यह जो ख़ाली जगह है

दिन : सात
16 नवंबर 2020

आज का दिन देर से शुरू हुआ। बेकार-सा दिन रहा। बोगस भी कह सकते हैं। आज काढ़ा सुबह नाश्ते से पहले नहीं पिया। मन थोड़ा आज अलग ही स्तर पर था। पेट सही नहीं लग रहा है। उसी के चलते दोनों ने दुपहर का भोजन भी नहीं किया। अंदर से ही इच्छा नहीं हुई। साढ़े बारह बजे दवाई खाई और साढ़े तीन बजे लेट गया। भाई पहले ही सोने के लिए तत्पर था। वह सो रहा था। काढ़ा सिर्फ़ एक बार पिया। शाम को लगभग छह बजे।

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इधर दिन में कई सारी आवाज़ों में कई सारे किरदारों को देख रहा हूँ जैसे। जैसे लगा राजकुमार लखनऊ से आ गया है और सुबह उसकी आवाज़ नीचे से आ रही है। इसी तरह दुपहर में सुमेर अंकल की आवाज़ कान में आती हुई लगी। थोड़ी देर बाद तो मेरा दिमाग़ पापा और उनकी बातों को सुन भी रहा था। लगा वह बिल्कुल इस छत के ऊपर घर के बाहर पर्दे के पास खड़े हैं और पापा से बात कर रहे हैं। पर ऐसा कुछ असल में नहीं हुआ। हाँ, इस सबमें उस अकेली रह गई बिल्ली की आवाज़ दिन में कई बार सुनाई देती है, जिसकी माँ और बहन न जाने अब लौट आए हैं या नहीं। उसकी म्याऊँ में पता नहीं क्यों यही लगता है, वह मर्मांतक है। वह अपने परिवार के गुम हो गए सदस्यों को इस तरह शायद एक दिन अपने पास बुलाने में कामयाब हो जाए। पता नहीं ऐसा हो पाएगा या नहीं।

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संदीप का सुबह साढ़े सात बजे फ़ोन आया। ‘जांगलिख’ शिमला से 130 किलोमीटर दूर एक गाँव है। वह और मनीष वहीं हैं। उन्हें आज एक झील तक ट्रैक करना था। अच्छा हुआ ‘स्नो फॉल’ हो गया। कहीं रास्ते में होते तो समस्या हो जाती। रात साढ़े दस तक मौसम में बर्फ़ नहीं थी। स्थानीय लोग कह रहे थे, मौसम ख़राब है। मौसम ख़राब का यह अर्थ हम मैदान वालों के लिए ठंड का बढ़ना है। आसमान से बर्फ़ का गिरना नहीं। संदीप ने भी यही अर्थ लिया और जब सुबह उठा तो चारों तरफ़ डेढ़-डेढ़ फ़ुट तक बर्फ़ फैली हुई थी। जब वीडियो कॉल की तब भी धीरे-धीरे बर्फ़बारी हो रही थी। उनके साथ समस्या अब यह है कि अपनी मोटर साइकिल से आए हैं, उसे पीछे छोड़कर नहीं जा सकते। गाँव वाले कह रहे हैं निकलवा देंगे। पर कब निकाल पाते हैं, देखने वाली बात यह है।

दिन : आठ-नौ-दस-ग्यारह
17-18-19-20 नवंबर 2020

बीच के यह तीन दिन कहीं लिखे हुए नहीं है। ये ऐसे दिन हैं, जब एक भी बार अंदर से इच्छा नहीं हुई। सत्रह और अठारह ऐसी तारीख़ें हैं, जब शरीर इस क़दर टूटा हुआ लगता रहा कि लेटने के बहुत देर बाद पीठ को कुछ आराम मिलता। जिन जानकारों को यह अनुभव पहले हुआ है, उनके अनुसार यह स्वाभाविक है। फेफड़ों के पीछे पीठ की तरफ़ ऐसा होना स्वाभाविक है। यह लगता बुख़ार जैसा है, पर पूरी तरह वैसा है नहीं। कभी-कभी तो इस कमरे से भी इतनी ऊब लगने लगती कि बाहर बरामदे पर बिछी हुई चारपाई पर जाकर बैठ जाता। फ़ोन पर बात करते हुए लगा कि बहुत देर बैठ लिए अब लेट जाओ कुछ देर। चलने के दरमियान लगता जैसे कबसे तो चल रहे थे। अब आराम नहीं करना क्या? भूख की तो पूछो मत। भूख एकदम ग़ायब। पेट एकदम भरा हुआ लगता।

