नामवर सिंह की कहानी-आलोचना के अंतर्विरोध और नई कहानी

नई कहानी के दौर में पहली बार कहानी-आलोचना को एक गंभीर विषय के रूप में समझा गया। यह नई कहानी का ही दौर था, जब विभिन्न काव्य-आंदोलनों की तरह कहानी की रचना और पाठ की प्रक्रिया पर गंभीर ‘वाद-विवाद और संवाद’ हुआ। नई कहानी के दौर के बाद कहानी-आलोचना एक बार फिर से हाशिए पर चली गई। कमोबेश यह स्थिति आज भी विद्यमान है। विभिन्न पत्रिकाओं में कहानीकारों पर केंद्रित विशेषांक देखने को तो मिल जाते हैं, लेकिन एक युगीन-प्रवृत्ति के रूप में कहानी का मूल्यांकन एवं पहचान कार्य उपेक्षित है। इस दृष्टिकोण से नई पीढ़ी के आलोचक उदय शंकर की पुस्तक ‘नई कहानी आलोचना’ [(नामवर सिंह की कहानी-आलोचना का विस्तृत अध्ययन) अंतिका प्रकाशन, ग़ाज़ियाबाद, प्रथम संस्करण : 2020] काफ़ी महत्त्वपूर्ण है।

इस पुस्तक में नामवर सिंह की कहानी-आलोचना के माध्यम से नई कहानी के दौर की कहानी-आलोचना के विभिन्न विवादों एवं अवधारणाओं पर गहराई से विचार किया गया है। इस क्रम में किसी कहानी को समझने-बूझने की प्रक्रिया से जुड़े सवालों को उत्तरित करने का सार्थक प्रयास लेखक ने किया है। नई कहानी आलोचना के बहाने यह पुस्तक कहानी-आलोचना की परंपरा को उद्घाटित करते हुए, उन आलोचकों के योगदान को भी चिह्नित करती है, जिनकी कहानी-आलोचना की परंपरा में उपेक्षा हुई है।

यह पुस्तक श्रमसाध्य शोध का परिणाम है। लेखक ने अपनी बातों की पुष्टि के लिए पर्याप्त मात्रा में उद्धरण और उदाहरण दिए हैं। यह पुस्तक नई कहानी के दौर में प्रयुक्त सभी पदों एवं मान्यताओं का सांगोपांग विवेचन करती है। उदाहरण के लिए नई कहानी के दौर में प्रयुक्त पदों जैसे अनुभूति की प्रामाणिकता, पीड़ा भरी प्रतीक्षा, मध्यवर्गीय यथार्थ, शहरी बनाम ग्रामीण यथार्थ, स्त्री-पुरुष संबंध आदि को लेखक ने विभिन्न आलोचकों के मतों तथा कहानियों के संदर्भ द्वारा आलोचित किया है।

यह पुस्तक आठ अध्यायों में विभक्त है। शुरुआती चार अध्याय कहानी-आलोचना एवं नई कहानी आलोचना की परंपरा और प्रवृत्तियों पर केंद्रित हैं। बाद के चार अध्यायों में लेखक ने नामवर सिंह की कहानी-आलोचना के सूत्रों को पकड़ने की कोशिश की है। पुस्तक सुसंबद्ध ढाँचे में लिखी गई है। यह प्रथम अध्याय से ही यह स्पष्ट हो जाता है कि लेखक ने नई कहानी आलोचना एवं इसके आलोचकों को एक परंपरा के नैरंतर्य में मूल्यांकित करने की कोशिश की है। लेखक का मत है कि नई कहानी के आलोचक अपने पूर्ववर्ती कहानी-आलोचना को भले ही ‘नकारात्मक’ संदर्भों में उद्धृत करते रहे हों, लेकिन नई कहानी आलोचना से पूर्व के दौर में प्रेमचंद, भुवनेश्वर और बाद में शिवदानसिंह चौहान ऐसे कहानी-आलोचक थे, जिनकी कहानी-आलोचना में वे तत्त्व मौजूद थे जो बाद में नई कहानी के दौर में विकसित हुए। ख़ासकर शिवदानसिंह चौहान की कहानी-आलोचना की उन विशेषताओं पर लेखक ने प्रकाश डाला है, जो आगे चलकर नई कहानी के दौर में कहानी-आलोचना का केंद्रीय विषय बनी, जैसे : कहानी को समझने के परंपरागत स्वरूप का विरोध और युद्धोत्तर रचना-पीढ़ी का रचनात्मक गतिरोध।

