जहाँ लड़की होना ही काफ़ी है
महानगरों और चुनिंदा विद्यालयों को अगर छोड़ दें (उनको भी क्यों ही छोड़ दें), और छोटे शहरों और अधिकांश विद्यालयों की बात करें, तो :
एक
मुझे बचपन से ही करौली की धर्मशालाओं और अपने शहर की महिला कॉलेजों में कोई ज़्यादा फ़र्क़ समझ में नहीं आया। मुझे लगता रहा कि धर्मशालाओं की तरह ये कॉलेज भी धर्मार्थ ही खुलवा दिए गए थे, जिनसे कोई भी उम्मीद रखना गुनाह-ए-अज़ीम-सा था। एक जगह आप फटी दरी की शिकायत नहीं कर सकते, दूसरी जगह आप अध्यापिकाओं-कर्मचारियों के तू-तड़ाक की शिकायत नहीं कर सकते। मैं अपने आस-पास के महिला कॉलेजों के नाम को देखूँ, तो वे अक्सर किसी महिला के नाम पर होते हैं, जिनके बारे में आप अंदाज़ लगा सकते हैं कि ये अमूमन कोई जैन या बनिया, या और किसी जाति की स्त्री होगी, जिसके सम्मान में ये कॉलेज खोले गए होंगे।
इन कॉलेजों ने मेरे समाज की स्त्रियों की शैक्षिक-सामाजिक स्थिति पर उतना ही प्रभाव डाला है, जितना कि वे अगर धर्मशाला होते, पार्क में जनता को समर्पित बेंच होते या खाटू श्याम की नक़्क़ाशीदार क़ालीन होते, तो डालते। हमने माँगे विद्यालय, हमें मिलीं धर्मशालाएँ, जहाँ इतना ही काफ़ी था कि सिर टिकाने भर की जगह मिल जाए। इसके अलावा कुछ माँगने पर सुनने को मिलता कि डिग्री लो और निकलो। वस्तुतः तो इन कॉलेजों का नारी-सशक्तीकरण से कोई सीधा संबंध नहीं है। ऊपर गिनाए गए कामों से सरकारी अनुदान नहीं मिलते, किंतु कॉलेज खोलने पर उस परिवार का नाम भी दीर्घजीवी हो जाता है, एक टिकाऊ व्यवसाय भी शुरू हो जाता है और इनको बनाने में ज़्यादा इंवेस्टमेंट की ज़रूरत भी नहीं होती। यहाँ न खेल के मैदान होते हैं, न विषयों की बड़ी रेंज होती है, न ही इन बातों की सुनवाई या ज़रूरत महसूस होती है।
दो
अपने अनुभव से कहूँ तो महिला विद्यालयों की शिक्षिकाएँ कभी तो मुझे मध्यवर्गीय परिवारों की सास मालूम पड़ती हैं, तो किन्हीं मामलों में हमउम्र प्रतियोगी। वे कभी कक्षा में आदर्श पत्नी और आदर्श परिवार जैसी नसीहतें देती मिलेंगी, तो कभी पढ़ाई से एकदम निरपेक्ष किसी बात पर ताना देते हुए। ये शिक्षिकाएँ अपनी छात्राओं को सबके सामने मिसोजिनिस्ट बातें सुनाते हुए थप्पड़ बरसा सकती हैं, किसी मुँहलगी लड़की की बेहद आपत्तिजनक बात पर फिक-फिक करके हँस भी सकती हैं।
मैं एक बार एक महिला कॉलेज में उपस्थित थी। अचानक यह शोर उठा कि कॉलेज की कोई छात्रा कैंपस में शराब पीकर बैठी है। यह सुनते ही कॉलेज की प्रधानाध्यापिका वहाँ आईं और उक्त लड़की के बाल पकड़कर वहीं थप्पड़ बरसाना शुरू कर दिया। बाद में मेरे ही सामने किसी लड़की ने अपनी शिक्षिकाओं के सामने हँसते हुए कहा, ‘‘उसका चेहरा ऐसा हो गया था मानो उसका रेप हो गया हो।’’ यह सुनकर शिक्षिकाएँ मुस्कुराने लगीं।