यहाँ एक और बार मुझे लगती है कि जब शरीर एकदम टूट-सा रहा हो। पीठ के ऊपरी हिस्से में दर्द असहनीय होने लगे, तब भाप लेना बहुत कारगर होता है। यह मेरा आज़माया हुआ है। पीठ को इससे बहुत राहत महसूस होती है। दर्द करती पीठ के साथ लेटने पर लगभग आधा घंटा तो उस दर्द को जज़्ब होने में लगते हैं। उसके बाद आप किसी करवट लेटने में आराम महसूस करेंगे। जबकि भाप या ‘स्टीम’ लेने पर यह तुरंत राहत लेकर आता है।

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इस सबमें एक दिन ऐसा भी आया जब सीआईईटी से उत्तर प्रदेश के पाँच वीडियो रिव्यू करने के लिए कहा गया। उनका काम आता है तो मना नहीं करता। सत्रह की रात ‘मेफ़टाल फ़ोर्टी’ खाकर पौने बारह बजे तक दो वीडियो तो देख लिए। रात आराम मिला नहीं। अठारह की सुबह बहुत तंग करने वाली निकली। शरीर एकदम से बैठ गया हो जैसे। तब भी नहाया और दवाई खाई। दोपहर का खाना मना कर दिया। कह दिया सलाद और फलाहार करेंगे। भूख मन पर निर्भर है और मन शरीर के अनुसार प्रतिक्रिया करता है। तीनों को एक साथ सामंजस्य में आना होगा। ढर्रे पर अब यह आ रहा है। सुगंध भी कल भाप लेते हुए नाक में थोड़ी-सी महसूस हुई। जो ‘मेन्थॉल’ नाक में शुरुआती दिनों में चढ़ जाता था, उसकी गंध अब बहुत धीमे-धीमे नाक को महसूस होने लगी है।

एक मैडम से बात हुई तो बोली—धूप लीजिए। इतने सारे दिनों में सिर्फ़ धूप को खिलते हुए और शाम को सूरज ढाल जाने के बाद अँधेरा उतरते हुए देखा है। उस तक जा नहीं पाया हूँ। शाम को अँधेरा जल्दी होता है या नहीं यहाँ इसका अनुमान भी नहीं लगा पा रहा। बस साढ़े पाँच बजे लगता है, अँधेरा हो गया। अब बाहर की ट्यूब जलाने का वक़्त हो गया। एक बटन से दोनों एक साथ जलती हैं, इसलिए जब तक अँधेरा घुप्प नहीं हो जाता जलता नहीं हूँ।

अभी टाइप करते हुए अपने हाथ की त्वचा को ध्यान से देख रहा था। बहुत साफ़ लग रही है। मैल का तो जैसे कोई कण भी छू नहीं पाया है यहाँ। जबकि यहाँ आकर हाथ कम धो रहा हूँ। एक दो दिन तो नहाया भी नहीं है।

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एक दिन तो ऐसा भी आया जब गलियारे में हम दोनों भाई खड़े थे और अपने घर का पुराना दरवाज़ा ढूँढ़ रहे थे। अनुमान लगा रहे थे कि यह जो खंबा आ गया है, उसके थोड़ा उधर ही रहा होगा। यहाँ मेज़ थी। जिस पर बैठे-बैठे बाहर देखा करता था। यहाँ टीन थी। यहाँ इस कमरे की बड़ी खिड़की थी। सब आँखों के सामने घूमता हुआ दिखाई दिया ही नहीं। तब जाकर मुझे मोबाइल में अपनी खींची इस जगह की कुछ तस्वीरें देखीं और मिलान किया।

