‘मसिजीवी होना तो भूखे मरना है’

खिड़की के सीखचों पर फड़फड़ाते हुए कबूतर आकर बैठते हैं और फिर उड़ जाते हैं।

यह जोधपुर में अप्रैल-2019 की एक दुपहर है—इतनी गर्म कि पीठ में काँटे चुभ रहे हों जैसे। मेरा एक दोस्त मुझे शहर की पतली गलियों से होते हुए किसी पुराने लेखक से मिलवाने ले जा रहा है। इतनी गर्मी में भी शहर की गलियों में ख़ूब हलचल है। चारों तरफ़ शहर चुनावी होर्डिंग्स से लदा हुआ है। मैं शहर की लाल पत्थर से बनी गलियों में ब्लू सिटी हो जाने का इतिहास खोज रहा हूँ। दोस्त ने कई बार कहा था कि एक लेखक हैं जिनकी तसलीमा नसरीन पर आलोचनात्मक किताब आई है, तुम्हें उनसे मिलकर अच्छा लगेगा।

हम उनके घर पर पहुँचे। वह अपने कमरे में सो रहे थे। मैंने उनके अध्ययन-कक्ष में देखा—कोने में एक झोला टँगा है। टेबल पर ओम थानवी की अज्ञेय पर केंद्रित किताब रखी है। हाथ से लिखे कुछ पन्ने पड़े हैं। रीडिंग के लिए आए लड़के ने उन्हें उठाया और बताया कि विक्रम आया है।

वरिष्ठ आलोचक मोहनकृष्ण बोहरा की उम्र अस्सी बरस के आस-पास है। उन्हें बहुत कम दीखता है। किताबें पढ़ने के लिए उन्हें किसी और की ज़रूरत पड़ती है। लेकिन वह अब भी नियमित पढ़ते हैं। कुर्सियाँ सरकाकर उन्होंने हमें बैठाया और हाल-चाल पूछे। वह बीच बातचीत से उठकर गए और हमारे लिए फ़्रिज में से नारंगियाँ खाने को ले आए। उन्होंने बताया कि हाल में उन्होंने दो किताबें लिखीं जो उन्होंने किसी को दी थीं और इस किसी ने उनसे कहा था कि ये दो किताबें पुस्तक मेले तक आ जाएँगी, लेकिन अभी तक आई नहीं हैं।

मोहनकृष्ण बोहरा │ स्रोत : सुमेर सिंह राठौड़

मोहनकृष्ण बोहरा की कुछ किताबें प्रकाशित भी हुई हैं, जिनमें ‘तसलीमा : संघर्ष और साहित्य’ चर्चित भी रही है। वह अब महादेवी वर्मा और लेखकों के लिखे रेखाचित्रों पर आलोचनात्मक काम कर रहे हैं। बातचीत के दौरान उन्होंने बहुत सारी बातें बताईं—पढ़ने-लिखने की, किताबों की, छपने की। मैंने जाते हुए कहा कि ठीक तो अब चलते हैं। इस पर वह बोले कि जाएँगे ही रुक थोड़ी रहे हैं, पर आप इतनी गर्मी में दूर से मिलने आए हैं तो दो क़दम चलना तो फ़र्ज़ बनता है।

मोहनकृष्ण बोहरा की कुछ और बातें :

● जहाँ पढ़ने वाले का प्रबंध हो वही मेरा घर है। बाक़ी मैं करूँ क्या और कोई हुनर है नहीं।

● ग्यारह बजे से पाँच बजे तक जब तक धूप होती है, काम करता हूँ। धूप में तो बैठ नहीं पाता, पर धूप की रोशनी में काम कर लेता हूँ।

● मैं ख़ुद ही लिखता हूँ। मैं दूसरे से लिखा नहीं सकता। तसल्ली नहीं होती। कई लोग बोलकर लिखवा देते हैं। मैं लिखवा भी दूँ तो बोलूँगा पढ़ इसको वापिस। छाँट, ऐसे कर, वैसे कर। उससे अच्छा यही है कि मैं खुद ही पढ़ता हूँ, छाँट लेता हूँ। री-राइट करता हूँ। टाइप वाला सबर वाला है, एक ही मैटर के लिए छह चक्कर लगा लेता है। बड़े फ़ॉन्ट में टाइप करके दे देता है। कोई बात छूट जाती है तो फिर से जोड़ देता हूँ तो फिर से टाइप करके ले आता है। एक ही मैटर कई बार—चार-चार बार—टाइप करना पड़ जाता है।