महिला कॉलेजों के वातावरण से जहाँ हम लड़कियाँ उनके सपोर्टिव होने की उम्मीद करती हैं, वहीं होता एकदम उलट है। मेरी एक जानने वाली लड़की, जिसका एक छोटा बच्चा भी है, ने एक महिला बी.एड. कॉलेज में एडमिशन लिया था। वह कॉलेज में अक्सर थोड़ा लेट हुआ करती थी। अपनी शिक्षिका के पूछने पर उसने अपने छोटे बच्चे और बीमार सास-ससुर का हवाला दिया तो शिक्षिका ने कहा कि जब तुमको घर ही चलाना है, तो पढ़ने क्यों आई हो! फिर उसने अपनी स्थितियों से तुलना करते हुए उसे काहिल और लापरवाह बता दिया।
महिला कॉलेज तो ठीक हैं, उनमें अगर आपने बी.एड. में दाख़िला लिया है, तो आपको कुंठा के नए-नए आयाम खुलते दिखाई देते हैं। दाख़िला लेने के दौरान ही अधिकांश कॉलेज आपसे बारह-पंद्रह शर्तों का एक ‘एफ़िडेविट’ बनवाते हैं, जिनमें कुछ ऐसी शर्तें होती हैं कि मैं शपथ करती हँ कि कॉलेज कैंपस में मोबाइल फ़ोन लेकर नहीं आऊँगी, कि बॉयफ़्रेंड के साथ नहीं आऊँगी, कि मैं मेकअप का सामान, पेनड्राइव, लैपटॉप लेकर नहीं आऊँगी आदि आदि। कुल मिलाकर महिला कॉलेजों का माहौल पितृसत्तात्मक नियमों और ट्रेनिंग के आधार पर ही बनाया जाता है, जिस पर अगर कोई लड़की सवाल उठाती है तो उसे ऐसे देखा जाता है; मानो वह किसी सनातन नियम में दख़ल डालने का दुस्साहस कर रही है और उसे ‘जाति-निष्काषित’ कर दिया जाता है। ऐसे माहौल में जो लड़कियाँ पढ़ने आती हैं, वे अंततः उन्हीं सनातन काल से चली आ रहीं अच्छी, संस्कृति की ठेकेदार और आदर्श स्त्रियों में परिवर्तित हो जाती हैं।
तीन
हमारे आस-पास की संरचना का, जिन जगहों पर हम रहते हैं, उनकी बनावट का हमारी विचार-प्रक्रिया पर कैसा प्रभाव पड़ता है, यह मुझे पहली बार एक महिला कॉलेज में ही पता चला था। यूँ हुआ था कि एक बार मैं एक कॉलेज में गई थी। वह एक छोटे-से कैंपस वाला, साधारण संरचना वाला लड़कियों का कॉलेज था। वहाँ जाकर मुझे लगा कि मैं किसी सुरक्षित जगह पर आ गई हूँ। यह एक छोटी-सी दुनिया है, जिसमें मैं निहायत साधारण होकर भी बच सकती हूँ। वह वातावरण मुझे संकुचित कर रहा था, लेकिन वह मुझे अनोखे ढंग से जीवन को सरल होता भी महसूस करवा रहा था। मुझे अच्छा लग रहा था। यह तो मुझे बाद में समझ में आया कि यह सरलता कितनी ज़हरीली थी।
वह सरल और सीधा माहौल मुझे अपने दायरों को बेहद संकुचित होते देने पर मजबूर करता और मैं यह होने भी देती, और होते-होते वही घेरा कमोबेश मेरे पूरे जीवन के लिए नियत हो जाता।