पुस्तक के प्रथम अध्याय ‘कहानी-आलोचना : एक पृष्ठभूमि’ में लेखक ने शिवदानसिंह की कहानी-आलोचना से उदाहरण देते हुए यह निष्कर्ष दिया है : “…नई कहानी के दौर में, कहानी को देखने की नई दृष्टि, आलोचना के नए उपकरणों की चिंता और जिन सवालों को लेकर व्यवस्थित कहानी आलोचना की शुरुआत होती है, उनके लगभग सारे सूत्र उनकी कहानी-आलोचना में उपलब्ध हैं। परंपरा का यह अवदान, हिंदी कहानी-आलोचना में उपेक्षित रहा।” (पृष्ठ संख्या : 32-33)

पुस्तक के दूसरे अध्याय ‘स्वातंत्र्योत्तर रचनाशीलता और आलोचना का परिवेश’ में लेखक ने ‘युद्धोत्तर रचनापीढ़ी के गतिरोध’ के विभिन्न पहलुओं पर विचार किया है। यह पद श्रीपत राय के द्वारा दिया गया था। नामवर सिंह एवं नई कहानी के अन्य आलोचकों द्वारा इस पद का इस्तिमाल यह दिखाने के लिए किया गया कि सन् 1954 से ‘नई कहानी’ का दौर शुरू होता है और आज़ादी के बाद के सात-आठ साल यह रचनात्मक गतिरोध का शिकार रहा। पुस्तक लेखक ने जैनेंद्र, अज्ञेय और यशपाल की इस रचनात्मक गतिरोध वाले दौर में लिखी कहानियों के उदाहरणों से यह दिखाया है कि इस कालखंड को बिल्कुल रचनात्मक गतिरोध का समय मान लेना सही नहीं है। साथ ही नई कहानी के दौर में जिस शहरी मध्यवर्ग के यथार्थ को केंद्र में रखकर कहानियों को लिखने की परिपाटी शुरू हुई थी, वह मध्यवर्ग प्रेमचंद के बाद से ही जैनेंद्र, अज्ञेय, यशपाल और अश्क की कहानियों में स्थापित हो गया था। अतः नई कहानी का नयापन इसके मध्यवर्गीय आधार में न होकर कहीं और था। सुरेंद्र चौधरी के हवाले से लेखक ने नई कहानी के नएपन की दो विशेषताएँ बताई हैं : पहली यह कि स्वाधीनता आंदोलन के दौरान जो अंतर्विरोध स्थगित थे, वे स्वाधीनता मिलते ही सतह पर आ गए। दूसरी प्रेमचंद के बाद हिंदी कहानी में पुनः ग्राम-कथाओं का आगमन। लेखक ने यह दर्ज किया है कि युद्धोत्तर रचना पीढ़ी का गतिरोध इसमें है कि ग्राम-कथाओं के अभाव के कारण यह समकालीन यथार्थ (जनता के आपसी अंतर्विरोधों) के एक बड़े हिस्से को पकड़ने में असमर्थ था। लेखक इस बात पर ज़ोर देते दिखते हैं कि नई कहानी का नयापन विभिन्न रचनात्मक प्रवृत्तियों के एक मंच पर आने में है, जो स्वातंत्र्योत्तर भारत के समकालीन यथार्थ के हर कोण को प्रकट कर रहा था।

