पुरुषों की दुनिया में स्त्री

मेरी समझ से हर पाठक की कविता से अपनी विशिष्ट अपेक्षाएँ होती हैं। ये अपेक्षाएँ कई बार बहुत मनोगत और अकथनीय भी हो सकती हैं। मैं आपकी तो नहीं कह सकता, लेकिन अपनी सुना सकता हूँ। मैं अपने अंतर्तम में छिन्न-भिन्न और हताहत हूँ। घर पहुँचने पर लगता है कि दरवाज़े से भीतर तो आ गया, लेकिन संपूर्ण नहीं लौट पाया। कुछ ऑफ़िस में रह गया। कुछ बॉस की औक़ात बताती नज़रों में। कुछ प्रेमिका की जवान कामनाओं में। कुछ पत्नी के निष्काम प्रेम में। कुछ उसके पीछे घिसटते चला जा रहा हूँ, जो सड़क पार करते हुए मेरी हड़बड़ी ताड़कर गाली देकर जा रहा है। कुछ बह गया। कुछ छूट गया। कुछ कहीं किसी कील में अटक गया। ऊँघते हुए एक बुरे सपने में बच गया। ऐसा लगता है कि देह से मन का और स्मृतियों से पहचान का संबंध विच्छिन्न हो रहा है। ऐसे में कविताएँ मुझे फिर से खोजती हैं, घेरती हैं, जोड़ती हैं, खड़ा करती हैं और हर बार एक नए विन्यास में रच देती हैं। इस पाठक के लिए यही भूमिका संगीत की भी है। मैं अपनी ज़ाती ज़िंदगी में कविताओं की इस भूमिका को काव्यशास्त्र में कहाँ खोजूँ? नई जीवन-स्थितियाँ हमेशा कविता से नई माँग करती हैं। हमारे समकाल की असुविधाजनक चुनौतियों के सामने काव्यशास्त्र की कारिकाएँ निर्जीव जान पड़ती हैं।

रश्मि भारद्वाज का संग्रह पढ़ते हुए यह महसूस करना मेरे लिए आत्म-आश्वस्ति का बायस बना कि कुछ कवियों की कविताएँ अपने रचनाकार के लिए वही आत्म-संयोजन की भूमिका निभाती हैं, जो मुझ जैसे पाठक के लिए। इन कविताओं को पढ़ते हुए लगा कि कवि शोर, सफ़र, थकान, आशंकाओं, अनिश्चितताओं और अकथनीय दुखों के बीच लगातार एक अदृश्य सेतु, एक अविच्छिन्न भूमि, एक आत्म-व्यवस्था की खोज में है। ये कविताएँ अभिव्यक्ति नहीं हैं, स्व-संविद् हैं। ये स्व-संविद् होकर संसार-संविद् बनती हैं और आत्म-व्यवस्था की तलाश में ही जगत-व्यवस्था तक जाती हुई दिखाई पड़ती हैं। इसका तात्पर्य यह है कि आज कवियों के लिए भी कविताएँ यश, अर्थोपार्जन, कल्याण और पापनाश के शास्त्रविहित काव्य-प्रयोजनों से ज़्यादा गहन भूमिकाएँ निभाती हैं। इस संग्रह को पढ़ते हुए आप पाएँगे कि इसके पहले खंड की सारी कविताएँ और संग्रह की अधिकांश कविताएँ मेरी बातों की गवाही दे रही हैं।

