उजाले के लिए

जीवन इतना जटिल कभी नहीं था। अभी तक मन उदास था। अब जीवन उदास लगता है। अंजान दुःख घेरे हुए हैं—जैसे : किसी ने एक जगह खड़ा करके बॉक्स से ढक दिया है, और उस बॉक्स पर बड़ा-सा पत्थर रखकर भूल गया है। मैं बॉक्स हटा रहा हूँ, सारी कोशिशें व्यर्थ हैं। उस अँधेरे बॉक्स में दम घुट रहा है। काश हमें, हमारे दुःख और उनके कारण पता होते। हम सब ठीक कर सकते।

ऐसे अँधेरे बॉक्स में, जब कुछ करने को नहीं है। कितने ख़याल मन में कौंध रहे हैं। क्या कभी इससे निकलना होगा! क्या सब कुछ सामान्य हो सकेगा! क्या कभी कोई आएगा और अपना भूला हुआ पत्थर उठाएगा या यूँ ही पड़े रहना होगा।

इतने सारे नकारात्मक विचार हैं। किंतु मरने का ख़याल नैनो सेकेंड के लिए भी नहीं आता। मैं जीवन चाहता हूँ। पीछे लौटना चाहता हूँ। काश! कोई टाइम मशीन होती, जो पीछे लौटा पाती। हर उस जगह जाता, जहाँ सब कुछ अधूरा छोड़ आया था।

सबसे बड़ी कमी रही, अभी तक जितना भी जीवन जिया, उसमें कुछ क्लियर नहीं किया। सब वैसे का वैसा छोड़ दिया। कभी जानने की कोशिश नहीं की, सामने वाला क्या सोचता है? सामने वाले को कैसा लगा होगा? कभी सोचा नहीं, क्या मेरी इस बात से उसे दुःख नहीं हुआ होगा?

अब जब वे लम्हे गुज़र चुके हैं, उनसे बहुत दूर आ गया हूँ। उनमें दुबारा लौटने का मन करता है। उस क्षण में प्रवेश करना चाहता हूँ, जहाँ अपनी बात समझा सकूँ। जी चाहता है, सब कुछ क्लियर करूँ। सबको बताऊँ, मैं कुछ और कहना चाहता था; तरीक़ा ग़लत था। मैं दुःख नहीं पहुँचा सकता। मेरी बात सुनो। मुझे माफ़ कर दो।

कभी-कभी लगता है, सबको एक-एक चिठ्टी लिखूँ। पर किसे और क्या लिखूँ? सब कितना पीछे छूट गया है। सब कितने पीछे छूट गए हैं। इस बॉक्स में मैं पागल हो रहा हूँ। फ़्लैशबैक में जीने लगा हूँ। क्या करूँ, काश सबसे माफ़ी माँग सकता। क्या मानव इससे भी ज़्यादा असहाय हो सकता है। जब वह माफ़ी माँगना चाहे, और माँग न सके।

अब इस बॉक्स को हट जाना चाहिए। मुझे उजाला देखना है। हे ईश्वर! क्या मैं तुम्हारे लिए कोने में पड़ी कोई बेकार वस्तु हो गया हूँ? बताओ मुझे, तुम्हारे ध्यानाकषर्ण के लिए मैं क्या करूँ? ईश्वर तुम इतने निष्ठुर नहीं हो सकते। मुझे यहाँ से निकालो।

ख़ैर! मैं प्रत्येक दिन पूरी दम लगाकर बॉक्स हटाने की कोशिश करता हूँ। रोज़ प्रार्थनाओं में डूबता हूँ। ईश्वर कब सुनेगा? क्या वह कहीं खो गया है? या मेरी आवाज़ कहीं खो गई है या फिर आवाज़ इस बॉक्स के बाहर नहीं जा पा रही? क्या ईश्वर बॉक्स के अंदर आने में सक्षम नहीं है? रोज़ उसे कोसता हूँ। रोज़ उसे याद करता हूँ। शायद वह कहीं व्यस्त है। कहीं, उसी ने तो मेरे ऊपर बॉक्स नहीं रखा। या फिर बॉक्स पर पत्थर उसने रखा है। या दोनों ही उसने किया है। उसने कुछ किया भी है। वह कुछ कर भी सकता है। इन सब शंकाओं के बीच प्रार्थनाएँ सतत जारी हैं।

