‘मुझे सुलझे विचारों ने बार-बार मारा है’

लेखक को आदरणीय होने से बचना चाहिए। आदरणीय हुआ कि गया।

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निंदा का उद्गम ही हीनता और कमज़ोरी से होता है।

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इस देश के बुद्धिजीवी सब शेर हैं। पर वे सियारों की बारात में बैंड बजाते हैं।

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रोटी खाने से ही कोई मोटा नहीं होता, चंदा या घूस खाने से होता है। बेईमानी के पैसे में ही पौष्टिक तत्त्व बचे हैं।

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अच्छा भोजन करने के बाद मैं अक्सर मानवतावादी हो जाता हूँ।

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कुसंस्कारों की जड़ें बड़ी गहरी होती हैं।

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सबसे विकट आत्मविश्वास मूर्खता का होता है।

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अद्भुत सहनशीलता है इस देश के आदमी में! और बड़ी भयावह तटस्थता! कोई उसे पीटकर पैसे छीन ले, तो वह दान का मंत्र पढ़ने लगता है।

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शासन का घूँसा किसी बड़ी और पुष्ट पीठ पर उठता तो है, पर न जाने किस चमत्कार से बड़ी पीठ खिसक जाती है और किसी दुर्बल पीठ पर घूँसा पड़ जाता है।

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मेरी आत्मा बड़ी सुलझी हुई बात कह देती है कभी-कभी। अच्छी आत्मा ‘फ़ोल्डिंग’ कुर्सी की तरह होनी चाहिए। ज़रूरत पड़ी तब फैलाकर उस पर बैठ गए; नहीं तो मोड़कर कोने में टिका दिया।

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मैंने ऐसे आदमी देखे हैं, जिनमें किसी ने अपनी आत्मा कुत्ते में रख दी है, किसी ने सूअर में। अब तो जानवरों ने भी यह विद्या सीख ली है और कुछ कुत्ते और सूअर अपनी आत्मा किसी आदमी में रख देते हैं।

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इज़्ज़तदार आदमी ऊँचे झाड़ की ऊँची टहनी पर दूसरे के बनाए घोंसले में अंडे देता है।

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बेइज़्ज़ती में अगर दूसरे को भी शामिल कर लो तो आधी इज़्ज़त बच जाती है।

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नशे के मामले में हम बहुत ऊँचे हैं। दो नशे ख़ास हैं—हीनता का नशा और उच्चता का नशा, जो बारी-बारी से चढ़ते रहते हैं।

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प्रतिभा पर थोड़ी गोंद तो होनी चाहिए। किसी को चिपकाने के लिए कोई पास से गोंद थोड़े ही ख़र्च करेगा।

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जो पानी छानकर पीते हैं, वे आदमी का ख़ून बिना छना पी जाते हैं।

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सचेत आदमी सीखना मरते दम तक नहीं छोड़ता। जो सीखने की उम्र में ही सीखना छोड़ देते हैं, वे मूर्खता और अहंकार के दयनीय जानवर हो जाते हैं।

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आत्मकथा में सच छिपा लिया जाता है।

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घाव अच्छी जगह हो और सजा हुआ, तो बड़े लाभ होते हैं।

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छोटा आदमी हमेशा भीड़ से कतराता है। एक तो उसे अपने वैशिष्ट्य के लोप हो जाने का डर बना रहता है, दूसरे कुचल जाने का।

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मैं लेखक छोटा हूँ, पर संकट बड़ा हूँ।

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मुझे सुलझे विचारों ने बार-बार मारा है।

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मुझे ज्ञानियों ने लगातार सलाह दी कि कुछ शाश्वत लिखो। ऐसा लिखो, जो अमर रहे। ऐसी सलाह देने वाले कभी के मर गए। मैं ज़िंदा हूँ, क्योंकि जो मैं आज लिखता हूँ, कल मर जाता है।

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लेखकों को मेरी सलाह है कि ऐसा सोचकर कभी मत लिखो कि मैं शाश्वत लिख रहा हूँ। शाश्वत लिखने वाले तुरंत मृत्यु को प्राप्त होते हैं। अपना लिखा जो रोज़ मरता देखते हैं, वही अमर होते हैं।

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जो अपने युग के प्रति ईमानदार नहीं है, वह अनंतकाल के प्रति क्या ईमानदार होगा!

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हरिशंकर परसाई (1924–1995) का रचना-संसार समुद्र की तरह है, यह कहते हुए समादृत कथाकार-संपादक ज्ञानरंजन ने इसमें यह भी जोड़ा है कि यह कभी घटने वाला संसार नहीं है। भारतीय समय में अगस्त का महत्त्व कुछ अविस्मरणीय घटनाओं की वजह से बहुत है। इस महीने में ही भारत स्वतंत्र हुआ और इस महीने में ही स्वतंत्र भारत के एक असली चेहरे हरिशंकर परसाई का जन्म हुआ और मृत्यु भी। यहाँ हमने उनके व्यापक रचना-संसार से उनकी कहन का एक चयन प्रस्तुत किया है।