लिखने ने मुझे मेरी याददाश्त दी

मेरे नाना लेखक बनना चाहते थे। वह दसवीं तक पढ़े और फिर बैलों की पूँछ उमेठने लगे। उन्होंने एक उपन्यास लिखा, जिसकी कहानी अब उन्हें भी याद नहीं। हमने मिलकर उसे खोजना चाहा, वह नहीं मिला। पता नहीं वह किसी संदूक़ का लोहा बन गया या गृहस्थी की नींव।

मेरे बाबा बारहवीं तक पढ़े और अँग्रेज़ी में फ़ेल हो गए। तब भी उनके पास सरकारी स्कूल में मास्टर हो जाने का ऑफ़र आया। ये वे दिन थे जब सरकार के पास नौकरियाँ थीं और पकौड़ियाँ केवल बरसात के किसी ख़ाली दिन तली जाती थीं। बाबा ने अपने पिता से बात की। रोपनी का समय था। बाबा के पिता बिजली की तरह कड़के, “तुम पंडिजी बन जाओगे तो रोपनी कौन कराएगा…”

बाबा ने रोपनी कराई और फिर गाँव की रामलीला मंडली में शामिल हो गए। कुछ दिनों बाद उन्होंने अपनी अलग मंडली बनाई। मंडली ने कर्ण के जीवन पर नाटक खेला। बाबा को यह याद नहीं कि नाटक कितना चला, पर उन्हें यह अच्छे से याद है कि मंडली नहीं चली। दादी के लिए यह ख़ुशीगीर बाबा की कृपा थी, क्योंकि मंडली वाले सब बेकार में ही दिन भर अनसोहाइत किए रहते थे।

दादी से जब भी कहा कि कहनी कहो तो वह गीत गाने लगतीं। उनके लिए वही कहनी थी और माँ की कहनी थी—चुप्पी। जब हम गाँव छोड़कर शहर आ गए और मैं कुछ काम से एक बार गाँव गया तो ख़ाली घर में वह जासूसी उपन्यास ढूँढ़ते हुए जो कभी चाचा पढ़ा करते थे, मुझे माँ की कहानी मिल गई—एक डायरी जो मेरी कॉपियों के बचे हुए पन्नों को जोड़कर बनाई गई थीं। उसमें एक ख़्वाब दफ़न था—‘‘अगर मैं कुछ बन पाती तो शिक्षक बनती…”

यह सब मुझे याद नहीं था, पर जब मैंने लिखना शुरू किया तो सब कुछ याद आता चला गया और कुछ इस रूप में कि घरवाले अपने ही क़िस्से सुनकर भौचक हो जाते थे। लिखने ने मुझे मेरी याददाश्त दी—माँ, बाबा, नाना, परनाना, परबाबा और मेरे सभी पुरखों की स्मृतियाँ। लिखने ने मुझे मेरे अतीत से जोड़ा। हज़ारों साल पहले के उस अतीत से भी जिसकी कहानियाँ गायें चबा गई थीं। आजकल की मम्मियाँ अपने बच्चों की याददाश्त बढ़ाने के लिए उन्हें सोना-चाँदी च्यवनप्रास खिलाती हैं, मेरी सलाह है कि उन्हें लिखना सिखाया जाना चाहिए।

बचपन में एक बार संतरा खाते हुए, मैंने एक बीज निगल लिया था और तब मुझे लगा था कि मेरे भीतर एक पेड़ उगेगा और मेरे सिर पर संतरे फलेंगे। कुछ बड़ा होने के बाद यह समझ में आया कि वह पेड़ इसलिए नहीं उगा क्योंकि मेरे पेट में मिट्टी नहीं है। अब जब भी मैं लिखने से घिरता हूँ, पाता हूँ कि यादों के एक दलदल में धँस रहा हूँ और वहाँ की गीली मिट्टी मेरे भीतर भरती जा रही है और मुझमें जो बीज रूप में मौजूद है, वह है—अनगिनत पीढ़ियों के अधूरे ख़्वाब, आधी आबादी की चुप्पियाँ, एक पिछड़े हुए समाज के स्वप्न, शोषण के खुरों तले रौंद दी गई जातियों के प्रश्न और देश की अस्सी प्रतिशत जनसंख्या की मजबूरियाँ और बचपन में चाहे भले ही वह संतरे का पेड़ नहीं पनप पाया था, पर अब अनगिनत टहनियों वाला एक वृक्ष मुझमें लगातार बढ़ता रहता है और जो मैं लिख रहा हूँ, उसका एक-एक शब्द उन टहनियों पर ही हरा होता है।

