‘हँसो पर चुटकुलों से बचो, उनमें शब्द हैं’

रघुवीर सहाय │ स्रोत : गूगल

पीले और बसंती के बीच फ़र्क़ न कर पाना एक तरह की आलोचना है, जो पीला रंग बसंती कहकर बेचने वाले पंसारियों ने हमारे ऊपर थोप दी है।

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इस सभ्यता में पैदल आदमियों के संगठित समूह की कल्पना नहीं, भीड़ की कल्पना है।

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अगर कवि की कोई यात्रा हो सकती है तो वह अवश्य ही किसी ऐसी जगह जाने की होगी जिसको वह जानता नहीं।

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संगठित राजनीति और रचना में तनाव का रिश्ता होना चाहिए और सत्ता और रचना में भी तनाव का रिश्ता होना चाहिए।

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कविता एक बनाई हुई चीज़ है, इस बात को बिल्कुल खुले दिल से और सारा गँवारपन छोड़ करके मानना चाहिए।

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गद्य लिखना भाषा को सार्वजनिक बनाते जाना है।

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किसी भी आदमी को कविता की जाँच के लिए कविता में दी गई शर्तों के अलावा किन्ही शर्तों की इजाज़त नहीं दी जा सकती।

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कविता के संसार में कोई बड़ा परिवर्तन समाज के संसार में उतने ही बड़े प्रयत्न के बिना संभव नहीं है।

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कविता… जीने का उद्देश्य बता नहीं देती। वह स्वयं उद्देश्य बन जाती है।

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हर रचना अपने व्यक्तित्व को बिखरने से बचाने का प्रयत्न है।

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राज्य और व्यक्ति के संबंध को अधिकाधिक समझना आधुनिक संवेदना की शर्त है।

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इस सामाजिक व्यवस्था में ही नहीं, एक जीवंत और उल्लसित भावी व्यवस्था में भी ज्ञान का माध्यम सदा कष्ट ही रहेगा।

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राजनीति केवल कार्यकुशलता नहीं है। निरी कार्यकुशलता यथास्थिति का दूसरा नाम है और यह नाम कम से कम शोषित, बुभिक्षित, अपमानित समाज में तो राजनीति का नाम नहीं है।

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सेना किसी राष्ट्र के आंतरिक शौर्य का कुल जमा हासिल होती है, उस शौर्य से अपने राष्ट्र को ‘सबक़’ नहीं सिखाया जाता।

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जो लोग इस भ्रम में पड़े रहते हैं कि वे सुरक्षित हैं क्योंकि वे किसी मान्यता का पक्ष नहीं ले रहे, किसी का विरोध नहीं कर रहे, उनका पक्ष-विपक्ष नहीं है और उनका कोई अपना विचार नहीं है, वे समृद्धि की कल्पना में खोए हुए हैं।

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अपनी एक मूर्ति बनाता हूँ और ढहाता हूँ और आप कहते है कि कविता की है।

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मेरा डर मेरा सच एक आश्चर्य है।

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मुझे पाने दो पहले ऐसी बोली जिसके दो अर्थ न हों।

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इस लज्जित और पराजित युग में कहीं से ले आओ वह दिमाग़ जो ख़ुशामद आदतन नहीं करता।

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जब से भारतीय राजनीति में प्रतिद्वंद्विता का नया तरीक़ा शुरू हुआ है, राजनीति की शक्ल ही बदल गई है। नया तरीक़ा यह है कि राजनीति विकल्प नहीं खोजती है, बदल खोजती है।

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बड़े राष्ट्र की पहचान यही है कि अपने समाजों में साथ-साथ रहने-पहनने का चाव और स्वीकारने-अस्वीकारने का माद्दा जगाता है।

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फूल को शक्ति के संसार में धकेलकर प्रवेश करने वाली संस्कृति का एक चिह्न गुलाब का फूल है। इस धक्के में जिस फूल को चोट आई है, वह गेंदा है।

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यात्रा-साहित्य खोज और विश्लेषण से जुड़ा है। यह लेखक के ऊपर निर्भर करता है कि वह अपनी यात्राओं में किन चीज़ों को महत्त्व देता है।

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कहानी लिखना केवल कहानी ही लिखना नहीं है, गद्य लिखना भी है।

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गद्य को तोड़ने और बनाने का अपना एक अलग मज़ा है—मैंने पाया कि वह भी उतना ही तृप्तिकर है, बल्कि कुछ अधिक ही है; क्योंकि उसे जितना तोड़ो वह उतना ही सार्वजनिक बनता जाता है।

