क्या ज़िंदगी प्रेम का लंबा इंतज़ार है?
कविता और प्रेम—दो ऐसी चीज़ें हैं, जहाँ मनुष्य होने का मुझे बोध होता है।
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कविता लिखना कोई बड़ा काम नहीं, मगर बटन लगाना भी बड़ा काम नहीं। हाँ, उसके बिना पैंट-क़मीज़ बेकार होते हैं।
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क्या यही सच है कॉमरेड कि विचार और क्रिया में दूरी हमेशा बनी रहती है?
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आशा करना मज़ाक़ है,
फिर भी मैं आशा करता हूँ।
इस तरह जीना शर्मनाक है,
फिर भी मैं जीवित रहता हूँ।
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मुझे किसी को उदास करने का हक़ नहीं, हालाँकि ऐसे हालात में ख़ुश रहना बेईमानी है।
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सवाल यह नहीं कि सुंदर कौन है। सवाल यह है कि हम सुंदर किसे मानते हैं।
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हम पढ़े-लिखे युवक फ़िल्म की उन अभिनेत्रियों को कहीं-न-कहीं सौंदर्य का प्रतीक मान बैठे हैं जो हमारे जीवन के बाहर हैं।
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हम विचारों के स्तर पर जिससे घृणा करते हैं, भावनाओं के स्तर पर उसी से प्यार करते हैं।
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भावनाएँ अस्तित्व की निकटतम अभिव्यक्ति हैं।
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हमें कैसी औरत चाहिए? निश्चय ही उसे मित्र होना चाहिए।
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हमें ग़ुलाम औरत नहीं चाहिए। वह देखने में व्यक्ति होनी चाहिए, स्टाइल नहीं।
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लगता है, भीतर ही भीतर कोई निर्णय ले रहा हूँ। दुःखों के भीतर से और दुखी होने का निर्णय—ऐसा लगता है।
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किसी भी व्यक्ति द्वारा किसी दूसरे व्यक्ति को चाहा जाना अपराध नहीं है। गैर-ज़िम्मेवारी और झूठ अपराध है।
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किसी का मूल्यांकन करते वक़्त हमें अपने दृष्टिकोण का भी मूल्यांकन करना चाहिए।
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यह पंगु, बेहूदा, अकर्मण्य जीवन मौत से बदतर है।
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मैं दोस्तों से अलग होता हूँ,
एक टूटी हुई पत्ती की तरह।
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कितना गहरा डिप्रेशन है। लगता है मेरा मस्तिष्क किन्हीं सख़्त पंजों द्वारा दबाकर छोटा और लहूलुहान कर दिया गया है।
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यह ख़त्म होने की, धीरे-धीरे बेलौस-बेपनाह होते जाने की, धड़कनें बंद कर देने वाले इंतज़ार की सीमा कहाँ ख़त्म होती है? क्या ज़िंदगी प्रेम का लंबा इंतज़ार है?
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नक़ली ज़िंदगी, झूठ, ख़ुशी… ये सब हमारी औरत की शोभा हैं।
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सारे अनुभव बताते हैं कि आदमी को दो जून पेट भरने का इंतज़ाम करना चाहिए—और बातें बाद में आती हैं।
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समाज के बिना एक व्यक्ति कुछ नहीं है। वह बोल नहीं सकता, वह मुस्कुरा नहीं सकता, वह सूँघ नहीं सकता, वह आदमी नहीं बन सकता।
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मुझे इसके लिए दंडित किया जाना चाहिए कि एक घृणापूर्ण दंभ के अलावा मेरे पास कुछ देने को नहीं रह गया है।
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सामाजिक चेतना सामाजिक संघर्षों में से उपजती है।
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व्यक्तिगत समस्याओं से घिरे रहने पर सामाजिक चेतना या सामाजिक महत्त्व की कोई चीज़ उत्पादित करना मुमकिन नहीं।
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व्यक्तिगत समस्याएँ जहाँ तक सामाजिक हैं, सामाजिक समस्याओं के साथ ही हल हो सकती हैं। अतः व्यक्तिगत रूप से उन्हें हल करने के भ्रम का पर्दाफ़ाश किया जाना चाहिए ताकि व्यक्ति अपनी भूमिका स्पष्ट रूप से समझ सके और समाज का निर्णायक अंग बन सके।
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गोरख पांडेय के यहाँ प्रस्तुत कथ्य प्रोफ़ेसर सलिल मिश्र के सौजन्य से ‘तिरछी स्पेलिंग’ और ‘समालोचन’ पर प्रकाशित उनकी डायरी से चुने गए हैं। गोरख पांडेय की प्रसिद्ध और प्रतिनिधि कविताएँ पढ़ने के लिए यहाँ देखें : गोरख पांडेय का रचना-संसार