शराबी क़ौम पर कुछ नोट्स

शराबियों को एक ‘अस्मितामूलक’ इकाई/क़ौम (आइडेंटिटी) के रूप में देखना चाहिए कि नहीं? सुनने में यह अतिरंजित लग सकता है, लेकिन क्रूर सच्चाइयाँ अक्सर ही अतिरंजित लगती हैं।

शराबियों को आइडेंटिटी नहीं मानने का परिणाम ही, उनके चित्रण को रोमांटिक स्पर्श देता है। ‘शराब-अनुभव’ से वंचित हरिवंशराय बच्चन की ‘मधुशाला’ में गिरफ़्तार हो पीढ़ी की पीढ़ी अपना ‘हालाकिरि’ करती रहती है। दूसरा पक्ष, शराबियों का विद्रूपन है (जॉनी वॉकर) और तीसरा : हाय, हाय, मैं अधम शराबी बन गया, जैसे आत्मालाप (‘द माइटी एंजेल’, 2014)।

डैनिश फ़िल्म निदेशक थॉमस विंटरबर्ग की ऑस्कर विजित फ़िल्म ‘अनदर राउंड’ (2020) शराबियों की अस्मितामूलक पहचान को केंद्र में रखती है और उन्हें एक संवेदनात्मक स्पर्श से चित्रित करती है।

‘सामाजिक जीवन’ की सहज, तय गति से डगमगा कर या उसमें अपने को व्यवस्थित नहीं पा लोग शराब घर को अपना कोप-भवन (राहत-आश्रय) बना बैठते हैं। तदोपरांत शराब के साथ उनका व्यवहार एक तरह से धार्मिक-रिचुअल जैसा ही हो जाता है। समस्या-समाधान की, जीवन के उल्लास की, मित्र-मिलन-संयोग की, सबकी अंतिम गति अंततः यज्ञ में मद्य की आहुति होती है। यह पूरा व्यवहार कार्ल मार्क्स के ‘धार्मिक सर्वहारा’ की तरह से लक्षित जान पड़ता है। ‘‘शराब हृदयहीन संसार का हृदय है, अनात्मिक परिस्थितियों की आत्मा है।’’ तरल-गरल क्षण में यही भाव गुंजायमान रहता है।

यह भाव कालांतर में इस क़दर हावी हो जाता है कि वे अपने को सिद्ध करने हेतु आविष्कृत तर्कों को यथार्थतः अमली-जामा पहनाने लगते हैं। यथा, शराब मनुष्य के जैविकीय संतुलन के लिए एक अनिवार्य औषधीय ज़रूरत है, जैसे सिद्धांत को सामने रख ‘अनदर राउंड’ की अध्यापक-मित्र-त्रयी अपनी शराबनोशी को विज्ञान-सम्मत मान लेती है। नार्वेजियन मनोचिकित्सक के हवाले से कहा गया, ‘‘जन्म से ही मनुष्य जाति के ख़ून में अपरिहार्य अल्कोहल की मात्रा का अभाव रहता है। यह अभाव 0.05 प्रतिशत का है। अतः स्वस्थ जीवन हेतु इस अभाव को शराब की वैकल्पिक ख़ुराक से दूर करना ज़रूरी है।’’ अमूमन ऐसे ही सुविधानुकूल सिद्धांत को शराबी अपने वास्तविक अभाव को छुपाने के लिए इस्तेमाल में लाता है। फ़िल्म आने के बाद जब शराबियों ने, जिज्ञासुओं ने इस तथ्य की पड़ताल की, तब नार्वेजियन मनोचिकित्सक फ़िन स्काउरद्रु को सफ़ाई देनी पड़ी कि मैंने यह बात सिद्धांत-प्रतिपादन के लिए नहीं, बल्कि एदमोंदो दे आमिचीस की पुस्तक ‘शराब के मनोवैज्ञानिक असर’ के नार्वेजियन संस्करण की भूमिका लिखते समय हल्के-फुल्के विनोद के तौर पर कही थी कि “एक-दो जाम के बाद जीवन सचमुच अच्छा लगता है, मुझे ऐसा लगता है कि शायद जन्म से ही हमारे शरीर में 0.05 प्रतिशत शराब का अभाव है।”

फ़िल्म में इस ‘मनोविनोद’ का बहुत सटीक शराबी-अनुकूल इस्तेमाल किया गया है, ऐसा नहीं है कि थॉमस विंटरबर्ग को इसके मनोविनोदी होने का भान नहीं था। यह अचानक नहीं था कि फ़िल्म देखते ही दुनिया भर के शराबियों के लिए यह तथाकथित सिद्धांत-कथन नारा बन गया। लेकिन जैसा कि अक्सर होता है, इन नारों में हवा ज़्यादा होती है, और जिन्हें वाजिब ही फ़िन स्काउरद्रु ने पिन कर दिया।

