नकार को दिसंबर की काव्यात्मक आवाज़

कोई आहट आती है आस-पास, दिसंबर महीने में। नहीं, आहट नहीं, आवाज़ आती है। आवाज़ भी ऐसी जैसे स्वप्न में समय आता है। आवाज़ ऐसी, मानो अपने जैसा कोई जीवन हो, समस्त ब्रमांड के किसी अनजाने-अदेखे ग्रह पर। किसी अंचल, किसी देश में। मार्को पोलो द्वारा ढूँढ़ी गई अभी तक किसी अनचीन्ही जगह में। किसी विचारधारा से कोई मस्तिष्क और हृदय गुँथा-बिंधा। आवाज़ ऐसी जो हासिल चीज़ों के दुख और खोई चीज़ों की ख़ुशी को अभिव्यक्त करती हो। नहीं, आवाज़ ऐसी जो नक्सलियों की ख़ामोश चिल्लाहट को अपनी आत्मा में समेटकर कुछ कहना चाहती हो। एक ऐसी आवाज़ जो बीबीसी की शान हुआ करती थी। नहीं, एक ऐसी आवाज़ जो जनता की सत्ता को मान्यता भर ही न देती हो, उन्हें सहर्ष स्वीकार कर लिया करती हो।

वह आवाज़ जो यह मानती हो कि राजमार्ग पर चलने का सबसे पहला अधिकार पदयात्रियों का ही है। यहाँ एक काव्यात्मक असहमति हो सकती है। उसी तरह जैसे पंकज सिंह जैसा कोई बुद्धिजीवी असहमतियों को स्वीकार करता है। जिसका जीवन ही अपने जैसा हो, वह असहमति के साहस और सहमति के विवेक को साथ लेकर ही चलेगा। लेकर चलेगा, जाएगा नहीं। संज्ञा, सर्वनाम, क्रियाएँ इत्यादि कहीं नहीं जातीं, वे अमरता की दुर्लभ कोख में समाती हैं और वहाँ से इस भौतिक दुनिया की राजनीति को झाँकती रहती हैं। खोना भी एक क्रिया है, पाने की तरह। खोना एक कारुणिक क्रिया है जो कविता में नए गवाक्ष सामने लाती है। यह गवाक्ष यहाँ अभिसरित प्रकाश-पुंज की तरह मुकम्मल तौर पर मौज़ूद है।

गंभीर जोखिम उठाते हुए ज़हीन कवि पंकज सिंह ने अन्याय की सत्ता के विरुद्ध बुलंद आवाज़ें उठाई हैं। नहीं, आवाज़ ही नहीं उठाई है, ज़बरदस्त संघर्ष किया है। नहीं, संघर्ष नहीं किया है; संघर्ष को जिया है। सहज ही लिखते हुए यह जो ‘नहीं’ शब्द मुसलसल आता ही चला जा रहा है, यह अभूतपूर्व कवि पंकज सिंह की वर्णमाला का एक महत्त्वपूर्ण अक्षर है। अक्षर और वर्ण, शब्द और वाक्य यहाँ कुछ सकारात्मक वैचारिकी की नींव रखते हैं। यहाँ पर ‘नहीं’ एक शब्द नहीं, एक वाक्य बन जाता है। यह कोई हीगेलियन सर्किल का निगेशन या नकार का नकार नहीं है। यह एशियाई पृष्ठभूमि, अभावों, वंचना और हाशियाकरण का नकार है। यह ग़ैर-बराबरी का नकार है। यह एक ऐसी विषमता का नकार है, जहाँ पंकज सिंह ‘भविष्यफल’ शीर्षक अपनी कविता में लिखते हैं :

कोई एक अक्षर बताओ
कोई रंग
कोई दिशा
किसी एक फूल का नाम लो
कोई एक धुन याद करो
कोई चिड़िया
कोई माह; जैसे वैशाख
खाने की किसी प्रिय चीज़ का नाम लो
कोई ख़बर दोहराओ
कोई विज्ञापन
कोई हत्या; जैसे नक्सलियों की
किसी एक जेल का नाम लो
कल तुम कहाँ होगे
मालूम हो जाएगा।

छोटी कविता लिखना कठिन काम है और अपने आकार में यह छोटी-सी कविता पंकज सिंह की राजनीतिक प्रतिबद्धता को रूपायित करती है। नहीं, राजनीतिक प्रतिबद्धता भर को नहीं, पूरी राजनीति के विसंगतिपूर्ण व्याकरण, अहंमन्यता और जनकल्याण के विलोपन को भी।

