मुझे निरर्थकता की तीखी गंध आ रही है
चर्च, पार्क और बैकेट
रात के क़रीब नौ बजने वाले हैं। पैरों में टहलने की वजह से हल्की-सी कसक उठी हुई है। मैं पार्क के एक कोने पर बैठा हुआ हूँ। इस कोने को जब भी देखता हूँ, मुझे मेरी डायरी की याद आ जाती है।
आज शायद ‘सिल्वर ओक सोसायटी’ में आख़िरी बार इस पार्क के कोने पर बैठकर लिख रहा हूँ। जल्द इस सोसायटी और ग्रेटर नोएडा दोनों को छोड़ दिल्ली के लिए रवाना होना है। कुल डेढ़ साल मैं इस सोसायटी में रहा। इतना सन्नाटा, इतना एकांत कि हर जगह से मुझे मार्केज़ के लेखन की महक आती है। बराबर बँटी हुई ज़मीनों पर, लगभग एक जैसे घरों को देखकर मुझे हमेशा अपने गाँव की ज़मीनों की बंदरबाँट याद आती रही है। सोसायटी के बीच में एक बड़ा-सा पार्क है।
यहाँ बग़ल से गुज़रने वाले हाईवे (यमुना एक्सप्रेस-वे) से रात भर घर की ओर जाने वाली बसों की आवाज़ों में एक अपनेपन का ‘डॉप्लर इफ़ेक्ट’ सुनाई देता है।
सोसायटी के ठीक पीछे लगा हुआ ‘सेंट थॉमस चर्च’ जिसकी बुनियाद पड़ने से लेकर, ईश्वर पड़ने तक का साक्षी रहा हूँ मैं। यह जगह अब पूरी तरह चर्च बन चुकी है। आसमानी रंग के मार्बल से बनी ऊपर की मीनार और उस पर सफ़ेद रंग का क्रॉस, जिस पर चिड़ियों को अक्सर बैठते हुए देखकर लगता है कि मानो ईश्वर की बाँहों पर बैठे ये पक्षी अस्ल में बहरूपिए या गुप्तचर हैं।
चर्च में रविवार को लोगों की भीड़ देखकर मुझे पुराने भुतहे सन्नाटे याद आते हैं। जब वहाँ सिर्फ़ चर्च का बोर्ड और ज़ंग में लिपटा हुआ गेट लगा था। गेट के अंदर एक गार्ड रूम था। गार्ड के कमरे के ऊपर एस्बेस्टस टीन की छत और नीले प्लास्टिक से ढकी हुई खिड़की एक थी। हर शाम गार्ड अपनी हल्के आसमानी रंग की शर्ट (धूप में रंग उड़ गया था) और गाढ़े नीले रंग की पैंट को पहने, एक पीली प्लास्टिक की कुर्सी लेकर बिल्कुल रोड से सटकर बाहर बैठता और भोजपुरी गाने सुनता था। वह गाने सुनता हुआ हर आने-जाने वाले को बड़े ग़ौर से देखता, मानो वह इस इंतिज़ार में था कि ईश्वर कब आएँगे! यह मैं इसलिए भी कह रहा हूँ, क्योंकि उसी दौरान मैंने सैमुअल बैकेट का नाटक ‘वेटिंग फ़ॉर गोदो’ पढ़ा था।
अब जब कभी प्रार्थनाओं में कोरस में गाते हुए लोगों को सुनता हूँ तो मुझे वे सारे भोजपुरी गीत याद आ जाते हैं, जिन्हें वह गार्ड सुना करता था। वे गाने निश्चित रूप से अश्लील और फूहड़ थे, लेकिन उस भारी एकांत में वे सारे गाने दैवीय प्रार्थनाओं से कम नहीं थे।
अब कभी-कभी सोचने का मन करता है कि उस सन्नाटे में जब मैं उस रास्ते से होकर चाय पीने जाया करता था, तो क्या जीसस भी उस गार्ड के साथ भोजपुरी गीत सुनते हुए मुझे देखते रहे होंगे, जैसे नीली जर्सी में गार्ड देखा करता था?
