मन एक डिस्ग्राफ़िया ग्रस्त बच्चे की हैंडराइटिंग है

चीज़ों को बुरी तरह टालने की बीमारी पनप गई है। एक पल को कुछ सोचती हूँ, अगले ही पल एक अदृश्य रबर से उसे जल्दबाज़ी से मिटाते हुए बीच में ही छोड़कर दूसरी कोई बात सोचने लगती हूँ। इन दिनों काम है कि लकड़ियों के गट्ठर की तरह सिर पर चढ़ता जा रहा है, एक-पर-एक, इतना काम इकट्ठा हो गया है, जिन्हें निपटाने का रत्ती भर भी मन नहीं होता। उचाट मन दूर किसी निविड़ एकांत में बैठा एक सूखती हुई नदी को निरखता रहता है, हर वक़्त, हर प्रहर बुझा-बुझा-सा, कहीं खोया हुआ, समीप होकर भी समीप नहीं।

क्या जाने कैसा दौर आ गया है। सब झूठ-मूठ हँसना चाहते हैं, उदासी को स्वीकार करना सबसे कठिन चीज़ है उनके लिए, गोया “दिल के ख़ुश रखने को ग़ालिब ये ख़याल अच्छा है”।

सब एक-दूसरे को झूठ-मूठ हँसाना चाहते हैं। एक बड़ी विपत्ति सिल गई है हमारे सिरों से, सीने पर एक पत्थर रखे साँस लेते रहना है। इस बीच हमने कितना कुछ खो दिया है, किसी ने अपना दोस्त खोया, किसी ने अपने सगे-संबंधी, किसी ने घर गँवा दिया, किसी की नौकरी चली गई। किसी ने तो सब कुछ खो दिया। फिर भी यह मानने का जी नहीं होता कि खोई हुई चीज़ें और मरे हुए लोग कभी वापिस नहीं लौटते।

लोग एक उन्माद में लिपटे हुए, एक ही रफ़्तार में बेतहाशा धूसर प्रांतरों की ओर बढ़े जा रहे हैं। वे एक ही लय में जिए जाते हैं, एक ही लय में एक-दूसरे का हाल-चाल पूछते नज़र आते हैं। एक लिजलिजे क़िस्म का झूठापन छिपा होता है इनमें, कोई भी सचमुच नहीं जानना चाहता किसी के हाल के बारे में। हमने एक-दूसरे को अपनी उदासियों की सांद्रता मापने का निमित्त मात्र बना लिया है। इस विपत्ति के बाद से अचानक सारे नौसिखिए कलाकारों को भी इस भव्य रंगमंच पर भली-भाँति नाटक खेलना आ गया है। झूठे, बनैले किरदार निभाने में सब एक साथ पारंगत हो गए हैं जैसे। कोई कितना भी अपना रिश्ता अब आत्मीय नहीं लगता, सब एक दूसरे का अस्तित्व झुठलाए देने की होड़ में लगे हैं। घरों में लोग इतने व्यस्त हैं कि किसी को किसी के लिए फ़ुरसत नहीं अब। माँ व्यस्त, पिता व्यस्त, बेटा व्यस्त, बेटी व्यस्त… ये सब या तो अपने-अपने फ़ोन में लगे हुए या टी.वी. पर मौत, हत्याएँ, बलात्कार और दुर्घटनाओं की डरावनी ख़बरें देखते हुए दिन काट रहे हैं। कोई बेहद दिलचस्प किताब, फ़िल्म या वेब सीरीज़ भी अब बाँध नहीं पाती देर तक। मन ऊबा हुआ रहता है हर वक़्त।

दुपहरें, शामें एक बोझिल मर्सिया गाती रहती हैं हरदम। एक साँड़ है जो प्रत्येक रात गली में गश्त लगाता हुआ, करुण-क्लांत आवाज़ में पुकारा करता है, न मालूम कौन-सी अव्यक्त पीड़ा में होता है वह। उस बिचारे निरीह और बेज़ुबान जानवर से पूछ भी नहीं सकती कि क्या दुःख है उसे, रोज़ रात वह क्यों रोता है इस तरह से गलियों में। इन मूक पशुओं की एक चौथाई पीड़ा भी समझ पाने में असमर्थ पाती हूँ—ख़ुद को।