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कभी-कभी मन करता है, स्मृतियों को लिखते जाओ। पर दीवार के सहारे तकिया लगाकर बैठे रहने की भी एक सीमा है। गर्दन और पीठ दुखने लगे हैं। अब दवाई खाऊँगा और लेट जाऊँगा। जितना सोचा था, गाने सुनते हुए नींद आ जाती है, ऐसा यहाँ की रातों में तो बिल्कुल भी नहीं है। सोने के लिए बाक़ायदा मोबाइल स्क्रीन से आँखें हटानी पड़ती हैं। उसे दाईं ओर रखी सोफ़ानुमा कुर्सी पर रखना पड़ता है। बहुत देर तक एक करवट लेकर सोने का अभिनय करना पड़ता है और इस नाटक में एक पल ऐसा भी आता है कि नींद आ भी जाती है।

दिन : बारह
21 नवंबर 2020

कभी-कभी तो लगता है, खिड़की की ज़रूरत जितनी अंदरवालों को नहीं है, उससे ज़्यादा बाहरवालों को है। यह बात जयपुर के ‘हवा महल’ को देखकर मेरे मन में आई हो ऐसा नहीं है। बहुत दिन हुए यह बात मेरे भीतर घुमड़ रही है। वरना जितने लोग हवा महल की सीढ़ियों को चढ़कर अंदर से उन झरोखों से झाँककर बाहर की दुनिया तो क्या ही देख पाए होंगे। अक्सर सब इन झरोखों को बाहर से ही देखकर तृप्त हो जाते हैं। इतना ही होता तो ख़ैर थी। तस्वीरें भी जो खींचते हैं, वह आज तक बाहर से खींचते आ रहे हैं।

अगर यह खिड़की वाली प्रमेय अपने या किसी भी घर की खिड़की पर लगा देता हूँ, तब इसके कुछ और अर्थ खुलते हुए लगने लगते हैं। घर हमारा है। खिड़की हमारी है। यह जितनी हमारे लिए सुलभ है, उसी अनुपात में यह बाहर वाले के लिए भी उपलब्ध है। वह उसे बाहर से एक ख़ास कोण से देखता होगा और कल्पना करता होगा। हम भी सड़क पर चलते हुए कहीं आते-जाते इस बाहरी व्यक्ति के रूप में ही होते हैं। हम हर घर की खिड़की को अंदर जाकर नहीं देख सकते। सारी खिड़कियाँ हमारे लिए हवा महल की तरह रह जाती हैं। मन करता है, पर जाते नहीं हैं।

चले भी गए तब क्या उस दस्तक के बाद बाहर निकल कर हमें घूरती हुई आँखें उसकी खिड़की को देखने की अनुमति देंगी? ख़याल रूमानी है, पर असलियत में न कोई दरवाज़ा खुलेगा, न हममें इतनी हिम्मत ही है कि किसी के भी घर जाकर उसकी खिड़कियों की तारीफ़ के पुल बाँध पाएँ। समय इफ़रात में है, यह झूठ अपने पास रखिए। किसी के पास वक़्त नहीं है—इस ऊलजलूल हरकत करने के लिए। करना हो तो सामने में करके देख लीजिए।

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यहाँ इन बारह दिनों में मैंने अपनी उस पुरानी खिड़की को बहुत याद किया है, जिससे थोड़ा ही सही आसमान दिख जाता था। किसी पंछी को भी नहीं देखा इतने दिन हुए। गरम पानी से शायद इसलिए नहा रहा हूँ कि सूरज की तपिश को मेरी त्वचा कहीं भूल न जाए। रोज़ उसी आम के पेड़ और बंगाली स्कूल की तरफ़ झाँकता गलियारा किसी काम नहीं आता। इतने दिनों में गाड़ियों की बेतरह आवाज़ें ही सुनी हैं। उन्हें देखा नहीं है। बस बैठे हुए सोचता हूँ जो सब सहज और स्वाभाविक लगता रहा, उसमें यह बंधन किस तरह अपना स्थान बना ले गया है। ख़ुद ही एक खुली जेल में रहने का यह अनुभव पता नहीं भविष्य को किस तरह देखने लायक़ नज़र और शऊर दे जाएगा।

