एक मूर्ख मेरी ओर
विवेक अपने उदय के बाद जैसे-जैसे परिवर्तित, परिष्कृत और विकसित हुआ; वैसे-वैसे ही अविवेक भी परिवर्तित, परिष्कृत और विकसित हुआ।
एक दौर में अज्ञान पर विजय हासिल करते हुए अर्जित की गईं संसार की सबसे बड़ी उपलब्धियों को ध्यान से जाँचने पर ज्ञात होता है कि संसार की सबसे बड़ी मूर्खताएँ भी इन्हीं उपलब्धियों के आस-पास घटी हैं।
जैसे-जैसे संसार में विवेकवानों के वर्ग बने, वैसे-वैसे ही इन वर्ग की दरारों से अविवेक की दीवारें भी खड़ी और मज़बूत होती गईं। फिर यह हुआ कि धीरे-धीरे सब तरफ़ ये दीवारें ही दीवारें रह गईं। बहुत ध्यान से देखने पर कहीं दरारें दिखतीं। रोज़-ब-रोज़ नए-नए पेंट आने लगे बाज़ार में—इन दीवारों को आकर्षक बनाने और दरारों को छुपाने के लिए। बाद इसके कोई फ़र्क़ ही नहीं रह गया दरार और दीवार में। लेकिन दरारें ख़त्म नहीं हुईं। वे चुपचाप अपना काम करती रहीं। वे बार-बार दीवारों पर हावी होकर उभर आईं, यह याद कर कि उनका सर्वप्रथम संघर्ष अविवेक से है।
यहाँ यह भी जोड़ना चाहिए कि सब तरफ़ बातें विवेक की होती हैं, लेकिन विवेक पीछे छूटता जाता है। सब तरफ़ पैरासाइट्स सक्रिय नज़र आते हैं, कामचोर सम्मानित और शोषक मज़े में। पैरासाइट्स, कामचोर और शोषक… ये तीनों शब्द मूर्ख शब्द के ही पर्यायवाची हैं—यह कोई शब्दकोश या समांतर कोश नहीं बताता, पर बताने वाले बताते हैं।
यहाँ एक मूर्ख की जीवनी याद आती है :
वह एक रिटायर्ड जोकर था जो हौले-हौले लोगों को हँसाने के क़ाबिल हुआ और हौले-हौले हँसी से दूर होता चला गया। रिटायर होने के बाद वह हाशिए पर था। रिटायर होने के बाद लोग हाशिए पर आ जाते हैं, ऐसा क़तई नहीं है। लेकिन वह था—हाशिए पर। रिटायर होने से पहले भी वह हाशिए पर ही था। वह सदा मुख्यधारा से दूर रहा। जब कोई उससे पूछता, ‘‘मुख्यधारा क्या होती है, जानते हो?’’ तब वह कहता, ‘‘मुख्यधारा क्या होती है, जानते हो?’’
रिटायर होने के बाद वह एक उपन्यास रच रहा था। (कोई मूर्ख ही होगा जो कहेगा लिख रहा था।) वह अब घर से कम निकलता था, लेकिन उसका उपन्यास उन दिनों के बारे में है, जब वह घर से बहुत निकलता था। जब वह भीड़ भरी बस में किसी ज़रूरतमंद के लिए अपनी सीट छोड़ दिया करता था और लोग उसे मूर्ख समझते थे। जब वह अपना काम ईमानदारी से देर तक करता था और लोग उसे मूर्ख समझते थे। फ़िलहाल उसकी कहानी बस इतनी ही है, बाक़ी वह एक उपन्यास रच रहा है और एक आदमक़द आईने के सामने खड़े होकर रिवॉल्वर लिए ख़ुद पर गोली चलाने का अभ्यास कर रहा है। (कोई मूर्ख ही होगा जो कहेगा आत्महत्या कर रहा है।)
वह मूर्ख अब उस तरह से मूर्ख नहीं है… यों कहते हैं कि वह कवि है। कवि होने लिए कविताएँ होना भी ज़रूरी है और कविताएँ तो उसके पास बहुत सारी थीं, लेकिन वह उन्हें सँभालकर नहीं रख पाया। जब एडिटर्स और मॉडरेटर्स को यह पता चला कि वह अब उस तरह से मूर्ख नहीं है, कवि है, तब उन्होंने उससे उसकी कुछ कविताएँ और कुछ और कविताएँ माँगीं। तब उसे ध्यान आया कि कविताएँ तो थीं, लेकिन कहाँ? कुछ पता नहीं। एकबारगी तो उसे यह भी लगा कि उसने कभी कोई कविता लिखी ही नहीं, लेकिन अचानक उसे यह भी ध्यान आया कि गए कई वर्षों से वह हर साहित्यिक-असाहित्यिक पत्रिका, हर समाचार-असमाचार पत्र में बतौर एक कवि प्रकाशित होता आया है। उसके कविता-संग्रह भी प्रकाशित हुए हैं और एक बार वह सम्मानित भी हुआ है। बावजूद इसके अब वह एडिटर्स और मॉडरेटर्स को कोई जवाब नहीं दे पा रहा है और सोच रहा है कि आख़िर उसने कविताएँ कब और क्यों लिखीं?
इसी उलझन में उसने ये चार वनलाइनर एक आभासी दीवार पर साझा किए :
• अनुशासन अयोग्यों के लिए होता है।
• सारी समझदारी अतीत हो जाती है।
• बहुत समझदारी बहुत मूर्खता का निष्कर्ष है।
• आत्ममुग्धता एक अच्छी चीज़ है, अगर वह मूर्खों के बीच बरती जाए।
इन वनलाइनर्स को पढ़कर एक प्रसिद्ध ब्लॉग के मॉडरेटर ने प्रतिक्रिया दी : आपने अब तक अपनी कविताएँ नहीं भेजीं? आपकी कविताओं का इंतज़ार है।
इस प्रतिक्रिया का प्रतिउत्तर मूर्ख ने कुछ यों दिया : आपको एक रोज़ ए. आई. (Artificial intelligence) रिप्लेस कर लेगा।
इस प्रतिउत्तर पर एक कवयित्री ने प्रतिक्रिया दी : आपके दर्शन की इच्छा है।
इसका प्रतिउत्तर मूर्ख ने कुछ यों दिया : मुझमें दर्शनीय कुछ भी नहीं है।
इस प्रकार मूर्ख में अपनी मूर्खता का उपयोग करने की मूर्खता भी जाती रही। उसके व्यक्तित्व में स्पष्टता बहुत थी। समाज का पता इस व्यक्तित्व के विपरीत कहीं पड़ता था। समाज मूर्खता बर्दाश्त करता है, स्पष्टता नहीं।
यहाँ तक आते-आते इस कथ्य के उपसंहार के लिए दो विकल्प हैं : पहला या तो मूर्ख अपने कवि-व्यक्तित्व के प्रति सजग हो जाए, दूसरा वह अपने उस अभ्यास को मंचित कर दे—जिसमें वह एक आदमक़द आईने के सामने रिवॉल्वर लेकर खड़ा हुआ है।
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बैनर में प्रयुक्त आर्ट-वर्क : Yue Minjun