ज़ुबान से स्वाद लगभग चला गया है, एक अबूझ प्यास लगी ही रहती है हमेशा, कितना भी पानी पी लो, तृप्ति नहीं मिलती। उधर ख़ूब पानी देने के बावजूद, पौधे रोज़ झुलस जाते हैं… यह भी शायद किसी क़िस्म की टेलीपैथी है, वे मेरी उदासी भाँप लेते होंगे और उसे सोखने या हरने की कोशिश करते रहते होंगे।

एक अजीब-सा वाक़िया होता रहा है मेरे साथ, मैं ये किसी से कहूँ तो शायद वे हँसेंगे मुझ पर या इस बात को अनसुना कर देंगे। बात कुछ है भी ऐसी, वह यह कि जब भी मैं पेड़-पौधों को सींचते वक़्त हल्के-हल्के कुछ गुनगुनाती हूँ, वे सब मिलकर झूमने लगते हैं, एक मीठी बयार चलने लगती है ठंडी, उनकी कोंपलें झिलमिलाने लगती हैं—रौशनी से खेलती हुई, फूल, कलियाँ सब स्पंदित हो उठते हैं, ऐसा हर बार होता है, जैसे ये पौधे सचमुच सुन रहे हों—मेरा गीत। तब सोचती हूँ क्या पेड़-पौधे सुन भी सकते हैं? फिर अचानक याद आता है वह प्रयोग, जो मैंने सालों पहले देखा था कभी, उसमें प्रयोगकर्ता दो अलग-अलग गमलों में एक ही नस्ल के पौधे लेते हैं और उन्हें अलग-अलग जगहों पर रख देते हैं—एक-दूसरे से दूर। एक पौधे को रोज़ खरी-खोटी बातें, गालियाँ, निंदा, अपशब्द वग़ैरह सुनाए जाते हैं, जबकि दूसरे पौधे को पहले वाले से ठीक विपरीत बहुत सुमधुर गीत, वाद्ययंत्र, प्रशंसाएँ, प्यारी बातें वग़ैरह सुनाई जाती हैं। अच्छा खाद, पानी और सूरज की भरपूर रौशनी मिलने के बावजूद उन दोनों पौधों पर एक-दूसरे से बिल्कुल अलग असर पड़ता है। जिस पौधे को अपशब्द, गालियाँ इत्यादि सुनाई गई थीं, वह पौधा सूखकर मर चुका होता है। जबकि दूसरा पौधा जिसे गीत, मीठे बोल वग़ैरह सुनाए गए थे, वह अच्छी तरह विकसित हो गया है, उसमें नए पत्ते आ गए हैं, फूल खिल गए हैं। इस अनूठे प्रयोग को देखने के बाद से मुझे यक़ीन हो चला था कि पौधे सजीव तो होते ही हैं, वे हमारी बातें भी सुनते हैं और भाव, संवेदनाएँ आदि भी समझते, महसूस करते हैं। इस मामले में हम मनुष्य भी क्या थोड़े-बहुत इन्ही पौधों जैसे नहीं हैं?

बावजूद इसके एक मोटा फ़र्क़ तो बिल्कुल है पौधों और मनुष्यों में कि इन पेड़-पौधों जैसी संवेदनशीलता और निःस्वार्थता हममें कभी आई ही नहीं, जबकि इससे इतर प्रकृति और उसके सभी अवयव केवल स्नेह और जो कुछ भी उनके पास हुआ, वह सब कुछ हम पर लुटाते ही रहे। हमने भले इनके साथ छल किया हो, उन्हें आघात पहुँचाया हो, फिर भी उन्होंने बदले में हमेशा हमें प्यार ही दिया। अतिशय दोहन और अत्याचार के बाद ही प्रकृति एक क्रोधित माँ की तरह कभी-कभी अपना आवेशित रूप दिखलाती है, अन्यथा वह सिर्फ़ हमें देती ही आई है सदैव।

यह एक ऐसा दौर आया लगता है, जब हमें फिर से अपने आदिम हो जाने की ओर लौटना होगा; ऐसे में हम मूक जीवों से सीखकर बहुत कुछ अपने भीतर ग्रहण कर सकते हैं। उनका-सा नेह, उनका-सा वात्सल्य, उनका-सा पर के प्रति हितैषी भाव और अन्य का दुःख समझने का धैर्य और बूता।

