शहर, अतीत और अंत के लिए

शहर

शहर अपने आपमें कितना कुछ समेटे रहता है—बहुत सारी त्रासदी, पलायन, सांप्रदायिक दंगे और बहुत सारी ख़ुशियाँ भी। आप बहुत दिनों तक अकेले पड़े रहते हैं—हॉस्टल के कमरें में, किसी लाइब्रेरी के एक कोने में, थिएटर या पार्क की किसी बेंच पर। आप सिर्फ़ कुछ मिनटों के लिए निकलते हैं—नियत समय पर सिर्फ़ काम-काम से, क्योंकि कई बार निकलना ज़रूरत तो है ही; एक पीड़ा से आर-पार होने जैसा भी है… एक भयानक डर, एक विस्मय और काला झूठ आपके चेहरे पर पुता रहता है। इसी काले अँधेरे में रहने की आदत बनती जा रही है। इस अँधेरे में हम पीड़ा के शब्द सुन सकते हैं, आकार में देख नहीं सकते हैं; हालाँकि हम नहीं देखने का नाटक करते रहते हैं। हम झुठलाते रहते हैं कि सब न्यूट्रल है, कहीं कोई पीड़ा नहीं है, न ही किसी के पास कोई ख़ुशी है, सब एक जैसे हैं—त्रासदी को झेलते हुए।

हम लेटे रहते हैं—तपती हुई दुपहर में भी, जबकि सुबह का ठंडा उजाला अभी भी याद रह गया है। इसी याद में हम हिलते रहते हैं, तकिया और बिस्तर भिगोते रहते हैं, बेजान और निर्जीव-सी देह को कुछ भी याद नहीं आने देना चाहते हैं—न किसी का हाथ, न किसी का कंधा, न किसी की बाँहें, न ही किसी की गोद… पुरानी दोस्तियों पर हम मिट्टी डाल देना चाहते हैं। हम सुदृढ होकर लेटे रहते हैं कि किसी से मिलना ही नहीं है।

इसी शहर में अचानक कोई निकल आता है, तुम्हारे लिए, अचानक दरवाज़े पर खटका होता है या किसी का फ़ोन आता है और हम चार्ज हो जाते हैं; पता नहीं यह कोई इंसानी कारस्तानी है या कुछ और… हम भागने लगते हैं, उस तरफ़ जहाँ से एक आहट हुई-सी लगती है। किसी ऐसे से मिलते हैं जिनमें कहीं कुछ हमारा अपना-सा मिल जाया करता है। बहुत सारी बातें अचानक याद आने लगती हैं और बाहर निकलने लगती हैं। हम बोलते जाते हैं, बिना यह सोचे कि हमारे साथ वाले अन्य लोगों पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा!

हमें लगता है कि वे लोग खाने-पीने में या कहीं और व्यस्त हैं और हम कह लेना चाहते हैं—सब कुछ। हम साइबर कैफ़े में घंटों खड़े रहना चाहते हैं—लगता है काम समाप्त न हो, खूसट बुड्ढे की पुरानी जेरॉक्स मशीन एक-दो बार और फँस जाए, जिससे कि हम दुकान में लगे गुप्त रोगों, बाल झड़ने या क़ब्ज़ के विज्ञान पर बात करके हँसते रहें… और जब सारे काम हो भी जाएँ तो हम कॉफ़ी हाउस चले जाएँ और घंटों बैठे रहें, तभी जाने का वक़्त आता है। हम सुनसान रास्तों पर चल रहे होते हैं—इस तरह कि अब बस चलते जाना है, कहीं और रुकना ही नहीं है। तभी अचानक वह मोड़ आ जाता है, जहाँ अलग होना है। हम मुड़ जाते हैं, बिना उन्हें महसूस कराए कि हम मुड़ना नहीं चाहते हैं। हम सब साथ रहना चाहते हैं—यूँ ही बेमतलब के।

बीते दिन

एक चीज़ होती है स्मृति, जो बहुत सारी बातों को एक साथ लेकर चलने पर मजबूर करती है; उन बातों को भी जिन्हें हम याद ही नहीं करना चाहते हैं। स्मृतियाँ पीछा नहीं छोड़ती हैं। वे जोंक की तरह चिपट जाती हैं, तो कई बार सुंदर एहसास की तरह, तो कई बार वे किसी पुराने ज़ख़्म से उठी टीस की तरह होती हैं।

