गीत चतुर्वेदी (जन्म : 1977) हिंदी के सर्वाधिक पढ़े जाने वाले समकालीन लेखकों में से एक हैं। कविताओं की तीन किताबों सहित उनकी दस से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हैं। उनकी कविता-पंक्तियों ने मौजूदा कविता-समय में संप्रेषण, प्रस्तुति और प्रसार के नए मानक रचे हैं। गीत के प्रसंग में यह सब कुछ इसलिए भी सुंदर और उल्लेखनीय लगता है, क्योंकि वह ख़ूब पढ़े-लिखे और नई दुनिया की समझ रखने वाले व्यक्तित्व हैं। यहाँ प्रस्तुत संवाद उनसे ई-मेल के ज़रिए संभव हुआ है।
इस ओर परिचय में आपको कवि, कथाकार, अनुवादक, पत्रकार और समर्पित पाठक कहा-माना जाता है। आप जब उस ओर एकांत में किताबों के पास लौटते हैं, तो उनको क्या परिचय देते हैं?
अपने निपट एकांत में किताबों की तरफ़, एक जिज्ञासु यात्री की तरह जाता हूँ। लेखक हों या पाठक, हम दरअसल काग़ज़ पर चलते कोलम्बस हैं—हमेशा किसी नई जगह की तलाश में लगे हुए। इस दौरान कई बार यह अहसास तारी रहता है कि इन पन्नों में, इन गलियों में, ‘पहले भी आया हूँ, बीता हूँ / इन ख़ाली जगहों में भर-भर कर रीता हूँ।’
तो कई बार लगता है कि हर शब्द, एक नया शब्द है, जिससे पहली बार परिचित हो रहा हूँ। जैसे, भाषाएँ मैंने अभी-अभी सीखी हैं और इनके जादू से अविरल अचंभित हूँ।
जैसे बछड़ा गाय की तरफ़, जैसे बालक माँ की तरफ़, कई बार इस तरह भी मैं किताबों की तरफ़ जाता हूँ।
क्या पढ़ी गई किताबों की तरफ़ आपका फिर-फिर लौटना होता है? अगर हाँ, तो यह कितना और क्यों ज़रूरी है?
हाँ, मैं लौटने में यक़ीन करता हूँ। किताबों में, जगहों में, हालात में लौटना। कई बार किसी किताब को पढ़ते समय ही यह तय हो जाता है कि यहाँ लौटकर आना होगा। लौटने से हम अमीर बनते हैं—अर्थों के संदर्भ में अमीर। अनुभव की रोशनी से अमीर।
मुझे कई बार लगता है कि हर किताब के सात दरवाज़े होते हैं और हम एक बार में एक से अधिक दरवाज़ा नहीं खोल सकते, इसलिए भी, उस किताब में लौटते रहना होता है।
कई किताबें पहली बार में समझ नहीं आतीं। वे शायद संकोची मित्रों की तरह होती हैं—एक बार में नहीं खुलतीं। ऐसे रिश्तों में, हमें ख़ुद को बार-बार मौक़ा देना चाहिए।
हमें ज़िंदगी भर उन्हीं किताबों की तलाश रहती है, जिनमें हम लौट सकें। घर जैसी एक किताब। जीवन में सबसे ज़्यादा बार हम अगर कहीं लौटते हैं, तो वह है—अपना घर। इसीलिए, हम अपने प्रिय लोगों के हृदय को अपने घर की तरह देखते हैं। इसी तरह, अपनी प्रिय किताबों के भीतर भी रहना चाहते हैं। यह भी सच है कि हमारे जीवन में ऐसी किताबों की संख्या ज़्यादा नहीं होती, जिनमें हम बार-बार लौट सकें।
वे पत्रिकाएँ कौन-सी हैं, जिनके आप नियमित पाठक हैं?
पोएट्री मैगज़ीन, द पेरिस रिव्यू, वर्ल्ड लिटरेचर टुडे, मॉडर्न पोएट्री इन ट्रांसलेशन, ग्रांटा, न्यू यॉर्कर, टाइम मैग़जीन। हिंदी में ‘समास’, ‘तद्भव’, ‘पहल’।
एक बेहतर ‘रीडिंग कल्चर’ का निर्माण कैसे किया जा सकता है? हिंदी में यह होना कितना कठिन है?