मन में दबी-छिपी असीम पीड़ाएँ लिखते-लिखते डायरी के पन्ने ख़त्म हो जाते हैं, तब यह संसार एक डायरी बन जाता है। कभी-कभी सोचती हूँ कि हम सभी के पास कितने-कितने दुःख हैं, अतीत में लगे कई चोट हैं, किसी अपने की ही दी हुई प्रवंचनाएँ हैं, छले जाने के असंख्य चिह्न हैं, जो हमने कभी किसी को नहीं दिखाए, किसी से नहीं कहे, जो हम मरने से पहले किसी डायरी में चुपचाप लिखकर छोड़ देना चाहते हैं। जीवित रहते हुए तो कभी किसी क्षण एक बार भी सही समझ लिए जाने का भ्रम ही पाले रहना होता है केवल। इस तरह तो दुनिया की सारी डायरियों के पन्ने चुक जाएँगे—अपना मन लिखते-लिखते।

मेरे प्रिय कवि-कथाकार विनोद कुमार शुक्ल कहते हैं कि हम सभी को अपने जीवन में, अपनी एक किताब अवश्य ही लिखनी चाहिए। मैं सोचती हूँ कि यदि हम सब अपनी-अपनी किताबें लिखने लगें तो संसार में ऐसी कितनी किताबें हो जाएँगी जिनमें मन की ही सारी बातें निहित हों। यह विचार भी किसी को कितना बेतुका लग सकता है, अनर्गल लग सकता है। पर क्या अनर्गल होना कुछ नहीं होना है? अर्थ क्यों ही चाहिए हर बार? हम इतने अर्थवान क्यों होना चाहते हैं? क्यों ही होना चाहते हैं हम हर वक़्त पॉलिटिकली करेक्ट? क्या बेतुके, अर्थहीन रहकर, किसी को कुछ साबित या व्याख्यायित किए बिना ही जीवन नहीं जिया जा सकता?

मुझे लगता है मन एक बच्चा है जो मुट्ठी में कुछ रंगीन सितारे, झिलमिलाते मोती, चमकीले पत्थर और अपने पसंद की दूसरी चीज़ें भरकर बदलें में ढेर सारी टॉफ़ियाँ ख़रीद लेना चाहता है। वह नहीं जानता कि नन्हें चमकते सितारों और पत्थरों के बदले टॉफ़ियाँ तो क्या, कुछ भी नहीं मिलता इस दुनिया में। देखते-देखते उम्र भी चलती रेलगाड़ी से पीछे छूटते दृश्यों की तरह बीतती जा रही है, ज़िंदगी के 28वें मोड़ पर खड़ी हूँ। कोई ऐसा उद्देश्य नहीं जिसे पूरा करना चाहती हूँ, निहायत अर्थहीन, बेतुकी, बचकानी और अनर्गल रहकर जीना चाहती हूँ और बदले में किसी से भी माफ़ी नहीं माँगना चाहती।

एक ऐसा मन पाया बचपन से, जो यह मानता रहा कि यदि तुम किसी का कुछ नहीं लेते तो वह भी तुमसे तुम्हारा कुछ भी नहीं लेंगे, तुम यदि किसी को प्यार करते हो तो बदले में वे भी तुम्हें छलेंगे नहीं, प्यार ही देंगे। मैं बेवक़ूफ़ आज तक यही सोचती हूँ, इतने घाव, इतने धोखे और निर्ममता से इतनी बार छले जाने के बावजूद भी। ख़ुद को कोसती रहती हूँ कि आख़िर क्यों ही मिला ऐसा मन जो इन क्रूर वास्तविकताओं को स्वीकार करना चाहता ही नहीं! क्यों वह यह मानना चाहता ही नहीं कि अब यही हृदय, यही संवेदनाएँ, यही निरीहता चस्पाँ कर दी गई हैं इस शरीर से, छाती का पत्थर अब कोई हटा नहीं सकेगा।

अजीब-सी बेचैनी जमा होती जा रही है देह में, यह मन इतना अपना लगता हुआ भी बिल्कुल अपना नहीं। ऐसा लगता है कि जैसे यह मन किसी ग़रीब दोस्त की दी हुई उधारी है, जिसे सूद समेत एक दिन वापिस लौटा देना है और ख़ाली हाथ, निस्संग निकल जाना है किसी अंतहीन यात्रा पर।