पढ़ने-लिखने के वे ज़माने

जहाँ से मुझे अपना बचपन याद आता है, लगभग चार-पाँच साल से, तब से एक बात बहुत शिद्दत से याद आती है कि मुझे पढ़ने का बहुत शौक़ हुआ करता था। कुछ समय तक जब गाँव की पाठशाला में पढ़ता था, पिताजी जब भी गाँव आते तो गीताप्रेस गोरखपुर की कुछ किताबें लिए आते थे, जैसे : ‘सच्चे और ईमानदार बालक’, ‘सत्यकाम जाबाल’, ‘चोखी कहानियाँ’ आदि। उन किताबों के चयन का आधार बालोपयोगी होने के साथ-साथ सस्ता होना भी होता था। उन किताबों की ओर उसी उम्र से सबसे पहले मैं ही लपकता था। यही वजह थी कि कम ही उम्र में मुझे अच्छी तरह पढ़ना आ गया था। दूसरी कक्षा से मैं परिवार सहित शेख़पुरा आ गया था। वहाँ तीन पत्रिकाएँ पिताजी ने नियमित कर रखी थीं—‘नंदन’, ‘चंदामामा’ और ‘गुड़िया’। न इससे ज़्यादा और न इससे कम! अपने लिए वह माया, साप्ताहिक हिंदुस्तान, धर्मयुग, दिनमान, रविवार और सारिका लाते थे। इसके अलावा तीन-चार हिंदी अख़बार नियमित आते थे, जिनमें ‘जनसत्ता’ प्रमुख था। उसके अलावा ‘आज’, ‘प्रदीप’ और ‘आर्यावर्त’ आता था। बाद में ‘प्रदीप’ ही शायद ‘हिन्दुस्तान’ हो गया था।

उन्हीं दिनों स्टेशन पर साइकिल से अख़बार और पत्रिका बेचने वाला विष्णु पिताजी के संपर्क में आया। वह हफ़्ते में एक-दो दिन पत्रिकाएँ लाने के लिए शेख़पुरा से लक्खीसराय जाया करता था। एक ट्रेन से जाता और दूसरी से लौट आता। उतनी देर के लिए पिताजी ने अपने क्वार्टर में उसे साइकिल लगाने की अनुमति दे रखी थी। बदले में उससे मुफ़्त में पत्रिकाएँ पढ़ने को मिल जाती थीं। विष्णु के संपर्क से हमारा रेंज थोड़ा बढ़ गया था और अब हम उसकी साइकिल के थैले से उन चार-पाँच घंटों में ‘मायापुरी’, ‘फ़िल्मी दुनिया’, ‘फ़िल्मी कलियाँ’, ‘स्टारडस्ट’, ‘क्रिकेट सम्राट’ और ‘स्पोर्ट्स स्टार’ भी निकालकर चाट जाते थे। स्टेशन के ठीक बाहर के गेट पर एक और लड़का किताब बेचता था। उसके पास कुछ अलग तरह की किताबें होती थीं, मसलन ‘क़िस्सा तोता-मैना’, ‘सिंहासन बत्तीसी’, ‘बेताल पच्चीसी’, ‘दिलबहार शाइरी’, ‘हसीन शाइरी’, ‘जीजा-साली की शाइरी’, ‘रहीम के दोहे’, ‘अकबर-बीरबल’, ‘शेख़चिल्ली की कहानियाँ’ आदि। उन दिनों एक और किताब ख़ूब बिकती थी—‘सचित्र फ़िल्मी गीत डायलॉग’, जिसका कि मैं दीवाना था। मरिया आश्रम स्कूल की लाइब्रेरी में सप्ताह में एक दिन एक घंटे की ‘क्लास’ लगती थी, तो उस दिन ‘अमर चित्र-कथा’ पर सारी भड़ास निकलती थी। लेकिन मेरी भूख इतने से भी शांत नहीं हो रही थी। मैं कुछ और बेहतर की तलाश में बेचैन रहता था। मजबूरन ‘सारिका’, ‘धर्मयुग’, ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’, ‘दिनमान’, ‘रविवार’ या अन्य अख़बार समझ में न आने के बावजूद पढ़ता-पलटता रहता था।