यह आसान सवाल नहीं है। इसके कई अँधेरे-उजले पहलू हैं। ‘रीडिंग कल्चर’ अपरिभाषित और अमूर्त शब्द है। कुछ लोग कहते हैं कि जिस भाषा में जितनी अधिक किताबें बिकती हैं, उसका ‘रीडिंग कल्चर’ उतना बेहतर होगा; लेकिन किताबों की बिक्री कल्चर की कम, व्यापार की सफलता अधिक है। जैसे, डिजिटल माध्यम में टेक्स्ट तुरंत सुलभ होता है। एक लाइन का सोशल मीडिया पोस्ट हो या सौ लाइनों का—आप देखिए, सब कुछ पढ़ा जा रहा है, और इफ़रात में पढ़ा जा रहा है। कोई कहेगा कि देखो, इतने अधिक रीडर्स हैं। पर क्या सच में? हाल यह है कि ग़ालिब का असली शे’र कम पढ़ा जाता है, लेकिन ग़ालिब के नाम पर चलने वाले नक़ली शे’र अधिक पढ़े जाते हैं। यह कैसा ‘रीडिंग कल्चर’ है? और ग़ालिब के नक़ली शे’रों को पढ़ने-बाँटने वाले लोग ‘ग़ालिब के रीडर्स’ माने जाएँगे? समय के साथ ‘रीडिंग कल्चर’ का प्रश्न जटिल होता जा रहा है।
समस्या यह है कि हम अभी तक ‘बेहतर कंटेंट’ की परिभाषा न तो ख़ुद समझ पाए हैं और न ही दूसरों को समझा पाए हैं। हमारी भाषा के बुद्धिजीवियों की एक बड़ी असफलता यह भी है कि हमने अच्छे कंटेंट की अच्छाइयों और बुरे कंटेंट की बुराइयों पर ईमानदारी से चर्चा नहीं की। और पीढ़ी-दर-पीढ़ी, यह समस्या बड़ी होती जा रही है। इसलिए, हमारी भाषा की युवतर पीढ़ी, जब किताबों के क़रीब जाती है, तो उसे समझ ही नहीं आता कि क्या अच्छा है, क्या औसत! कई बार इस अंतर को समझने से पहले वह अधेड़ या वृद्ध हो जाती है।
जिस भाषा में बेहतर कंटेंट के संदर्भ में रीडिंग कल्चर जितना विकसित होगा, उस भाषा से उतना बेहतर साहित्य निकलता है। पिकासो अगर किसी पिछड़े हुए अफ़्रीकी देश के कला-प्रेमियों के बीच रचना-कर्म करते, तो शायद वह इतने महान न हो पाते, जितने कि पेरिस के प्रबुद्ध कला-समाज के बीच काम करने से हुए।
आजकल कौन-सी किताबें आपके सिरहाने हैं?
कोई एक नहीं, सिरहाने अमूमन अनेक किताबें होती हैं। लोग गलियों और शहरों में आवारगी करते हैं, मैं किताबों के बीच और पन्नों के भीतर करता हूँ। लेकिन अगर यह प्रश्न ताज़ा पढ़ाई के बारे में हैं, तो यह कहूँ कि नाइजीरिया की लेखिका लोला शोनेयीन का उपन्यास ‘द सीक्रेट वाइव्स ऑफ़ बाबा सेगी’ पढ़ रहा हूँ।
बाक़ी, सिरहाने वही किताबें होती हैं, जिनमें मैं बार-बार लौटूँ। मीर और ग़ालिब का दीवान, ऋग्वेद, हिब्रू बाइबल (जिसे दरअसल ‘तनाख़’ कहा जाता है), और कालिदास रचनावली। मेरे सिरहाने, ये कुछ ऐसी किताबें हैं, जिन्हें कभी भी, कहीं से भी खोल लूँ, कुछ न कुछ अनमोल अवश्य मिल जाता है।
क्या आप शौचालय में पुस्तक लेकर जाते हैं? वहाँ आप कैसा साहित्य पढ़ते हैं?