लिखने के बारे में मैंने जो पढ़ा है या जो सुना है, उनसे जिन्हें बेफ़िक्री की उम्र में हम ‘बुढ़उ’ कहकर चिढ़ाते थे और देह में कुछ भय आने के बाद ‘बुज़ुर्ग’ कहने लगे, उसका कुल लुब्ब-ए-लुबाब यही है कि लिखना एक अबूझ पहेली है। पर मैंने पाया है कि यह एक विस्मृत स्मृति है। इसके तर्क में मेरे पास मेरे समझ में आने लायक़ एक उदाहरण है। जब मैं अपना उपन्यास ‘चंचला चोर’ लिख रहा था, उसमें एक दिन मुझे एक अद्भुत बिम्ब सूझा—अपनी बंद आँखों से मैंने यह देखा कि मेरे गाँव में जो बरगद का पेड़ है, उसके हर पत्ते पर एक आदमी रहता है। वे पुरखे जो जीवित नहीं हैं और वे जीवित लोग जो अकेले हैं, वे खेत से घर नहीं लौटते; बल्कि उन पत्तों को अपना घर बना लेते हैं और वहीं बोरसी सुलगाते हैं और लिट्टी सेंकते हैं और आलू भूँजते हैं। टहनी टहनी कहनी और पत्ता पत्ता बात। कुछ दिनों तक मैं हवा में तैरता रहा कि यह दृश्य मेरी बिल्कुल मौलिक अभिव्यक्ति है और हमारे पुरखे जो लिखने के बारे में यह कहते हैं कि यह देव कृपा है तो यह बात बिल्कुल सही है। पर कुछ दिनों बाद जब मैं गाँव गया तो मैंने अपने घर में एक तस्वीर देखी—एक गाय की जिसके अंग-अंग में एक देवता का वास था। मुझे यह समझते देर नहीं लगी कि यह ‘टहनी टहनी कहनी’ वाला बिम्ब मुझमें कहाँ से आया था और तब मुझे यह समझ में आया कि लिखना कोई चमत्कार नहीं है, कोई अबूझ पहेली नहीं है। हम जो पढ़ते, देखते, समझते और महसूस करते हैं; दूसरे शब्दों में जो हमारा जीवन है, लेकिन अपने जीवन में जिसे हम भूल चुके हैं, या जिसे जीने में हम डरते हैं, या हम भविष्य में अपने न रहते हुए भी अपने लिए जो कुछ भी चाहते हैं, अधिकतर वही हमारे लिखने में प्रकट होता है—बहुत कुछ सपने की तरह।

लेकिन लिखने की एक संवेदना होती है और वह सभी लिखने वालों की अपनी कमाई होती है। स्कूल के दिनों में जब मैंने लिखना शुरू ही किया था, तब मुझे लगता था कि लिखकर कुछ भी पाया जा सकता है। यह मेरा जोश था। जोश में हम राजनीतिक पार्टियों की तरह हो जाते हैं—केवल ख़ुद की ओर देखते हैं। हम दूसरों की ओर तब तक नहीं देखते, जब तक कि हमें ठोकर न लगे और यह ठोकर मुझे लगी प्रेम से। वह ख़ूबसूरत समय जब मुझे पहली बार लगा कि मुझे प्रेम हुआ और वह उतने ही प्रेम से नकार दिया गया, तब उस नकार ने अचानक से मुझे नाकारे लोगों से जुड़ने की संवेदना दे दी। मेरे ‘मैं’ में एक टनल बना, जिसमें अब दूसरे भी आ सकते थे। मैं दूसरे के जोश में उनकी संवेदना को महसूस कर सकता था और तब मैंने पाया कि दुनिया भर की संवेदनाओं को दो भागों में बाँटा जा सकता है—एक है विजेताओं की संवेदना और उनसे यदि कुछ बच पाया है तो उसे दूसरे पलड़े में रखा जा सकता है। मैं जानबूझकर उसे पराजितों की संवेदना नहीं कह रहा, क्योंकि हम हारने से नहीं लाखों शुक्राणुओं की रेस जीतने से संभव हुए हैं।

पर ये जो विजेता हैं, वे बाक़ी दूसरे लोगों को अपने लिए इस्तेमाल कर लेना चाहते हैं। वे दूसरों के आचार, विचार और अपने प्रकार से ख़ुश रहने पर हँसते हैं और चाहते हैं कि उनके घर में यदि माँड़ो भी लगे तो बाँस उनका हो। वे उनके देवी-देवता, उनके विश्वास तक उनसे छीन लेना चाहते हैं और जो अपनी रक्षा में लड़ते हैं उन्हें राक्षस और जो उनकी भक्ति नहीं करते उन्हें देशद्रोही सिद्ध कर देते हैं और तब मुझे एदुआर्दो गालेआनो की प्रसिद्ध उक्ति—I am the writer elected by the devil (मैं शैतान के द्वारा चुना गया लेखक हूँ) समझ में आई। सारी सभ्यताओं के वे लोग जिनसे मनुष्य होने के अधिकार छीन लिए गए, जो शोषण के शिकार हुए, जो सभ्यताओं के युद्ध में बच गए और जिनके गले में पहले लोहे की और बाद में विचारों की ज़ंजीरें डाली गईं—उनको शैतान सिद्ध कर दिया गया। यानी वे सताए भी गए और शैतान भी हुए। हमारे यहाँ लिखने को देव-कृपा से जोड़ा जाता है, मतलब हम लेखक होते हुए भी ताक़तवरों के पक्ष में ही खड़े होते हैं। पर गालेआनो कहते हैं कि एक लेखक को विजेताओं की ओर नहीं, बल्कि उनके विरुद्ध खड़ा होना चाहिए। और पता नहीं मैंने गैलियानों को सही समझा है या नहीं, पर धीरे-धीरे मैं उसी ओर सरक रहा हूँ।

