‘मेरी सारी कविताएँ मेरे प्रेम की कविताएँ हैं’
नरेश सक्सेना से अविनाश मिश्र की बातचीत
नरेश सक्सेना एक ऐसे विलक्षण कवि हैं, जिन्हें अपनी लगभग समग्र काव्य-पंक्तियाँ और उनके स्रोत याद हैं। वह कविता में ‘कम’ के पक्षधर हैं, लेकिन वार्तालाप में बेहद मुखर हैं; इतने कि सारे प्रश्न पहले से ही जान लेना चाहते हैं। वह प्रश्नों से इतर चर्चा में अपने घर की रहस्यमय संरचना, आंतरिक व बाह्य बनावट पर बातें करते हैं। वह साक्षात्कारकर्ता को उसके बेहतर भविष्य के लिए सुझाव भी देते हैं। इस साक्षात्कार के दौरान कई जगह स्मृतियाँ दग़ा देती हैं, तथ्य उलझते हैं… और अंतत: सब कुछ सामान्य होता है। साहित्य, इतिहास, समाजशास्त्र, राजनीति, नागरिक शास्त्र, विज्ञान, मनोविज्ञान, लोक परंपराओं, अध्यात्म, प्रेम, संगीत, रंगमंच, पेंटिंग, सिनेमा, फ़ोटोग्राफ़ी, खेल… वह हर विषय पर बात करते हैं और हर सवाल का जवाब देते हैं। इस प्रकार बातचीत इतनी विस्तृत हो जाती है कि उसे प्रस्तुति के प्रसंग में सख़्ती से संपादित करना पड़ता है।
— अविनाश मिश्र
29 अप्रैल 2012, लखनऊ
आप इतनी कम कविताएँ क्यों लिखते हैं?
देखिए, मेरे लिए कविता कोई आसान चीज़ नहीं है, लेकिन जो आसानी से कविताएँ लिख लेते हैं; मुझे उनसे ईर्ष्या भी नहीं है। क्योंकि वैसी कविताओं में मेरी रुचि नहीं है। यदि वे सब कविताएँ जो लगातार आने वाले कविता-संग्रहों में छप रही हैं, सचमुच कविताएँ हैं तो निश्चित रूप से कम लिखना मेरी अक्षमता है। कभी-कभी एक कविता को पूरा करने में मुझे कई महीने या साल भी लग जाते हैं। ‘चंबल एक नदी का नाम…’ एक ऐसी ही कविता है जो मैं कई महीनों से लिख रहा हूँ, लेकिन अब तक अधूरी है। कविता की प्रारंभिक पंक्तियाँ या उसे जुड़ा कोई आइडिया एक फ़्लैश में आ जाता है, लेकिन उसे पूर्णता देने वाली पंक्तियाँ कई बार महीनों बाद सूझती हैं। ऐसी कविताएँ अधूरी कविताएँ होती हैं जो अपने पूरे होने की जद्दोजहद में पड़ी रहती हैं।
कविता क्या है?
कविता मेरे लिए एक अनावृत प्रक्रिया है और मेरे लिए उसके प्रकाशित हो जाने का अर्थ इस प्रक्रिया का अंत हो जाना नहीं है। तर्कसंगति को आप मेरी कमज़ोरी मान सकते हैं। हालाँकि मैं यह बात भी जानता हूँ कि निरी तार्किकता से विज्ञान तो संभव है, कलाएँ नहीं। कलाएँ तर्कों को तोड़कर आगे बढ़ती हैं। मैं अक्सर कवियों से उनकी कुछ कविता-पंक्तियों के अर्थ पूछने लगता हूँ और मुझे यह जानकर आश्चर्य होता है कि कई कवि अपनी ही कविता-पंक्तियों के अर्थ नहीं बता पाते। वे नाराज़ होकर कहते हैं—ये कवि का काम नहीं है। मुझे ऐसे कवि संदिग्ध लगते हैं। मैं अपनी हर कविता की हर पंक्ति के हर शब्द का अर्थ और प्रासंगिकता को प्रकट कर सकता हूँ।
कविता की ओर आना कैसा हुआ?