समय के साथ शक्ति क्षीण हो रही है। शरीर मज़बूत हो रहा है। मन जर्जर होता जाता है। मन किसी और की माँग कर रहा है। उसे कोई चाहिए, जो बिना प्रतिक्रिया दिए उसको सुने। उसे समझे भले न, पर समझने की सच्ची कोशिश करे। मन संवाद चाहता है। कभी-कभी किसी से किया गया गंभीर संवाद, आपको कितना खोल देता है। आपकी मुस्कान और आपके मन को कितना निश्छल कर देता है। आप सब भूल जाते हैं। पीछे क्या हुआ और आगे क्या होगा। आप बस उस क्षण को रोक लेना चाहते हैं। आप उस संवाद को अनंत तक ले जाना चाहते हैं… और उस इंसान का हाथ पकड़कर शून्य में खो जाना चाहते हैं। लेकिन इसके लिए बॉक्स से निकलना होगा।

जीवन उबाऊ हो गया है। दिन लंबा लगता है। किंतु सप्ताह पलक झपकते ही गुज़र जाता है। जाने कैसी अनहोनी की आशंका बनी रहती है। काश! बचपन फिर उभर आए। शरीर में नहीं, कम से कम मन में ही बचपन उभरे।

जब छोटे थे, हमें बड़ा होना था। अब बड़े हो गए हैं, तो छोटे होने का मन करता है। शायद हमें बड़ा नहीं होना था। बस इच्छा थी, हर जगह अकेले जा सकने की। किसी से भी मिल सकने की। पैदल से साइकिल और साइकिल से गाड़ी पर शिफ़्ट होने की। हम चाहते थे कि हमें सुना जाए। हम निर्णय लेना चाहते थे। हम दाढ़ी-मूँछों वाले बनना चाहते थे। बड़ा होना हमारा लक्ष्य नहीं था। बड़ों के अधिकार पाना हमारी अभिलाषा थी।

हम जहाँ, जैसे होते हैं; वहाँ, वैसे नहीं रहना चाहते। हम दूसरों को देखकर, उनके जैसा बनना चाहते हैं। लेकिन उनके चारों तरफ़ फैले झंझावात पर हमारी नज़र नहीं जाती। हमें दूरदर्शी होना चाहिए। ख़ुद को रोकना आना चाहिए।

आज बहुत थकान है। कोशिश करने का मन नहीं है। फिर भी मन को मनाकर एक बार कोशिश करनी होगी। कोशिश की गई। आश्चर्य! बॉक्स हट गया है। शायद किसी ने पत्थर हटा दिया। उजाला देखने की चाहत पूर्ण हो गई है। जहाँ तक नज़र जा रही है। हर तरफ़ बॉक्स ही बॉक्स और सबके ऊपर पत्थर रखे हैं। मैं सबका पत्थर हटा रहा हूँ। लोग बॉक्स से निकल रहे हैं। उन्होंने भी पत्थर हटाने शुरू कर दिए हैं। समय आएगा जब हम सभी बॉक्सेस से पत्थर हटा देंगे। सबको अपने हिस्से का उजाला मिलेगा।

लेकिन यह क्या, फिर अँधेरा। अबकी बार पहले से भी गाढ़ा अंधकार। पहले से भी छोटा बॉक्स। इस समय कोई आकर हाथ थाम ले और कहे, ‘‘उजाला फिर लौटेगा।’’ क्योंकि अब कभी उजाला पा सकने की आस टूट रही है।

मुझे कुछ आभास होता है। पीछे मुड़कर, बॉक्स की दीवार की तरफ़ बढ़ता हूँ। एक और आश्चर्य? दीवार में सूराख़ है। उससे रौशनी अंदर आ रही है। जैसे किसी ने हीरे की चमक को एक जगह एकत्रित करके बॉक्स बेध दिया हो। रौशनी में सैकड़ों लोग तैर रहे हैं। उनकी शक्ल मुझसे मेल खा रही है। सब एक स्वर में कह रहे हैं, ‘‘उजाला फिर लौटेगा।’’ मेरी अश्रुधार फूट पड़ती है। मैं सबको बारी-बारी से गले लगाना चाहता हूँ। और उनके स्वर में स्वर मिलाकर कहना चाहता हूँ, ‘‘बॉक्स हटेगा, उजाला फिर लौटेगा।’’

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