र. स. के लिए

हिंदी साहित्य में दिसम्बर र. स. का महीना है। र. स. यानी रघुवीर सहाय। वह 1929 में 9 दिसम्बर को जन्मे और 1990 में 30 दिसम्बर को नहीं रहे। आज अगर वह सदेह हमारे बीच होते तब नब्बे बरस से अधिक आयु के होते, लेकिन जैसा कि ज़ाहिर है तीस बरस पहले ही उनका देहांत हो गया। 90 बरस से ज़्यादा की उम्र के व्यक्तित्व भी इस संसार में संलग्न और सक्रिय बने रहते हैं। लेकिन र. स. इतना नहीं जी पाए। इतना जीते चले जाने को जैसे उन्होंने बेहयाई माना। यह एक तथ्य है कि हिंदी में भारतीय लोकतंत्र और समाज को लेकर ज़्यादा बेचैन रहने वाले कवि ज़्यादा जी नहीं पाते। इस तथ्य को एक सरलीकरण मानकर नकारा भी जा सकता है। लेकिन र. स. की मृत्यु को सामान्य मृत्यु की तरह स्वीकार नहीं किया गया। कवि-आलोचक पंकज चतुर्वेदी ने र. स. पर लिखे मोनोग्राफ में इस मृत्यु को अपमान, अन्याय और बेचैनियों की परिणिति बताया है।

कितना दुःख वह शरीर जज़्ब कर सकता है?
वह शरीर जिसके भीतर ख़ुद शरीर की टूटन हो

गए कुछ वर्षों में हिंदी में र. स. पर हमले तेज़ हुए हैं। सुपरिचित कवयित्री कात्यायनी ने एक जगह उन्हें मध्यवर्गीय संवेदना का लिजलिजा कवि कहा तो कात्यायनी के ही हमराह देवी प्रसाद मिश्र ने कहा कि र. स. को ओवर इस्टीमेट किया गया है। उनका मानना है कि र. स. के पास एक बौद्धिक खीझ है, लेकिन कोई विकल्प उनके पास नहीं है। भारतीय राजनीति के प्रतिसंसार का जो मॉडल उनके पास है, वह किसी काम का नहीं है। इस बयान पर र. स. के ही शब्दों में कहें तो कह सकते हैं कि वे तमाम संघर्ष जो र. स. ने नहीं किए, अब अपना हिसाब माँगने चले आए हैं। लेकिन साहित्य की भीतरी राजनीति से ग्रस्त ये हमले रघुवीर सहाय की प्रतिष्ठा और प्रासंगिकता रत्ती भर भी कम नहीं कर पा रहे हैं। भारतीय लोकतंत्र और समाज की विडम्बनाएँ उन्हें बराबर एक बहुउद्धृत कवि के रूप में मान्य बनाए हुए हैं।

रघुवीर सहाय का नोटबुक स्केच │ स्रोत : गूगल

वह तारीख़ याद कीजिए, जब हमारा सामना सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश से हुआ था : ‘‘देश के सभी सिनेमाघरों में अब फ़िल्म से पहले राष्ट्रगान चलाना अनिवार्य होगा।’’ इस आदेश के हेडलाइन बनने के बाद र. स. की कविता ‘अधिनायक’ वायरल हुई :

राष्ट्रगीत में भला कौन वह
भारत-भाग्य-विधाता है
फटा सुथन्ना पहने जिसका
गुन हरचरना गाता है
मखमल टमटम बल्लम तुरही
पगड़ी छत्र चँवर के साथ
तोप छुड़ा कर ढोल बजा कर
जय-जय कौन कराता है