मैं दस वर्ष की उम्र तक स्कूल नहीं जा सका था। मेरे पिता मुझे घर पर ही हिंदी, अँग्रेज़ी और गणित पढ़ाते थे। मेरी बड़ी बहन उन दिनों विद्या विनोदिनी और विशारद जैसी परीक्षाओं की तैयारी कर रही थीं। उनकी पाठ्य पुस्तकों से मैंने मैथिलीशरण गुप्त, निराला से लेकर अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ तक के छंद रट डाले थे। 1952 में आठवीं पास करके मैं मुरैना से ग्वालियर आ गया। ग्वालियर उस समय हिंदी के सबसे प्रसिद्ध गीतकारों का शहर था। इसमें वीरेंद्र मिश्र, मुकुट बिहारी ‘सरोज’, आनंद मिश्र ‘चंचल’, राजनारायण बिसारिया से लेकर ओम प्रभाकर और निदा फ़ाज़ली तक बसते थे। हालाँकि निदा फ़ाज़ली उस वक़्त तक छपना शुरू नहीं हुए थे। ये दोनों मेरे घर के पड़ोस में ही रहते थे और हम लोग लगभग रोज़ ही शाम को मिलते थे। बाद में कुछ दिनों के लिए विनोद कुमार शुक्ल भी यहाँ आ गए थे। शानी भी यहीं थे। उन दिनों मैं इंटरमीडियट में पढ़ रहा था और मैंने एक दिन ‘ज्ञानोदय’ में छपे रमा सिंह के चार मुक्तक देखे। बहुत छोटे मीटर के चार मुक्तक एक पूरे पृष्ठ पर छपे हुए, बहुत सारी जगह ख़ाली छूटी हुई और नीचे रमा सिंह का नाम और ऊपर मुक्तक :
एक पल में उठ रहीं लहरें कई
एक पल में दिख रहीं खंडित हुई
एक ऐसी लहर भी उनमें उठी
रेत पर तस्वीर बनकर रह गई
मुझे लगा कि ऐसी सरल पंक्तियाँ तो मैं भी लिख सकता हूँ और कैसा लगेगा जब ऐसे ही किसी पृष्ठ पर रमा सिंह की जगह मेरा नाम होगा। उस हफ़्ते मैंने पहली बार बहुत सारे मुक्तक लिखे और उनमें से 11 मुक्तक ‘ज्ञानोदय’ में यह लिखकर भेज दिए कि कोई भी चार मुक्तक आप प्रकाशन हेतु चुन लीजिए। उस समय ‘ज्ञानोदय’ कलकत्ता से निकलती थी और यह हिंदी की सबसे बड़ी पत्रिका (सहित्यिक) थी। उस समय तक ऊपर मैंने जिन गीतकारों के नाम लिए, उनमें से कोई भी ‘ज्ञानोदय’ में नहीं छपा था। मुक्तकों की स्वीकृति का ‘ज्ञानोदय’ से आया पोस्टकार्ड देखकर मैं इतना ख़ुश हुआ था कि उसे लेकर उस दिन साइकिल से ग्वालियर के अपने सारे मित्रों और कवियों को उसे दिखाता घूमता रहा था। ये मुक्तक 1958 में शरद देवड़ा के संपादन में ‘ज्ञानोदय’ में प्रकाशित हुए।
मुक्तक से मुक्त छंद की ओर कैसे आए आप?
मेरा दाख़िला जब जबलपुर के इंजीनियरिंग कॉलेज में हुआ, तब जबलपुर में मेरी मुलाक़ात विनोद कुमार शुक्ल, हरिशंकर परसाई, ज्ञानरंजन, सोमदत्त और मलय से हुई। परसाई जी के यहाँ कई बार मुक्तिबोध से भी मिलना हुआ। जबलपुर आकर मेरी सोच और दृष्टि की धारा पूरी तरह से बदल गई।
मुक्तिबोध के साथ आपके कैसे अनुभव रहे?
मुक्तिबोध की कविता ‘चंबल की घाटी में’ और मेरी एक कविता एक साथ 1962 में ‘कल्पना’ के एक अंक में प्रकाशित हुई थी। हालाँकि तब मैं नहीं जानता था कि मुक्तिबोध कितने बड़े कवि हैं। मुक्तिबोध उन दिनों राजनांद गाँव से आकर हरिशंकर परसाई के यहाँ ठहरते थे, क्योंकि उनकी पुस्तकों के प्रकाशक जबलपुर के ही थे। वह जो लंबी-लंबी कविताएँ परसाई जी को सुनाते थे, उनमें से मुझे कुछ भी समझ में नहीं आता था। बहुत बाद में मैंने पाया कि एक अजीब और पोशीदा ढंग से हुई इस रहस्यमय कार्रवाई ने मेरी कविता की दिशा और सौंदर्यबोध को पूरी तरह से बदलकर रख दिया है।
अपने प्रिय कवियों के बारे में कुछ बताएँ?