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साहित्य की विधाओं के अलग-अलग ख़ेमे बनाकर रहना लेखक को और भी असहाय करेगा। कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, निबंध इनमें क्या भेद है; यह आज अप्रासंगिक है।

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कविता बहुत कुछ एक अनुशासन है : समाज और देश और संसार की हमारी चेतना हमारे कवि के लिए व्यर्थ है, यदि अनुभव के क्षण को वह शेष अनुभव से संपृक्त न कर सका।

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ललित निबंध में लेखक वर्तमान से भविष्य में और भविष्य से अतीत में आता-जाता रहे तो निबंध के आयाम बनते हैं और बहुधा शैली और उसकी शोभा का इस विधा में विशेष महत्त्व हो जाता है।

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बच्चे की ज़िंदगी एक लंबी ज़िंदगी है। उसमें एक किताब आकर चली नहीं जानी चाहिए।

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नाटक मनुष्य के जन्म के साथ उत्पन्न हुआ है। जंगल में रहने वाले, गूँ-गाँ ही कर सकने वाले प्रागैतिहासिक मनुष्य, एक-दूसरे से हाथ-पैर डुलाकर, आँखें घुमा-फिराकर बातें करते थे। यहीं से नाटक का जन्म होता है।

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आज़ादी दो गुटों में से किसी एक की ग़ुलामी से मिलती है।

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हँसो पर चुटकुलों से बचो, उनमें शब्द हैं।

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हत्या की संस्कृति में प्रेम नहीं होता है।

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सावधान, अपनी हत्या का उसे एकमात्र साक्षी मत बनने दो।

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एकमात्र साक्षी जो होगा वह जल्दी ही मार दिया जाएगा।

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हम तो सारा का सारा लेंगे जीवन, ‘कम से कम’ वाली बात न हमसे कहिए।

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पानी का स्वरूप ही शीतल है।

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मन में पानी के अनेक संस्मरण हैं।

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सुकवि की मुश्किल को कौन समझे, सुकवि की मुश्किल। सुकवि की मुश्किल। किसी ने उनसे नहीं कहा था कि आइए आप काव्य रचिए।

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हमारी हिंदी एक दुहाजू की नई बीवी है—बहुत बोलने वाली बहुत खाने वाली बहुत सोने वाली।

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एक रंग होता है नीला और एक वह जो तेरी देह पर नीला होता है।

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देखो वृक्ष को देखो वह कुछ कर रहा है।
किताबी होगा कवि जो कहेगा कि हाय पत्ता झर रहा है।

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चेहरा कितनी विकट चीज़ है जैसे-जैसे उम्र गुज़रती है वह या तो एक दोस्त होता जाता है या तो दुश्मन।

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अगर चेहरे गढ़ने हों तो अत्याचारी के चेहरे खोजो अत्याचार के नहीं।

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लोग भूल गए हैं एक तरह के डर को जिसका कुछ उपाय था। एक और तरह का डर अब वे जानते हैं जिसका कारण भी नहीं पता।

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लोग भूल जाते हैं दहशत जो लिख गया कोई किताब में।

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आतंक कहाँ जा छिपा भागकर जीवन से
जो कविता की पीड़ा में अब दिख नहीं रहा?
हत्यारों के क्या लेखक साझीदार हुए।
जो कविता हम सबको लाचार बनाती है?

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किसी एक व्यक्ति से उसके एकांत में कोई ईमानदार बात सुनने की आशा भी करो तो अकेला नहीं मिलता है।

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यात्राएँ अब भी हो सकती हैं इसी व्यर्थ जीवन में।

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दे दिया जाता हूँ।

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यहाँ प्रस्तुत उद्धरण ‘रघुवीर सहाय संचयिता’ (संपादक : कृष्ण कुमार, राजकमल प्रकाशन, संस्करण : 2003), ‘लिखने का कारण’ (राजपाल एण्ड सन्ज़, संस्करण : 2003), ‘अर्थात्’ (राजकमल प्रकाशन, संस्करण : 1994), ‘एक समय था’ (राजकमल प्रकाशन, संस्करण : 1995), ‘प्रतिनिधि कविताएँ : रघुवीर सहाय’ (संपादक : सुरेश शर्मा, राजकमल प्रकाशन, संस्करण : 1994) और ‘रघुवीर सहाय रचनावली’ (संपादक : सुरेश शर्मा, राजकमल प्रकाशन, संस्करण : 2000) से चुने गए हैं। रघुवीर सहाय की प्रतिनिधि और प्रसिद्ध कविताएँ यहाँ पढ़ें : रघुवीर सहाय का रचना-संसार और उन पर एक लेख यहाँ : र. स. के लिए