मैंने अपनी माँ को जन्म दिया │ स्रोत : सेतु प्रकाशन

इस संग्रह में रश्मि भारद्वाज अपने उजड़ेपन, भटकन और अनगिनत आशंकाओं के बीच स्वयं को मुकम्मल पाने की रक्तआलूदा कोशिश में मुब्तला दिखाई पड़ेंगी। इस कवि-व्यक्तित्व की सबसे बड़ी कामना आत्म-समग्रता है, परंतु यह आत्म की समग्रता है क्या जिसे रश्मि अपने भीतर इतनी शिद्दत से छू लेना चाहती हैं? मैं इसे अपने व्यक्तित्व में अनुभूति और विश्वदृष्टि का एक विगलित झिलमिलाता हुआ काव्यात्मक केंद्र मानता हूँ, साथ ही इसका प्रधान सूत्र उन जीवन स्थितियों में खोजता हूँ जिनमें हमारे व्यक्तित्व व स्वबोध ने आकार लिया। रश्मि इसी झिलमिलाते हुए केंद्र को बार-बार आत्मा की कोख, कविता, दुख कहना चाहती हैं। उन्हें लगता है कि इस केंद्रस्थ मणि को छूते ही वे शापमुक्त होकर संपूर्ण हो जाएँगी। लेकिन इस केंद्र को आज तक कौन छू पाया, कौन रचनाकार शापमुक्त हुआ? रश्मि में इसे छूने की क्रियाशीलता और शिद्दत दिखाई पड़ती है, लेकिन बहुत दूर तक ठोस जीवन-स्थितिगत संदर्भों में नहीं जातीं। इन कविताओं को पढ़ते हुए लगेगा कि वे अपने ही आत्म को प्याज़ की शल्कों की तरह उधेड़ते हुए कुछ खोज रही हैं, लेकिन शल्कों का कोई अंत नहीं दिखाई पड़ता… अलबत्ता उसके नीचे से दुख का आलोक दिखाई पड़ता है; जैसे किसी तैलचित्र में कोई तीव्र रंग हल्के रंगों को आलोकित करते हुए दिखाई पड़ता है।

यह दुख कहीं और कोठे से नहीं आया, जीवन-स्थितियों से छनकर अवचेतन के अनगिनत परतों के नीचे यहाँ जमा हुआ है। उनका काव्यबोध उन्हें इस विच्छिन्नता के ठोस भौतिक कारणों तक ले जाने के बजाय उनके लिए काव्यात्मक दुख या पीड़ा के रूप में अखंडता और सुसंबद्धता का आभास लाता है।

यात्राओं में ही उपजती रही कविताएँ
सफ़र की थकन और शोर के बीच
जीवन की तमाम अनिश्चितताओं
और दुखों की अव्यक्त कथाओं के बीच
लेकिन बंद कर आँखें उतर जाना अपने अंदर
और निर्मित करना एक अदृश्य सेतु
देह से मन तक की यात्रा के लिए
एक अनिश्चित जीवन की तयशुदा यात्राओं के मध्य
यायावर-सी भटक सकती है आत्मा
शरीर के लिए तय की गई हर परिधि से बाहर
मेरे लिए यही इबादत रही
और यही काम्य

~•~

अब जब शेष हैं प्रेम की अस्थियाँ
उन्हें चुनता मेरा घायल शरीर
जब भी कराहता है अदम्य पीड़ा से
उसे शरण देने के लिए शेष रहती है
सिर्फ़ मेरी आत्मा की कोख

~•~

सुख के इन बेतरतीब पलों में भी
बस वह सँजो सके अपने अंदर की पीड़ा
जो उतरती है उसकी आवाज़ में दर्द बनकर

क्योंकि दुखों को भूल जाना
अपनी आत्मा की सबसे मधुर लय को खो देना है

ये काव्यांश अलग-अलग कविताओं से ले लिए गए हैं, लेकिन इनमें अनुभूतिगत समानता है। यहाँ कविता, स्वबोध और दुख एक ही अनभूति के अलग-अलग पहलू भर हैं। सुख पर हमेशा संभाव्य दुखों की अमंगल छायाएँ पड़ती रहती हैं और हमारा दिल काँपता रहता, इसलिए सुख अपनी अस्थिरता के कारण मुकम्मलपन की अनुभूति नहीं दे पाता। जबकि जीवन में निरंतर बने रहने वाले दुख और अवसाद में कल्पित सुख की कामनाएँ भी दुख ही देती हैं,इसलिए दुख में मुकम्मलपन और समंजन की क्षमता सबसे ज़्यादा है। अगर दुख और अवसाद लगातार बने रहें तो न सिर्फ़ उनकी अनुभूति ही ख़त्म हो जाती है, बल्कि वह अधिक स्थिर, सुरक्षित, आत्म-समंजक और काम्य भी लगने लगता है।