पुस्तक का तीसरा अध्याय ‘नई कहानी’ आंदोलन और उसके आलोचक’ नई कहानी एवं कहानी-आलोचना के विकास में ‘कहानी’ एवं ‘नई कहानियाँ’ पत्रिका की भूमिका को केंद्र में रखकर लिखा गया है। भैरवप्रसाद गुप्त, श्रीपत राय, मार्कंडेय और नामवर सिंह जैसे आलोचकों के बीच होने वाले वाद-विवाद और संवादों के बीच नई कहानी के स्थापित होने की कहानी इस अध्याय में है। नई कहानी दौर के एकछत्र आलोचक नामवर सिंह माने जाते हैं और ऊपर जिन दो पत्रिकाओं का ज़िक्र हुआ है, उनकी नामवर सिंह को एक सशक्त आलोचक के रूप में स्थापित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। परंतु श्रीपत राय और मार्कंडेय भी इस दौर के ऐसे आलोचक हैं, जिन्होंने नई कहानी की प्रवृत्तियों को पकड़ने की कोशिश की। लेखक ने यह दिखाया है कि कैसे श्रीपत राय नई कहानी के दौर के कहानीकारों की रचनाशीलता को समझ रहे थे और उनकी मुक्त-कंठ से सराहना कर रहे थे। श्रीपत राय और भैरवप्रसाद गुप्त ने नई कहानी के दौर की तमाम प्रवृत्तियों को एक साझे मंच पर लाने का प्रयास किया। लेखक ने अपनी पैनी शोध-दृष्टि का परिचय देते हुए यह बताया है कि मार्कंडेय ही नई कहानी के दौर के पहले ऐसे आलोचक थे, जिन्होंने ‘पीढ़ियों का टकराव’ और ‘कथानक का ह्रास’ जैसे सिद्धांतनुमा पदों का इस्तिमाल किया था। लेखक ने नामवर सिंह और मार्कंडेय को नई कहानी का ऐसा स्वीकृत, सक्रिय और पेशेवर आलोचक माना है, जिनसे साठोत्तरी आलोचकों की फ़ौज को प्रेरणा मिली; जिसमें देवीशंकर अवस्थी और सुरेंद्र चौधरी प्रमुख थे।

इस पुस्तक के चौथे अध्याय ‘नई कहानी की प्रवृत्तियाँ : आलोचकीय दृष्टिकोण’ में नई कहानी के जुड़े पदबंधों पर विस्तार से चर्चा की गई है। पुस्तक में यह सबसे लंबा अध्याय है और नई कहानी के आलोचकों के बीच होने वाले वाद-विवाद और संवाद के विभिन्न पक्षों से पाठकों को अवगत करवाता है। यह अध्याय उन शोधार्थियों और सुधी पाठकों के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण है जो नई कहानी से जुड़े पदबंधों पर विभिन्न आलोचकों के नज़रिए को समझना चाहते हैं। नई कहानी की विशेषताओं पर चर्चा करते समय अनुभूति की प्रामाणिकता, पीड़ा भरी प्रतीक्षा, मध्यवर्गीय यथार्थ, शहरी बनाम ग्रामीण यथार्थ, नकार का बोध/बोध का नकार जैसे पदबंधों का बारंबार प्रयोग होता है। लेखक ने इन पदबंधों के प्रयोग के पीछे की आलोचकीय मंशा की गहरी पड़ताल की है।