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कमरे के बाहर निकलते ही जो ख़ाली जगह है, जहाँ चारपाई और सोफ़ा पड़ा हुआ है, उसे ‘गलियारा’ ही कह रहा हूँ। कहने वाले इसे देखने पर ‘आँगन’ भी कह सकते हैं, पर यह मुझे ‘लॉबी’ ही ज़्यादा लगती है। जितना टहलना है, जैसा टहलना है, सब इसी में सिमटा हुआ है। भाई तो मास्क लगाकर कर बालकनी से नीचे झाँक भी लेता है। मुझसे ऐसा कभी नहीं हुआ है। मैंने कभी सोचा ही नहीं कि नीचे देख भी सकता हूँ। बैठे-बैठे पैर एकदम जकड़ जाते हैं कभी तो। आप दिन भर में कितना डेटा ख़र्च कर सकते हैं यूट्यूब पर। एक पल के बाद आपको लगता है, अब बस। जितना हँसना था हँस चुके। जितनी हॉलीवुड की आने वाली फ़िल्में हैं—उनके ट्रेलर देख लिए। किसी सरकार की आलोचना वाले वीडियो कोई कितना देखे। समय इस तरह हास्यास्पद है, यह प्रहसन से विद्रूप में बदल गया है। मन उचट जाता है। लेट जाओ। लेटे-लेटे गाने सुनने का तो मन बिल्कुल भी नहीं कर रहा इधर।

कुल मिलाकर लब्बोलुआब यह है कि यहाँ से निकलकर कुछ तो छत पर कुर्सी लेकर बैठना है। कुछ किताबों के साथ रहना है। इसके अलावा अभी मन में कुछ ज़्यादा सूझ नहीं रहा। घूमने जाना है, यह एक ‘ओवररेटेड’ टर्म है। सब तो घूम ही रहे हैं। हम भी कानपुर से लेकर कोंच तक हो आए। दिल्ली भी कम नहीं नापी इधर।

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आज दो फ़िल्मों को ठिकाने लगाया। ‘चिंटू का बर्थडे’ (2020) और ‘माइंडहंटर्स’ (2004)। एक सुबह नाश्ते के साथ। एक दुपहर के खाने के बाद। पहली फ़िल्म तो ठीक रही। ‘कोयली के बचवा टिकुलिया रे दुगो जामुन गिराओ’ वाला गीत ‘इप्टा’ बिहार के एक द्वारा गाए जाने वाले एक लोकगीत से प्रेरित है। दूसरी अमेरिकी एफ़बीआई की ट्रेनिंग की पृष्ठभूमि के साथ बहुत हिंसक दिखाई भी देती है। इसमें जैसा ‘थ्रिल’ है, यह नहीं भी देखा जाता तो कुछ रह नहीं जाता देखने से।

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घर में सब इंतज़ार कर रहे हैं। हम भी उतना ही कर रहे हैं। किसी की अनुपस्थिति कैसे रच रही होगी। अब तक कोई कल्पना का अवकाश ऐसा नहीं मिला, जब मुझे लगे यह करके देखूँ। बरामदे की ‘ट्यूब’ ख़राब हो गई है। यह पता चला तो बस अँधेरे की कल्पना कर रहा हूँ। सूरज जैसे ही ढला सब अँधेरे में छिप गया। कुछ भी तो सामने नहीं है। सब है तो कहीं ऊपर की मंजिल पर। जहाँ से कोई आवाज़ नीचे नहीं आती।

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अभी कुछ देर पहले जब तुमसे बात करके हटा ही था और भाप लेने वाला था, तब भाई और मैंने आज ठंड थोड़ी बढ़ गई है, इस बात पर अपनी सहमति दर्ज करवा दी है। सारा दिन आज रह-रहकर पालथी मारकर बैठता और लगता कहीं बुख़ार की वजह से तो ठंड नहीं लग रही है। अब जाकर पता चला जो ठंड मुझे लग रही है, वही भाई को भी परेशान कर रही है। इस बात के बाद पापा का मफ़लर जो चारपाई पर पिछले शनिवार से तकिए पर अकेला पड़ा था, उसे गले में लपेटकर थोड़ी देर टहला और अब अपने सिरहाने रख लिया है।

