‘तकलीफ़ में गाने से ही सिद्धि मिलती है’
अगर हम गा पाते तो गाकर आपका बखान करते महाराज! लेकिन हमारी ज़िंदगी में लय नहीं है उतनी, इसमें खरज ज़्यादा है, ज़िंदगी का रियाज़ नहीं है, यह बेसुरी हो जाती है—बार-बार। इसलिए हम सिर्फ़ लिख पाएँगे। हम कोशिश करेंगे कि जिस तरह आप ‘श्रीरामचरितमानस’ गाकर समझाते हैं, कुछ वैसा ही रत्ती-भर सुर हमारे जीवन में भी बना रहे। आपने ही तो कहा था :
‘‘सुर में हो तो विरह भी सुंदर लगता है, बेसुरा तो ख़याल भी बुरा है।’’
उत्तर प्रदेश में एक जगह है बनारस, जिसके इंचार्ज हैं—भगवान शंकर। यहाँ बनारस में भूत भावन भगवान भोलेनाथ ने अपना एक एग्जीक्यूटिव या कहें एक एजेंट छोड़ रखा है, नाम है—पंडित छन्नूलाल मिश्र।
काशी की एक गली में मकान नंबर 60/61 छोटी गैबी में रहते हैं छन्नूलाल। ऐसी कोई सुबह नहीं, जब इस गली से धूप-बत्ती और गुग्गल का धुआँ और रामायण की चौपाइयों की आवाज़ें न गूँजती हों। धूप के धुएँ के साथ जहाँ से रियाज़ की आवाज आती हैं, उस गली में छन्नूलाल मिश्र ही रहते होंगे—इसमें कोई संशय नहीं।
इस गली को रोज़ सुबह रियाज़ की आदत है और छन्नूलाल मिश्र की भी। जिस दिन पंडित जी रियाज़ नहीं करते होंगे, उस दिन यह गली भी उदास रहती होगी और उनकी प्रतीक्षा करती होगी।
दरअस्ल, बनारस की दो गलियों की वजह से ही शायद बनारस सुर में बना रहता है—
एक छन्नूलाल मिश्र की छोटी गैबी और दूसरी वह जगह जहाँ डुमराँव के कमरूद्दीन ने डेरा डाला था, जो बाद में अपने फेफड़ों से शहनाई फूँकते-फूँकते हम सबके उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ाँ हो गए।
बिस्मिल्ला ख़ाँ ने बनारस के गंगा घाट पर बसे संकटमोचन हनुमान मंदिर से संगीत की जो रवायत शुरू की थी, छन्नूलाल लाल मिश्र उसे उसी बनारस की गली छोटी गैबी से निभा रहे हैं।
हम अगर पंडित छन्नूलाल मिश्र को बचा हुआ, या कुछ-कुछ छूटा हुआ बिस्मिल्ला कहें तो इसमे हैरत नहीं होनी चाहिए… वे आधे बिस्मिल्ला तो हैं ही।
बिस्मिल्ला भैरवी-बिहाग बजाते थे, घाट पर हनुमान जी के आँगन में रियाज़ करते थे और घाट पर स्नान करते थे… तो वहीं छन्नूलाल दिगम्बरों के साथ मसाने में होरी खलते हुए ठुमरी, चैती, चैता, कजरी और दादरा सुनाते हैं। सबसे पहले जब उनका ख़याल—‘मोरे बलमा अजहुँ न आए’ सुना तो लगा कि पंडित जी सिर्फ़ ख़याल के राजा होंगे, बाद में भीतरघात कर अंदर घुसे तो पता चला कि वह ‘श्रीरामचरितमानस’ और ‘शिव विवाह’ के भी महाराज हैं। फिर धीमे-धीमे ख़याल हुआ कि भक्ति-संगीत का अखंड पाठ हैं—पंडित छन्नूलाल मिश्र। उन्होंने लाखों श्रद्धालुओं के आत्म में अलख जगा रखी है।
इस अधार्मिक और अराजक माहौल में भी भक्ति की लौ की तरह धीमे-धीमे जल रहे हैं—छन्नूलाल मिश्र। उन्हें गाते हुए देखना दूर किसी अँधेरे में छोड़ दिए गए अप्रचलित और त्याग दिए गए मंदिर में जलते दीये को देखने की तरह है।
उन दिनों जब मैं अप-डाउन में होता था, पंडित जी को सुनना शुरू किया था। तब मेरे फ़ोन में वह ‘रिपीट मोड’ में हुआ करते थे। मैं बग़ैर बटुए के घर से निकल सकता हूँ, लेकिन हेडफ़ोन के बग़ैर नहीं। एक शहर से दूसरे में जाते वक़्त पंडित जी का ‘रुद्राष्टकम’ और आते समय ‘सुंदरकांड’, सुबह कजरी और शाम को ख़याल।
मुकुल शिवपुत्र, मेहदी हसन, लेड ज़ेप्लीन या फिर नुसरत फ़तेह अली, कोहेन हो या कौशिकी चक्रवर्ती… ये सब रिपीट मोड में ही होते हैं, शफ़ल में नहीं। हम जीते शफ़ल मोड में और सुनते रिपीट सिंगल में हैं।
