एक पुरुष की देह को लेकर

बहुत याद करने पर भी और बहुत मूड़ मारने पर भी पिछले दिनों ठीक-ठीक यह याद नहीं आया कि उस दिन हमारे घर में कौन-सा आयोजन था। हाँ, यह ख़ूब याद है कि उसी बरस किसी महीने दादी मरी थीं; पर यह याद नहीं आता कि वह दिन उनका दसवाँ था, तेरहवीं थी, होली थी या बरसी थी…पर उनकी मृत्यु से ही जुड़ा कोई आयोजन था घर में। घर में ढेरों औरतें थीं, जो ख़ुद ही आँगन में जगह-जगह चूल्हे रखकर बड़े-बड़े कई कड़ाह चढ़ाए पकवान बना रही थीं। किसी कड़ाही में कढ़ी बन रही थी, किसी बहुत बड़े भगौने में भात पक रहा था, कहीं दो औरतें टाँग पसारे बड़ी तन्मयता से किसी बहुत बड़े थाल में लड्डू बाँध रही थीं, कहीं कोई खोया घोट रहा था, कहीं पूरी-सब्ज़ी पक रही थी… कोई आठ-दस जनी थीं जो बहुत मगन होकर काम में लगी हुई थीं। घर में ख़ूब बतचल था। कह सकते हैं कि बहुत शोर था, क्योंकि हर कोई कुछ न कुछ बोल रहा था।

मैं ताई के घर में एक तरफ़ चौके के किवाड़ पकड़े खड़ी सब टुकुर-टुकुर देख रही थी, तभी मेरी बुआ जो बैठी-बैठी लड्डू बाँध रही थी, उसका ध्यान मुझ पर गया तो बोली, ‘‘क्या हुआ इतनी उदास क्यों है? जा बाहर जाकर खेल ना…’’ मैं चुप रही तो वह मुझे अपने पास बुलाकर लाड़ से बोली, ‘‘क्या हुआ लड्डू खाएगी?’’ उसने मेरी हथेली पर एक लड्डू रख दिया और बोली कि अरे तेरी तो आँखें भी लाल हैं और चेहरा भी। उसने मेरा हाथ और गाल छूकर देखा और बोली, ‘‘अरे तुझे तो हरारत है, जा अपनी माँ से जाकर दवा को कह।’’ मैंने न में सिर हिला दिया और कहा कि मैं नहीं जाऊँगी घर। वह बोली : ‘‘क्यों नहीं जाएगी?’’ मैंने कहा कि घर जाऊँगी तो मम्मी कोई काम बता देंगी और वापस आने नहीं देंगी। उसने कहा, ‘‘तो ऐसा कर वो उधर सामने के कमरे में भइया सो रहा है, उधर जाकर सो जा… ऐसे घूम मत नहीं तो तेज़ बुख़ार आ जाएगा।’’

मैं किवाड़ खोलकर सामने कमरे में, जहाँ बिल्कुल दरवाज़े के सामने बिस्तर लगा था, उस पर जाकर लिहाफ़ ओढ़कर लेट गई; क्योंकि मुझे हल्की-सी ठंड लग रही थी और एकदम से खड़े-खड़े झुरझुरी-सी छूट रही थी। वहीं बराबर में दीवार की तरफ़ मुँह किए मेरे ताऊ का लड़का भी सो रहा था। मेरी तरफ़ उसकी पीठ थी और मैं दरवाज़े की तरफ़ मुँह करके करवट से लेटी हुई थी। दरवाज़ा मैंने खुला छोड़ दिया ताकि मुझे बाहर के क्रियाकलाप सब दिखाई देते रहें, क्योंकि मुझे वह देखने में बहुत भला लग रहा था और लड्डू तो बिल्कुल मेरे सामने ही बन रहे थे—एक बहुत बड़े-से थाल में। मैं चेहरे के नीचे दोनों हाथ रखे, वह सब देखती रही। तब कोई पंद्रह-बीस मिनट बाद बराबर में लेटा भाई सीधा होकर कुछ देर और लेटा रहा, फिर कोई तीन-चार मिनट बाद वह मेरे बहुत क़रीब आकर बिल्कुल मुझसे चिपक कर लेट गया और अपनी एक बाँह से मुझे आगे से घेर लिया और मेरी पीठ पर अपना मुँह गड़ा दिया…