छ्ठी कक्षा के बाद मेरा एडमिशन शेख़पुरा के एक मिडल स्कूल (सरकारी) में करवाया गया, जिसे उन दिनों ट्रेनिंग स्कूल कहते थे। वहाँ कुछ मित्रों से मुझे ‘लोट-पोट’, ‘सुमन सौरभ’ और ‘चाचा चौधरी’ तथा ‘बेताल’ आदि के कॉमिक्स मिलने लगे। एक नई दुनिया खुली। थोड़ा आगे चलकर पिताजी ‘कादम्बिनी’ भी लाने लगे थे। मगर मेरा काम इतने से भी नहीं चल रहा था। पिताजी को इससे ज़्यादा मेरे पढ़ने की क़तई परवाह नहीं रहती थी, बल्कि घर में मुझे स्कूल की किताबें पढ़ने के लिए अक्सर डाँट पड़ती रहती थी। उन्होंने कभी भी इसमें दिलचस्पी नहीं ली कि मैं कुछ और पढ़ना चाहता हूँ और न ही मेरी उस भूख से उन्हें कोई सहानुभूति थी।

मैट्रिक में मैं शेख़पुरा के इस्लामिया हाई स्कूल में पढ़ता था। वहाँ मेरी दोस्ती एक शिवानंद नाम के लड़के से हो गई थी। स्कूल और रेलवे क्वार्टर के बीच में एक जगह उसकी एक किताब की दुकान थी। आम तौर पर उस दुकान पर उसके बड़े भाई या पिताजी बैठते थे, लेकिन कभी-कभी शिवानंद भी बैठा करता था। मैं उसकी दुकान के आस-पास चक्कर काटा करता और जब दुकान पर शिवानंद अकेला होता तो उससे मिलने चला जाता। वह अंदर काउंटर पर होता और मैं बाहर रखी बेंच पर। कुछ दिनों बाद मैंने उससे बहुत संकोच से पूछा कि अगर कोई किताब पढ़ने का मन हो और ख़रीदने के पैसे न हों तो तुम पढ़ने के लिए दे सकते हो? मैं पढ़ने के बाद वैसे का वैसा ही तुम्हें लौटा दूँगा? मुझे लगा था कि उसने बस जिज्ञासावश पूछा है कि ‘कौन-सी किताब?’ किताब का नाम बताते ही उसने वह किताब मेरे हाथ में पकड़ा दी। मैंने उसे फिर से ध्यान दिलाया कि पैसे नहीं हैं मेरे पास! उसने लापरवाही से कहा कि उससे क्या होता है? मैं एहसान से दुहरा हो गया उसके आगे। उसकी दुकान में शिवानी, टैगोर, विवेकानंद और शरतचंद्र का लगभग संपूर्ण साहित्य मौजूद था, जिन्हें मैं कुछ ही महीनों में लाँघ गया। उसके बड़े भैया भी बहुत उदारतापूर्वक मुझे किताबें दे दिया करते थे।