‘अनुभूति की प्रामाणिकता’ नामक पदबंध कैसे नई कविता से होते हुए नई कहानी पर भी आरोपित हो गया, इसका रोचक विवरण दिया गया है। लेखक ने इस तथ्य को रेखांकित किया है कि नई कहानी के अंतिम दौर में पहले-पहल इस पदबंध को नई कहानी से जोड़ा गया। लेखक ने श्रीपत राय, मार्कंडेय और नामवर सिंह के शुरुआती लेखों के माध्यम यह बताया है कि ‘अनुभूति के क्षण’ या ‘अनुभूति की गहराई’ जैसे शब्दों का प्रयोग नई कहानी के लिए किया जा रहा था, लेकिन ‘अनुभूति की प्रामाणिकता’ शब्द का प्रयोग नहीं मिलता है। लेखक का मानना है कि इस पदबंध का प्रयोग नई कविता और नई कहानी को सहजात सिद्ध करने के लिए नामवर सिंह और देवीशंकर अवस्थी जैसे आलोचकों द्वारा बाद में किया गया। नामवर सिंह घोषित मार्क्सवादी आलोचक हैं। उसी दौर के एक अन्य मार्क्सवादी कवि, आलोचक एवं कहानीकार मुक्तिबोध ‘अनुभूति की प्रामाणिकता’ की जगह ‘जीवनानुभूति’ शब्द का प्रयोग करते हैं। इस पदबंध के हवाले से लेखक ने नामवर सिंह की आलोचना प्रक्रिया पर कुछ गंभीर सवाल खड़े किए हैं। लेखक इस बात चमत्कृत है कि नामवर सिंह ‘अनुभूति की प्रामाणिकता’ को नई कहानियों में सिद्ध करने के लिए जिन कहानियों का उदाहरण देते हैं, उसमें न निर्मल वर्मा की कहानियाँ हैं और न राजेंद्र यादव की; जबकि इन दोनों लेखकों की अधिकांश कहानियाँ इनके निजी अनुभवों से अनुसृत हैं। जिस ‘परिंदे’ की प्रशंसा करते हुए नामवर सिंह नहीं थकते, उसका भी ज़िक्र ‘अनुभूति की प्रामाणिकता’ को व्याख्यायित करते हुए वह नहीं करते हैं। यहाँ तक कि नई कहानी के कहानीकारों का एक धड़ा (जैसे मोहन राकेश) भी इस पदबंध के प्रयोग से सहमत नज़र नहीं आता है। लेखक का मंतव्य है कि ‘अनुभूति की प्रामाणिकता’ जैसे पदबंध के प्रयोग से कहानी के रचना-परिदृश्य के एकआयामी होने का ख़तरा उत्पन्न हो गया, जबकि नई कहानी बहुआयामी थी। लेखक ने सुरेंद्र चौधरी एवं नई कहानी के अन्य आलोचकों के हवाले से यह बताया है कि ‘अनुभुति की प्रामाणिकता’ नामक पदबंध व्यापक जीवन-दृष्टि में बाधक साबित होता है। यह ‘अनुभूति की प्रामाणिकता’ का दबाव ही था कि अकहानी के दौर की कहानियों में व्यापक जीवन-दृष्टि के दर्शन नहीं होते हैं। नामवर सिंह एवं देवीशंकर अवस्थी जैसे आलोचकों से पुस्तक लेखक की शिकायत है कि वे नई कविता की आँख से नई कहानी को देखते हैं, जो एक आलोचकीय अन्याय है।

‘पीड़ा भरी प्रतीक्षा’ नई कहानी से जुड़ा एक अन्य ख्यात पदबंध है। इस पदबंध का भी प्रयोग सबसे पहले नामवर सिंह ने किया था। नामवर सिंह ‘पीड़ा भरी प्रतीक्षा’ को नई कहानी की एक प्रमुख विशेषता के रूप में स्थापित करते हैं। इसके लिए वह ‘परिंदे’ और ‘डिप्टी कलक्टरी’ का उदाहरण पेश करते हैं। पुस्तक लेखक नामवर सिंह की इस स्थापना से सहमत नहीं हैं। लेखक ने व्यवस्थित तरीक़े से यह सिद्ध किया है कि विधा के रूप में कहानी का प्रतीक्षा का संबंध बहुत प्राचीन है। इसे किसी युग विशेष की प्रवृत्ति कहना सही नहीं। इसके साथ ही साथ लेखक ने सुरेंद्र चौधरी और मोहन राकेश की स्थापनाओं के आधार पर यह तर्क दिया है कि ‘परिंदे’ और ‘डिप्टी कलक्टरी’ की प्रतीक्षा में बहुत अंतर है। ‘परिंदे’ में जहाँ एक निष्क्रिय प्रतीक्षा है, वहीं ‘डिप्टी कलक्टरी’ में कठिन प्रयास के बाद की जाने वाली प्रतीक्षा है। दोनों को एक ही साँचे में ढालना अनुचित है। लेखक ने नामवर सिंह की इस स्थापना से असहमत होते हुए यह तर्क रखा है कि वह एक ओर नई कहानी के दौर को स्वतंत्र महसूस करने वाली परिस्थिति भी कहते हैं और इसे पीड़ा भरी प्रतीक्षा का दौर भी कहते हैं। सुरेंद्र चौधरी के हवाले से लेखक ने इसे उपहासास्पद स्थिति की संज्ञा दी है और यह मत व्यक्त किया है कि इस दौर में किसी भी स्वर को प्रतिनिधि स्वर नहीं कहा जा सकता। सुरेंद्र चौधरी इसे ‘समकालीन यथार्थवाद’ कहते हैं, जिसका उद्देश्य किसी एक स्वर को प्रतिनिधि मानने की बजाय सभी प्रतिनिधि स्वरों को रेखांकित करना था।