मुझे तब बहुत अजीब लगा—अचानक से उसका ऐसा बर्ताव, उसका स्पर्श… हालाँकि तब मैं बहुत छोटी थी—पाँच साल की पूरी होकर, मैं छठवें साल में चल रही थी और वह भी कोई बहुत बड़ा नहीं था—यही कोई चौदह-पंद्रह साल का रहा होगा, पर तब उसकी छुअन में वैसा लाड़ नहीं था, जैसा किसी छोटे बच्चे को छूते वक़्त, बाँहों से घेरते वक़्त किसी के मन में, किसी के हाथों में होता है। मेरे साथ वैसा कभी नहीं हुआ था। किसी ने मुझे ऐसे नहीं छुआ था तब तक। उसने मुझे अपनी एक बाँह से बिल्कुल जकड़ लिया था और कान में बहुत धीरे-धीरे कह रहा था कि सीधी होकर लेट जा, पर मैंने नहीं सुना तो बोला सुन न मेरी तरफ़ मुँह कर ले। पर मैंने वैसा कुछ नहीं किया। मैंने उसकी बात अनसुनी कर दी।

मैं वैसे ही करवट लिए लेटी रही, बोली भी नहीं और बात भी नहीं मानी; पर एक चीज़ और अजीब हुई तब। मुझे उसका बर्ताव अटपटा तो लगा और क्यों करता है कोई ऐसा… यह भी नहीं जानते थे तब… पर मेरा उससे छूट कर भागने का मन नहीं किया था। मैं रोई नहीं थी। मुझे डर भी नहीं लगा था। मैं असहज भी नहीं हुई थी। मुझे बस कुछ नया-सा लगा था। मुझे कुछ बुरा नहीं लगा था, जबकि कितनी छोटी थी तब मैं… मैं लेटी रही थी, पर मुड़ी नहीं थी। मेरे भीतर संकोच बहुत था। उस दिन मैंने उसका कहा नहीं किया।

इसके बाद वह ज़रा-सा उठा और मुझे बाँह पकड़कर सीधा कर लिया और कान में फुसफुसाया, ‘‘अब ऐसे ही लेटी रहना, हिलना भी मत।’’ उसने फ्राक उठा कर मेरे कच्छे को घुटनों तक खिसका दिया। मैं उसका हाथ पकड़ने की कोशिश करती ही रही, पर उसने मेरा हाथ झटक दिया… फिर जाने क्या समझ आया उसे, उसने पूरा न उतारकर घुटनों तक ही रहने दिया और अपनी पैंट खोलने लगा। उसने अपना सब कुछ उतार दिया और मेरी टाँगों में अपनी टाँगें बिल्कुल सटा कर मुझसे चिपक कर लेट गया। उसने मेरा मुँह भी अपनी तरफ़ कर लिया।

हालाँकि वह ज़्यादा कुछ जानता नहीं था, क्योंकि वह ख़ुद ही बहुत बड़ा नहीं था। या शायद जानता भी होगा तो उसे यह ख़याल रहा होगा कि बहुत से लोग आस-पास हैं, किसी ने देख लिया तो बदनामी होगी और वबाल हो जाएगा… इसलिए जो करना है, सावधानी से करना है। इसी कारण वह सब कुछ करने के बाद बिल्कुल दम साधे लेटा रहा। साँस तो मेरी भी अटक गई थी, पर जो हुआ था और हो रहा था; वह मुझे बुरा लगने की बजाय भला लग रहा था।