पुरुषों की इस दुनिया में स्त्री कुछ भी मुकम्मल नहीं पा सकती। उसके लिए न सिर्फ़ यह बाहर की गणित उलट-पलट है, बल्कि उसका आंतरिक संसार भी खंड-खंड है। वह अपने इस खंड-खंड विच्छिन्न अंतर्जीवन में कुछ ऐसा चाहती है जो अखंड और मुकम्मल कर सके। यह स्त्री के अंतर्जीवन और उसके काव्यबोध की महत्त्वपूर्ण गतिकी है। मुकम्मलपन की यह चाहत हर कवयित्री के यहाँ मौजूद है। मीरा और महादेवी इसे अपने आत्म से बाहर कृष्ण या किसी महत् अमूर्त सत्ता की तरह पाती हैं। वरिष्ठ कवयित्री गगन गिल के यहाँ यह किंचित रहस्यवाद और अध्यात्म का रूप ले लेता है। शैलजा पाठक आदि कुछ युवा कवयित्रियों में मुग्ध अवसाद के रूप में दिखाई पड़ता है। लेकिन रश्मि के यहाँ ध्वस्त और ध्वांत जीवन में एक आंतरिक समग्रता के खोज की निरंतर बनी रहने वाली बेचैन क्रियाशीलता है। इन कविताओं को पढ़ते हुए लगता है कि कोई किसी धुआँरे के गिर्द से गुज़र रहा है; जहाँ चारों ओर सब कुछ पर लगातार राख झड़ रही है, लेकिन वह अप्रतिम जिजीविषा से उसे पार पाने की लहूलुहान कोशिश में निरत है। यह युयुत्स भाव पाठक को उबार लाता है। ये कविताएँ जहाँ, जिस ताप-दाब-केंद्रक पर संपूर्ण होती हैं, उससे थोड़ा भी इधर-उधर होने पर इसका संवेदनात्मक तनाव रहस्य या भावुक रुदन में स्खलित हो सकता था। अगर ऐसा होता तो ये कविताएँ अपना प्रभाव खो देतीं। यहाँ रहस्य और आँसू नहीं, सूख चुकी आँखों की कसक है।

संग्रह की कुछ कविताओं में जीवन की उज्ज्वल अनुभूतियाँ भी हैं। ऐसी कविताएँ संग्रह के तीसरे खंड में संकलित हैं। इन्हें प्रेम या दैहिक संलयन की कविताएँ कह सकते हैं। ये कविताएँ प्रेमानुभूतियों का आत्मीय विन्यास करती हैं। हम रोज़मर्रा की जैसी ज़िंदगी जीते हैं, उसमें सिर्फ़ देह की अनुभूति ही शेष रहती है, अपनी सूक्ष्म आत्मसत्ता का आभास नष्ट हो जाता। अध्यात्म में आत्मसत्ता अपनी बंद गरिमा में देह को भूल जाती है। भौतिक और आध्यात्मिक अनुभव के बीच सिर्फ़ प्रेम ही वह चीज़ है, जहाँ देह और आत्मा एक लय पर संपूर्ण होती है। इसी अनुभूति की गहराई इस खंड की कविताओं को उल्लेखनीय बनाती है। ‘ईश्वर होती देह’, ‘प्रेम स्त्री’, ‘आषाढ़ का एक दिन’ आदि कविताओं को बहुत अवधानपूर्वक पढ़ा जाना चाहिए। इसमें स्त्री की गहनतम अनुभूतियों का सौंदर्य है। इसलिए हिंदी में प्रेम कविताओं को पढ़ने का जो अभ्यास है, उसे भी थोड़ा बदलना होगा। कोई भी मौलिक अनुभूति, अनुभूति की सामान्य कोटियों को नए सिरे से परिभाषित करती है, अभ्यस्त अभिग्रहण के सामने दुविधा पैदा करती है, उसमें भी यह तो स्त्री की दैहिक अनुभूति है जिसे कभी सुना ही नहीं गया। ये कविताएँ मुझे बहुत प्रिय हैं। देखिए इन कविताओं के आकर्षण में एक और थोड़ा अलग विन्यास की कविता-चर्चा से छूट न जाए। यह भी इसी खंड की कविता है—‘पति की प्रेमिका के नाम’। इसे पढ़ते हुए अगर आपके ज़ेहन में फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की नज़्म—‘रक़ीब से’—गूँजती होगी तो न सिर्फ़ इस कविता का मौलिक सौंदर्य आपके सामने ज़्यादा मूल्यवान ढंग से खुलेगा बल्कि फ़ैज़ की इस बहुचर्चित कविता का रक़्बा भी समझ में आएगा। फ़ैज़ की कविता में स्त्री की देह-गंध की मर्द फंतासी है। रश्मि की कविता में यथार्थ और विडंबनाबोध है।