नई कहानी की एक विशेषता ‘मध्यवर्गीय यथार्थ’ की अभिव्यक्ति भी मानी जाती है। भारतीय मध्यवर्ग के विकास एवं चारित्रिक विशेषताओं पर पुस्तक लेखक ने विस्तार से प्रकाश डालते हुए स्वतंत्रता से पूर्व और स्वतंत्रता के बाद के मध्यवर्ग के बीच के अंतर को स्पष्ट किया है। नई कहानी आंदोलन से पूर्व जैनेंद्र, अज्ञेय और यशपाल मध्यवर्गीय जीवन को केंद्र में रखकर कहानियाँ लिख रहे थे। नई कहानी के आरंभिक दौर में ग्रामांचलों के जीवन पर आधारित कहानियों का प्रकाशित होना भी इसका नयापन था, लेकिन आलोचकों के बीच बहस का मुद्दा मध्यवर्गीय जीवन के यथार्थ को प्रकट करने वाली कहानियाँ ही रहीं। साथ इस यथार्थ के स्वरूप को स्पष्ट करने का भी दबाव आलोचकों पर था। मध्यवर्गीय जीवन पर लिखी किस तरह की कहानियों को प्रशंसनीय माना जाए, यह नई कहानी के आलोचकों के सामने प्रश्न था। पुस्तक लेखक ने नई कहानी के दौर में मध्यवर्गीय जीवन पर लिखी कहानियों के तीन प्रकार बताए हैं : पहले में वे कहानियाँ शामिल हैं जो मध्यवर्गीय जीवन के परिवेश, परिदृश्य और वातावरण को उद्घाटित करती हैं। दूसरे में वे कहानियाँ हैं शामिल हैं जो ‘मूड्स’ पर आधारित हैं। निर्मल वर्मा की कहानियों को लेखक इसी श्रेणी में शामिल करते हैं और यह कहते हैं कि इन कहानियों के परिप्रेक्ष्य में भावना का योग अधिक है या सामाजिक अनुभव का यह स्पष्ट कर पाना मुश्किल है। इस तरह की कहानियों के स्पष्ट सामाजिक आधार का निर्धारण नहीं किया जा सकता, जैसा कि नामवर सिंह ने निर्मल वर्मा की कहानियों की आलोचना करते हुए इन्हें निम्न मध्यवर्गीय जीवन का हिस्सा माना है। तीसरे प्रकार में वे कहानियाँ शामिल हैं जिनमें मध्यवर्ग को विचार, चेतना या बुद्धि के माध्यम से समझने का प्रयास किया गया है।

कुल मिलाकर इस दौर में मध्यवर्गीय जीवन के आत्मकेंद्रित स्वरूप और संघर्षशील स्वरूप दोनों पर कहानियाँ लिखी गईं। आत्मकेंद्रण में जहाँ निष्क्रियता है वहीं दूसरी धारा में सक्रियता है।

मध्यवर्गीय यथार्थ की अभिव्यक्ति को ही नई कहानी का मूल उद्देश्य मानकर चलने के कारण नई कहानी के आलोचकों ने ग्राम-कथाओं एवं कथाकारों को शुरुआत में कोई ख़ास महत्त्व नहीं दिया। लेखक ने इस बात को रेखांकित किया है कि नई कहानी का नयापन ग्रामीण कथाओं के साथ उभरता है यानी प्रेमचंद के बाद पहली बार ग्रामीण जीवन को केंद्र में रखकर फिर से कहानियों की रचना आरंभ हुई। इन कहानियों को नई कहानी के प्रायः सभी आलोचकों ने जागरूक चिंतन और पैनी सामाजिक दृष्टि से लैस नहीं माना। इन सभी के लिए ये कहानियाँ ‘लोक-जीवन का मुग्ध चित्रण’ भर थीं, जिनमें बौद्धिकता का अभाव था। शुरुआत में नामवर सिंह, देवशंकर अवस्थी और सुरेंद्र चौधरी लगभग इस पर एकमत हैं। नामवर सिंह को जिन कहानियों में जीवन के स्वस्थ सौंदर्य एवं उर्जस्वल शक्ति के दर्शन होते हैं, वे ग्राम कहानियाँ ही हैं, फिर भी उन्होंने अपनी पुस्तक में किसी भी ग्राम कहानी पर विचार नहीं किया है। ग्राम कथाकारों के बारे में नामवर सिंह का मानना है : “जो कहानीकार इतने जागरूक चिंतक तथा पैनी सामाजिक दृष्टि वाले नहीं है, उन्होंने अछूते जीवन-क्षेत्रों का सहारा लेकर पाठकों को अपनी ओर खींचने की कोशिश की है।”