मेरे प्रिय कवि वे सब हैं जिन्होंने कभी न कभी कोई अच्छी कविता लिखी है। मेरे प्रिय कवि भी हमेशा ही अच्छी कविताएँ नहीं लिखते, किंतु जिसने एक कविता भी अच्छी लिख दी उसने यह सिद्ध कर दिया कि उसमें बेहतर कविता रचने की सृजनात्मक सामर्थ्य है। अगली अच्छी कविता वह एक महीने या एक साल बाद भी लिख सकता है।
विष्णु खरे ने आपके पहले कविता-संग्रह ‘समुद्र पर हो रही है बारिश’ के ब्लर्ब पर लिखा है कि आप संभवत: हिंदी के पहले ऐसे कवि हैं जिन्होंने अपने अर्जित वैज्ञानिक ज्ञान को प्रतिबद्ध सृजन धर्म में ढाल लिया है और इस जटिल प्रक्रिया में आपने न तो विज्ञान को सरलीकृत किया है और न ही कविता को गरिष्ठ बनाया है…। कैसे संभव हुआ यह?
इस प्रश्न का उत्तर संक्षेप में नहीं दिया जा सकता, लेकिन फिर भी बताना चाहूँगा कि विज्ञान के तत्त्व और तथ्य कैसे कला का संसार रचते हैं और वैज्ञानिक प्रक्रियाएँ कैसे जीवन-संघर्षों को उजागर करती हैं, यहाँ तक कि उसके सौंदर्य और संवेदना को भी, मैंने इसे विज्ञान के माध्यम से ही समझा और इतनी आत्मीयता के साथ समझा कि वह कविता में आकर वैसा विज्ञान रह ही नहीं जाता जो आपको पूर्व-परिचित लगे। आप ध्यान दें मेरी वैज्ञानिक संदर्भों वाली कविताओं के नीचे आपको कोई पाद टिप्पणी नहीं मिलेगी। ऐसा इसलिए है क्योंकि में जो कुछ कहना चाहता हूँ, वह सब कविता में ही होता है।
संगीत, रंगमंच और सिनेमा से आपका गहरा जुड़ाव रहा है; लेकिन इनके प्रकट संदर्भ आपकी कविताओं में कहीं नहीं मिलते, जैसे मान लीजिए फ़लाँ पेंटिग या फ़िल्म या नाटक देखने के बाद… या उस्ताद आमिर ख़ाँ का गाया, अली अकबर ख़ाँ का बजाया फ़लाँ राग सुनने के बाद… टाइप कविताएँ आपके यहाँ नहीं हैं। ऐसा क्यों?
इसकी वजह यह है कि जिन कलाकारों ने मुझे प्रभावित किया वह इतने स्थूल रूप में नहीं था कि मैं उसे सीधे कविता में लाकर रख दूँ। मैंने उसकी शक्ति से प्रेरणा ग्रहण की। वे लोग जो ऐसी कविताएँ लिखते हैं, जिनका ज़िक्र आपने किया तो वे ऐसा क्यों करते हैं यह तो आप उनसे ही पूछिए; मगर मुझे ऐसी कविताएँ बहुत नक़ली लगती हैं।
अगर लखनऊ की ईंटे बनी हैं लखनऊ की मिट्टी से। तो लखनऊ के लोग क्या किसी और मिट्टी के बने हैं…?
लखनऊ शब्द केवल इस कविता में इसलिए आया है, क्योंकि ये कविता लखनऊ में लिखी गई। अब अगर ईंटे कहीं होते हुए कहीं और होना चाहतीं तो सचमुच उनसे आँखे मिला पाना मुश्किल होता।
‘ईंटें’ शीर्षक से भी आपकी एक कविता है।
हाँ, ईंटे मुझे आकर्षित करती हैं। मनुष्यों और ईंटों दोनों की मिट्टी एक ही होती है। ईंटे जहाँ भट्ठे की आग में तपती हैं, वहीं मनुष्य जीवन-संघर्ष में तपते हैं। इस तरह ईंटों और मनुष्यों का एक समानांतर संसार है। ईंटे मकान बनाती हैं, मनुष्य घर। जिन ईंटों को ज़्यादा आग मिल जाती है; वे हो जाती हैं काली, नीली और ऐंठ भी जाती है। जिन्हें कम आँच मिलती है; वे हो जाती हैं पीली और कमज़ोर… इन्हें पीसकर ईंटों को जोड़ने के काम में लाया जाता है। जिन्हें आग मिलती है बराबर और आवश्यक, वे होती हैं धातुओं की तरह खनकदार; उनकी रंगत होती है सुर्ख़, वे होती हैं सुडौल। कुछ ऐसा ही मनुष्यों के बारे में भी कह सकते हैं।
पुल पार करने से
पुल पार होता है
नदी पार नहीं होती…
ये बहुउद्धृत कविता-पंक्तियाँ हैं हिंदी में… इसके बाद की जो पंक्तियाँ हैं, वे इस कविता के शीर्षक ‘पार’ और इसकी शुरुआती तीन पंक्तियों को और स्पष्ट करती हैं; पर ये तीन पंक्तियाँ भी एक कविता के रूप बहुत पूरी और प्यारी हैं। क्या था आपके मन-मस्तिष्क में इन्हें रचते हुए?