दिन : तेरह
22 नवंबर 2020

आज का दिन नौ बजकर पचास मिनट पर मोबाइल की घंटी बजने के साथ शुरू हुआ। मुझे लगा भाई का फ़ोन होगा जबकि यह पहली बार हुआ है जो धुन लगातार बज रही थी, वह मेरे फ़ोन की लगी ही नहीं। थोड़ी देर बाद एहसास हुआ तब तक फ़ोन कट चुका था। फ़ोन तुम्हारा ही था। अभी तक जागे नहीं। ख़ूब मन लग रहा है सोने में। पता ही नहीं चलता कि इतना उजाला बाहर हो गया है। मन और आँखें बाहर जलती ट्यूब की रौशनी जैसा ही देखती रहती हैं। उनमें ज़रा भी रद्दोबदल इतने दिनों में नहीं हुआ है।

कहीं जाना थोड़े है जो जल्दी उठने की हाय-तौबा मचाएँगे। लेटे हैं तो लेटे हैं। आराम से आराम कर रहे हैं।

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नाश्ते के वक़्त काबुली चना खा रहे थे और नवाज़ुद्दीन की फ़िल्म देख रहे थे। फिल्म का नाम है—‘अनवर की अजब दास्तान’ (2014/2020)। ‘इरोज़’ ने दुबारा ओटीटी पर रिलीज़ की है। वह एक जासूस है। अँग्रेज़ी में नाम भी रखा है—‘स्निफ़र’। फ़िल्म बाँधती, पर चालीस मिनट के बाद लगा अब बंद कर दो। यह एक ‘टर्न’ आ जाने के बाद लिया गया फ़ैसला था। वह एक अनजान जगह पेशाब का बहाना बनाकर टेम्पो से उतर जाता है और उसके सामने अतीत के पन्ने बस खुलने ही वाले हैं कि हमने फ़िल्म यह कहकर बंद कर दी कि बहुत टाइम ले रही है।

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आज ठंड कल के मुक़ाबले कमरे में कुछ ज़्यादा ही मंडराती लगी। रज़ाई से बाहर निकलने पर लगता जैसे बर्फ़ हो गए हाथ पैर। हो सकता है इसमें कुछ ज़्यादा ही बढ़ा-चढ़ाकर अपनी बात कह रहा हूँ और यह कमरा ही बाहर के मुक़ाबले कुछ ज़्यादा ठंडा रहता हो पर दिन भर यही लगता रहा। इसी लगने और न लगने के बीच दुपहर के खाने के बाद धनुष की फिल्म ‘3’ (2012) लगा दी। नाम गिनती पर क्यों है, यह समझ नहीं आया।

फ़िल्म भी इतनी बड़ी क्यों है, यह भी एक सवाल है। आईएमबीडी पर इस तमिल फ़िल्म की रेटिंग 7.2 दिखाई जा रही है। फ़िल्म कहाँ ख़त्म होती है? एक संदेश पर। पूरी फ़िल्म उसके विपरीत काम करती रही और आख़िर में कह दिया, मनोचिकित्सक से ऐसे रोगों का समुचित इलाज संभव है। तुम ख़ुद बनाते तो हम जानते। यह बोलकर निकल जाने वाले बहुत हैं। इससे पहले ‘असुरन’ (2019) देख रहे थे। वह इंग्लिश सबटाइटल के साथ थी। मज़ा नहीं आया। बंद करके इस तक पहुँचे थे, जिसका गाना ‘कोलावरी-डी’ यूट्यूब पर सुना पहला गाना था। इसकी रिकॉर्डिंग का वीडियो था। तब हमारे यहाँ इंटरनेट लगा-लगा ही था।

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आज या कल… शायद आज सुबह की ही बात है : मैंने बालकनी से नीचे एक झलक देखने के लिए अपनी गर्दन आगे बढ़ाई। मेन गेट की तरफ़ भी देखा। सड़क नहीं दिखी। जिसे देखने के लिए उधर मुड़ा था, वह नहीं दिखी। सोचता हूँ क्यों ज़रूरी है—सड़क का दिख जाना? क्यों ज़रूरी है—सड़क की गतिशीलता को एक पल के लिए देख भर लेना? जब सड़क की बजाय दरवाज़े पर लगी हरे रंग की शीट दिखाई दी, तब मन ने क्या सोचा?