जब मैं छठी या सातवीं क्लास में पढ़ता था तो मेरी दूसरी बहन की शादी पटना में हुई। उसके कुछ अरसे बाद साल में एक-दो बार पिताजी के साथ पटना जाने का अवसर मिलने लगा। मैं अकेले कहीं बाहर जाने से बहुत घबराता था, बहुत हद तक आज भी घबराता हूँ कि भटक जाऊँगा, सही जगह पहुँच ही नहीं पाऊँगा… पिताजी के साथ दीदी के यहाँ जाते समय माँ पाँच-दस रुपए दे देती थी जिसे बहुत जतन से जुगाए जाता था। वापसी में दीदी के परिवार के किसी सदस्य की ओर से भी पाँच-दस रुपए की लॉटरी निकल आती। तब पटना से किउल वाली ट्रेन शायद पाँच नंबर प्लेटफ़ॉर्म से खुलती थी—डीलक्स या विक्रमशिला! कई दफ़ा जाने के बाद मुझे अंदाज़ा हो गया था कि ट्रेन पंद्रह-बीस मिनट रुकती है। पिताजी जैसे ही ट्रेन में बैठते, मैं उन्हें अभी आया कहकर ट्रेन से छलाँग लगा देता और बोगी नंबर को कबड्डी-कबड्डी की तरह रटते हुए एक नंबर प्लेटफ़ॉर्म की ओर सरपट दौड़ लगा देता। क्षण भर में ओवरब्रिज पार करके पहले ‘व्हीलर्स’ से निबटता और फिर ‘सर्वोदय’ से। उस क्षण जितने पैसे होते उतने से एस.सी. बेदी के राजन-इक़बाल सीरीज़ और विवेकानंद साहित्य ख़रीदकर हवा के वेग से ट्रेन में जा घुसता। हालाँकि यह मेरी औक़ात से बहुत ज़्यादा बड़ा जोखिम था, क्योंकि पिताजी को कुछ बताकर तो आता नहीं था और अगर ट्रेन छूट जाती तो वापस बहन का घर जाने का रास्ता मेरी समझ से बहुत ज़्यादा बाहर था। मगर किताबें तो मुझे इस शर्त पर भी चाहिए होती थीं।

उसी दौरान शेख़पुरा स्टेशन के बाहर एक स्टूडियो खुला था—‘आकृति स्टूडियो’। उसके फ़ोटोग्राफर पंकज जी भी जबर्दस्त पढ़ाकू थे। किसी बहाने उनसे मेरा परिचय हो गया था। वह उन दिनों पढ़ने के लिए किताब देने के एवज़ में प्रति किताब पच्चीस पैसे लेते थे। कुछ समय तक तो मैं महीने में पच्चीस-पचास पैसे का जुगाड़ करके उनसे भी एक-दो किताबें लेने लगा। ‘चंद्रकांता संतति’, शौकत थानवी, सुरेंद्र मोहन पाठक, गुलशन नंदा, रानू, प्रेम वाजपेयी आदि से मेरा परिचय उसी दौरान हुआ था। एक दिन वह आग्रह करके मेरे कमरे पर आए और उन्हें कुछ किताबें मेरे पास भी नज़र आ गईं, ख़ासकर जैनेंद्र कुमार और भगवतीचरण वर्मा का साहित्य। अंतत: यही समझौता हुआ कि पढ़ने के बदले न वह मुझसे पैसे लेंगे और न मैं उनसे। दोनों परस्पर ऐसा व्यवहार रखेंगे जैसा सिकंदर ने पोरस के साथ रखा था। बेशक उनकी लाइब्रेरी मेरी तुलना में बहुत ज़्यादा समृद्ध थी। कुछ अरसे बाद जाने उन्हें क्या फ़ितूर सूझा, वह मुझसे लगातार आग्रह करने लगे कि आप मेरे बारे में कुछ लिखें; बल्कि दोनों एक-दूसरे के बारे में कुछ लिखें। इस तमाशे में मेरी बिल्कुल भी दिलचस्पी नहीं थी। मैं चाहता तो क्या, सोचता तक नहीं था कि कोई मेरे बारे में लिखे! ख़ैर, पहले उन्होंने ही ख़ूब लच्छेदार भाषा में मेरे बारे में चार-पाँच पेज लिखकर दिए; जिसे बार-बार पढ़ने पर भी समझ में नहीं आ रहा था कि यह ‘ले रिया है कि दे रिया है!’ मजबूरन मुझे भी उनकी ज़िद के आगे झुकना पड़ा। उन दिनों तो मैं सोचता भी नहीं था कि कभी कुछ लिखूँगा। लेकिन मेरी भाषा उन दिनों भी काफ़ी साफ़ थी और तेवर बेधड़क! अपने स्वभाव से मजबूर मैंने उनकी कई कमजोरियों और ओछेपन को साफ़-साफ़ लिख दिया। वह मेरे लिखे पर नाराज़ और गंभीर हो गए। परिणामस्वरूप उनकी लाइब्रेरी की अनेक किताबें मुझसे बेपढ़ी ही रह गईं।