इस बीच मेरे पास जितने संग्रह आए हैं, सबको एकाधिक खंडों में संयोजित किया गया है। यह संग्रह के अभिग्रहण को प्रभावित करने का सुचिंतित तरीक़ा है। रश्मि भारद्वाज ने भी अपने संग्रह को पाँच अलग-अलग शीर्षकों में संयोजित किया है। पहले और तीसरे शीर्षक के अंतर्गत संकलित कविताएँ अपनी अनुभूति की गहराई से सजग संवेदनशील पाठकों को मुतासिर करेंगी। बाक़ी के तीन खंडों में भी कुछ उल्लेखनीय कविताएँ हैं। मेरी समझ में, अगर मैं इस संग्रह को मात्र दो खंडों में संकलित करना चाहूँ तो पहले खंड में उन कविताओं को रखूँगा जो गहन अनुभूतियों से पैदा हुई हैं और पाठक के व्यक्तित्व के गहन स्तरों से संवाद करती हैं। दूसरे खंड में उन कविताओं को रखूँगा जो पाठकों की ऊपरी समझदारी से मुख़ातिब होती हैं। रश्मि जहाँ स्त्रीवाद के लोकप्रिय मुहावरों और विषयों पर कविता पाने की कोशिश करती हैं, वहाँ उनकी काव्यात्मक उपलब्धि सीमित है। यहाँ कुछ ख़ूबसूरत उक्तियाँ जरूर हैं जो एक दीप्ति पैदा करती हैं, लेकिन कोई गहरा प्रभाव नहीं छोड़ पातीं—

कुछ चीज़ें कालातीत होती हैं
जैसे आग
जैसे स्मृतियाँ
जैसे प्रेम
हर लिपि और भाषा में
आग प्रेम और स्मृतियों के लिए
हमारी संवेदना एक-सी थी।

ये पंक्तियाँ ख़ूबसूरत हैं, आपको याद रह जाएँगी, लेकिन आपको किसी सक्रिय मनोदशा में उतार पाने में अक्षम हैं। ‘मैंने अपनी माँ को जन्म दिया’, ‘पक्षपाती है ईश्वर’, ‘एक स्त्री की नागरिकता’, ‘स्त्रियाँ कहाँ रहती हैं’ शृंखला की कविताएँ इसी श्रेणी में रखूँगा। पहले खंड की कविताएँ अनुभूतियों के बीहड़ में उतरती हुई अपने साथ कुछ अघट, दुर्घट और मूल्यवान लाएँगी। दूसरे खंड की कविताएँ अभिव्यक्ति के समतल पर बनाव-चिनाव, हिकमतों पर चलती हुई लोकप्रियता लाएँगी। कवयित्री के लिए दोनों रास्ते खुले हैं।