यह भी बाद में ही समझ में आया कि लड़कियों के ऐसे कॉलेजों में ऐसे माहौल का बन जाना, काफ़ी कुछ उन कॉलेजों की बनावट, संरचना पर भी निर्भर करता है। संरचना को बहुत स्थूल अर्थों में न लें, और इसके भिन्न निहितार्थों को भी ध्यान में रखें, तो साफ़ दीखता है, कि ये कॉलेज इनमें पढ़ने वाली लड़कियों का वितान बहुत संकुचित कर देते हैं। फिर मुझे उस सरलता से घबराहट-सी होने लगी। इन कैंपसों द्वारा नियत वितान से अलग अपना वितान रचने/रच पाने वाली लड़कियाँ बहुत कम होती हैं।
यह विडंबना है कि इन कॉलेजों में लड़कियों को सबसे कम चुनौतियाँ दिखती हैं, लेकिन असल में उनके अस्तित्व की बहुत बड़ी-बड़ी चुनौतियों को ये जगहें सतह पर ले आ देती हैं।
चार
मैंने जिस कॉलेज से पढ़ाई की है, उसकी एक महिला विंग होती है। यह विंग कॉलेज में ही है, पर वह बाक़ी कैंपस से एक शटर से अलग किया हुआ है। मुझे याद है, जब मैं मुख्य कैंपस से होते हुए, अपने विंग में घुसती थी तो मुझे लगता था कि मैं एकदम नई दुनिया में प्रवेश कर रही हूँ। मुझे लगता है ऐसा ही मेरे साथ की अन्य लड़कियों को भी लगता था, क्योंकि उस विंग में सब लड़कियाँ बाहर की अपेक्षा काफ़ी सहज हो जाती थीं। उस विंग में जुड़ाव का एक ही कारण काफ़ी था, स्त्री होना। इसके अलावा आप हिंदू हैं, ईसाई हैं मुसलमान हैं या दलित हैं; अधिक फ़र्क़ नहीं पड़ता था। मुसलमान लड़की का बुर्क़ा दूसरी लड़कियाँ भी पहन सकती थीं, बहुत निजी बातों पर ताने भी मार सकती थीं। पर उस विंग से बाहर आते ही हमारे बीच कुछ बदल जाता। हम महज़ लड़कियाँ नहीं रह जाती थीं जिनके लिए उनका लड़की होना ही काफ़ी है।
पाँच
अपने कॉलेज में ही पहली बार मुझे लड़कियों की यौनिकता की संभावनाओं का पता चला। वहीं पहली बार मैंने लड़कियों को अपनी सेक्सुअल फंतासियों को खुलकर बताते सुना। वहीं मैंने ढेर सारी लड़कियों को अपने घरेलू उत्पीड़नों के बारे में बताते सुना। वहीं मुझे स्त्री-पुरुष संबंधों की कई परतें समझ में आईं।
मुझे याद है, मेरी एक मित्र अपने किसी रिश्तेदार द्वारा अपने उत्पीड़न का क़िस्सा सुना रही थी, हम बहुत दुखी होकर सुन रहे थे। तभी उसे बंदरों का एक जोड़ा संभोग-रत दिखा और वह अचानक से ताली मारकर किलक उठी। संग में सारी दुखी लड़कियाँ भी चहक गईं। उनमें से एक लड़की ने तो बंदर और बंदरिया का निरूपण, उत्पीड़न की कथा सुना रही लड़की और उसके उत्पीड़क से कर दिया। वहाँ मैंने समझा कि लड़कियों की ‘विट’, उनके अपने स्पेस में बहुत तेज़ हो जाती है। जबकि दुनिया लड़कियों को फ़नी नहीं मानती, उनके हास्यबोध को भोथरा कहती है। पीड़ा से हास्यबोध उपजाने के सबसे सफल प्रयोग स्त्रियों ने किए हैं।