आज भले ही कोई मुझे इस बात पर गाली दे सकता है कि ये क्या वाहियात लिखा है, पर लिखा है तो लिखा है और लिखने का कारण कहीं न कहीं यह भी रहा है कि यह सब मुझ पर बीता है। मैंने इसे जिया है और मैं सोचती रही हूँ कि इतनी छोटी उम्र में किन्हीं सौ दो सौ पाँच सौ लड़कियों में से एक लड़की ऐसी भी हो सकती है कभी! हाँ, लेकिन ऐसी लड़की अपवाद ही हो सकती है। अधिकतर लड़कियों के साथ ऐसा नहीं होता जो मेरे साथ हुआ। मैं जब भी उस घटना के बारे में सोचती हूँ तो मुझे ख़ुद ही बहुत अचरज होता है—उस लड़के पर नहीं, अपने आप पर कि क्या इतनी छोटी उम्र में जाग सकती है किसी लड़की के भीतर की औरत और यदि ऐसा हो जाए तो क्या उसके मन में भी किसी पुरुष को लेकर देह को लेकर ठीक वैसी ही भावनाएँ जाग सकती हैं, जैसी एक जवान स्त्री में। अपने आपको सभ्य कहने वाले मनुष्य अगर इसे पढ़ें तो क्या सोचेंगे, पर जिसके जीवन में ख़ुद ही ऐसी घटना घट चुकी हो, वह उससे कैसे बचे। उसे हैरत ही होगी, कभी ख़याल तो आएगा ही, जैसे मुझे आता रहा है—कितनी ही बार—कि क्या देह की चाहत इतनी बड़ी और इतनी क़ुदरती है कि उसके लिए उम्र कोई मायने ही नहीं रखती?

मुझे याद आता है कि मैं कुछ साल पहले एक दुपहर अपने ही ख़ाली घर में नंगी लेटी हुई थी—आँखें बंद किए हुए। मुझे नहीं पता वह कब आया था और कबसे मुझे कहीं छिपकर देखता रहा था और फिर अचानक से सामने आकर खड़ा हो गया था और एकदम से बिल्कुल क़रीब आकर मुझ पर झुक कर मुझे ताकता ही रहा था। मैं उसे देख हड़बड़ा कर उठ बैठी थी और कहा था कि तुम यहाँ क्या कर रहे हो, निकल जाओ यहाँ से… इसके बाद उसके चेहरे के भाव कैसे बदल गए थे! उसने कुछ कहा भी था कुछ ऐसा कि आओ एक बार कर लें… मैं बिल्कुल ठहर-सी गई थी—कुछ पल को—कि ये क्या बोल रहा है—इतना छोटा सिर्फ़ चार-पाँच साल का बच्चा था वह पड़ोस का जो अक्सर खेलने घर आ जाया करता था, पर उस वक़्त पर जब उसने वही बात दुबारा से कही तो मैं चादर लपेट उसे बाँह से पकड़ दरवाजे के बाहर छोड़ आई और भीतर से किवाड़ भिड़ा कर दरवाज़े से ही टिक कर खड़ी देर तक शर्मिंदा होती रही। इसके बाद कई दिनों तक मेरे भीतर उमड़ती शर्मिंदगी की कोई सीमा ही नहीं रही और मैं अचंभों के पार जाने लगी।

पिछले दिनों अचानक मुझे यह घटना याद आई तो अपनी ही वह पाँच साल की नन्ही काया भी याद आई जो उस रोज़ अपने ही खानदान के अपने ही किसी सगे की टाँगों के नीचे दबी एक अजब ही सुख का अनुभव करती रही, जबकि तब तक न तो मुझे अपने किसी रिश्ते की ठीक-ठीक समझ थी और न ही उस वक़्त जो हुआ, जो हो रहा था उसके कार्य-कारण का मुझे कुछ भी पता था। वह सहज डर जो ऐसे हालातों में इस उम्र के बच्चों के अंदर होता है कि ये गंदा काम है कि यहाँ से छूटकर भागना चाहिए… वह भी मेरे भीतर दूर-दूर तक नहीं था।