नई कहानी के आलोचक शहरी बनाम ग्रामीण यथार्थ के चित्रण को बौद्धिकता बनाम भावुकता के रूप में देख रहे थे। पुस्तक लेखक की निगाह में यह सवाल शहरी बनाम ग्रामीण यथार्थ से अधिक परिवेश की मांसलता से जुड़ा था। शहरी कथाकारों की कहानियों में परिवेश की वह मांसलता नहीं थी जो ग्रामीण कथाकारों के यहाँ थी। यही कारण है कि इस दौर की ग्राम-कथाओं ने हिंदी में ‘जातीय साहित्य’ के स्वरूप की रक्षा की। रेणु ने इसमें अग्रणी भूमिका निभाई। नई कहानी के प्रसिद्ध आलोचक सुरेंद्र चौधरी बाद में रेणु की इस भूमिका को स्वीकार करते हैं।

‘नकार का बोध’ या ‘बोध का नकार’ नई कहानी से जुड़ा एक अन्य प्रसिद्ध पदबंध है। नई कहानी के कहानीकारों ने यह दावा किया कि वे हिंदी कहानी की परंपरा को तोड़कर कहानी का विकास कर रहे हैं। पुस्तक लेखक ने नई कहानी लेखकों द्वारा परंपरा के नकार के तीन रूप बताए हैं : प्रथम संघटन के रूप में जहाँ नए कहानीकारों द्वारा यह दावा किया गया कि वे जीवन-प्रक्रिया को कहानी कला के साथ साझा करने की कोशिश कर रहे हैं। अर्थात् वे पाठक को अपने अनुभव का साझेदार बनाना चाहते हैं। दूसरा व्यक्तव्यों के स्तर पर पुराने कहानीकारों और नए कहानीकारों के बीच हुई बहसें हैं। तीसरा दार्शनिक संदर्भ में, जिसमें कहानीपन या कथानक का विरोध कर कथानक के ह्रास का सिद्धांत विकसित हुआ।

हालाँकि पुस्तक लेखक इस बात पर ज़ोर देते हैं कि परंपरा के नकार के इन दावों को पुरानी कहानियों से नई कहानियों की तुलना करते हुए बता पाना मुश्किल है कि परंपरा का लबादा कहाँ पर छोड़ा गया।

‘स्त्री-पुरुष संबंध’ नई कहानी का प्रिय विषय रहा है। हालाँकि यह मध्यवर्गीय यथार्थ का ही एक पहलू है, पर इतना महत्त्वपूर्ण है कि इस पर अलग से विचार करने की आवश्यकता है। विभिन्न आलोचकों और कहानियों के उदाहरण से पुस्तक लेखक ने नई कहानी के दौर में चित्रित स्त्री-पुरुष संबंध की निम्नलिखित विशषेताओं को उद्घाटित किया है :

1. पहली बार मन्नू भंडारी, कृष्णा सोबती और उषा प्रियंवदा जैसी लेखिकाओं के द्वारा स्त्री-पुरुष संबंध पर विचार।
2. स्त्री-पुरुष संबंधों का सामाजिक संबंधों से संबंध अर्थात् मध्यवर्गीय जीवन में स्त्री की स्थिति और पुरुष पर उसका प्रभाव इत्यादि।
3. स्वच्छंद सेक्स संबंधों की वकालत या स्त्री प्रति ‘कुंठित’ या ‘जंतुवादी’ नज़रिया, जिसका अकहानी के दौर में विकास हुआ। राजेंद्र यादव की कहानियों को लेखक ने इस श्रेणी में रखा है।
4. ‘आत्मविस्मृति के मूड्स’ या दुखांत गाथाओं वाली कहानियाँ, जिन्हें सामाजिक संबंधों से निर्गत नहीं माना जा सकता है। लेखक के मतानुसार पुराने कहानीकारों जैनेंद्र और अज्ञेय के यहाँ भी यही प्रवृत्ति मिलती है और नए कहानीकारों में निर्मल वर्मा की अधिकांश कहानियाँ इसी प्रकार ही हैं।