छह
मेरी एक बड़ी बहन ने आज से 18-19 साल पहले एक महिला कॉलेज से बी.एड. किया था। वह जब बी.एड. कर रही थी, तब के कॉलेजों में आने वाली लड़कियों में सवर्ण लड़कियाँ काफ़ी कम होती थीं। उसके अपने बैच में सिर्फ़ चार सवर्ण लड़कियाँ थीं। उस समय भी बाभन-ठाकुर अपनी लड़कियों को ‘नौकरी देने वाले’ कोर्सेस में डालने से कतराते थे। आज यह आँकड़ा बदल चुका है। सवर्ण जातियों ने किस तरह अपने को बदला है, ये इसकी छोटी-सी बानगी है।
मेरी बड़ी बहन की स्मृति में ऐसी कोई बात भी नहीं, जिसमें उन लोगों की शिक्षिकाओं ने उनसे मिसोजिनिस्ट तरीक़ों से बात की हो; बल्कि उन लोगों ने उन्हें हमेशा आगे और पढ़ने को प्रेरित किया। पर आज यह स्वरूप बदल चुका है। इसका जो कारण मुझे समझ में आता है, वह यह है कि इतने सालों पहले इन शिक्षिकाओं में यह भावना थी कि लड़कियों को पढ़ना चाहिए—‘‘पढ़ी-लिखी लड़की, रोशनी घर की…’’ किंतु इन सालों में हुआ यह कि लड़कियों ने अपनी आवाज़ पहचानी, वे चुपचाप पढ़ने वाली लड़कियाँ नहीं रह गईं, हर लड़की के हाथ में मोबाइल फ़ोन आ गया। ऐसे में शिक्षिकाओं को लगा कि इतनी मन की बढ़ी लड़कियाँ भी नहीं होनी चाहिए। उनको लगा कि बोलने वाली, चुपचाप न पढ़ने वाली लड़कियाँ अच्छी नहीं होतीं, वे घर की रोशनी नहीं बन सकतीं। क्यूँकि उन शिक्षिकाओं की ख़ुद की ट्रेनिंग पुरानी है।
मुझे एक टीचर याद हैं जो लड़कियों को अपनी एक एसडीएम भाभी का उदाहरण देती थीं कि कैसे उनकी भाभी नौकरी करके घर में घुसती हैं तो साड़ी का घूँघट बना लेती हैं। कभी-कभी मुझे लगता है कि यह सुपरवुमन की संकल्पना, महिला विद्यालयों से ही निकली होगी।
सात
मुझे कई दफ़े ऐसा लगा कि बजाय इसके कि लड़कियाँ इस सिस्टम से अपने लिए सवाल पूछ सकें, वहाँ ये तैयारी करवाई जाती हो कि कैसे उनको पुरुषों के बनाए इस सिस्टम में, बदलते ज़माने के पुरुषों के अनुकूल रहना है। मेरी एक दोस्त एक बार अपने दुपट्टे में बिना पिन लगाए स्कूल पहुँच गई और उसे वहाँ एक लैब-असिस्टेंट ने दुपट्टे की महत्ता पर पाठ पढ़ाया। जबकि सवाल ये है कि अगर हम अपनी छातियाँ ‘पुरुषों की निगाहों’ से छिपाते हैं तो एक महिला कॉलेज, जहाँ सब स्त्रियाँ ही हैं, वहाँ इतनी सख़्ती से दुपट्टा-परेड क्यूँ कराई जाती है? एक लड़की मात्र एक फ़ॉर्म ख़रीदने, ट्रैक-सूट में कॉलेज गई तो उसको एक टीचर ने कॉलेज के अंदर सलवार-सूट के बिना घुसने के लिए लताड़ा। इन सब बातों का उत्तर यही समझ में आता है कि यह लड़कियों की मर्दों को सहज़ महसूस कराने की ट्रेनिंग चल रही है।