अब भी मैं उसी चर्च के रास्ते चाय पीने जाता हूँ, लेकिन अब गार्ड रूम भी चर्च की तरह ही सुंदर हो गया है, और मुझे नाटक (वेटिंग फ़ॉर गोदो) का अंत मिल गया है।
सपना
वह अपने झूठ को सच बनाती थी, इस तरह कि उसका सच जंगली हो जाता था। वह जंगल कि जिसमें पेड़ नहीं थे, सिर्फ़ पीड़ाएँ थीं… जिसमें अनर्गल बातों के जैसी उग आती थी—हल्की पीली घास। फिर मैं बैठकर क्लोरोफ़िल की अधिकता पर बातें करता था। वह कहती थी, ‘मै अनपढ़ हूँ, यक़ीन करो। सत्य और समय मेरे दुश्मन है, और इस पीड़ा का कोई इलाज नहीं। मैं कितनी ही बार सच बोलते हुए चोटिल हुई हूँ, यह एक लंबे समय तक होता रहा है।’’
मैं हँस देता था, और उसका यक़ीन करते हुए दूसरे जंगल की कहानी पर आ जाता था। वह कहानी जिसके जंगल में पाए जाते थे सारे ईश्वर, और फिर मैं बैठकर नास्तिकता के झरबेर इकट्ठा करता। वह कहती थी, ‘‘ये पेड़ ईश्वर के हैं, इनके फलों में फलित होता है ईश्वर, और इनके पत्तों की तरह ही बिखरे हुए रहते है सारे तर्क। लोग अपना-अपना ईश्वर तोड़ ले जाते हैं, कुचलते हुए इन पत्तों को। तुम वह देखो वे चीड़ के पत्ते हैं, वे प्रेम के पत्ते हैं। यक़ीन करो कि चीड़ पर कोई फल नहीं लगता।’’
उन पत्तों को देखते हुए मुझे लगा कि वह मुझसे दूर बहुत दूर छूट गई है कहीं—घास और ईश्वर वाले जंगलों के बीच में। जहाँ पाए जाते हैं एक आँख वाले इंसान—अपने-अपने कैमरे के साथ।
ग्रीन एप्पल
बाद के दिनों में हमें कुछ लोग हासिल हुए जो असल में रिफ़्यूजी थे, लेकिन उन्हें अपनी यात्रा के विषय में कुछ भी याद नहीं था।
मैं पिछले कुछ महीनों से दिल्ली घूम रहा था। फ़िरोज़ी लकड़ी के दरवाज़े-सी दिखने लगी थी दिल्ली, जिसकी तस्वीर लोगों को अभिभूत कर दे। मैं भी आकर्षण में था, लेकिन मुझे उस फ़िरोज़ी रंग ने अपनी तरफ़ अधिक आकर्षित किया था जो वास्तव में एक विकार था। मैं संवेदनाओं की तस्वीर देख रहा था, इसीलिए कभी भीतर झाँक ही नहीं पाया।
शिमला के एक नाइट हाउस में मैंने वैसा ही एक दरवाज़ा देखा था, जिससे सटकर खड़ा था एक छोटा-सा लड़का। उसने अपनी कमर दरवाज़े पर टिका दी थी या शायद वह अपनी पीठ से दरवाज़े को धकेल रहा था। लेकिन वह दरवाज़े को खोलना नहीं चाहता था। ऐसा लग रहा था कि ज़रा-सा खुलने और पूरा बंद होने वाले एहसास से वह वाक़िफ़ था।