हाँ, मुझे इससे कोई एतराज़ नहीं होता। जहाँ समय मिल जाए, वहाँ पढ़ता हूँ। इधर, दस-बारह बरसों से मैं ई-बुक्स अधिक पढ़ता हूँ। मोबाइल या किंडल अमूमन साथ रहता है, तो यह समझिए कि उनमें किताबें भी हर समय साथ होती हैं।
इन दिनों किस किताब ने आपको सबसे ज़्यादा निराश किया?
निराशा मेरे लिए बेहद निजी अनुभूति है। दूसरी बात, मैं सामान्यत: आशावादी हूँ। सो, ऐसी किताबों से भी कुछ सबक़ पा ही लेता हूँ।
एक साहित्यकार के भटकाव क्या हो सकते हैं? क्या आप कभी ऐसे भटकाव से गुज़रे हैं?
मेरे पिता कहते थे कि जब तक तुम भटकोगे नहीं, तब तक रास्तों को ख़ुद याद नहीं रख पाओगे। नए रास्ते तभी बनते हैं, जब हममें भटकाव आता है।
रेलगाड़ियाँ कभी नहीं भटकतीं, क्योंकि उनकी पटरी पहले से तय होती है। इसीलिए, संसार की कोई रेलगाड़ी आपको किसी नई जगह नहीं पहुँचाती। लेकिन सोचिए, बरसों पहले अगर समुद्री जहाज़ न भटके होते, तो दुनिया की कितनी जगहों को हम जान ही नहीं पाते।
इंसान का भटकाव कई बार सकारात्मक हो सकता है, लेकिन ध्यान का भटकाव अक्सर दुर्घटना करा देता है। लेखक का ध्यान भटकाने के लिए अनगिनत चीज़ें हैं। जैसे आजकल, तुरत-फुरत मशहूर होने की फ़िक्र करना। लाइक्स, कमेंट्स, शेयर, री-ट्वीट्स, सेल्स आदि पर अधिक ध्यान देना, फ़ॉलोअर्स आदि के आधार पर अपनी या दूसरों की श्रेष्ठता को ‘क्वान्टीफ़ाई’ करने की कोशिश करना, लेखकीय कसौटियों को छोड़ मार्केटिंग मैनेजरों की कसौटियाँ उधार लेना।
ये सारी बातें आजकल कई लोगों में हैं, लेकिन आमतौर पर साहित्यकार का ध्यान दो चीज़ें भटकाती हैं—अपने लिखे पर अतिशय संदेह और अतिशय आत्मविश्वास। जहाँ तक मेरा प्रश्न है, अत्यधिक आत्मसंशय के कारण मैं कई बार भटकता रहा हूँ। बारहा उसके नुक़सान होते हैं। सबसे अधिक नुक़सान समय और ऊर्जा का होता है। दोनों ही हमें सीमित तौर पर उपलब्ध हैं। लेकिन ऐसे भटकावों को रोका नहीं जा सकता। ध्यान भटकने को छोड़ दें, तो बाक़ी किसी भटकाव से नहीं डरना चाहिए। इतिहास बताता है, बिना भटके कोई बुद्ध नहीं बना।
लिखने के लिए आपको क्या चाहिए? हालाँकि इसके बारे में आपने अपनी एक कविता में बताया है।
हाँ! कॉपी-किताब, क़लम-पेंसिल आदि सब तो माया है। लिखने के लिए दरअसल, मुझे ‘एक सही ख़याल’ चाहिए। मन में ख़यालों का भूसा है, उसमें एक सही ख़याल तलाशना, जैसे भूसे के ढेर में से सूई तलाशना। अकबर इलाहाबादी का शे’र याद आता है :
मैं चाहता हूँ कि बस एक ही ख़याल रहे,
मगर ख़याल से पैदा ख़याल होता है।
लेखक के लिए यही बात वरदान है और यही बात शाप भी है।
‘रानीखेत एक्सप्रेस’ (उपन्यास) हम तक कब पहुँचेगी?
शायद अगले बरस के अंत तक। दरअसल, ‘रानीखेत एक्सप्रेस’ कहीं आउटर पर ही खड़ी है। प्लेटफ़ॉर्म से अधिक दूर नहीं है, फिर भी एक दूरी तो है ही। यह भी पार हो जाएगी।