फ़िल्मों’ के निर्देशक के बतौर विश्व सिनेमा में पहचाने जाने वाले किम की डुक की फ़िल्में गहरे अध्यात्म, मनुष्य के भीतरी जज़्बातों के विस्फोट, प्रेम और जीवन तथा जीवन के रहस्यों के सवाल और उनकी चिंताओं से जुड़ी फ़िल्में हैं। ‘क्रोकोडाइल’, ‘वाइल्ड एनिमल्स’, ‘एड्रेस अननोन’, ‘द आइल’, ‘बैड गाय’, ‘द बो’, ‘समारीतान गर्ल’, ‘थ्री आयरन’, ‘स्प्रिंग, समर, फ़ॉल, विंटर… एंड स्प्रिंग’, ‘टाइम’, ‘पिएता’, ‘ह्यूमन, स्पेस, टाइम एंड ह्यूमन’ जैसी फ़िल्में स्लो पॉइज़न (धीमे ज़हर) की तरह हैं। उनकी सभी फिल्मों में ‘स्प्रिंग, समर, फ़ॉल, विंटर… एंड स्प्रिंग’ दृश्य और संपूर्ण प्रभाव के स्तर पर सिनेमा विधा की ‘मास्टरपीस’ मानी जाती है। हालाँकि पशु हिंसा, कथानक में ‘एडल्ट और बोल्डनेस’ तथा ‘डिस्टर्बिंग’ जैसे आरोप उनकी फ़िल्मों पर लगते रहे, परंतु विश्व स्तर के किसी भी फ़िल्म फ़ेस्टिवल में उनकी फ़िल्मों के प्रदर्शन हमेशा से चौंकाने वाले रहे हैं और समीक्षक तथा आलोचक उनकी फ़िल्मों को सम्मान की दृष्टि से देखते रहे हैं। फ़िल्मों में लोक संगीत, वाद्य और धुनों का इस्तेमाल, बौद्धिज़्म के तत्त्वों की व्याख्या, कमाल के दृश्य, भावातिरेक, स्त्री-पुरुष संबंधों पर नई सोच, उनकी उलझनें, भौगोलिकता, सुंदर चेहरे वाले अभिनेता और जीवन-अस्तित्व का चिंतन किम की फ़िल्मों की विशेषता रही है।

मुझे हमेशा लगता रहा है कि सिनेमा देखना भी एक कला है। भाषा, विचार, तमीज़, तहज़ीब, संस्कृति, धर्म, रहन-सहन, तौर-तरीक़े, मान्यताओं आदि के आधार पर हम सब दुनिया भर के लोगों से भिन्न हैं। विश्व सिनेमा को देखने के लिए न केवल भाषा बल्कि इन सभी बनी-बनाई जड़ताओं से ऊपर उठकर दर्शक को आस्वाद और समझ के तल पर जाना होता है। इसके साथ ही मनोवैज्ञानिक रूप से भी किसी भाषा विशेष की समझ हो तो चल रही फ़िल्म में आँखें दृश्य देखती हैं, और सब-कॉन्शसली कान ध्वनि को सुन कर जज़्ब करते हैं। और इस तरह यह प्रक्रिया मिलकर आपके ज़ेहन में मुकम्मल अर्थ के साथ प्रवेश करती है। लेकिन भाषा की अड़चन हो तो सब-टाइटल पढ़कर फ़िल्म देखना और उसका अर्थ समझना यानी दिमाग़ तब तक अच्छा-ख़ासा व्यस्त हो जाता है और ऐसे में दो-ढाई घंटे की क़वायद आसान नहीं। सिनेमा देखने की कला धीरे-धीरे विकसित होती है। और यह अभ्यास ही अलग-अलग फ़िल्मकारों के सिनेमा को समझ पाने का ज़रिया है। किम की डुक जैसे फ़िल्मकार के सिनेमा को समझने के लिए तो यह और भी ज़रूरी है। जहाँ कोरियन भाषा के उच्चारणों की मीठी ध्वनियाँ भी नहीं और किरदारों ख़ासकर स्त्री-पुरुष के बीच के संबंधों में नैतिकता का अतिक्रमण इतना ज़बर्दस्त है कि बनी-बनाई रूढ़ियों और ‘इडिपस कॉम्प्लेक्स’ से लेकर ‘ग्रीक ट्रेजेडी’ का हर मुमकिन स्तर अपनी भयानक विद्रूपता के साथ मौजूद है।

संगीत और विहंगम दृश्यों का संयोजन किम की डुक का सिग्नेचर है। उनके पात्र लगभग न के बराबर बोलते हैं। पानी या पहाड़ पर रहते हैं। उनकी ज़िंदगी भले बेरंग हो, मगर परदे पर किसी पेंटिंग की मानिंद वह दुनिया नज़र आती है। नीला रंग किम की डुक के सिनेमा का रंग है। इस अद्भुत सौंदर्य के पीछे शांति की खोज उनका सिनेमा करता है, जिसकी परिणति मृत्यु है। इस तरह उनके पात्र दुनिया से अपना संबंध स्थापित करते हैं और फिर खो जाते हैं। दर्शक के पास एक विशाल और लगभग अनदेखा अनुभव बचा रह जाता है। हिंसा और बर्बरता के आवरण में वह प्रेम और सौंदर्य का सिनेमा बनाते हैं। किम की डुक का सिनेमा यही जादू करता है।

समय और शून्य की उपस्थिति में एक इंसान के इमोशन कैसे बदलते हैं और फिर साथ जीते हुए किस तरह वह केवल ख़ुद तक सिमट जाता है, यह किम की डुक के सिनेमा का सार है। उनकी फ़िल्में देखे जाने के लिए दर्शक से धैर्य और विचार के साथ सहनशीलता की भी माँग करती है। निश्चित ही दर्शकों के चेतन-अवचेतन-अचेतन में उनका सिनेमा कई अनुभवों, बैचिनियों और सवालों के साथ हमेशा बना रहेगा।