मेरा बचपन नदियों और नहरों के किनारे ही बीता है। पानी में जाना मुझे बहुत अच्छा लगता था। बचपन में जब मुझे गोद में लेकर नदियों और जलधाराओं को पार कराया जाता था, तब मैं उन्हें ख़ुद पार करने के लिए मचलता था। बचपन में जब मुझसे किसी ने पूछा कि आज तो तुमने आसन नदी पार की तो मैंने कहा कि मैंने पार नहीं की, मुझे पार करने नहीं दिया गया। नदी तो भीमा ने पार की, जिन्होंने मुझे गोद में ले रखा था। तबसे मेरा यह दु:ख मेरे साथ था, हालाँकि तब मैं यदि आसन नदी पार करता तो उसमें डूब जाता। इसलिए मुझे समझाया भी गया कि जब तक तैरना नहीं सीखोगे, तब तक नदी पार नहीं कर पाओगे। यही पीड़ा और स्मृति है जो इस कविता की आरंभिक तीन पंक्तियों में प्रकट है। चूँकि आज से पहले मुझसे मेरी इस कविता के बारे में किसी ने इस तरह नहीं पूछा, इसलिए आपको बता दूँ कि मेरी हर कविता का एक छोटा-सा इतिहास है।
‘आरंभ की दुनिया’ क्या थी? क्या है?
‘आरंभ की दुनिया’ ‘आरंभ’ के ऊपर काफ़ी अँधेरा फैलाती है। ‘आरंभ’ के क्रांतिकारी क़दमों और महत्त्वपूर्ण उपलब्धियों पर गोया पर्दा डालती है। यह पुस्तक यह तक नहीं बताती कि आज से 46 वर्ष पहले ‘आरंभ’ ने ही वे कविताएँ छापी थीं जिनसे धूमिल आज तक पहचाने जाते हैं या कि यह कि धूमिल का आख़िरी गीत ‘आरंभ’ ने ही छापा। विनोद कुमार शुक्ल पर पहली टिप्पणी ‘आरंभ’ में ही आई। ‘आरंभ’ ने जिन कवियों को उस समय की युवा कविता का प्रतिनिधि स्वर घोषित किया, वे ही कवि आज वास्तव में कवि हैं। उस समय ऐसा और किस पत्रिका ने किया आप मुझे बताएँ?
विनोद कुमार शुक्ल की कुछ शुरुआती और महत्त्वपूर्ण कविताएँ ‘आरंभ’ ने ही छापी थीं। ‘आरंभ’ शायद हिंदी की पहली और एकमात्र ऐसी पत्रिका थी जिसने बड़े-बड़े साहित्यकारों के प्रशंसा-पत्र नहीं छापे। जिसने ‘अकविता’ के हल्ले के दौर में अश्लीलता और उसे लेकर बड़े कवियों, आलोचकों और पत्रिकाओं को नाम लेकर चुनौती दी। विनोद भारद्वाज—ये ‘आरंभ’ का कैसा संपादक है जो ‘आरंभ’ पर केंद्रित किताब में ‘आरंभ’ की ही उपलब्धियों को गिनाने से डरता है।
बहुत सारे लोग मानते और कहते हैं कि आप ‘आरंभ’ के संपादक थे, विनोद भारद्वाज का तो केवल नाम था?