मैं उन जगहों पर जब भी जाता हूँ, जिन जगहों पर मैं अक्सर उनसे मिल जाया करता था—लाइब्रेरी के अंदर या बाहर, बरगद वाले लॉन के चबूतरे पर, बैंक रोड, लल्ला चुंगी या फिर प्रयाग स्टेशन… मेरे पूरे शरीर में कई तरह के परिवर्तन होने लगते हैं, ये सब वे जगहें हैं—जहाँ हम मिलते थे, रास्तों को चौराहा बना लेते थे। अब वहाँ जाने पर गले में जैसे कुछ फँस जाता है, होंठ सूख जाते हैं, चेहरा लाल हो जाता है, धड़कन बढ़ जाती है और फिर सब कुछ जैसे आँखों में उतर आया हो, वह सब भी जो हमारे बीच घट चुका है और वह भी जो कभी घटित नहीं होगा। अच्छा हुआ कि कोई कभी सामने नहीं आया, नहीं तो हार्ट ही फ़ेल हो जाता। अगर कोई दिखा भी तो अक्सर उन्हें वहाँ देखकर अनदेखा किया, नहीं किया होता तो देखते ही बिखर जाता।

इधर सब कुछ ख़त्म होने के बाद जब पहली बार जब यह महसूस हुआ था तो बहुत भयानक था। मैं कई बार गया इन जगहों पर, यहाँ तक कि मैं अगले दिन दुबारा वहाँ-वहाँ गया जहाँ-जहाँ जा सकता था, शायद कुछ मिल जाने की उम्मीद थी, पता नहीं क्या खोजने जाता था? शायद उन्हें ही, क्या पता वे वहाँ बैठे हों और इंतिज़ार करते मिलें। यह भूल जाता था कि इस दुनिया में शाम और सुबह के दरमियान बहुत कुछ बदल जाता है। आपकी जगहों में बहुत सारी अन्य चीज़ें भर जाती हैं, ऐसे भरती हैं कि आप ख़ुद ही नहीं रहना चाहेंगे वहाँ। हर किसी की तरह मेरी जगहों में भी यही हो रहा है, लोग क़ब्ज़ा कर ले रहे हैं सब, जैसे चितवन वाली जगहों पर पहले गेंदा और अब गुलाचीन खिलने लगा है।

अंत के प्रेम में

अंत क्या है? अंत एक नए शुरुआत की टंकार है या यूँ कह लीजिए, एक नए शुरुआत का शुभ मुहूर्त है, अंत जब हो चुका होता है, तो एक पूर्ण विराम के बाद से ही, एक नए शुरुआत का दौर चलता है। ये शुरुआत हमें एक दूसरे अंत की ओर खींचता रहता है। हम हर बार शुरुआत के मायाजाल में फँसते जाते हैं—आगे आने वाले अंत से बेख़बर, आई हुई नई शुरुआत का जश्न मनाते रहते हैं। जब तक हमें ख़बर होती है, हम ख़ुद को दूसरे अंत की दहलीज़ पर पाते हैं। हर अंत हमें नई सीख दे जाता है, और उसी सीख के सहारे ही हम नई शुरुआत कर पाते हैं।

आपके जीवन का हर एक अंत, जो आपका अतीत बनकर आपके पीठ पर बैठकर सवारी करता है, दरअसल उसे आप भुला देना चाहते हैं; लेकिन आप उसे कभी भूल नहीं पाते। आपकी स्मृतियों में वह जगह हमेशा रिक्त रहती है। उसे कोई भर नहीं सकता—न तो वर्तमान और न भविष्य।

अतीत जो आपके कई सारे अंत से मिलकर बना है, यह आपको इंसान होने का एहसास दिलाता रहता है… आपको भावुक करके, क्रोधित करके, आप छटपटा सकते हैं; क्योंकि आपके हाथ में कुछ नहीं है—सिवाय याद करने के—इसलिए याद करते रहिए—अपने बचपन का अंत, स्कूल के दिनों का अंत, हर उस रिश्ते का अंत जिसमें आप प्रेम महसूस करते थे। अंत से जुड़े रहिए, इंसान बने रहिए।

आओ यार, चलो आने वाले अंत का जश्न मनाते हैं; एक नई शुरुआत करते हैं, कुछ नए लोगों से मुलाक़ात करते हैं।

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