पेट, प्यार और पल्प

लगभग पाँच साल पहले एक सीनियर और फ़ेसबुक से ही परिचित व्यक्ति मिले। उनके साथ हाय-हैलो और चाय-पानी हुआ। उन्होंने थोड़ी ही देर में पूछा, ‘‘किताब कब आ रही है?’’ इस प्रश्न पर मैं भौचक रह गया। मैंने कहा कौन-सी किताब? वह बोले, ‘‘लिखते ‘अच्छा’ हो। काफ़ी मौलिकता है तुम्हारे लिखे में, आदि आदि। किताब तो आनी ही चाहिए।’’ मैं उनकी बातों से सिकुड़ा जा रहा था, क्योंकि इलाहाबाद के दिनों में एक सीनियर ने बताया था कि सबसे मौलिक आदमी; सबसे गधा आदमी ही हो सकता है। ख़ैर, जैसे-तैसे यह बात सँभल गई और बात का टॉपिक बदल गया।

इसके बाद से इस तरह की बातें मैंने कई लोगों से कई लोगों को पूछते-करते देखा है। यह एक रस्मी बात है। अगर साहित्य और लेखन के धंधे का आदमी मिलेगा तो इस तरह की बातें पूछ सकता है। मुझे याद आता है कि पंद्रह-बीस साल पहले ट्रैक्टर कम हुआ करते थे। कुछ ज़्यादा खेत रखने वाले लोग भी ट्रैक्टर नहीं रखते थे, लेकिन जब कोई आस-पास का ले आता था तो उन्हें भी हुलकारता था कि तुम कब ला रहे हो ट्रैक्टर? तुम्हारा कब आ रहा? अरे ले लो। इतनी बड़ी तो खतौनी है, कोई भी एजेंसी फ़ायनेंस कर जाएगी।

इस तरह ही आजकल किताबी योजनाओं से जूझ रहे परिचितों को देखता हूँ। कई बार मैं भी उनकी योजनाओं में शामिल हो जाता हूँ। अरे इतनी तो फ़ॉलोइंग है आपकी। चार-पाँच हज़ार तो यूँ ही बिक जाएगी। मतलब कि फ़ॉलोइंग एक प्रॉपर्टी है। और इस प्रकार मामला एकदम सेट है। मसाला चाहिए—भले ही वह गधे की लीद से बना हो। फ़ॉलोअर्स ख़रीदेंगे। फिर गोबर उठाते हुए, खेत जोतते हुए, भारत सरकार के झंडे के नीचे, कमोड के पीछे, किसी नब्बे साल के बुज़ुर्ग के तकिये के नीचे, किसी तीन साल की वय के सबसे युवा पाठक के हाथ में, लहराती हुई किताब की फ़ोटू भेजेंगे। लेखक आभार-प्रणाम-मुहब्बत लिखकर शेयर करेगा… और यह रवायत चल पड़ेगी।

अब यह रवायत चलती कैसे है, आइए इसे समझते हैं। जब हम किशोर थे तो हमारे इलाक़े में *** क़िस्म का एक लड़का था। वह उस ग़ैर-फ़ेसबुकिया ज़माने में भी बहुत-सी लड़कियों से बात करता था और कइयों से उसके दैहिक संबंध भी थे। हम सोचते थे कि यह इतना करप्ट आदमी है, इसे लड़कियाँ इतना क्यों पसंद करती हैं भला! यह तो किसी से प्यार नहीं करता, बस इसे एक ही काम से मतलब है। फिर एक दिन उसने ही राज़ खोलते हुए बताया, ‘‘लड़कियों को भी यह मालूम होना चाहिए कि तुम इस तरह के हो, तभी वे इस तरह की बातें तुमसे करेंगी। तुम अइसने बड़े आदर्श बालक बने फिरते हो, तुमको सब समझती हैं कि यह इन सब मामलों में है ही नहीं।’’ इस तरह वह ‘इन सब मामलों में’ खुलकर था और उसे इसका फ़ायदा ही होता था।

अब इस बात का लेखकों को मिलने वाली ‘मुहब्बत’ से संयोजन करने के मामले में आप थोड़ा नाक-भौं सिकोड़ सकते हैं, लेकिन इसे यूँ समझना होगा कि लेखकगण ख़ुद को मिली मुहब्बत का इतना प्रचार-प्रसार करते हैं कि इससे उन्हें और मुहब्बत मिलने लगती है। उनके आस-पास इसी क़िस्म की रवायत क़ायम होती है… और लोग किताब ख़रीदते ही उन्हें मुहब्बत की तस्वीर भेजना, अपना प्राथमिक दायित्व समझने लगते हैं।

हालाँकि अभी तक इस तरह की कोई मुहब्बती-तस्वीर नहीं दिखी, जिसमें दीवाल पर नारे लिखे हों—‘‘बेटी ब्याहूँगी वहाँ, फलाने भइया की किताब है जहाँ।’’