स्वयं विनोद भारद्वाज ने कहा है कि वह उस दौर में ‘उन्मेष’ नाम की एक पत्रिका के संपादक थे। वह कैसे संपादक थे, यह समझने के लिए आप उस पत्रिका के तीन अंक देख सकते हैं। विनोद भारद्वाज ने ही ‘आरंभ की दुनिया’ की भूमिका में मेरे पत्रों का ज़िक्र करते हुए बताया है कि संपादक मंडल कैसे काम करता था। संपादक मैं था, अब यह कहने कोई अर्थ नहीं है क्योंकि जिसका नाम पत्रिका में बतौर संपादक जाता है, वही संपादक माना जाता है। फिर भी आप विनोद भारद्वाज से पूछ सकते हैं।
मुरैना, ग्वालियर, जबलपुर, कलकत्ता, त्रिपोली (लीबिया) और भी कई शहर होंगे जहाँ आप गए और रहे होंगे। एक कवि के रूप में ‘शहर’ को कैसे देखते हैं?
असल में शहरों के बारे में आपका यह सवाल कोई साधारण सवाल नहीं है। मुझे लगता है कि शहर सड़कों और मकानों से नहीं बनते, वहाँ रहने वाले लोगों और उनके आचरण से बनते हैं। जिन शहरों के नाम आपने लिए उनके बारे में बातें करने के लिए बहुत सारा समय चाहिए। लेकिन फिर भी कुछेक बातें बता देता हूँ जैसे कि चंबल नदी, वहाँ उड़ती धूल, सूखी चट्टानें और वहाँ के लोगों का न्याय न मिल पाने की वजह से बाग़ी बन जाना, किसी शहर को मुरैना बनाता है। सूखी पहाड़ियाँ, इंसान का दोटूकपन, सांगीतिक परिवेश किसी शहर को ग्वालियर बनाता है। ऐसे ही बातें और शहरों के बारे में भी हैं। इन्हें कुछेक वाक़्यों में नहीं बताया या निपटाया जा सकता।
और लखनऊ?
लखनऊ में मरती हुई पुरानी संस्कृति, सभ्यता, भाषा और रवायतें मुझे बहुत दु:ख देती हैं। इससे गुज़रना एक यातना है। कुकुरमुत्तों की तरह उग आए मॉल्स और एक गंदे नाले में तब्दील कर दी गई गोमती नदी ने इस शहर को और भी बदतर कर दिया है। आज़ादी के 65 वर्ष गुज़र जाने के बाद भी जिस देश के 50 प्रतिशत बच्चे कुपोषित हों। जिस प्रदेश में प्रति व्यक्ति ऊर्जा की खपत सबसे कम हो, वहाँ गोमती के दोनों तरफ़ जगमगाती रोशनियों में ऊर्जा का अपव्यय देखकर क्या लोगों को अँधेरे और दुर्गंध से भरी हुई झोपड़ियाँ याद नहीं आतीं। लोहिया पार्क का कॉन्सेप्ट तो मुझे फिर भी अच्छा लगता है, लेकिन बाक़ी जो जगह हैं जिन्हें बेवजह पत्थरों से पाट दिया गया है और जिसने धरती की हरियाली को दबा दिया है और उसके जल्द सोख लेने की क्षमता को ख़त्म करके लखनऊ को जलहीन कर देने का षड्यंत्र रचा है। ऐसी दुरभिसंधियों को भी कुछेक वाक्यों में बताना संभव नहीं है।
दरअस्ल, वह मध्यवर्ग जिसकी संवेदना बहुत हद तक कुंठित हो चुकी है, इस साज़िश में शरीक है, भागीदार है। लखनऊ में प्रकृति के विरुद्ध की गई है इस बर्बरता और उसमें छुपी कमीशन की कथा विस्तार से कही जानी चाहिए।
‘समुद्र पर हो रही है बारिश’ में अलग से प्रेम-कविताएँ नहीं हैं, जबकि आपने इस संग्रह की भूमिका में बताया है कि एक गोष्ठी में कविता-पाठ के बाद नामवर सिंह ने आपसे पूछा था कि क्या केवल प्रेम-कविताएँ ही लिखते हो? क्या हुईं वे प्रेम-कविताएँ?
मेरी सारी कविताएँ मेरे प्रेम की कविताएँ हैं, क्योंकि बिना प्रेम के कुछ भी संभव नहीं होता। घृणा वस्तुओं को केवल नष्ट करती है। वह कभी भी कुछ नया, मानवीय और मार्मिक नहीं रच सकती। वैसे अगर आपका मतलब स्त्री-पुरुष के प्रेम की कविताओं से है, तो ऐसी कविताएँ आपको मेरे दूसरे और कविता-संग्रह ‘सुनो चारुशीला’ में ज़रूर पढ़ने को मिलेंगी। और शायद ऐसी कविताओं का एक संग्रह अलग से भी कभी आए।
आपके लिखे कुछ गीत भी बहुचर्चित होने के बावजूद आपके पहले संग्रह में नहीं हैं, जबकि आप पहले गीत ही लिखते थे?