जब मैं कोई कहानी लिखता हूँ, तब मुझे नहीं पता होता कि उसमें आ रहे सिद्धांत, विचार और भाव कहाँ से आ रहे हैं; पर जैसा कि मैंने कहा कि मैं उसे कोई अबूझ पहेली नहीं मानता, इसलिए उसे लगातार अपने जीवन में खोजता रहता हूँ। जब मैं गर्भ में था, तब माँ ने कई-कई बार पूरा ‘रामचरितमानस’ पढ़ा था। इस तरह से देखा जाए तो मैं अभिमन्यु से अधिक सौभाग्यशाली हूँ। पर मेरे जन्म के बाद बाबा ने मुझे एक साल तक छुआ नहीं, क्योंकि नवजात बच्चे को गोद में लेने की भी शुभतिथि होती है, जो तब तक नहीं आई थी। अपने बहुत बचपने में भी मुझे न जाने किस पाप का भय था कि फ़िल्मी गानों के बोल कान में पड़ते ही मैं राम नाम जपना शुरू कर देता था और जैसे-जैसे मैं बड़ा हो रहा था, मेरे भीतर अपनी संस्कृति की महानता और उस महानता का दंभ भी बढ़ता जा रहा था। यह कुछ-कुछ हिटलर के ‘मास्टर रेस’ के सिद्धांत जैसा दंभ था या न्यूजीलैंड के उस व्यक्ति जैसा जिसने नूर और लिनवुड मस्जिद में गोलीबारी करके पचासों लोगों की जान ले ली और हमारे देश में इस समय चल रही उस दक्षिणपंथी आँधी जैसा भी जिसमें एक ओर गौरी लंकेश, एम.एम. कलबुर्गी, नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पनसारे जैसे पत्रकार, लेखक और विचारकों की हत्या कर दी गई तो दूसरी ओर जयेश सोलंकी, प्रदीप राठौड़, मोहम्मद अख़लाक़ और पहलू ख़ान जैसे आम लोगों को मॉब लिंचिंग के द्वारा निशाना बनाकर पूरे देश में एक भय का माहौल बनाया गया है।

यह झूठा दंभ हम सबको जीवन के अपने-अपने दायरे में तानाशाह बनाता है, जिसके परिणामस्वरूप एक पिता अपनी बेटी को उसकी इच्छा से शादी नहीं करने देता, स्वघोषित ऊँची जाति के लोग दलितों को घोड़ी नहीं चढ़ने देते और प्रधानमंत्री बड़े-बड़े व्यावसायिक घरानों के सी.ई.ओ. की तरह कार्य करने लगते हैं और हम उनसे सवाल पूछने का अपना हक़ भी खो देते हैं और इन सबके पीछे बस एक ही दलील होती है कि हम ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ वाले लोग हैं और हमारे यहाँ तो नदियों को भी माता कहा जाता है और यह ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते’ वाला देश है।

इस अंधभक्ति में मैं भी अंधा होने को ही था कि मुझे एक गुरु मिल गए। वह पूरे परिवार के गुरु जैसे थे। एक दिन शायद गुरु-दक्षिणा के हक़ से वह मुझे ऐसा पाठ पढ़ाने लगे, जिसके बारे में उस समय मेरे पास कोई शब्द नहीं था; पर बाद में जब मैंने अँग्रेज़ी पढ़ना शुरू किया, तब जाना कि उसे ‘bad touch’ कहते हैं।

उस घटना से मैंने संदेह करना सीखा। हर उस चीज़ पर जिसे महान बताया जाता है। मैंने जाना कि ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ का नारा इसलिए दिया गया है, ताकि घर के भीतर शोषण हो सके। नारी को देवता बनाकर उससे मनुष्य होने के अधिकार भी छीन लिए गए हैं और तब पहली बार मुझे उन कहानियों से डर लगना शुरू हुआ जिन्हें मैं बचपन से ही प्यार करता था, क्योंकि ध्यान से सोचने पर मुझे यह समझ आया कि वे कहानियाँ ताक़तवरों द्वारा कमज़ोरों पर हुकूमत करने के लिए गढ़ी गई हैं, पुरुषों द्वारा स्त्रियों को ग़ुलाम बनाने रखने के लिए रची गई हैं, विजेताओं द्वारा पराजितों पर अत्याचार करने, उनके अधिकार छीन लेने और बहुसंख्यक आबादी को हमेशा-हमेशा के लिए पराजित बनाए रखना ही उनका अस्ल उद्देश्य है और उनमें बाक़ी जो कुछ भी है, बस ढकोसला है।

…तो विश्वास करना और हर विश्वास पर संदेह करना, यह मैंने अपने जीवन से सीखा है और अब तक यही मेरे लेखन का सबसे बड़ा टूल है।

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‘भारतीय भाषा परिषद युवा पुरस्कार’ के समय दिया गया वक्तव्य।