अपने रैखिक चेहरे से आँखे ऊपर करके वह मेरे कैमरे की ओर देख ही रहा था कि अचानक से दरवाज़ा खुल गया, कुछ लोग रज़ाई ओढ़े सो रहे थे। एक शख़्स सबकी आईडी की जानकारी रजिस्टर में नोट कर रहा था और साथ ही पैसे भी गिन रहा था। अंदर पैर रखते ही उसने अचानक से पूरा दरवाज़ा वापस बंद किया और बाहर आ गया। इस बीच उसके चेहरे पर डर की महीन परत दिखने लगी।
मेरे पास कुछ सेब थे—हरे। मेरी इच्छा हुई कि मैं उस बच्चे को पकड़ा दूँ।
मैंने बैग से सेब निकालकर उस लड़के की तरफ़ बढ़ाया। वह कुछ देर हँसते हुए चुप हो गया।
मैं अपनी मूर्खता पर हँसने लगा। मैं उसे सेब बाँट रहा था जिनके पहाड़ी आँगन में फलता होगा सेब का पेड़।
उसके साहस ने थोड़ा-सा दम भरा। उसने मुझसे मेरा कैमरा माँग लिया। मैं ठिठक गया कि यह मामूली-सा लड़का कहीं मेरा कैमरा ख़राब न कर दे। लेकिन मैं वहाँ पहुँचकर सही और ग़लत की ज़िद भूल गया था। मैंने अपना कैमरा ऑन करके उसे दे दिया।
हाथ में कैमरा देख, उसकी ख़ुशी उसके चेहरे पर आकार लेने लगी। उसने तस्वीर खींचने के कई प्रयास किए, बिना इस बात की फ़िक्र किए की तस्वीर कैसी आ रही होगी। अठारह फ़ोटो लगातार खींचने के बाद उसने एक तस्वीर उस फ़िरोज़ी दरवाज़े की खींच ली थी जिसे मैंने क़रीब दो महीने बाद देखा। कुछ रोज़ बाद उस तस्वीर पर एक कविता लिखकर मैंने उसे पोस्टर में तब्दील कर दिया। कविता जिसकी थी उसके चेहरे पर नहीं उभरा था कोई सेब, नहीं उभरा था कोई पहाड़, लेकिन आकार ले रही थी एक ख़ुशी।
एक साधारण उदास कमरा
कमरे के विषय में अगर लिखूँ तो रोशनदान से कुछ रोशनी अब भी बाहर से आ रही है। बाथरूम का दरवाज़ा और लाइट दोनों खुली है, इसलिए बिल्कुल महीन-सी रोशनी कमरे के काले को हल्का पीला किए जा रही है। सारी किताबें मेरे आलस्य से थकी हुई बेतरतीब मेज़ पर पड़ी हुई हैं। जिन्हें आधा पढ़ा है, वे ज़्यादा गालियाँ देती हैं। जिन्हें अभी खोला भी नहीं है, वे शायद मुझे पहचानती ही नहीं। परसो मंडी हाउस से कृष्ण बलदेव वैद का एक नाटक ख़रीदा। आज बहुत मन था पढ़ने का, लेकिन यह मैं झूठ लिख रहा हूँ। किताब का नाम है—‘भूख आग है’।
मैं अपने साथ हो रहे किसी भी इवेंट से दुखी नहीं हूँ, बस उदास हूँ; क्योंकि इन सबसे, मुझसे, मेरे कमरे से, मेरे बिस्तर, मेरी मेज़, मेरी बातों से, मेरे लेखन से, मुझे निरर्थकता की तीखी गंध आ रही है। गंध इतनी तीखी है कि मैं मूर्च्छित अवस्था की तरफ़ बढ़ चला हूँ।
मुझे काफ़्का का लेखन अब ज़्यादा समझ में आ रहा है। ‘मेटामॉरफ़ोसिस’ का एक-एक दृश्य मेरे ज़ेहन में उदाहरण की तरह बस गया है। बहुत दिनों से संगीत में कुछ नया नहीं सुना। पुराने की कलात्मकता बुझी-सी लगती है।