जैसे एक दो दिन से कर रहा है, चुपके से छत पर रात के दो तीन बजे जाकर टहल आऊँ। कौन देख रहा है? कोई भी नहीं। पर जाता नहीं। कभी यह तक तो सोचा ही नहीं कि दरवाज़ा खोलकर सीढ़ियों पर आते-जाते सभी व्यक्तियों को देखता रहूँ। कभी मन नहीं हुआ। बस एक-एक दिन कर 26 की तरफ़ बढ़ रहे हैं। एक सुबह यहाँ इस कमरे से समान समेटकर ऊपर ले जाना होगा। यह कमरा जिसमें हम रह रहे हैं, यहीं रह जाएगा।

इसकी कुछ नई स्मृतियाँ अपने साथ ले आएँगे। अभी तो मुझे बस अपने दाईं ओर रखे सोफ़ा के बिल्कुल पीछे तीन-चार साल पहले का एक लोहे का दरवाज़ा याद आ रहा है। कमरे का फ़र्श सीमेंट का है। इतनी रौशनी भी नहीं है। मुझे अभी थोड़ी देर में इसी दरवाज़े से निज़ामुद्दीन रेलवे स्टेशन जाना है। सात बजे की ट्रेन है। संदीप छोड़ने आएगा। पीएचडी के फ़ील्ड वर्क के लिए जा रहा हूँ। तुमने गाजर का हलवा भी बनाकर दिया है। गोंडा पहुँचने पर स्टेशन पर उसमें से थोड़ा खाया था। यह कमरा उस शाम से लेकर आज तक बहुत बदल गया है। कभी सोचा भी नहीं था, यहाँ इस तरह कभी वापसी होगी। यह ऐसे दिन हैं जब पुराने दिनों वाले कमरे का कुछ भी जल्दी से याद नहीं आ रहा है। कभी तो ऐसा लगने लगा है, बहुत पास की चीज़ें भूल गया हूँ या याद करने पर उन तक पहुँच पा रहा हूँ। ऐसा दो तीन-बार इधर हुआ है। अभी याद भी नहीं कर पा रहा कि किसे भूल रहा था।

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अभी घंटा भर पहले भाप लेते हुए उस टैबलेट की महक कल के मुक़ाबले थोड़ी बड़ी हुई लगी। सुगंध ऐसे ही वापस आ रही है। स्वाद का कुछ ज़्यादा समझ नहीं पा रहा। दुपहर की दाल-दाल लग रही थी। रात की दाल में वैसा स्वाद ही नहीं लगा। सेब सेब लग रहा है। मीठा। किशमिश-किशमिश की तरह है। पर इस किशमिश को खाते हुए अपने बचपन में इसे सबसे पहली बार खाने के स्वाद से मिलान कर रहा था। वैसा स्वाद तो आज बिल्कुल भी नहीं लगा। वह किशमिश ही बहुत छोटी थी। मुँह में न जाने कैसा स्वाद था उसका।

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भाई कह रहा था, यह भी कोई दिन है? एक दो घंटे का तो दिन है यहाँ। देख साढ़े बजे अँधेरा हो गया। रोज़ यही है। नाश्ते के वक़्त एक फिल्म फिर काढ़ा, खाना और खाने के बाद एक फ़िल्म। समझो दिन ख़त्म। अँधेरा होने के बाद कौन-सा कुछ बचता है दिन में। खाना खाया मोबाइल देखा। सो गए। आ गया अगला दिन।

जारी…

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