एक महिला मित्र ने कुछ दिन पहले बताया कि तमाम शहरों के नाम टारगेट करके बेस्टसेलर किताबें लिखने वाले एक लेखक ने दोस्ती-कूलनेस-ज़मीनी टाइप बातें करके उसे अपनी किताबें भेज दीं। और अब वह कह रहे हैं कि उनकी किताब पर कुछ लिखकर अपनी राय दें। वह कह रही थी कि मुझे कौन जानता है और मेरी राय से इनका क्या होगा? मैंने अनुमान किया और बताया कि तुम्हारी राय से उनको मिलने वाली मुहब्बत के आयाम विस्तृत होंगे।

बेस्टसेलर के शोर के बीच, क्रांतिकारी गतिविधियों में भी होड़ है। सबके पास अपने-अपने क्रांतिकारी इलाक़े हैं। किसी ने सिविल सर्विस के लौंडों को टार्गेट कर लिया है, तो किसी ने सेक्युलर विचार को, किसी ने कॉलेज लाइफ़ के छात्रावासीय प्यार को। कभी-कभी इनके आपसी इलाक़ों में अतिक्रमण भी होता रहता है। अपने आपको संस्था बताने वाला एक सेक्युलर इलाक़े का बेस्टसेलर लेखक, सुबह मुसलमानों पर हो रहे अत्याचार पर छाती पीटता है तो शाम को अपनी किताब पर मिली मुहब्बत-तस्वीर शेयर करता है। ऐसे ही एक लेखक कुछ दिन पहले सड़क बनवाने के लिए धरने पर बैठ गया, फिर वहाँ पंडाल बनवाया, लाइव हुआ, पोस्टें लिखीं और ख़ुद की हो रहीं कथित आलोचनाओं की लिस्ट बनाईं और उन पर पर पोस्टें लिखीं। मामला टनाटन हो गया। सब कुछ वेलडन हो गया।

बेस्टसेलर पल्पकारों में होड़ के एक नए इलाक़े नेटफ्लिक्स, अमेज़न प्राइम, जी-5 जैसे ओटीटी प्लेटफ़ॉर्म्स और स्टोरीटेल, ऑडिबल जैसे ऑडियो प्लेटफ़ॉर्म्स ने भी खोले हैं। अब किसके लिखे पर कितनी सीरीजें बनेंगी, यह उनके मसाले का मानक होगा। इसके लिए बॉलीवुड के उपलब्ध कलाकारों की भैयावरी की पोस्टें लिखने से उन्हें विशेष स्वीकृति मिलती है। पंकज त्रिपाठी और मनोज वाजपेयी अभी सबके/सबसे बड़के भैया हैं।

बॉलीवुड के कलाकारों, साहित्यिक मेगा-आयोजनों, नौकरशाहों, बेस्टसेलर पल्पकारों का सफल कॉकटेल इतना चटख है कि आजकल साहित्य में होने का मतलब सिर्फ़ दो चीजें रह गई हैं—एक : तात्कालिकता में उपजी हर बात को भुनाना, दूसरा : चौड़े होकर उछलकूद मचा-मचाकर अपनी मुहब्बत देने वाली जनता को कनेक्ट रखना। इस मुहब्बत के जज़्बे से ही विभिन्न विधाओं और विद्याओं में अंतर्संबंध स्थापित होते हैं। ख़ुदा करे कि ये जज़्बात यूँ ही बने रहें, ताकि वास्तविक साहित्यिक आकाश में निर्मल स्पेस इनसे अछूता रहे।

पेट और परफ़ॉर्मेंस का सवाल आपको तरकीबें भी सिखाता है। प्रख्यात पल्प लेखक वेद प्रकाश शर्मा ‘द हिंदू’ को दिए गए एक इंटरव्यू में बताते हैं कि कैसे उन्होंने डिटेक्टिव और रोमांटिक अभिरुचियों को पसंद करने वाली जनता को एक साथ अड्रेस किया और डिटेक्टिव-रोमांटिक नॉवेल लिखने लगे। हालाँकि उनके पास अपनी तमाम कथित आलोचनाओं की लिस्ट नहीं थी, जिसके जवाब देकर वे अपने पक्ष में इमोशनल अपील कर सकें, क्योंकि शायद यह फ़ेसबुक पर ही मुमकिन है।

आजकल के लोकप्रिय पल्पकार अपने पक्ष में इमोशनल अपील बनाते हुए एक कोई कथित आलोचक खड़ा करते हैं। फिर अपनी मुहब्बत-पसंद जनता से उनका प्यार माँगते हुए ख़ुद के टिके रहने की घोषणा करते हैं। यह घोषणा कारगर होती है। जनता कनेक्ट होती है और मुहब्बत देते रहने का भरोसा देती है।

इसी तरह यह प्यार-मुहब्बत के वास्ते, पेट का सवाल हल करते हुए पल्प रचे चले जाते हैं। वैसे अभी भी वेद प्रकाश शर्मा के दावे के अनुसार उनका ‘वर्दी वाला गुंडा’ एक ही दिन में पंद्रह लाख प्रतियों के साथ बिका था। कुछ बेहतर आवरणों और कैची नामों वाले फ़ेसबुकिया बेस्टसेलर्स लेखकों को उस रिकॉर्ड तक पहुँचना चाहिए, क्योंकि इनके पास तो बिल्कुल सामने से मुहब्बत पहुँचाती हुई जनता भी है।

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