शराबी के समक्ष एक ‘वाजिब चिंता’ योग्यता-प्रदर्शन, अभिव्यक्ति की सहजता आदि को लेकर होती है। उसे यह अंदेशा हमेशा सताता है कि बिना शराब वह कुछ नहीं कर पाएगा! ‘अनदर राउंड’ के अध्यापक-मित्र इसी परेशानी से गुज़र रहे हैं। शराब की लत से संघर्षरत रहने के दौरान उनका अध्यापन-प्रदर्शन बहुत ही उबाऊ है; छात्रों, अभिवावकों, प्रधानाध्यापक को इसे लेकर शिकायत है। उपर्युक्त सिद्धांत-कथन और उस विचार-विमर्श ने उनके प्रतिरोध को अवरुद्ध किया और 0.05 प्रतिशत की भरपाई में फिर से लग जाते हैं। उबाऊ शिक्षक पुनः अपने चरम को पा लेता है। विद्यार्थी ध्यानमग्न अध्ययन-लिप्त, आख्यान में लीन रहने लगते हैं। इतिहास के शिक्षक मार्टिन, जिसका चरित्र निभाया है विश्व के महान अभिनेता मैश मिक्कसन (Mads Mikkelsen) ने, कक्षा में भी मद्यपान को ऐतिहासिक संदर्भों में राजनीतिक रूप से सही क़रार देते नज़र आते हैं। वह उदाहरण देने का लोभ यहाँ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ। मार्टिन तीन व्यक्तियों के उदाहरण रखते हुए छात्रों से प्रश्न करते हैं कि आपका मत इनमें से किसको जाएगा :

1. एक आंशिक रूप से पक्षाघात का शिकार है। हाइपरटेंशन का मरीज़ है। शरीर में ख़ून की कमी समेत अन्य गंभीर बीमारियाँ हैं। लक्ष्य की प्राप्ति में यदि ज़रूरी लगता है तो झूठ का भी सहारा लेता है। राजनीतिक कार्यक्रमों के संदर्भ में ज्योतिषियों की मदद लेता है। अपनी बीवी को धोखा देता है। भयंकर शराबी है (मार्टीनी का शौक़ीन)।

2. दूसरा बहुत मोटा है। तीन चुनाव पूर्व में ही हार चुका है। अवसाद का शिकार है, दो बार हृदयाघात भी झेल चुका है। इसके साथ काम करना किसी के लिए भी असंभव है, चेन स्मोकर है। हर रात बिस्तर पर जाने से पहले ढेर सारा शैंपेन, कॉनयाक, पोर्ट वाइन, व्हिस्की पीता है, इससे भी नहीं बन पड़ता है तो नींद की दो गोली लेता है।

3. तीसरा युद्ध का सम्मानित सिपाही रहा है। औरतों की इज़्ज़त करता है। जानवर-प्रेमी है, कभी भी धूम्रपान नहीं करता है। अवसरानुकूल कभी-कभी बियर पी लेता है।

कक्षा के लगभग सारे विद्यार्थियों ने नंबर-3 को मत देने पर अपनी सहमति दी। मार्टिन बोलता है, आप सभी जाल में फँस गए हैं, क्योंकि पहला विकल्प : रुजवेल्ट हैं, दूसरा : चर्चिल; और आप सबने जिसे अपना नेता चुना है, वह हैं—हिटलर।

रुजवेल्ट, चर्चिल और हिटलर

बेहतरीन प्रदर्शन और शराब के संबंध का एक भारतीय उदाहरण :

के. एल. सहगल महशूर गायक के साथ-साथ मशहूर शराबी भी थे। नशे में हुए बिना वह गाते ही नहीं थे। उनके अधिकांश गीत नशे की हालत में ही रिकॉर्ड किए गए हैं। ‘शाहजहाँ’ (1946) के गीत रिकॉर्ड करने के दौरान संगीतकार नौशाद उनसे यह मनवाने में सफल रहे कि पहले बिना शराब के रिकॉर्ड करेंगे, फिर शराब के बाद। दोनों रिकॉर्डिंग सुनने के बाद सहगल मान गए कि बिन शराब वाली रिकॉर्डिंग अच्छी है। सहगल के प्रसिद्ध गीत ‘जब दिल ही टूट गया…’ के जिस संस्करण को हम सुनते हैं, यह वही गीत है :

बिन शराब सब सून… में भले सच्चाई न हो, ‘‘लेकिन यह वहम सच है। वहमवश लोगों की जान तक चली जाती है।’’ जान का चले जाना भी सच है।

शराब की लत का चिकित्सकीय समाधान है या नहीं है, जैसे सवाल इस फ़िल्म के केंद्र में नहीं हैं। शराब एक समस्या है, शराबियों की एक क़ौम है—हाशिए की क़ौम। जिसके सदस्यों में से किसी की नौकरी चली गई है, किसी की बीवी उसे छोड़ गई है, कोई आत्महत्या का जुगाड़ बैठा रहा है, कोई आत्महत्या कर चुका है, कोई अस्पताल में मरने का इंतज़ार कर रहा है।

हमारे समय के समादृत कवि कृष्ण कल्पित लिखते हैं :

‘‘घर टूट गया
रीत गया प्याला
धूसर गंगा के किनारे
प्रस्फुटित हुआ अग्नि का पुष्प
साँझ के अवसान में हुआ
देह का अवसान
धरती से कम हो गया एक शराबी’’

~~

पुनश्च : डॉग्मा-95 की पहली फ़िल्म ‘फ़ेस्टन’ (1998) से ही थॉमस विंटरबर्ग से परिचय का नैरंतर्य है। उन पर लिखना मेरे लिए इतना आसान नहीं है। बस इतना कहना चाहूँगा कि उनमें कहानी का बल है। [उ. शं.]