पाँचवें से आठवें अध्याय में लेखक ने नामवर की कहानी-आलोचना को केंद्र में रखा है। पाँचवें अध्याय में लेखक ने नामवर सिंह की कहानी-आलोचना के सूत्र-संदर्भ को पाश्चात्य आलोचकों (एफ़. आर. लीविस और रेमंड विलियम्स) के माध्यम से पकड़ने की कोशिश की है। कहानी को कैसे पढ़ा जाए या इसे पढ़ने की क्या प्रक्रिया होनी चाहिए? यह प्रश्न नई कहानी के दौर में एकाएक महत्त्वपूर्ण हो गया। इसका मूल कारण नई कहानियों की जटिलता और सांकेतिकता थी। यही कारण है कि नई कहानी के हर आलोचक ने पाठ की संप्रेषणीयता और ग्रहणशीलता के प्रश्न पर विचार किया है। नामवर सिंह ने भी इस प्रश्न पर विचार किया है। परंतु एक तरफ़ वह भाषा के उलझाऊपन और जटिलता के लिए कहानीकार को कभी दोषी ठहराते हैं तो दूसरी तरफ़ पाठक की समझदारी पर भी सवाल खड़ा करते हैं। पुस्तक लेखक का मत है कि नामवर सिंह एफ़. आर. लीविस की तरह पाठक से ‘क्लोज़ रीडिंग’ का आग्रह रखते हैं, जिसे वह ‘समीपी अध्ययन’ कहते हैं। ‘क्लोज़ रीडिंग’ में पाठ में अभिव्यक्त शब्दों के विश्लेषण पर अधिक बल दिया जाता है और उसके सामाजिक एवं सांस्कृतिक पक्ष को गौण माना जाता है। यानी एफ़. आर. लीविस एक ऐसे अल्पसंख्यक पाठक वर्ग को ही साहित्य का पाठक मानने पर बल देते हैं जो सजग हो।

लेखक ने सोदाहरण नामवर सिंह की उक्तियों से यह दिखाया है कि नामवर सिंह कहानी पढ़ने के सरलीकृत या परंपरागत तरीके से सहमत नहीं है। वह कहानी पढ़ने की प्रक्रिया की तुलना अनुवाद से करते हैं। यानी पाठक इतना सजग हो कि वह लेखक की मानसिक प्रक्रिया को पकड़ ले।अर्थात् नामवर सिंह भी एफ़. आर. लीविस से प्रभाव ग्रहण करते हुए एक ऐसे अल्पसंख्यक पाठक वर्ग के हिमायती दिखते हैं जो कहानी की कलात्मक सूक्ष्मताओं को पकड़ सके।

पुस्तक लेखक इस बात से सहमत हैं कि पढ़ना भी एक रचनात्मक कार्य है, लेकिन संप्रेषणीयता की जवाबदेही पाठक से अधिक लेखक पर होती है। यह संप्रेषणीयता तीन स्तरों पर होती है : पहली कथात्मक यानी कथानक के स्तर पर, दूसरी भावात्मक स्तर पर और तीसरी सांस्कृतिक स्तर पर। अगर पहले स्तर पर ही संप्रेषणीयता बाधित हो जाती है तो इसका तात्पर्य यह है कि कहानी के गठन में ही गड़बड़ी है और कहानी बाक़ी दो स्तरों पर संप्रेषित नहीं हो पाएगी।

छठवें अध्याय में लेखक ने नामवर सिंह की प्रसिद्ध पुस्तक ‘कहानी : नई कहानी’ के माध्यम से उनकी कहानी आलोचना के सूत्रों को समझने-समझाने का प्रयास किया है। लेखक ने इस बात को रेखांकित किया है कि नामवर सिंह ने नई कहानी के चार रूपों का उल्लेख किया है, जो नई कहानी को नयापन देती है : पहला कहानी के आदिम रूप का पुनरोद्धार, दूसरा कथानक का ह्रास यानी छोटे मुँह बड़ी बात, तीसरा अभीष्ट विचार को अभिव्यक्त करने लिए अत्यंत प्रभावशाली और साभिप्राय घटना-प्रसंग वाली प्रवृत्ति और चौथा ग्रामांचलों की कहानियाँ।