पूरब-पश्चिम से आते हैं
नंगे-बूचे नरकंकाल
सिंहासन पर बैठा
उनके तमग़े कौन लगाता है

कौन कौन है वह जन-गण-मन
अधिनायक वह महाबली
डरा हुआ मन बेमन जिसका
बाजा रोज बजाता है

र. स. की कविता संकट का विकल्प भले ही न देती हो, लेकिन वह संकट में संयम और साहस ज़रूर देती है। उन्होंने लोकतंत्र में प्रजा होने के विवेक को गढ़ा है। उन्होंने राष्ट्र की अस्ल अवधारणा को अपनी कविता के इलाक़े में विवेचित किया है। व्यवस्था में व्यर्थ क़रार दे दिए गए व्यक्ति को उन्होंने विकल्प से पहले बोलने का हौसला देने की कोशिश की :

जिन्होंने मुझसे ज़्यादा झेला है
वे कह सकते हैं
कि भाषा की ज़रूरत नहीं होती
साहस की होती है

यहाँ वह वक़्त भी याद कीजिए जो ख़बर पर चढ़ती ख़बर के बावजूद बहुत दूर नहीं गया है। वह वक़्त जब पूरा भारतीय समाज नोटबंदी के प्रभावों/दुष्प्रभावों से क़तारों में बेहाल था। क्रोध था, पर विरोध नहीं था। तब से अब तक रोज़ हम क्रोध और विरोध के नए-नए दृश्यों से रूबरू हैं। ख़बर पर ख़बर चढ़ती ही जा रही है। हमारा लोकतंत्र एक विशाल प्याज़ हो चुका है।

इस स्थिति में सहसा मिलने वाली उस शक्ति का अभाव है, जिसे मुश्किल स्थितियाँ अपने साथ लाती हैं। बड़े फ़ैसलों के बाद छोटे सच हाथ लग रहे हैं, जो बहुत थोड़े ही वक़्त में एक बहुत बड़े झूठ में ग़र्क़ हुए जा रहे हैं। हम एक अनिश्चतता, अनिर्णय और व्यर्थता में थकते चले जा रहे हैं। फ़ैसले अलग हो सकते हैं, लेकिन अपने मूल प्रभाव में यह सब कुछ पहली बार नहीं हो रहा है। इस तड़प और असहायताबोध से र. स. भी गुज़रे थे :

अगर वही हो तुम
जिससे तुम लड़ते हो
तो लड़ते क्यों हो

कविता को उसमें उपस्थित प्रिकॉसिटी ही प्रासंगिक बनाती है। बेहतर कविताएँ इसलिए भी बेहतर होती हैं क्योंकि वे आनेवाला ख़तरा पहचानती हैं। र. स. की एक कविता ने ‘आनेवाला ख़तरा’ कई बरस पहले कैसे पहचाना था, देखिए :

औरतें पिएँगी आदमी खाएँगे—रमेश
एक दिन इसी तरह आएगा—रमेश
कि किसी की कोई राय न रह जाएगी—रमेश
क्रोध होगा पर विरोध न होगा
अर्ज़ियों के सिवाय—रमेश
ख़तरा होगा ख़तरे की घंटी होगी
और उसे बादशाह बजाएगा—रमेश

‘लोग भूल गए हैं’—इसे शीर्षक बनाने वाले र. स. की कविता ‘हमारी हिंदी’ को हिंदी दिवस पर याद करना, अब हिंदी में एक अनुष्ठान बन चुका है। हिंदी की ज़रा भी दुर्दशा कहीं दीखती है, र. स. याद आते हैं :

कहनेवाले चाहे कुछ कहें
हमारी हिंदी सुहागिन है सती है ख़ुश है
उसकी साध यही है कि ख़सम से पहले मरे
और तो सब ठीक है पर पहले ख़सम उससे बचे
तब तो वह अपनी साध पूरी करे

हिंदी में अँग्रेज़ी के डर को भी उन्होंने ‘डर’ शीर्षक कविता में पकड़ा था :