कविता पंकज सिंह के यहाँ अयाचित स्थितियों और प्रदत्त परिस्थितियों पर एक क्रंदन है। नहीं, क्रंदन नहीं, प्रतिरोध है। प्रतिरोध के अपने ख़तरे हैं। ये ख़तरे पंकज सिंह ने उठाए हैं। नहीं, उठाए नहीं, झेले हैं। नहीं, झेले नहीं हैं, भोगे हैं। लंबी-लंबी दोस्तियाँ, उन पर सहज विश्वास, उन सबके साथ निबाह-निर्वाह, खुरदुरे वक़्त का बीतते जाना, वक़्त के साथ चीज़ों का पीछे छूटते चले जाना या फिर लोगों द्वारा पंकज सिंह को पीछे छोड़ देने की नाकाम कोशिश करना इत्यादि। इन शर्मनाक स्थितियों पर पंकज सिंह की कविता ‘शर्म’ बिल्कुल सटीक बैठती है :

डरी हुई हैं बेशुमार भली स्त्रियाँ
डरे हुए हैं बेशुमार बच्चे
काग़ज़ पर क़लम लेकर झुके लोगो
यह कितनी शर्म की बात है।

वर्तमान सामाजिक, राजनीतिक और तथाकथित डिजिटल माध्यमों द्वारा जो कुछ भी बताया या सुनाया जा रहा है, उस पर पंकज सिंह जैसा कवि ही टिप्पणी और विश्लेषण कर सकता है। आज ख़राब को अच्छा और अच्छे को बहुत अच्छा, बहुत अच्छे को उत्कृष्ट, हार्डलाइनर को सॉफ़्टलाइनर बताने और सिद्ध करने का जो कमज़र्फ़ घालमेल किया जा रहा है, उसमें पंकज सिंह की कविताएँ वैचारिकी के व्याकरण के रूप में एक बेहद आम इंसान की, मानसिक स्तर पर, मदद कर सकती हैं।

इधर एक अच्छा कविता-संग्रह आया है, जिसका नाम है ‘खोई चीज़ों का शोक’ (सविता सिंह)। उसमें आवाज़ का एक इंतज़ार है। उधर से कोई आवाज़ नहीं आती, उधर से एक आह आती है। यह सविता सिंह का कविता-संग्रह है। यहाँ आह सर्वाधिकार के ख़िलाफ़ खड़ी है। यहाँ एक प्यास है और सविता सिंह का मन उदास है। प्रश्नवाचक चिह्न हैं। यह उदासी मायूसी हर्ग़िज़ नहीं है। इसमें एक स्वाभिमान और आत्मविश्वास है। यहाँ ग़लत हालात के प्रति एक जघन्य स्वागत है। इसमें स्थापन, पदस्थापन और प्रतिस्थापन की भूल-भुलैया है। भूल-भुलैया? पर क्यों भला? क्या किसी जैव-अवक्रमणीय कचरे को सँजोने या सिरजने के लिए? नहीं, जाग्रत करने के लिए। यह खोई चीज़ों का शोक दासोत्तर भारत की एक यथार्थ कथा से संबंधित है।

मनोहर श्याम जोशी मुझसे कहा करते थे कि सवाल महत्त्वपूर्ण होते हैं, बस उन्हें पूछने का मानवीय तरीक़ा आना चाहिए। स्पर्श, घ्राण और दृश्य बिंब सविता सिंह के इस संग्रह में तैरते हैं। नहीं, तैरते नहीं हैं; उतराते हैं। किस तरह उतराते हैं भला? उस तरह जैसे जल कभी भी कमल के पत्तों को छू तक नहीं सकता। यह विरक्ति की एक संरचना है। हन्ना आरेंट ने सर्वाधिकारवाद के बारे में जो लिखा है, वह यहाँ सहज याद आता है कि हमें विकल्पों में स्वतंत्रता प्राप्त है, विकल्पों से नहीं। जब कोई विकल्प दिख न रहा हो तो व्यक्ति पूछता या पूछती है कि अब क्या करूँ, अब क्या कहूँ!

सविता सिंह जब यह लिखती हैं कि क्या करूँ, तो यह कोई व्यापारिक हवाओं की बात नहीं है। यह कोलम्बस के बहामा तक पहुँचने की दुर्लभ और दुष्कर यात्रा है। वह लिखती हैं :

क्या करूँ कि हवा चले विपरीत दिशा में
पक्षी लौटें अपने नीड़ों में बिना भटके
क्या करूँ कि नदी में जल रहे
क्या करूँ कि जाता हुआ वह आता-सा दिखे…