● कोई भी रॉयल्टी तो देता ही नहीं है। दो हज़ार सोलह में किताब छपी। सोलह पूरा बीता, सत्रह बीता, अठारह, उन्नीस आधा बीत गया। बेस्टसेलर में गिनी गई। अरे भई बेस्टसेलर में तभी गिनी गई जब बिकी। जब बिकी है तो हमें हमारा हिस्सा दें। …मैं तो अपनी तसल्ली के लिए लिखता हूँ। पैसे के लिए नहीं। इस सबके चक्कर में पड़ूँ, रॉयल्टी के लिए बात करूँ इतने में चार काग़ज़ आगे और लिख लूँ।

● हिंदी में जो डिवोटेड लोग हैं, वही टिके हुए हैं। लेखनी के दम पर तो भूखे मर जाएँ। बाक़ी तो उतनी प्रतिष्ठा पैदा करें—अज्ञेय जितनी—कि प्रकाशक पीछे-पीछे फिरें। मसिजीवी होना तो भूखे मरना है।

● बहुत सारे लेखक तो कुंजियाँ लिख-लिखकर जीते हैं। अब कुंजी लिखना लगता है अच्छा काम नहीं है। इसलिए दूसरे के नाम से लिखते हैं। प्रतिष्ठा पर बट्टा लगता है। पर पेट तो उसी से भरता है।

● नई किताबें पढ़े बिना लिखूँगा कैसे। राजस्थान में उदयपुर में माधव हाड़ा हैं। जयपुर में हैं दो-तीन लोग। बीकानेर में नंदकिशोर आचार्य हैं। आचार्य का लिखा हुआ तो बिल्कुल पढ़ने लायक़ है, इसमें कोई दो राय नहीं है। हरीश भादानी भी अच्छे थे। ऋतुराज हैं। हेतु भारद्वाज हैं। कृष्ण कल्पित अच्छा राइटर है। राजेंद्र बोड़ा है। असल में प्रिंट मीडिया में माफ़िया हो गया तो बहुत सारे अच्छे लोग छप नहीं पाए। अभी इधर ज्ञानपीठ से पुरस्कृत पाँचेक नए लेखकों के बारे में पढ़ा है। ‘कहानी के नए वितान’ टाइमली आनी चाहिए थी, पर आई नहीं। इधर-उधर भटकती रही। पहले पढ़ते थे अज्ञेय का कि पांडुलिपि इधर-उधर भटकती रही। उसको भी धूल फाँकनी पड़ी। मानते नहीं थे। अब ख़ुद देख रहे हैं तो पता चल रहा है। इधर आपने लिख दिया और उधर छप गया, ऐसा संभव नहीं है।

● राजकिशोर, प्रभाकर श्रोत्रिय इनसे अच्छा संबंध था, अब डेथ हो गई। प्रयाग शुक्ल, ओम थानवी, पल्लव इन सबसे अच्छा है अब। ओम थानवी जनसत्ता में थे तब माथा ऊँचा करने की फ़ुर्सत नहीं थी, इतना लिखना पड़ता था। अब जनसत्ता का वो कैरेक्टर ही ख़त्म हो गया है।

● किताब या लेखक पढ़ने लायक़ है, यह थोड़ा पढ़कर मालूम हो जाता है। बहुत पुराने राइटर हैं—रामवृक्ष बेनीपुरी। थोड़ा पढ़ा, तब जाना। आधा पेज पढ़ लो ना तो वो ख़ुद ही पढ़वा देता है कि इसको तो पूरा पढ़ना है। एक पढ़ लिया लेख ना तो प्यास जागती है दूसरा कैसा लिखा है वो भी देखो। पूरी किताब पढ़ी जाती है, तब चैन मिलता है। खिचड़ी में से चावल कोई एक-एक दाना थोड़ी देखते हैं। एक दो को हाथ लगाते हुए पता चल जाता है कि पक गई है कि नहीं पक गई है। दस-बीस पेज पढ़ लो आप तय कर लोगे कि पढ़ने लायक़ है कि नहीं।