हाँ, एक डर जो उस दिन मेरे अंदर अचानक कौंध गया था। वह यह था कि कहीं मम्मी तो नहीं आ जाएँगी, क्योंकि मेरी माँ ने उस उम्र तक ही मुझे घुड़कना और आँखों से ही अपनी बात मनवाना सीख लिखा था और मैं उनके चेहरे के भाव पढ़ना और उनके मुताबिक़ चलना सीख गई थी। इसलिए अचानक से वही बात दिमाग़ में आई तो मैंने हाथों से उसे दूर धकेल दिया। उसे ऐसी उम्मीद नहीं थी मुझसे, क्योंकि अब तक कोई दो-तीन मिनट हो गए थे वैसे ही… सो वह एकदम से चौंक गया और मैं फिर से अपनी कच्छी ऊपर खिसकाकर उसकी तरफ़ पीठ करके लेट गई और बाहर कमरे से बाहर देखने लगी…

मैं भागी अब भी नहीं थी उठकर, बल्कि भागने की इच्छा ही नहीं हुई थी…

लोग अब भी उसी तरह कामों में लगे हुए थे। किसी को नहीं पता था कि सामने वाले कमरे में क्या हुआ था। मैं पलट कर लेटी यह देख रही थी कि मम्मी तो नहीं हैं आस-पास। पर माँ वहाँ कहीं नहीं थीं। वह मेरे बराबर में लेटा जाने क्या सोचता रहा था—कुछ दो मिनट तक… फिर उसने ज़रा-सा उठकर मुझे सीधा लिटाकर मुझे नंगा कर दिया था। उसने मेरा मुँह अपनी तरफ़ कर लिया और बहुत धीरे से कान के पास मुँह लाकर बोला, ‘‘पलट क्यों जाती है तू बार-बार?’’ वह पहले की तरह ही लेट गया और मेरे भीतर एक आदिम इच्छा जाग उठी। माँ का ख़याल कुछ पल के लिए दिमाग़ से बिल्कुल निकल गया और मन किया कि ये अगर बिल्कुल सीधा लेट जाए तो इसके ऊपर आकर लेट जाऊँ और आँखें मूँदकर बस लेटी ही रहूँ… पर वह ख़याल कोई आधे से एक मिनट तक हावी रहा, फिर जैसे दिमाग़ में चढ़ा था वैसे ही उतर गया। मैं वैसा कुछ नहीं कर पाई थी, बस वैसा सोच कर रह गई… पर जो था जैसा था जितना था अच्छा लग रहा था…

इसके ठीक अगले पल ही मुझे मेरी माँ की आवाज़ सुनाई पड़ी। मुझे लगा कि जैसे वह उधर ही आ रही हैं—मेरे बारे में सबसे पूछती हुईं और आते ही उन्होंने सब कुछ को उलट दिया है… इसलिए दूसरी बार जैसे ही मुझे माँ का ख़याल आया तो मैं उठकर बैठ गई और कपड़े ठीक कर वहाँ से उठकर चली आई। उसने भी मुझे जाने दिया, रोका नहीं। पर मैं सिर्फ़ माँ के डर से उठ आई थी, वैसे इच्छा नहीं हुई थी मेरी और क्यों नहीं हुई थी, मुझे बुरा या ख़राब क्यों नहीं लगा था… ये प्रश्न बाद के सालों में जब समझदारी आई तो मेरे लिए विचारणीय बने रहे—बहुत वक़्त तक। पर उस दिन ऐसा पहली और आख़िरी बार हुआ था, फिर वैसा कभी नहीं हुआ।

