समय प्रश्नमय
हाल में कवि और सामाजिक कार्यकर्ता शुभा ने फ़ोन पर कहा कि जान पड़ता है देवी, हिंदी में एक अदृष्ट नवजागरण हो रहा है। उनसे असहमत होना इसलिए मुश्किल है क्योंकि वह स्त्री, दलित, आदिवासी और सांप्रदायिक प्रश्नों के परिप्रेक्ष्य में यह बात कह रही थीं जो किसी अपरायज़िंग की तरह लग रहे हैं। लेकिन वह इन अलग-अलग दिखते सवालों को इनकी समग्रता में देखना चाहती हैं, न कि इनके विखंडित रूपों में। वह अपनी जादुई हँसी के साथ कहती हैं कि यार, कितने ख़ाने बनाए जाएँ।
मैं आत्मनिरीक्षण वाली धीमी आवाज़ में कहना चाहता हूँ कि अभी तक इन सवालों को समग्रता में ही देखा जा रहा था जिसमें पौरुषेय सत्ता नियंत्रक की भूमिका में आ जाया करती थी। इसलिए केंद्रीयता को तोड़ने का समय तो है फिर वह दर्शन उत्तर आधुनिकता की जानिब से ही आता क्यों न दिखे—केंद्रीयता और एकाश्मीकरण की बजाय डिसेंटरिंग और विकेंद्रीयता का ग्रासरूट आग्रह; नई कहानियाँ पाने और सुनने का और उनसे विगलित होने के बाद किसी भी स्तर की कर्मठता का उठान। शुभा कुछ कहतीं नहीं, लेकिन असहमत भी नहीं होतीं।
दूसरी बात उन्होंने कही कि जान पड़ता है कि एक नई सामुदायिक साहित्यिकता निर्मित हो रही है, जिसमें अत्यंत युवा अग्रणी भूमिका निभा रहे हैं। इस उमड़ते-घुमड़ते आस्फोट के लिए लेखक संगठनों की अंतर्कलह और उसमें व्याप्त औसतपन और अहंवाद और गिरोहवाद और वैचारिक जड़ताएँ बहुत कारगर नहीं हो सकतीं। नई उच्छलता नए निर्माण-बोध के साथ आगे आ रही है। उस पर बेवजह का संदेह क्यों किया जाए।
इसमें क्या दो मत कि यह एक प्रश्नाकुल समय है। हाल ही में हुए ‘हिन्दवी उत्सव’ के विचार-सत्र का विषय था—‘रचना में नया क्या’। इसके लिए मैंने मंचस्थ वक्ताओं अशोक वाजपेयी, शुभा, श्यौराज सिंह बेचैन और गरिमा श्रीवास्तव से कुछ सवाल पूछे थे। समय-सीमा के चलते उन सवालों के जवाब नहीं दिए जा सकते थे; शायद इसीलिए शुभा, सविता सिंह और अनुपम सिंह और बाद में धीरेंद्र नाथ तिवारी ने कहा कि वे सवाल प्रासंगिक हैं और आप उन सवालों को थोड़ा और सार्वजनिक कीजिए।
वे सवाल इस तरह थे :
• हाल का स्त्री लेखन किसी विस्फोट जैसा है। वह पितृ-सत्ता, पति-सत्ता, प्रेमी-सत्ता, राज्य-सत्ता, मेल गेज़ से लड़ता हुआ अपनी हक़दारी की अपूर्व माँग करता है। इस बिल्कुल नई परिघटना को किस तरह से देखा जाए।
• फ़ेसबुक पर स्त्री-कविता की बाढ़ आ गई है। यह असंपादित और स्वायत्त टेक्स्ट है जो सहज तो है ही, उसका आत्मवृत्त उसकी सबसे बड़ी प्रामाणिकता है। यह आत्मकथा की पीड़ा और उत्पीड़न है। इस आत्मीकृत टेक्स्ट को किस तरह पढ़ना चाहिए।
• यहाँ चयन की स्वतंत्रता ही नहीं बहुनिष्ठ होने जिसको बोहेमियन होना भी कहा जा रहा है, उस पर बहुत ज़ोर है। यह ख़ानाबदोशी क्या स्त्री-स्वातंत्र्य का बड़ा मूल्य है।
