अस्सी वाया भाँग रोड बनारस

कितना अजीब है किसी घटना को काग़ज़ पर उकेरना। वर्तमान में रहते हुए अतीत की गुफाओं में उतर कर किसी पल को क़ैद कर लेना। उसे अपने हिसाब से जीने पर मजबूर कर देना। मैं कितनी बार कोशिश करता हूँ कि जो घटना बार-बार मुझे प्रभावित कर रही है उसे किसी स्मृति की तरह ही रखा जाए। लेकिन कुछ घटनाएं इतनी हठी होती हैं कि ख़ुद को काग़ज़ पर उतार कर ही दम लेती हैं। ऐसी ही एक घटना बनारस की है। मैं जिन दिनों हिन्दू विश्वविद्यालय का छात्र था। उफ़ ! ये ‘था’ कितना दिल फ़रेब है।

मैं लेखकों की तरह नहीं लिख सकता

यात्रा का कोई सिरा नहीं होता, जैसे जीवन का—यह बात उस समय और अधिक साफ़ हो जाती है, जब हम उन रास्तों से गुज़रते हैं, जो देहरादून के पहाड़ों के बदन को चीर कर बनाए गए हैं। ये रास्ते पहाड़ों की नस जान पड़ते हैं और उन पर रेंगने वाली दुनिया—उन नसों में दौड़ता ख़ून। यहाँ चारों दिशाएँ एक दिशा की तरफ़ जाती हुई प्रतीत होती हैं। कहीं खड़े हो जाओ तो समूची प्रकृति आपके मुक़ाबले में खड़ी नज़र आती है और मन में कोई आतंक-सा जन्म लेता है—ख़ुद को ‘एलियनेट’ पाने का आतंक।

उम्मीद अब भी बाक़ी है

रवि भाई एक बार बातों-बातों में बतलाए कि भाई, आजकल के युवा कवि अपनी कविता की कमज़ोरियों पर बातें ही नहीं करना चाहते। यदि बातें करो तो आप उनके शत्रु बन जाओ। मुझे पता था कि रवि भाई कविता के कला-पक्ष की तुलना में जन-पक्ष की तरफ ज़्यादा ध्यान देते थे। वह कहते थे कि कविता को आम जन की भाषा के नज़दीक आना चाहिए। कविता के सुपाच्य होने की वे लगातार वकालत करते रहते थे। कविता आसानी से संप्रेषित हो जाए। इसके लिए नए पाठकों का निर्माण और युवा कवियों को प्रोत्साहन देने के लिए ही ‘कवि संगम’ की परिकल्पना उन्होंने की। पहली बार देश भर से चालीस कवियों को उन्होंने निमंत्रित किया। तीस कवियों की उपस्थिति रही।

दुनिया के बंद दरवाज़ों को शब्दों से खोलता साहित्यकार

हिंदी के वरिष्ठ आलोचक, कवि और संपादक रामनिहाल गुंजन इस साल नवंबर में 86 साल के हो जाते। उनका जन्म पटना ज़िले के भरतपुरा गाँव के एक कृषक परिवार में 9 नवंबर 1936 को हुआ था। रामनिहाल गुंजन के दादा आर्थिक कारणों से सपरिवार अपने ससुराल आरा आ गए थे और यहीं मालगुज़ारी पर ज़मीन लेकर खेती करने लगे थे। अपने बचपन के दिनों को याद करते हुए रामनिहाल गुंजन बताते हैं, ‘‘पहले तो मैं पढ़ने से भागता था और अपने बचपन के दोस्त सादिक़ के साथ घूमा-फिरा करता था, लेकिन जब उसका भी स्कूल में नाम लिखवा दिया गया; तब मुझे भी मजबूरन पढ़ने जाना पड़ा।’’ 1950 में उनका दाख़िला आरा टाउन स्कूल में हुआ। यहीं उनमें हिंदी साहित्य के प्रति अभिरुचि जागृत हुई। स्कूल के बग़ल में ही बाल हिंदी पुस्तकालय था, जहाँ उन्हें पढ़ने के लिए पुस्तकें मिलीं। इसी दौरान उन्होंने साहित्य सृजन की शुरुआत की।

एक कवि और कर ही क्या सकता है

एक अलग रास्ता पकड़ने वाले वीरेन डंगवाल (1947–2015) की आज जन्मतिथि है। हिंदी की आठवें दशक की कविता ने स्वयं को कहाँ पर रोका यह समझना हो तो मंगलेश डबराल को पढ़िए और वह कहाँ तक जा सकती थी यह समझना हो तो वीरेन डंगवाल को।

पढ़ने-लिखने के वे ज़माने

जहाँ से मुझे अपना बचपन याद आता है, लगभग चार-पाँच साल से, तब से एक बात बहुत शिद्दत से याद आती है कि मुझे पढ़ने का बहुत शौक़ हुआ करता था। कुछ समय तक जब गाँव की पाठशाला में पढ़ता था, पिताजी जब भी गाँव आते तो गीताप्रेस गोरखपुर की कुछ किताबें लिए आते थे, जैसे : ‘सच्चे और ईमानदार बालक’, ‘सत्यकाम जाबाल’, ‘चोखी कहानियाँ’ आदि।

जीवन का पैसेंजर सफ़र

यह नब्बे के दशक की बात है। 1994-95 के आस-पास की। हम राजस्थान विश्वविद्यालय में पढ़ा करते थे। साहित्य में रुचि रखने वाले हम कुछ दोस्तों का एक समूह जैसा बन गया था। इस समूह को हमने ‘वितान’ नाम दिया था।

फूँक-फूँक कर लिखी गई एक किताब

मुझे होश तब आया जब सामने की गाड़ी में हरकत हुई और दृश्य आगे बढ़ने लग गया। मैं वक़्त में अभी ठहरने ही पाई थी कि जाम घुटनों के बल सरकने लगा। यह धोखा था। पर नहीं भी था।

संस्मरण की पाँचवीं पद्धति

हिंदी समाज में किसी बड़े साहित्यकार की मृत्यु के बाद उन्हें कम से कम पाँच पद्धतियों से याद किया जाता है। औपचारिक स्मरण के अलावा बहुत से लोग अत्यंत विनम्र और सदाशय होकर उनकी महानता को याद करते हैं और इसे एक बड़ी क्षति के रूप में देखते हैं।

‘मसिजीवी होना तो भूखे मरना है’

हम उनके घर पर पहुँचे। वह अपने कमरे में सो रहे थे। मैंने उनके अध्ययन-कक्ष में देखा—कोने में एक झोला टँगा है। टेबल पर ओम थानवी की अज्ञेय पर केंद्रित किताब रखी है। हाथ से लिखे कुछ पन्ने पड़े हैं।

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