हाँ, यह ज़रूर हुआ था कि इस घटना के कोई एक-डेढ़ साल बाद वह परिवार की ही किसी दूसरी लड़की के साथ वैसा ही कुछ करते पाया गया था। तब वह लड़की रो रही थी और लड़की की माँ ने वैसा कुछ होते देख लिया था। उस बात पर घर में बहुत कुहराम हुआ था। सबको पता चल गया था कि उसने घर की एक छोटी-सी लड़की के साथ वैसी हरकत की। इस घटना के बाद यह ख़बर आग की तरह फैल रही थी। इसलिए यह मेरी माँ तक भी पहुँची। उस रात वह चूल्हे के आगे बैठी रोटियाँ बना रही थीं और मैं उनके ही पास बैठी थी, जब उन्होंने मेरी तरफ़ देखकर रोटी बनाना छोड़ दिया और मेरी बाँह पकड़ कर कहा, ‘‘तू भी तो उस घर में बहुत जाती रही है न… तेरे साथ तो उसने कभी ऐसी हरकत करने की कोशिश नहीं की? अगर वो या कोई भी तुझसे कभी कुछ ऐसा कहे तो सीधे मुझे आकर बताना।’’ मैंने हाँ में सिर हिला दिया और उन्हें यह भी कहा कि उसने मेरे साथ ऐसा कभी नहीं किया है। अगले पल यह भी दिमाग़ में आया कि झूठ क्यों बोला मैंने! नहीं बोलना था। क्या सब बता दूँ मम्मी को… आख़िर बाल-मन ही था और झूठ बोलना आता ही नहीं था। झूठ बोलते थे तो लगता था कि झूठ पकड़ लिया जाएगा… जाने क्या सोचकर यह रुकना हुआ।

बाद के दिनों में जब मैं बड़ी हुई और वह भी बड़ा हुआ, हम आपस में सिर्फ़ कजिन नहीं रहे, बल्कि बहुत अच्छे दोस्त भी रहे। मैं सालों तक उसके घर जाती रही। हम साथ खाते थे, बोलते थे, बैठते थे, यहाँ तक कि एक दूसरे के साथ लेटे भी रहते थे। हम बहुत बार ऐसे भी मिले कि घर में घंटों तक कोई और नहीं हुआ; पर मैंने फिर कभी उसकी आँखों में, उसकी बातों में, उसके हाव-भाव में वैसा कुछ कभी नहीं देखा और न ही हमारे बीच कभी जो हुआ था उसकी कोई झलक तक मैं उसमें देख सकी। हम जैसे-जैसे बड़े हुए, उसने मुझे प्यार और सम्मान ही दिया और वैसा ही मेरा भी मन रहा उसके लिए। मैंने भी बड़े होकर कभी यह नहीं चाहा कि हमारे बीच वैसा कुछ दुबारा हो, बार-बार हो या हमेशा ही हो…

वह मानो सब कुछ भूल गया, जैसे कोई पन्ना किसी किताब से फाड़ कर फेंक दिया गया हो या इस तरह कि जैसे वह उस किताब का हिस्सा कभी था ही नहीं। इस विस्मरण ने वैसे मुझे तसल्ली और ख़ुशी ही दी।

लेकिन यह सब कुछ कल्पना या सपना नहीं था। इसलिए मुझे यह सब कुछ समय-समय पर हैरान करता रहा। मुझे हर बार यही लगा कि दुनिया भले ही कहती रहे कि औरत को समझना बहुत जटिल है, उसको कोई जान नहीं पाया अब तक… पर मेरे लिए पुरुष का ऐसा मन भी कम बड़ा रहस्य नहीं रहा, कम बड़ा आश्चर्य नहीं रहा है कि कोई पुरुष ऐसा कुछ करने और ऐसा कुछ होने के बाद कभी इस तरह भी भूल सकता है कि उसकी उसकी याददाश्त उसके दिमाग़ से वैसा करना-होना बिल्कुल ग़ायब ही हो जाए… हालाँकि मैं अब यक़ीन कर लेती हूँ, मान लेती हूँ कि ऐसा भी हो सकता है… होता ही है… बहुत बार होता है…