साफ़ करना चाहता हूँ कि इसे बहुनिष्ठ बनाम एकनिष्ठ की बहस में रेड्यूज़ न किया जाए।
• हिंदी-पट्टी के प्रेम के अभाव वाले रेगिस्तान में फ़ेसबुक के आभासीय युग में यह आम्रपाली सिंड्रोम तो नहीं? कहीं ऐसा तो नहीं कि इस स्वतंत्रता की स्वतंत्रता से निकल भागने की ऑप्रेसिव अवस्थितियाँ बन जाएँ।
• स्वतंत्रता कहीं भोगवाद की मंशा तो नहीं। हो यह भी सकता है कि भोगवाद कोई बहुत बुरी चीज़ न हो, क्योंकि उसमें उन्मुक्त ऐंद्रियता के संसक्त होने की बात अंतर्विद्ध होती है।
• पारिवारिकता को तोड़ दिया जाए या उसे मातृसत्तात्मक बनाने के प्रयत्न किए जाएँ।
• पिछले दशकों में हिंदी कविता में दलित गणतंत्र निर्मित हुआ। उसने दलित और साथ ही आदिवासी अस्मिता को मुखर और प्रखर बनाने का काम किया। उसमें यातना और उत्पीड़न के मार्मिक बयान थे जिसे कई बार विक्टिमहुड कहकर उस वृत्तांत की गंभीरता को कम करने की कोशिश की गई। दलित लेखन की नई करवट और नया शिफ़्ट क्या है।
• आत्मकथात्मकता में दलित लेखन स्त्री लेखन का पूर्वज है जो सवर्ण के नॉस्टेल्जिया से बिल्कुल भिन्न है। इस आत्मकथा की पॉलिटिक्स क्या है?
• साफ़ है कि दलित लेखन की आत्मपीड़ा समांतर तौर पर आत्मगरिमा का निर्माण करती है, जो महत्त्वपूर्ण है। ये दोनों अवस्थितियाँ क्या किसी राजनीतिक विज़न में बदल भी पाती हैं।
• इस संदर्भ में यह पूछना क्या अनुचित होगा कि मार्क्सवाद से विलगता क्या दलित प्रश्न को अधिक संगत और प्रासंगिक बनाए रखता है या उसका किसी मायावाद में गेटवायज़ेशन करता है।
• साहित्य में जो कुछ नया बन रहा है उसकी बौद्धिक और संवेदीय अपर्याप्तताएँ भी हैं। इस नए को किस बात के लिए ख़बरदार करने की ज़रूरत है।
• इस लेखन को मैं न्यू डिज़ायर की तरह भी देखता हूँ—नई इच्छा या वांछा। स्त्री और दलित और आदिवासी की इस नई वांछा को किस तरह विवृत किया जाए।
• स्त्री-लेखन का बड़ा हिस्सा स्त्री-अस्मिता का एक अराजनीतिक द्वीप बनाना चाहता है। एक राजनीति-विहीन फ़ेमिनिज़्म के असरात क्या हो सकते हैं।
• श्रम का मूल्य स्त्री की स्वतंत्रता का बुनियादी घटक है, इस पर विस्तृत चर्चा क्या प्रलंबित नहीं है।
• अंतर्वस्तु के बदलने से जो भाषिक और संरचनागत बदलाव होना चाहिए क्या वह होता हुआ दिख रहा है। कविता वृत्तांतमूलक होती जा रही है तो यह कहन भाषा को लचीला बना रहा है और भाषा के भीतर भाषिक और संवेदीय स्पेस बढ़ता जा रहा है। आपको अगर यह संदेह हो कि भाषा की संगठक क्षमता की बेजा परीक्षा ली जा रही है तो उस दुविधा के बारे में किस तरह से बात की जाए।
• हिंदी कविता बहुत गहरे सामाजिक हुई है, अगर वह थोड़ा कम राजनीतिक भी हुई हो; तो क्या सामाजिक दृष्टि को कला-दृष्टि मान लेने का समय है। मतलब कि कला की स्वायत्तता और शुद्ध कविता क्या संभव नहीं रह गई है। और क्या कलावाद और विचारधारा के बीच की बहस भी पूरी तरह बेमानी नहीं हो गई है?