एक कैफ़े को शुरू करने का संघर्ष
इस समय मुझे समय की गणना उतनी ही ग़ैरज़रूरी लग रही है जितनी कि यह गिनना कि तुम्हें प्रेम करते हुए कितना समय बीता। गणनाएँ और अंक मशीनों की और मशीनीकरण की आवश्यकता हैं। फिर भी बीता हुआ समय एक तथ्य है तो मान लिया जाए कि वह समय सात साल पहले था जब कुछ लड़कों के दिमाग़ में एक फ्लैश हुआ—यथार्थ, नएपन और रचनात्मकता का मिला-जुला ज़बरदस्त फ्लैश—और हिंदुस्तान के एक शहर में एक कैफ़े जैसी चीज़ शुरू की गई। नाम रखा गया—शीरोज़। शी हीरोज़। यहाँ समय का हिसाब ग़ैरज़रूरी मुझे यूँ लग रहा है कि ये कैफ़े मुझे बहुत पुरातन-सी चीज़ मालूम होते हैं, जैसे कि वे यहीं थे—अलग-अलग रूपों में। ये हम असभ्यों की ऐसी ज़रूरत थे कि ऐसा हो ही नहीं सकता कि इनके बिना हम इतना समय पार कर आए हों। पर ठीक उसी समय वे इतने नए जान पड़ते हैं, मानो कल ही इनकी शुरुआत हुई हो। इसलिए वे छह साल पहले शुरू हुए या गार्गी-याज्ञवल्क्य संवाद के समय या फिर कल… या कहीं भविष्य में, इस हिसाब की ज़रूरत मुझे नहीं लगती।
यह फ्लैश उस किसी कालखंड में स्थापित है, जब देश में ढेर-सी ऐसी घटनाएँ हो रही होंगी जिनका भविष्य पर प्रभाव रोज़मर्रा की घटनाओं से बहुत अलग और ज़्यादा होगा। कहा जा सकता है कि ऐसे कालखंड रचनात्मकता के लिए बहुत उर्वर होते हैं। इस उर्वर ज़मीन पर अपनी बर्बादी के बीज डाले जाते हैं, तब कहीं यह फ्लैश संभव होता है।
यहाँ भी ऐसा ही था। देश में होने वाली बड़ी घटनाओं की खेदपूर्ण परिणति से उपजे अवसाद को किसी जगह तक पहुँचाने की इच्छा ने किसी के मन में यह विचार संभव किया कि वह एसिड हमले की शिकार स्त्रियों के लिए काम करना चाहता है। आइडिया कैची था, दोस्तों को बात जम गई और तय हुआ कि हाँ, करेंगे। इस विचार की विकास-प्रक्रिया में सोचा गया कि क्यों न उन लड़कियों-महिलाओं को लेकर एक कैफ़े जैसा कुछ शुरू किया जाए। नाम रहेगा शीरोज़ हैंगआउट, जहाँ का लगभग सारा काम-धाम ये सर्वाइवर्स ही करेंगी। इसको भौतिक अवस्था प्रदान करने की जद्दोजहद और लगातार चलते संघर्ष की तफ़सील में न जाएँ तो भी यह कहना ज़रूरी है कि मुट्ठी भर सहृदयों और नया न्यूज़ मैटीरियल होने की वजह से छिटपुट राजनैतिक आकर्षणों के अलावा इसे कोई बड़ी सहायता मिली नहीं। अलबत्ता कुछ बार इसे बंद कर/करवा देने की कोशिशें ज़रूर हुईं।
हालाँकि फ़िलहाल मेरी इच्छा इस कैफ़े को शुरू करने के संघर्ष और बचाए रखने की जद्दोजहद के विस्तार में जाने की नहीं है। मैं बस इस जगह के होने की बात करना चाहता हूँ। इस जगह का होना मेरे लिए एक अज्ञात जिज्ञासा और रुचि का विषय रहा है। मानो मैं इस जगह के होने का शास्त्र जानना चाहता हूँ। इसके लिए मैं लगातार इस जगह पर आता रहा हूँ, पर यह हर बार मुझे अन्यतम तरीक़े से आकर्षक लगती है और यह शास्त्र और जटिल होता जाता है। शायद इसी रहस्यमयता की वजह से यह मुझे कोई पुरातन या सर्वथा अभिनव जगह मालूम होती है। या शायद यह मेरा ही ख़ब्त हो; औरों के लिए यह इतनी-सी ही जगह हो, जहाँ शांत माहौल में कुछ चाय-कॉफ़ी पी जा सकती हो और साथ में कुछ सद्भाव भी प्रदर्शित किया जा सकता हो। संभव है।
