लोक के जीवन का मर्म
यह सड़क जो आगे जा रही है—इसी पर कुछ आगे, बाएँ हाथ एक ठरकरारी पड़ेगी, उसी पर नीचे उतर जाना है। सड़क आगे, शहर तक जाती है, उससे भी आगे महानगर तक जाएगी, जहाँ आसमान में धँसी बड़ी-बड़ी इमारतें, भागते अकबकाए हुए-से लोग मिलेंगे। लेकिन आपको उधर नहीं जाना है। आप बाएँ हाथ की ठरकरारी उतर जाएँ। आगे दूर तक फैली ढकुलाही पड़ेगी, जिसमें चिकने तोतापंखी पत्ते आ रहे होंगे, कोई दुर्भाग्यशाली ही होगा जो इन्हें छूना न चाहे, लेकिन आपको आगे जाना है। इसके बाद एक रेहाड़ है, जो दूर से चाँदी-भस्म की तरह चमक रहा होगा। वहाँ से दाएँ यह पगडंडी नदी के पाट से सटकर चलती है। जिसके किनारे आम महुआ चिलबिल शीशम के पेड़ मिलेंगे। पेड़ों के बीच से यही पगडंडी मिथिलेश कुमार राय के गाँव तक जाती है। गाँव से बाहर ही खेतों में पहली सिंचाई करते कोई न कोई मिल जाएगा। गाँव में अपने कंधों पर घरों को सँभाले पेड़ मिलेंगे और उनसे बँधी गाय, भैंस, भेड़, बकरियाँ। छोटे बच्चे को अँचरा से ढक कर दूध पिलाती और उससे बड़े को सामने बिठाकर राजा, मुन्ना,कहकर रोटी खिलाती माँएँ मिलेंगी…
यह मिथिलेश कुमार राय की कविताओं पर एक और कविता नहीं है, बल्कि उनके कविता-संग्रह ‘धूप के लिए शुक्रिया का गीत तथा अन्य कविताएँ’ की कुछ कविता-पंक्तियों और चित्रों को एक जगह रख भर दिया गया है। और आप देखें कि ऐसा करने से उनका सरल, सुलझा हुआ मोहक ग्राम्य संसार दृश्य हो उठता है। मिथिलेश के इस काव्य-जगत में पशु, पक्षी, मनुष्य और वनस्पतियाँ सब एक दूसरे में डूबी हुई हैं। सारी चीज़ें परस्पर-निर्भर व एक ही लय का विस्तार लगती हैं। नदी, नाले, फूल, भुनगे, जैव-अजैव सब एक ही मिट्टी की अलग-अलग मूरतें हैं और एक ही लय में डूबी हुई लगती हैं। कहीं मनुष्य धरती की ओर झुका और आसमान की ओर खिंचा लगता है तो कहीं धरती और आसमान उससे मुखातिब लगते हैं। इन कविताओं का मनुष्य इतिहास, स्मृति,परंपरा और पुरखों से विलग नहीं; बल्कि उसी का विस्तार लगता है। एक तरफ़ ऐसी सभ्यता बनाई जा रही है, जहाँ एकल परिवार का आदर्श भी अब बीते समय की बात हो चुकी है। परिवारमात्र की धारणा टूट रही है, अब व्यक्ति के अपने उपभोग-कामनाओं में आत्मेतर व्यक्ति भार सरीखा है। दूसरी ओर मिथिलेश का परिवार बहुत बड़ा है। वह परिवार की धारणा व उसके सौंदर्य को और विस्तार दे रहे हैं। इसमें पति-पत्नी-बच्चों की कौन कहे; नानी-नाना, पशु-पक्षी और पेड़-पौधे तक शामिल हैं। मिथिलेश का यह घर संसार का सबसे आत्मीय वृत्त है। यह संसार से ख़ुद को काटने वाली चहारदीवारी नहीं, बल्कि अपने गिर्द संसार से संश्रय का आत्मीय अवकाश है। इस घर का एक चित्र देखिए :
”यहाँ एक फूस का घर होता था
उसके छप्पर पर सीताफल के फूल खिलते थे
एक बार भादों में जब ज़ोर की पछिया चली थी
घर दक्खिन की ओर थोड़ा झुक गया था
भला हो कटहल के वृक्ष का
जिसने उसे गिरने से बचाया
दूर से वह दृश्य
ऐसा लगता था
जैसे कि फूस का वह घर
वृक्ष की पीठ पर लेटा हो
