एक किताब जो बहुत दूर तक ले जाती है
किताबें हर कोई पढ़ता है। क्यों? इसका सभी का अपना-अपना कारण होता है। मैं किताबें पढ़ता हूँ ताकि यात्रा कर सकूँ, शब्दों और जगहों के बारे में जान सकूँ, अलग-अलग तरह के परिवेश और पर्यावरण का हिस्सा बन सकूँ। शायद, इसीलिए ज़्यादातर किताबें मुझे यात्रा-वृत्तांत सरीखी लगती हैं। लेकिन किताबों के यात्रा-वृत्तांत होने और लगने में फ़र्क़ होता है।
सवाल यह भी उठता है कि कोई किताब जो यात्रा-वृत्तांत नहीं है, वह यात्रा-वृत्तांत कैसे हो सकती है? ऐसे में मुझे सबसे पहले याद आती है, रसूल हमज़ातोव की लिखी किताब—‘मेरा दाग़िस्तान’। इस किताब को मैंने छह बार पढ़ा है। यह किताब मुझे एक पाठक के तौर पर कभी उपन्यास, कभी यात्रा-वृत्तांत, कभी संस्मरण तो कभी आत्मकथात्मक गद्य सरीखी प्रतीत होती है।
सवाल यह भी उठ सकता है कि ऐसा क्यों? इसके कई कारण हो सकते हैं। एक तो लेखक की अपनी अभिरुचि जो आगे चलकर लेखन-शैली का रूप ले लेती है और दूसरा जगहों के प्रति लगाव। ‘मेरा दाग़िस्तान’ में ये दोनों ही बातें देखने को मिलती हैं। पूरी किताब में रसूल अपने छोटे से गाँव दाग़िस्तान के बहाने लेखन की बात करते हैं।
रसूल यह बताने की कोशिश करते हैं कि अच्छा लेखन क्या होता है और साथ ही साथ यह भी कि एक अच्छे लेखक को क्या नहीं लिखना चाहिए। इसी के बहाने वह बारी-बारी से लेखन के हर पहलू पर बात करते हैं। वह यह तक बताते हैं कि एक अच्छी किताब का नाम और उसकी भूमिका कैसी होनी चाहिए। वह तर्क नहीं देकर उदाहरण देते हैं, एक ही चीज़ को समझाने के लिए दो या फिर तीन दिलचस्प उदाहरण। इसका स्पष्ट कारण यह है कि वह लेखक के साथ साथ अपने पाठक को भी जानते हैं। उन्हें पता है कि वह अपने पाठक को कैसे समझा अथवा बता सकते हैं। इस किताब को पढ़कर इस बात का अनायास ही अहसास होता है कि यदि हम अपने पाठक को जानते हैं तो किताब लिखने की जटिलता एक हद तक ख़त्म हो जाती है और सहज भाव से लेखन संभव हो पाता है।
ख़ैर, मैं बात कर रहा था कि ज़्यादातर किताबें मुझे यात्रा-वृत्तांत सरीखी क्यों प्रतीत होती हैं। देखा जाए तो लेखन का मूल तत्त्व लेखन की विधा के अनुरूप व्यवहार करता है। कविता का मूल तत्त्व कुछ और होगा, कहानी का कुछ और तथा उपन्यास का कुछ और। पर सबमें एक सामीप्य तो होता ही होता है।
इसी तरह किसी कृति को मौलिक और जीवंत बनाने के लिए भी कुछ मूल तत्त्व होते हैं। लेखन कितना भी आकर्षित करने वाला हो यदि पढ़ते वक़्त पाठक को परिवेश और पर्यावरण का बोध नहीं हो तो समझो कि कुछ न कुछ कमी है। इसी कमी को पूरा करने के लिए लेखन करते वक़्त स्थान, स्थिति और समय का विशेष ध्यान रखा जाता है।
ये वे तीन चीज़ें हैं जिनमें से कोई भी बदला तो रचना का स्वरूप बदल जाता है। यदि हम स्थान की बात करें तो एक ही घटना अथवा विषय के अलग-अलग मायने हैं। उदाहरण के तौर पर यदि किसी आबादी वाले स्थान पर भूकंप आता है तो उसके अलग मायने हैं, किसी निर्जन स्थान पर आता है तो उसके अलग। स्थिति की बात करें तो सिर्फ़ कोण बदलने से किसी भी चीज़ के स्वरूप में बदलाव आ जाता है।
हम एक ही चीज़ को जितने कोण से देखेंगे, उसके स्वरूप में उतनी ही भिन्नता पाएँगे। जो चीज़ नज़दीक से देखने पर अपने मूल स्वभाव में होती है, दूर से देखने पर वही छोटी नज़र आने लगती है।
समय का भी परिवेश अथवा पर्यावरण के निर्माण में पड़ता है। एक ही घटना का असर अलग-अलग समय में अपना अलग-अलग प्रभाव स्थापित करता है। कोई तात्कालिक घटना है तो हमें उद्देलित कर देती है और पुरानी तो वह हमारे सहज व्यवहार में आ जाती है।
यही कारण है कि स्थान, स्थिति और समय को अपने सृजन में स्पष्ट करना रचनाशीलता की अहम कसौटी बन जाती है और स्थान, स्थिति और समय में प्रवेश ही यात्रा है। हाँ, यह ज़रूर है कि यात्रा भौतिक और मौलिक होती है; किताब-यात्रा वैचारिक।
‘मेरा दाग़िस्तान’ में स्थान, स्थिति और समय का विशेष ध्यान रखा गया है। एक घुमक्कड़ के तौर पर देखा जाए तो मेरी आदत किसी किताब को पढ़ते वक़्त उस किताब में शामिल परिवेश को जानने और जीने की इच्छा रहती है और स्थान, स्थिति और समय का बोध जैसे-जैसे गहरा होता है; ऐसा लगता है कि मैं किसी यात्रा पर हूँ, लेकिन यह नहीं कह पाता कि किताब भी यात्रा होती है।
मेरी यह झिझक पूरी तरह से किताब ‘मेरा दाग़िस्तान’ तोड़ती है।
रसूल एक जगह कहते हैं कि यदि आप अपनी मातृभूमि से प्यार नहीं कर सकते तो किसी और जगह से कैसे कर सकते हैं? इस वाक्य में वह जगह की कम मौलिकता की ज़्यादा बात करते हैं। सचमुच, ये किताब इतनी मौलिक है कि किसी को भी पढ़ते हुए उन जगहों की यात्रा का जी कर जाए जिनका ज़िक्र रसूल अपनी किताब में करते हैं।
घूमना, टहलना, नई-नई जगहों को देखना इंसान का बहुत पुराना शग़ल है; लेकिन ऐसी बहुत सारी किताबें भी हैं जो हमें यात्रा कराती हैं और हमें अपने साथ बहुत दूर तक ले जाती हैं।