बढ़िया अँग्रेज़ी
वह आदमी बोलने लगा
जो अभी तक
मेरी बोली बोल रहा था
मैं डर गया

र. स. ने कविता में सदा उस बोली के लिए संघर्ष किया जिसके दो अर्थ न हों। वह घुमा-फिराकर भी सीधी बात कहना जानते थे। वह चीख़ की ज़रूरत और उसे द्विअर्थी बनाकर पेश किए जाने की साज़िश को समझते थे। इस समझ ने ही उन्हें हिंदी में अनूठा बनाया और इस अनूठेपन ने ही उन्हें दीर्घजीवी। इस समझ को बराबर समझते चलने की ज़रूरत है :

एक बार जान-बूझकर चीख़ना होगा
ज़िंदा रहने के लिए
दर्शक-दीर्घा में से
रंगीन फ़िल्म की घटिया कहानी की
सस्ती शाइरी के शे’र
संसद-सदस्यों से सुन चुकने के बाद।

~•~

परिशिष्ट/पुनश्च/फ़ुटनोट :

[2005]

मैंने रघुवीर सहाय को पढ़ने की शुरुआत ‘आत्महत्या के विरुद्ध’ से की, फिर उनकी प्रतिनिधि कविताएँ और फिर उनकी कहानियों की पॉकेट बुक ‘मेरे और नंगी औरत के बीच’ पढ़ी। मनोहर श्याम जोशी की किताब ‘रघुवीर सहाय : रचनाओं के बहाने एक स्मरण’ भी इस क्रम में ही पढ़ी।

[2015]

कुछ बरस बाद एक रपट लिखते हुए मैंने लिखा : ”रघुवीर सहाय ने अपनी एक कविता में कहा है कि जब समाज टूट रहा होगा तो कुछ लोग उसे बचाने नहीं, उसमें अपना हिस्सा लेने आएँगे।’’

[2016]

ऊपर व्यक्त कथ्य से असमय दिवंगत सहृदय अनुवादक मनोज पटेल इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने इसकी तलाश में एक के बाद एक र. स. के समग्र कविता-संग्रह पढ़ डाले, पर उन्हें इस प्रकार का कोई कथ्य उनकी किसी कविता में नहीं मिला।

मैं र. स. को ग़लत उद्धृत नहीं करूँगा, इस पर मनोज पटेल को न जाने क्यों इतना यक़ीन था! अंततः उन्होंने र. स. की रचनावली पढ़ी और उन्हें वह कविता मिल गई जिसमें र. स. ने कहा है कि जब समाज टूट रहा होगा तो कुछ लोग उसे बचाने नहीं, उसमें अपना हिस्सा लेने आएँगे।

[2006]

पहले टुकड़े की तरफ़ लौटें तो उस क्रम में ही एक रोज़ मेरे एक आत्मीय अग्रज ने मुझे बुलाया और कहा कि क्या तुम्हें रघुवीर सहाय की रचनावली चाहिए? वह र. स. के रचना-संसार को अपनी आँखों के सामने से हटाना चाह रहे थे।

मैंने उनकी मदद की।

[2016]

मैंने एक डेट के लिए र. स. की रचनावली एक अन्य आत्मीय अग्रज की मदद से एक ज़रूरतमंद को दो हज़ार रुपए में बेच दी।

[2017]

मैंने र. स का और र. स. के बारे में कुछ भी पढ़ना बंद कर दिया।

[2018]

मैंने एक निजी शोध के बाद पाया कि हिंदी कविता की मुख्यधारा में सबसे ज़्यादा ख़राब कविताएँ र. स. के प्रभाव और अनुकरण में लिखी गई हैं।

[2019]

र. स. की 90वीं जयंती के अवसर पर कल शाम (8 दिसम्बर) आयोजित एक कार्यक्रम के आमंत्रण-पत्र के पल-पल बदलते बीस प्रारूप देखकर, मैंने इस अवसर पर ख़ुद को अनुपस्थित कर लिया।

[2020]

मुझे लगता है कि र. स. का पुनर्पाठ करते रहना चाहिए।