यहाँ सारा अंधकार लौट जाता है कुछ उसी तरह जिस तरह जब हृदय में प्रेम का प्रवाह होता है तो सर्जनात्मक विचार अपने उच्चतर शिखर पर होते हैं। भावनाएँ नियंत्रित न रहकर, बहने को विवश हो जाती हैं और तभी कविता का जन्म होता है। पाब्लो नेरुदा ठीक ही लिखते हैं कि वह कोई उम्र थी जब कविता मुझे तलाशते हुए मुझ तक पहुँची। सविता सिंह के यहाँ अंधकार की चाहना है। नहीं, चाहना नहीं; तर्कणा है—नहीं, काव्यात्मक तर्कणा है। इस काव्यात्मक तर्कणा की एक ज्ञान-मीमांसा है। संग्रह से कुछ पंक्तियाँ देखिए :

रात घनघोर है
जैसे घनघोर बारिश
जिसमें भीगती हैं हमारी आँखें
जो कुछ और देखती हैं अब।

दुनिया वही नहीं रह जाती पहले जैसी, जब उसमें एक अच्छी कविता जुड़ जाती है। सविता सिंह और पंकज सिंह के बारे में यह बात विश्वास से कही जा सकती है जो कभी सोनिया सैंचेज़ ने कही थी कि सारे कवि, कवयित्री और लेखक राजनीतिक होते हैं। या तो वे यथास्थिति को बनाए और बचाए रखना चाहते हैं या फिर वे यह सोचते हैं कि कहीं किसी रूप में कुछ तो ग़लत हो रहा है और इसको बेहतर बनाया जाना हमारा कर्त्तव्य है।

अपनेपन की आँच, आत्मीयता की ऊष्मा और एशिया में दिसंबर में कोई ताप लेना हो तो ये चीज़ें पंकज सिंह की कविताओं में मिल जाएँगी। नहीं, इतनी ही चीज़ें नहीं, बल्कि और कुछ अवर्णनीय मानवीय और मानवेतर प्रकृति और सिद्धांत भी। पर बात सिर्फ़ इतनी ही नहीं है कि ये सब महज़ पंकज सिंह की कविताओं में ही दिखता हो। ये तो अच्छा हुआ कि चीज़ें हासिल होने पर दुख और खो जाने पर सुख का अहसास किसी ने किया हो। सविता सिंह की कविता चाहे वह ‘प्रिया’ हो या फिर ‘रात की हवा’, यहाँ प्रकृति की सैद्धांतिकी को बाक़ायदा समझ लिया गया है और बिंब गढ़े गए हैं; नहीं, बिंब गढ़े नहीं गए हैं, रचे गए हैं—नहीं, रचे भी नहीं गए हैं, सहज ही आए हैं—कविता में, उच्छलन में, करुणा में, वेदना में।

‘खोई चीज़ों का शोक’ में संगृहीत गगन गिल को समर्पित जो कविता है, वह अपने आपमें ही एक कविता-संग्रह है। चावल का एक दाना देखकर लोग जान जाते हैं कि चावल पूरा पका है कि नहीं। यहाँ इक धागे को पहचानकर पूरे ही कपड़े को जान-समझ लेने की कोशिश है। नहीं, जान-समझ लेने की कोशिश ही नहीं है महज़, बोध करने की कोशिश है। यहाँ एक आत्मसंवाद है। यह आत्मसंवाद एकालाप नहीं है। अगर एकालाप होता तो नीबू के फूलों की गंध सारे बचे संयम को तोड़ न पाती! पर तोड़ती है। नहीं, तोड़ती नहीं, जोड़ती है। यह जुड़ाव ही पंकज जी के जीवन का मूलमंत्र रहा जहाँ हीमोफ़ीलिया के इंजेक्शन नहीं, रक्तसिंचित सुइयाँ सर्वहारा के जीवन के लिए है, उपाश्रितवर्गीय इतिहास के लिए।

खोई चीज़ों का शोक! एक द्वंद्व। एक दुविधा। सुविधा का नकार। फिर भी एक सौम्यता और सहजता। ख़ून, रक्त, छींटे और नसें सविता सिंह के इस कविता-संग्रह का सार और तत्त्व हैं। यहाँ आकर शब्दकोश विफल-से प्रतीत होते हैं और कविता ‘नहीं’ नहीं, ‘नहीं-सा’ हो जाया करती है जो यह बयाँ करती है :

अभी कितनी ही और चीज़ें मिलेंगी
जो दरअसल वे नहीं होंगी।

गोरख पाण्डेय, धूमिल, मंगलेश डबराल, त्रिनेत्र जोशी, लीलाधर मंडलोई, नीलाभ और विष्णु नागर के साथ मित्रताएँ भी सर्वदा ही सराहनीय रहेंगी। उथल-पुथल भरे समय में ऐसा विचार करना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी है कि परिवर्तन की दिशा क्या हो?