‘पढ़ी-लिखी’ और ‘पारंपरिक’ की बाइनरी में फँसे रहने की आदत बनाई जाती है! इन दोनों शब्दों के बीच में जो गोरखधंधा है, उसी में इन कॉलेजों की लड़कियों की ज़िंदगी का सच है। यहाँ ज़िंदगी यह सुनते बीतती है कि ‘‘देखो उसको, पढ़ी-लिखी है; लेकिन ज़बान नहीं चलाती, नौकरी करती है; लेकिन आवारा नहीं है, जींस पहनती है; लेकिन कुरती के साथ!’’ होना तो यह था कि यह कॉलेज हम लड़कियों के लिए पितृसत्ता से एक एस्केप होते। यहाँ हम बिना दुपट्टों के भी घूम सकते होते। यहाँ हम जैसे मन हो, पैर वैसे रखकर बैठ पाते। ये जगहें हमारे लिए उम्मीदों का नया आकाश खोलतीं। हम अपने शरीर, अपने कपड़े, अपनी सजावट, अपने अनुकूलन से परे जाकर भी सोच पाते। पर हुआ यह कि इन कॉलेजों पर उन्हीं मर्दों का क़ब्ज़ा रहा, उन्हीं का संचालन रहा और उन्हीं की सोच रही। इतने अनुशासन रहे कि हम समझ नहीं पाए कि ये विद्यालय हमारी आँखें और बुद्धि खोलने के लिए हैं या हमारे पैर और पर काटने के लिए।
कभी-कभी मुझे सपना आता है कि महिला विद्यालयों में आकर लड़कियाँ अपने दुपट्टे साइड में रखतीं, ब्रा के हुक्स खोलकर साँस लेतीं, केवल दुनिया की ही बातें न करतीं बल्कि दुनिया के एजेंडों-प्रोपेगेंडों में ख़ुद की जगह पर बात करतीं।
आठ
हम जिस समाज में रहते हैं, उसमें महिला विद्यालय एक अपरिहार्यता हैं। ये एक समानांतर समाज की उम्मीद हैं। ये जगहें मुझे निराश करती हैं, लेकिन यहीं मुझे औरतों के लिए ज़्यादा आशा भी दिखती है। महिला विद्यालय स्त्रीवादी शिक्षाओं के बहुत बड़े केंद्र बन सकते हैं। केवल आदर्श गृहिणी, घर की रोशनी और मुँह बंद करके पढ़ने वाली मशीनें पैदा करने वाले कारख़ानों से अलग, समाज में बौद्धिक आलोड़न लाने वाले घटक। ईको-फ़ेमिनिज़्म के सूत्र बताने वाले केंद्र। वर्जीनिया, सिमोन, बटलर, मॉरिसन, महादेवी, मैत्रेयी, कृष्णा, वंदना शिवा, जेन गुडॉल से आगे बढ़ने-सोचने को सिखाने वाले। केवल डिग्री देकर लड़कियों को, उनको ‘सूट’ करने वाली नौकरियाँ लेने के लायक़ बनाने, या शादी में आसानी के लिए नहीं।
प्रश्न ये उठने चाहिए कि ये विद्यालय स्त्रियों की सामाजिक समस्याओं पर कितनी बहस उपलब्ध कराते हैं। इन विद्यालयों में होने वाले वाद-विवाद के विषयों का स्त्रियों की स्थिति से कितना संबंध होता है। यद्यपि ये विद्यालय देश-भर में अपने अस्तित्व के इतने सालों बाद भी यह रेटरिक तोड़ नहीं पाए कि औरत ही औरत की दुश्मन होती है, ये अपने यहाँ से पढ़ी लड़कियों के बीच बहनापे की भावना विकसित नहीं कर पाए, तो भी, मुझे लगता है कि इन्हीं कॉलेजों में यह प्रयोग हो सकते हैं, यही विद्यालय हमारा यह उद्देश्य सिद्ध कर सकते हैं।