और कोई ख़्वाब बुन रहा हो”
इस सौंदर्य-दृष्टि में प्रकृति और मनुष्य का संश्रय तथा उसकी पारस्परिकता है। यह सौंदर्य-दृष्टि जगत को असंबद्ध खंडों का ढेर मानने की बजाय परस्पर-निर्भर अखंडता में देखती है। खंड का कोई भी गुण अंतर्निहित गुण नहीं है। उसके प्रत्येक अभिलक्षण को समग्र के संदर्भ में ही समझा जा सकता है। इसलिए खंड और समग्र की व्याख्या परस्पर निर्भर है। आज का भौतिक विज्ञान बताता है कि ‘सब-एटोमिक’ स्तर पर कणों का कोई स्वायत्त अस्तित्व नहीं होता, बल्कि उसे मात्र अंतर्संबंधों, सहसंबंधों, और पर्यवेक्षण की बहुविधि प्रक्रियाओं के संदर्भ में ही देखा जा सकता है। इस तरह सब-एटोमिक कण कोई तत्त्व नहीं हैं; बल्कि यह तत्त्वों के बीच का अंतर्संबंध है और फिर आगे हर तत्त्वों के बीच संबंधों की एक असमाप्त प्रक्रिया है। इस तरह इस जगत में स्वायत्त चीज़ें हैं ही नहीं, बल्कि ऐकिक समग्रता है, जो उलझे हुए जाल के भीतर के संबंधों की तरह दिखाई पड़ती हैं।
यह अंतर्दृष्टि विज्ञानसम्मत, समग्रतावादी और शुभकर है।
इस संग्रह में एक कविता है—‘वास्तु’। घर का वास्तु दिशा और शुभ-अशुभकारी चीज़ों से तय होता है। लेकिन यह कविता वृक्षों से उसकी पहचान करती है। सिर्फ़ घर की अवस्थिति की पहचान वृक्षों से नहीं हो रही है, बल्कि वृक्षों की पहचान भी वृक्षों से ही हो रही है। एक अन्य कविता ‘स्त्रियों के वस्त्रों पर फूल टँके होते हैं’ में स्त्री और प्रकृति की हॉरमनी बहुत गहरी है। इसे पढ़ते हुए लगता है कि ये स्त्रियाँ भारतीय चित्रकार ए. रामचंद्रन के चित्रों से निकलकर चली आ रही हैं। इसमें कर्मशीलता, उन्मुक्तता और तनावहीन समरसता है। इसका कारण यह है कि पितृसत्ता द्वारा स्त्री का दमन, हर तरह के दमन और शोषण का आदिम प्रारूप है। इसलिए प्रकृति के शोषण से स्त्रियाँ एक सम-वेदनात्मक लगाव रखती हैं। यह स्त्री और पारिस्थितिकी के बीच के बहनापे का एक इतिहास है। इसलिए जहाँ स्त्रियाँ आती हैं, उनका जीवन-अनुभव, उनका ज्ञान आता है, वहाँ दुनिया का एक पारिस्थितिक नज़रिया बनता दिखाई पड़ता है :
”किसी भी वृक्ष को कटते देखकर
वे कहती थीं कि ईश्वर ने ही सबमें प्राण फूँके हैं
दादी तब भावुक हो जाती थीं
और कहती थीं कि शास्त्रों में उल्लेख न हो तब भी
वृक्ष-हत्या का भी पाप लगता होगा
वे वृक्षों के आगे शीश नवाती थीं
और मनुष्यों की ओर से उनसे क्षमा माँगती थीं”
इस कविता का भाव-संसार पूर्व-आधुनिक है, लेकिन इसकी चिंताएँ उत्तर-आधुनिक हैं। इस संग्रह में ‘नींद बछिया के रँभाने से खुलती है’, ‘स्त्रियाँ जब घास गढ़ने निकलती हैं’ शीर्षक कविताएँ ऐसी ही हैं। ये कविताएँ प्रकृति में आनंद की कविताएँ नहीं हैं, अपितु वर्ग-विभाजित समाज में जीवन-संघर्ष की कविताएँ हैं। लेकिन मनुष्य का यह जीवन-संघर्ष मानवेतर संसार के भीतर और उसके आश्रय में चलता हुआ दिखाई पड़ता है। इनमें मनुष्य और प्रकृति के बीच आत्मीय समरसता है। ‘स्त्रियाँ जब घास गढ़ने निकलती हैं’ शीर्षक कविता के