भाभी कॉम्प्लेक्स और कार्ल मार्क्स

हिंदी साहित्य में भाभी जिस रूप में उतरी है, उसमें सत्य से अधिक सुहावनापन है। आज भी पुरुष की बहुपत्नीक और स्त्री की बहुपति प्रवृत्तियाँ, जो तहज़ीब के नीचे से अब भी रिसती रहती हैं और साहित्यदानों में दिलबस्तगी पैदा करती आई हैं, उन्हीं की छानबीन में कहीं भाभी-प्रॉब्लम का भी संतोष मिल जाएगा। पर चूँकि विवाह का टेकनीक पेचीदा और गुट्ठल हो गया है और आर्थिक उलझन और पेचो-ताब ने ‘परिवार’ को एकबारगी जड़ से हिला दिया है, भाभी वहाँ से निकलकर हिंदी के बुतशिकन लेखकों का ‘टूल’ बन गई है।

जिस साहित्य का सबसे ख़ास स्वर पुरुष-पत्नी प्रेम हो, उसमें नेक मिजाज़ पीड़ित तवायफ़ों और ‘सदा सुहागिन’ भाभियों का उदय होना कोई अजब बात नहीं है। पर हम जानते हैं कि भाभी का सदा सुहागिन सब रस-भरी उर्वशी रूप सिर्फ़ एक रूढ़ि पोषित ढोंग है।

फिर भाभी ही क्यों?

पारिवारिक व्यभिचार, बहुमैथुन, देखा है कि रिश्तों पर नहीं, उम्र की समानता या असमानता पर निर्भर है और उससे भी ज़्यादा अपनी-अपनी मनःस्थिति पर। हमारे ही समाज में एक बहुत आम फ़िक़रा है: ‘आधी भाभी आधी जोय, झगड़े गर तो पूरी हो।’

इसके अलावा सालियों, सरहजें—यहाँ तक कि सालों तक पर रसीली नज़र रखना रस्म है। दूसरे मुल्कों को छोड़कर हिंदुस्तान के ही अन्य सूबों में इस तरह का प्रचलन है। बंगाल बूढ़ा दादा, उठती हुई पोतियों को छेड़ता है। ‘चाँद’ के मारवाड़ी अंक में मारवाड़ के चची-भतीजों की दास्तानें पढ़ने में आई थीं। फिर हिंदी की ‘भाभी’ मुझे तो एक दिमाग़ी व्यसन से ज़्यादा कभी कुछ न मालूम हुई। यह ज़रूर है कि भाभी की कल्पना में एक तरह का द्वंद्व शामिल किया जा सकता है, पर द्वंद्व क़रीब-क़रीब वैसा ही छिछला और सस्ता होगा जैसा कि आस्कर वाइल्ड के ‘द पिक्चर ऑफ़ डोरियन ग्रे’ में है।

भाभी के कॉम्प्लेक्स या प्रॉब्लम को हल करने की कोशिश मैंने नहीं की—क्योंकि मैं इसे प्रॉब्लम मानता ही नहीं। अगर हम फ़्रायड का कलमा पढ़ भी लें तो यही सामने आता है कि बच्चे के भाव परिवार के हर एक जीव के लिए डिसपरेट होते हैं। वह अपने बाप से नफ़रत करता है और उसे अपना ‘रक़ीब’ समझता है। वह अपनी माँ के बारे में यह भावनाएँ रखता है जो बिल्कुल नीति के ख़िलाफ़ है। वह अपने बहन-भाइयों से नफ़रत करता है कि वह उसके माता-पिता के पट्टीदार बन बैठते हैं। नतीजा यह होता है कि उसका दिमाग़ पैदा होते ही सेक्स के मामले में उलझने लगता है और बड़े होकर सभी जीव या तो सहयोनित, एक वर्गीय आचार या किसी हद तक ख़ब्ती हो जाते हैं।

लेकिन भाभी ज़िंदगी में काफ़ी देर से आती है। उस वक़्त दिमाग़ में काफ़ी शिक्षा पहुँच चुकती है, व्यक्तित्व का भी उदय शुरू हो चुकता है और उस समय भाभी का ख़याल उसे लुभा सकता है, मथ नहीं सकता। यहीं भाभी का बिल्कुल सामाजिक पहलू समझ में आता है।

पश्चिम में पुरुषों की संगत में विवाहित स्त्री को थोड़ा-सा फ़्लर्ट करना लाज़िम है। यह बात जैसे आम चलन की है। यह बात परदे की रिवाज के ज़रूरी हेर-फेर के साथ यहाँ भी है। संसार की सभी स्त्रियाँ दमक के लिए थोड़ा सा फ़्लर्ट करती हैं। परदे के समाज में वह उन्हीं जवानों से करेंगी, जिनसे कि वह मिल सकती हैं।

सभ्यता के शुरू में जब परिवार और विवाह का टेकनीक पेचीदा नहीं हुआ था और जब आर्थिक प्रश्न अपने सही पृष्ठ में देखे और समझे जाते थे, बड़े भाई के मरने पर उसके छोटे भाई को अपनी ‘विधवा’ भाभी से ज़रूर विवाह करना पड़ता था—चाहे उसके पहले से ही दस और बीवियाँ हों।

इसके बाद शहज़ादों और परियों के क़िस्सों में भाभी अपने देवर को उससे 21वीं बीवी लाने का ताना देती हुई मिलती है और शहज़ादा बात पीकर वज़ीरज़ादे के साथ हीरामन तोता लेने निकल पड़ता है। यह बात ‘लड़ाई भिड़ाई’ के काल की है। और हमारी आज की भाभी मध्यवर्ग की बुर्जुआ चीज़ है।

मुनाफ़े के नियमों के प्रसार से और मध्यवर्ग के अहम हो जाने पर एक ख़ास तरह की मध्यवर्ग की रोमानियत भी नज़रों के सामने आई। और आज जब हम मानव स्वभाव के बुनियादी नियमों से आँख मिला रहे हैं और जब साहित्य के बारे में हमने वह समझ लिया है कि साहित्य के लिए टेकनीक ही सब कुछ नहीं है, बल्कि कैरेक्टर भी ज़रूरी है, ऐसी खाहमख़्वाह के साहित्यिक मुग़ालते पैदा करने से क्या फ़ायदा!

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‘चकल्लस’, 29 अगस्त 1998 पहली बार प्रकाशित, ‘भुवनेश्वर समग्र’ (संपादक : दूधनाथ सिंह, राजकमल प्रकाशन, संस्करण : 2012) से साभार।