वह किसी साल का जाड़ा था और मैं यहाँ रोज़ मार्ख़ेज़ का एक उपन्यास लेकर आया करता था। लखनऊ के इस कैफ़े में ढेर-सी ख़ाली जगह है, जहाँ जाड़ों में धूप सेंकने काफ़ी जनता आती है। मैं भी धूप के ही लालच में आता था। जब ज़्यादा भीड़ हो जाती तो सर्वाइवर्स मुझे टेबल छोड़ कर किसी कोने में एक कुर्सी लेकर बैठने को कह देतीं। शायद सोचती हों कि इससे ऑर्डर तो एकाध चाय से ज़्यादा कुछ होता नहीं और धूप पूरे दिन चाहिए होती है।
ऐसी ही एक सुबह थी जब मैं उर्सुला के रोमांचक बुढ़ापे के प्रभाव में ऊँघ रहा था कि अपने कंधे पर आशीष का स्पर्श अनुभव हुआ। आशीष उस फ्लैश का साक्षात्कार करने वाले लोगों में रहे हैं और वह मेरे यहाँ आते रहने की बड़ी वजहों में एक रहे हैं। आशीष से मेरी दोस्ती भी ऐसी ही है कि या तो वह मुझे अत्यंत प्राचीन कोई बात जान पड़ती है या लगता है कि हम कल ही तो पहली बार मिले हैं। सब कुछ एक साथ नया और पुराना। शायद इसी वजह से ऐसा है कि मुझे लगता ही नहीं कि ऐसा भी कोई समय हो सकता है, जब यह जगह यहाँ न हो, या जीवन का ऐसा भी कोई समय हो जिसमें आशीष जैसा व्यक्ति न मौजूद हो। ऐसा लगना भी क्यों चाहिए।
आशीष ने पूछा, “क्या पढ़ रहे हैं?” मैंने मुस्कुराकर किताब आगे कर दी। उन्होंने नाम पढ़ा, ‘‘वन… हंड्रेड… ईयर्स… ऑफ़ सॉलिट्यूड’’, और किताब मेरी तरफ़ सरका दी। हम दोनों वहाँ बैठे-बैठे ऊँघने लगे। तंद्रा की यह धुँधली तस्वीर मेरे ज़ेहन पर इस तरह हावी है कि उसके बाद उस जगह पर जाड़े की कई दुपहरें-किताबें… या सैकड़ों शामें उस स्मृति को सरपास नहीं कर पातीं। वह समय एक घटना की तरह बीता और ऐसा लगा मानो यह अब मेरी अपनी जगह हो गई। व्योमेश शुक्ल ने कहीं लिखा है :
जितनी देर तक वहाँ ठहरिए, रह जाइए।
वहाँ जाकर रहने से कम कोई काम क्या करना?
हम लोगों ने अपने पहले के लोगों से कुछेक जगहों, मसलन इंडियन कॉफ़ी हाउस, मंडी हाउस आदि का बयान सुना है, जिसने हमारे अवचेतन में उन जगहों के सांस्कृतिक-राजनैतिक गतिविधियों का केंद्र होने की तस्वीर बनाई है। वह कोई समय रहा होगा जब इन जगहों के बारे में ये बातें सही रही होंगी, पर हमने इन जगहों को हाशिए पर जाते देखा है—उसके जो भी कारण रहे हों। शायद उन जगहों को सेलिब्रेट करने का उत्साह भी जाता रहा।
यहाँ एक बात याद आती है। शीरोज़ को एक कैफ़े की तरह लॉन्च करने के बाबत साथियों ने एक मीटिंग रखी थी, जिसकी सूचना फ़ेसबुक पर दी गई थी। सुखद बात है कि महज़ वह सूचना देखकर हिंदी के कई लेखक-लेखिकाएँ वहाँ उपस्थित हुए थे, सहयोग किया था और सुख व्यक्त किया था।
आशीष कहते हैं कि शीरोज़ उनका बिजनेस आइडिया कभी नहीं रहा। वह एसिड हमलों की सर्वाइवर्स को एक माध्यम देना चाहते थे, जहाँ खड़ी होकर वे शीरोज़ से भी आगे जाएँ। आशीष, आलोक और उनके अन्य साथी इसमें कितना सफल होंगे यह तो बहुत गणना की बात है जिसे मशीनें करती हैं, पर यह बात तो तय है कि किसी कालखंड में विश्व के किसी हिस्से में एक कमरे में बैठे चार लोग इस बात पर रोमांच से सिहर जा रहे होंगे कि एक बार कुछ पागलों ने ऐसी जगहों की स्थापना की थी जहाँ श्रम, सौंदर्य और जीवन का अविराम रक़्स होता था… या है… या होगा…
कालजयी कोई चीज़ ऐसे ही होती होगी।