काव्य-सौंदर्य को समझने के लिए किंचित गहन लोकबोध की दरकार है। लोक में घास काटना नहीं कहा जाता। लोक में इसे घास गढ़ना, घास करना कहते हैं। घसिगढ़नी, घसिकरी, घसियारिन… जैसे शब्द इसी से बने हैं। हिंदी-कविता में बहुत से लोकवादी भी घास काटने और घास छीलने के मुहावरे का इस्तेमाल करते हैं। उन्हें मिथिलेश की इस कविता से सीखना चाहिए कि लोक का जीवन जिस पर निर्भर हो, लोक कभी उसे ममेतर वस्तु की तरह नहीं देख सकता।
इन कविताओं में घर है, पत्नी, स्त्री, बेटी, बच्चे, चिड़ियाँ, धूप, फ़सलें, किसान, पुरखे, स्मृतियाँ और स्वप्न… सब हैं; और इस सब कुछ में एक मुकम्मलपन है। जिसका कारण कवि के जीवन-बोध का मुकम्मलपन है। इस जीवन-बोध में कोई भ्रंश नहीं है। इस संग्रह की बहुसंख्य कविताओं में एक प्रवाहपूर्ण संवाद है। कहीं वह पाठकों को संबोधित है तो कहीं आत्मसंबोधित है। इसका भी कारण शायद वही है कि मिथिलेश का कवि-व्यक्तित्व पाठक को भी आत्मेतर करके नहीं देखता। वह पाठक को अपने आत्मवृत्त का हिस्सा मानते हुए उसे अपने आत्मानुभव तक ले जाना चाहता है। पाठक को इस सम-वेदनात्मक धरातल पर उतार लेने की कामना में पर्याप्त क्षिप्रता और तीव्रता है। इसलिए आप देखेंगे कि ये कविताएँ शब्दार्थों और चित्रों में नहीं हैं, बल्कि भावप्रवणता और भावनात्मक आवेग में हैं। शायद इसीलिए पूरे संग्रह में कहीं भी कॉमा या फुलस्टॉप का इस्तेमाल नहीं किया गया है।
लेकिन तनावहीन भावप्रवणता ही वह चीज़ है जो उन्हें अपने वरिष्ठ कवियों से अलगाती है। इसे समझने के लिए दो वरिष्ठ कवियों को सामने रखिए—अरुण कमल और अष्टभुजा शुक्ल—क्योंकि इन दोनों वरिष्ठ कवियों का वस्तु-संसार वही है, जो मिथिलेश कुमार राय का है। अरुण कमल परिधिकृत सामाजिक अनुभवों, और हमारी स्मृतियों की परिधिकृत अर्थच्छवियों को खोलते हैं। फलतः उनके यहाँ लोक-अनुभूतियों का सौंदर्य और सत्ताएँ एक साथ उद्घाटित होती चलती हैं। दूसरी तरफ़ अष्टभुजा शुक्ल ग्रामीण जीवन की मोहक स्मृतियों और पिछले दशकों में बाज़ार द्वारा उपस्थित की गई स्थितियों के बीच के अंतराल और विडंबनात्मक वास्तविकता को उद्घाटित करते हैं। मतलब यह है कि इन कवियों ने नगर और लोक की बाइनरी में रूढ़ हो चुके लोक अनुभवों को ज्यादा अंतर्गामी और द्वंद्वात्मक बना दिया। अब इस संदर्भ के साथ आप मिथिलेश को पढ़ते हुए पाते हैं कि ग्रामीण जीवन की कविता जिस द्वंद्वात्मकता और तनाव-बिंदु तक पहुँची थी, वह उसके आगे बढ़ने के बजाय एक बहुत सुलझी हुई राह पर चली जाती है। इसका यह मतलब नहीं कि मिथिलेश ग्रामीन जीवन की समाजार्थिक वास्तविकता को देख नहीं रहे हैं। वह बिल्कुल देख रहे हैं। लेकिन वह एक ही अनुभूति में अनिवार्यतः मौजूद रहने वाले प्रकृति-सौंदर्य तथा सामाजिक यथार्थ के तनाव को पकड़ नहीं पा रहे हैं। परंतु उनमें जैसी भावनात्मक तीव्रता है, उससे लगता है कि जल्दी ही वह उस तनाव-बिंदु को भी छू लेंगे।
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