यह एक भ्रम है कि मैं पहले गीत लिखता था। पहले चार मुक्तकों को छोड़कर मैंने मुक्त छंद और नई कविता ही ज़्यादा लिखी है। हाँ बीच-बीच में कभी-कभी गीत भी लिखता रहा, जो ‘धर्मयुग’ में छपकर बहुत चर्चित भी हुए उस दौर में।
आप बहुत कम लिखकर की बहुत प्रतिष्ठित हो गए, जबकि सातवें दशक के कुछ कवि बहुत ज़्यादा लिखने के बावजूद भी उपेक्षा का शिकार हुए?
मैं ज़्यादा लिखने को गुण नहीं मानता। कोई भी कवि मूलत: केवल एक कविता का कवि होता है। ज़्यादा लिखने वाले क्यों लिखते हैं, क्या लिखते हैं—उन्हें ख़ुद कुछ पता नहीं।
ईश्वर का आपके लिए क्या अर्थ है?
ईश्वर ने यह दुनिया जितनी ख़राब बनाई है—घृणा, अत्याचार, अन्याय, गंदगी और बेबसी से भरी हुई— इससे लगता है कि अगर वह है भी तो वह एक बहुत ख़राब मानसिकता का ईश्वर है और उसे गोली मार देनी चाहिए। वह इतना कमज़ोर है कि ये दुनिया ठीक-ठीक नहीं चला सकता और शायद इसलिए ही वह शायद कभी किसी के सामने नहीं आता है। मुझे लगता है कि एक मनुष्य होने के लिए एक विज्ञान सम्मत सुशिक्षित व्यक्ति की आस्था ईश्वर में नहीं, सिर्फ़ और सिर्फ़ मनुष्य में होनी चाहिए। ईश्वर नाम की वस्तु डरे हुए और मंद बुद्धि लोगों के संसार में फलती-फूलती है।
कविता का आपके लिए क्या अर्थ है?
वह रोमांचित कर रही है, वह सर्वथा कोई नया तर्क दे रही है, वह कुछ इस तरह प्रकट हो रही है जैसे पहले कभी नहीं हुई… अगर ये तीन चीज़ें कोई कविता कर रही है तो वह मेरे लिए कविता है, अन्यथा वह केवल मेरा समय नष्ट कर रही है।
युवा कवियों के लिए कोई सलाह?
देखिए, कलाओं का काम अंतत: भावनात्मक उद्वेलन और दृष्टि को बदल देना है, और यह छोटी-बड़ी पंक्तियों में लिखे गए कुछ चौंकाने वाले विवरणों से संभव नहीं है। अगर किसी कविता की एक पंक्ति भी आपकी स्मृति में जगह नहीं बनाती है, तो कविता के ही नहीं पूरे साहित्य के बारे में की गई सारी घोषणाएँ मय उसकी अपनी सामाजिक सोद्देश्यता के व्यर्थ हैं। जब कविता की कोई पंक्ति ज़ेहन में कौंधेगी ही नहीं, तो भला कैसे वह हमारी दृष्टि बदलेगी। हर कवि को ऐसी कविता-पंक्तियों की खोज में रहना चाहिए और अगर वह एक भी ऐसी पंक्ति लिखने में सफल रहता है, तो उसे अपना जीवन सार्थक समझना चाहिए।
मुझसे तो कई बार पूछ चुके हैं मेरे दोस्त
कि यार नरेश तुम किस धातु के बने हो…
ऊपर उद्धृत आपकी कविता-पंक्तियों के प्रकाश में आपसे आख़िरी सवाल यही है कि आख़िर आप किस धातु के बने हैं?
मैं रूटीन ढंग से आचरण नहीं करता हूँ, जैसा कि सामान्यत: सभी करते हैं। हर व्यक्ति और रचनाकार का अपना एक अलग व्यक्तित्व होता है, लेकिन मैं यह कहना चाहूँगा कि हर बेहतर रचनाकार एक अलग धातु का बना होता है। मेरे समकालीन अनेक कवि और मित्र हैं जो मुझे सिर्फ़ इसलिए बेहद प्रिय हैं, क्योंकि वे सब अलग-अलग और रहस्यमय धातुओं से बने हुए हैं।