इंटरमीडिएट के ही अंतिम दौर में एक सहपाठी सुनील वर्मा ने साइकिल के कैरियर पर मेरी किताबों के बीच एक दिन एक पतली किताब दबा दी कि घर जाकर देखना। उस समय मुझे कुछ भी समझ नहीं आया था। जब घर आकर उस किताब को खोला तो घबराहट के मारे थर-थर काँपने लग गया। मैं समझ नहीं पा रहा था कि कोई ऐसा कैसे लिख सकता है और इसे कोई छाप कैसे सकता है? अश्लील साहित्य उर्फ़ मस्तराम से मेरा पहला परिचय उसी देवदूत के मार्फ़त हुआ था।

बाद में जब ग्रेजुएशन के लिए मैं पटना आया तो उस दौर की कहानी पहले ‘राजकमल के लालाजी’ के बहाने फ़ेसबुक पर लिख ही चुका हूँ। पाई-पाई जोड़कर और ख़ूब ठोक-बजाकर देख लेने के बाद ही किताबें ख़रीदता था और उसके बाद भी जब कोई किताब अपेक्षा के अनुकूल नहीं निकलती थी तो बहुत ठगा-सा महसूस होता था। उस किताब के ख़रीदने का अफ़सोस महीनों तक बना रहता था।

बाद में पता नहीं कैसे मैं भी कहानियाँ-कविताएँ या आलोचना-समीक्षा आदि लिखने लगा। साल 2010 में मेरी कहानियों और कविताओं की दोनों किताबें प्रकाशित हुईं। तब से आज तक दस-ग्यारह सालों में मुझे एक दिन के लिए भी यह शिकायत नहीं हुई कि मेरी किताब बिकती नहीं है या लोग मुझे पढ़ते नहीं हैं… मैं ऐसा सोच तक नहीं पाता। उल्टे यह सोच-सोचकर संकोच में गड़ा जाता हूँ कि किसी पाठक को मेरी किताब यदि अपेक्षा के अनुकूल नहीं लगी तो मैं उसकी भरपाई कैसे कर पाऊँगा? मैं ख़ुद से ही पूछता रहता हूँ कि क्या मैं ऐसा लिख भी पाता हूँ कि कोई मुझे पढ़े या किसी को मेरा लिखा ख़रीदकर पढ़ना चाहिए?

पता नहीं वे लोग कितने महान होते हैं जिन्हें लगता है कि हिंदी के लोग पढ़ते ही नहीं हैं! कुछ समय से हिंदी में यह विमर्श सर्वाधिक लोकप्रिय हो गया है कि हिंदी के लोग अपढ़ होते हैं, उनमें इतिहास की समझ नहीं होती कि भूगोल की समझ नहीं होती… आदि। अगर कोई मुझे न पढ़े तो इसका मतलब यह कैसे हो गया कि लोग पढ़ते ही नहीं हैं? बल्कि अपने अनुभव से तो मैं कह सकता हूँ कि हिंदी के लोग बहुत ठोक-बजाकर परखने के बाद ही किसी को पढ़ते हैं। वे उसी को पढ़ते हैं जो पढ़े जाने योग्य होता है…

कभी-कभी तो मैं यह भी सोचता हूँ कि कभी मेरे पास पैसे हुए तो मैं अपनी सारी किताबों पर यह छपवा दूँगा :

“अगर आपको मेरी किताब निराश करती है तो उसकी क़ीमत मुझसे प्राप्त करें…”