इन रूपों के सहारे नामवर सिंह ने नई कहानी की सांकेतिकता, रागधर्म, पीड़ा भरी प्रतीक्षा जैसे पदबंधों पर कहानियों के सहारे विस्तार से चर्चा की है। पुस्तक लेखक ने नामवर सिंह द्वारा प्रयुक्त इन पदबंधों के अंतर्विरोधों को उनके कथनों द्वारा उजागर किया है। लेखक का मत है कि नामवर सिंह द्वारा निर्मल वर्मा और उनके कहानी संग्रह ‘परिंदे’ को नई कहानी का प्रतिनिधि मानने के कारण ये अंतर्विरोध उत्पन्न हुए। उदाहरणस्वरूप पुस्तक लेखक ने नामवर सिंह द्वारा अमरकांत की कहानी ‘डिप्टी कलक्टरी’ और निर्मल वर्मा के ‘परिंदे’ कहानी में अभिव्यक्त ‘पीड़ा भरी प्रतीक्षा’ को एक ही खाँचे में फिट करने से असहमत हैं। लेखक का मत है कि ‘डिप्टी कलक्टरी’ में जहाँ सक्रिय प्रतीक्षा का भाव है, जिसका एक सामाजिक परिप्रेक्ष्य है, वहीं ‘परिंदे’ के पात्रों की प्रतीक्षा में निष्क्रियता का भाव है, जिसका सामाजिक परिप्रेक्ष्य से दूर-दूर तक वास्ता नहीं है। इसी तरह से निर्मल वर्मा की कहानियों की संगीतधर्मिता या रागधर्मिता की तुलना ग्रामांचलों की कहानियों की रागधर्मिता से करना बेमानी है।

सातवें अध्याय में नामवर सिंह की कहानी-आलोचना की भाषा पर चर्चा की गई है। इस अध्याय में लेखक ने उनकी आलोचना की भाषा को लयात्मक, चुटीला और गद्य कविता कहा है। परंतु लेखक ने नामवर सिंह की कहानी-आलोचना की भाषा के बारे में यह मत व्यक्त किया है कि उनकी आलोचना भाषा से पारिभाषिक शब्दावलियों को निकाल पाना संभव नहीं है। लेखक ने नामवर सिंह की कहानी-आलोचना में प्रयुक्त हुई इस प्रकार की शब्दावलियों के बारे में कहा है कि वह कहानी-विधा मात्र की चिंताओं के साथ नहीं, बल्कि पूरे साहित्य के परिप्रेक्ष्य में ही कहानी को भी देखते हैं। अर्थात् नामवर सिंह ने कहानी-आलोचना के लिए अलग से किसी भाषा का निर्माण नहीं किया, बल्कि कविता की आलोचना के प्रयुक्त पदों का उपयोग उन्होंने कहानी-आलोचना के लिए किया है।

आठवें अध्याय में लेखक ने नामवर सिंह पर ‘कथानक के ह्रास’, ‘समीपी अध्ययन’, संगीतधर्मिता इत्यादि पदबंधों को एफ़. आर. लीविस और नई समीक्षा के आलोचकों से उड़ाकर प्रयुक्त करने का आरोप लगाया है। यह एक गंभीर आरोप है और लेखक ने इसके पक्ष में काफ़ी प्रमाण भी दिए हैं।

कुल मिलाकर इस पुस्तक में नामवर सिंह की कहानी-आलोचना के अंतर्विरोधों के साथ-साथ नई कहानी के अन्य आलोचकों के वाद-विवादों पर विस्तृत चर्चा की है। लेखक ने नामवर सिंह की कहानी-आलोचना के चार बिंदुओं की पहचान की है, जो उन्हें अलहदा पहचान देती है : पाठकों का वर्गीकरण, पाठ-प्रक्रिया अर्थात् पाठ को कैसे पढ़ें यानी क्लोज़ रीडिंग, कथानक का ह्रास और पाठ की संगीतधर्मिता।

बहरहाल यह एक विचारोत्तेजक पुस्तक है जिसे पढ़ने के बाद लेखक की कई मान्यताओं से भले ही आप सहमत न हों, पर नामवर सिंह की कहानी-आलोचना की दो बातें आपको ज़रूर खटकेगी : एक निर्मल वर्मा को नई कहानी का प्रतिनिधि मानना और दूसरी ग्रामकथाओं की उपेक्षा।