छन्नूलाल गायन की क्लासिकल विधा में हैं, लेकिन जब गाते हैं तो जनमानस के कथाकार हो जाते हैं। जैसे कोई भजन के साथ सत्संग कर रहा हो। पहले गाएँगे फिर पूरी चौपाई का अर्थ बताएँगे। राग क्या है, ताल कितनी हैं बताएँगे। ठुमरी गाएँगे तो कहेंगे कि देखिए इसमें लचक और लोच कहाँ से आई। ठुमरी आख़िर ठुमकती क्यों है। कजरी कहाँ गाई जाती है, चैती कहाँ से आई, दादरा क्या चीज़ है। क्यों चैती बनारस की ख़ासियत है, क्यों अब यह हर जगह गाई जाती है। पंडित जी ही बताते हैं कि चैत के महीने में चैती गाई जाती है और चैता भिगाए जाते थे। वह यह सब बताते हैं और श्रद्धालुओं से बातें करते हैं—गाते-गाते।
वह नोटेशन को देखकर नहीं गाते, एक कथाकार के तौर पर श्रोताओं से सीधा संवाद करते हैं और श्रोताओं को अनुभव करवाते हैं कि वे श्रोता नहीं श्रद्धालु हैं।
हम बौद्धिकों को लगता है कि वह शास्त्रीय गायक हैं। एक राग के साथ वह छेड़छाड़ करेंगे और हम उस पर दाद देंगे, क्योंकि हमारी आदत है। हम हर काल में कला की समीक्षा ही करते रहे हैं, लेकिन जो राम का सेवक होगा वह उनके गान का लुत्फ़ उठाएगा।—यह फ़र्क़ है। कुछ सुनते हैं, कुछ सुनने को समझते हैं। जैसे दुनिया में जीना और दुनिया को देखना दोनों अलग-अलग चीज़ें हैं।
छन्नूलाल ख़ुद को भोलेनाथ का सेवक ही मानते हैं, इसलिए वह घरानों में यक़ीन नहीं करते। वह भगवान शिव की तरह कहीं से भी और कभी भी अपने रागों की धूनी रमा सकते हैं। कहने को उन्होंने किराना घराने के अब्दुल गनी ख़ाँ से तालीम ली, लेकिन घराने की रवायत को कभी तवज्जोह नहीं दी। इस रिवाज को न तोड़ते तो छन्नूलाल मिश्र का भी एक घराना होता—संभवत: बनारस घराना। लेकिन वह ‘श्रीरामचरितमानस’ या ‘शिव विवाह’ गाकर हमेशा एक कथावाचक ही बनकर रहे, किसी घराने के गवैए के तौर पर नहीं पहचाने गए।
छन्नूलाल मिश्र का गायन के प्रति अपना एक दार्शनिक नज़रिया है। वह कहते हैं :
‘‘तकलीफ़ में गाने से ही सिद्धि मिलती है।’’
यह सब कुछ ऐसे ही है जैसे एक कलाकार और लेखक सोचता है कि लिखने-रचने के लिए दुःख, अवसाद, अकेलेपन, बेचैनी और किसी प्रेरणा की ज़रूरत होती है। शायद इसीलिए हम भी यह मानते हैं कि ज़्यादातर कलाएँ अँधेरे में जन्मबती और पनपती हैं।
लेकिन पंडित जी अपने गान से ईश्वर की स्तुति में यकीन करते हैं। कहते हैं संगीत से ही भगवान प्रसन्न रहते हैं, पूजा-पाठ और कर्मकांड से नहीं। अपनी इसी आस्था के साथ पंडित जी पूरे ठाठ से ठेठ अंदाज़ में भक्ति-संगीत और भजन-कीर्तन का उजियारा फैला रहे हैं। एक दिन उनको भक्ति-संगीत की लौ को बरक़रार रखने वाले पुजारियों में सबसे पहले याद किया जाएगा।
पंडित जी के बारे में एक क़िस्सा है। कहा जाता है कि जब पंडित जी पैदा हुए तो उनकी माँ ने उनके लिए सबसे ख़राब नाम चुना था—छन्नूलाल। जिसके अर्थ में छह अवगुण है—काम, क्रोध, लोभ, मद, मत्सर और मोह। माँ की इच्छा थी कि ख़राब नाम होगा तो बेटे को बुरी नज़र नहीं लगेगी। वह ज़्यादा वक़्त तक दुनिया में ज़िंदा और ख़ुशहाल रहेगा। वैसे उनका वास्तविक नाम मोहनलाल मिश्र है।
छन्नूलाल मिश्र के नाम के अर्थ में भले ही छह अवगुण छुपे हुए हों; लेकिन मुझे तो ठुमरी, कजरी और ख़याल के लिए छन्नूलाल मिश्र से सुंदर और गुणी नाम कोई और नज़र नहीं आता।